RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
श्री शिवपूजन सहायबीसवीं शती के प्रथम चरण में जिन हिंदी साहित्य-प्रेमी महानुभावों का आविर्भाव हुआ, उनमें कवियों और उपन्यास लेखकों का विवरण तो हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में मिलता है, किंतु उस समय के समर्पित पत्रकारों और हिंदी भाषा तथा साहित्य के विविध पक्षों से जुड़े लेखकों का वर्णन उपलब्ध नहीं है। यह आश्चर्य और खेद का विषय है कि आचार्य शिवपूजन सहाय जैसे कर्मठ पत्रकार, साहित्य-सेवी और राष्ट्रभाषा के उन्नायक के प्रदेय की कोई उपयुक्त चर्चा भी नहीं है। सहायजी के जीवन-काल में ही उनकी रचनावली बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना द्वारा उनके ही संपादकत्व में सन् १९५६-१९५९ में चार भागों में प्रकाशित हो गई थी। चार खंडों में प्रकाशित इस रचनावली को देखकर लेखक की प्रतिभा और कर्मठता का जैसा रूप उभरता है, वह चकित करनेवाला है। किंतु इस शती के तीसरे-चौथे चरण में साहित्य का इतिहास लिखनेवाले सपादकों का ध्यान श्री सहाय की साहित्य-सेवा की ओर नहीं गया। किमाश्चर्यं अतः परम्। श्री शिवपूजन सहाय ने हिंदी भाषा और साहित्य के किसी एक विशेष क्षेत्र या एक विधा में काम नहीं किया। उनका कार्यक्षेत्र व्यापक था। वे समाज-सुधार, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय जागरण के तंत्रों से जुड़े हुए थे। उन्होंने साहित्य की विधाओं में भी किसी एक विधा तक अपने को सीमित नहीं किया। उपन्यास, कहानी, निबंध, जीवनी, संस्मरण, बाल साहित्य तथा व्यंग्य-विनोद आदि विविध विधाओं पर लेखनी चलाकर उन्होंने साहित्य-सेवा का प्रशंसनीय कार्य किया। उनका रचनात्मक साहित्य गुणवत्ता और परिमाण, दोनों दृष्टियों से बहुआयामी है। उनके दृष्टि प्रसार को देखकर आश्चर्य होता है कि सत्तर वर्ष की आयु तक उन्होंने साहित्य, संस्कृति, भाषा, समाज-सुधार, धर्म और राष्ट्रीय समस्याओं पर शताधिक लेख लिखे तथा पचास से अधिक भाषण दिए। उपन्यास के क्षेत्र में एक ही उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ लिखकर अपना स्वतंत्र स्थान बनाया। भोजपुर जनपद के जनजीवन पर ऐसी मौलिक रचना न तो उनसे पहले किसी ने लिखी थी, और न ही उनके बाद कोई अन्य लेखक देहात का वैसा सजीव चित्र अंकित कर सका। शिवपूजन बाबू ने अपने शैशव में क्या करने और क्या बनने की बात सोची होगी, यह तो कोई नहीं जानता; किंतु उनके कार्यकलापों को देखकर दो मुद्दे उभरकर सामने आते हैं : पहला मुददा जीविका से संबंध रखता है। मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करते ही अध्यापक-वृत्ति स्वीकार करना उनकी प्रमुख स्वेच्छावृत्ति नहीं थी। युवावस्था और प्रौढ़ावस्था में उन्होंने अध्यापन का कार्य किया अवश्य। छपरा के राजेंद्र कॉलेज में दस वर्ष अध्यापक के रूप में कार्य करना भी शायद उन्होंने जीविका के ही कारण स्वीकार किया था। लेकिन इस अध्यापन को उन्होंने साहित्य से जोड़कर जीवंत बनाए रखा। यदि बाबू शिवपूजन सहाय के जीवनक्रम को ध्यान में रखकर उनके कार्यकलाप पर दृष्टि निक्षेप किया जाए तो हम उन्हें प्रारंभिक जीवन में एक पत्रकार के रूप में देखते हैं। विद्यार्थी जीवन से ही उनकी लेखन में गहरी रुचि हो गई थी और बिहार की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख छपने लगे थे। मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत उन्होंने सन् १९१४ में आरा के टाउन स्कूल में अध्यापन-कार्य प्रारंभ किया। चूँकि यह स्कूल सरकारी था, अतः महात्मा गांधी के सन् १९२० के असहयोग आंदोलन के आह्वान से प्रभावित होकर उन्होंने इस स्कूल से त्याग-पत्र देकर आरा के ‘राष्ट्रीय विद्यालय’ में अध्यापन का कार्य स्वीकार कर लिया। एक वर्ष का उनका यह कार्यकाल जीविकोपार्जन में प्रवेश का काल था। इस काल में भी उनकी मूल प्रवृत्ति अंतर्मुखी होकर उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में जाने के लिए प्रेरित करती रही। फलतः सन् १९२१ में आरा से प्रकाशित होनेवाले ‘मारवाड़ी सुधार’ नामक मासिक पत्र में संपादन का काम किया। इस पत्र में कार्य करते समय उनकी साहित्यिक अभिरुचि को पूर्ण संतोष नहीं मिला। अतः सन् १९२३ में कलकत्ता जाकर ‘मतवाला मंडल’ में शामिल हो गए। हिंदी जगत् में जिसे आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी जाती है, वह किसी अंचल विशेष की सभ्यता, संस्कृति, बोलचाल, भाषा और रहन-सहन पर निर्भर होती है। श्री सहाय का सन् १९२६ में प्रकाशित ‘देहाती दुनिया’ शीर्षक उपन्यास इस परिभाषा पर सौ फीसदी खरा उतरता है। इसका प्रकाशन प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ से पहले हुआ था। अतः प्रेमचंद का प्रभाव खोजने का प्रयास करना व्यर्थ है। इस उपन्यास में ठेठ देहात का औपन्यासिक चित्र उकेरा गया है। इस मंडल को संचालित करनेवाले मिर्जापुर के महादेव प्रसाद सेठ ने ‘मतवाला’ का प्रकाशन कलकत्ता से प्रारंभ किया था। उस मंडल में नवजादिक लाल श्रीवास्तव, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और सूर्यकांत त्रिपाठी सदस्य के रूप में परामर्शदाता थे। शिवपूजन सहाय के जुड़ जाने से यह पंच परमेश्वर का मतवाला हिंदी जगत् में प्रसिद्ध हो गया। खेद और आश्चर्य का विषय है कि श्री शिवपूजन सहाय का नाम भी उनकी सार्थक सेवाओं के बावजूद ‘मतवाला’ संदर्भ में पंचों के साथ उभरकर सामने नहीं आया। कलकत्ता प्रवास में उन्होंने ‘मतवाला’ के अतिरिक्त ‘आदर्श’, ‘मौजी’, ‘उपन्यास तरंग’, ‘समन्वय’ आदि कई पत्रों के संपादन में योग दिया। इस प्रकार इनके मन में बसा हुआ पत्रकारिता प्रेम, स्फुलिंग से प्रकाश-पुंज बन गया। इस प्रकाश-पुंज ने ही इन्हें लखनऊ से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ में प्रेमचंद के साथ कुछ समय तक काम करने का सुयोग प्राप्त कराया था। उन्होंने मासिक पत्रिका को विचार की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का मंत्र मानकर सुल्तानगंज (भागलपुर) से ‘गंगा’ नामक मासिक पत्रिका के संपादन का कार्यभार सँभाला। यह पत्रिका साहित्य, संस्कृति, धर्म और अध्यात्म की उच्चस्तरीय पत्रिका थी। श्री सहाय ने पत्रकारिता के साथ हिंदी साहित्य की पुस्तकों के मुद्रण, संपादन और प्रकाशन के कार्य में भी स्वस्थ परंपरा की नींव डाली। श्री रामलोचन शरण की प्रकाशन संस्था पुस्तक भंडार (लहेरिया सराय, दरभंगा) का कार्यभार सँभालकर वहाँ से ‘बालक’ नामक एक मासिक-पत्र किशोरवय के बालकों के निमित्त प्रकाशित किया। वैसा छात्रोपयोगी पत्र आज भी हिंदी में नहीं है। काशी में मुद्रण-कार्य के निमित्त अल्पकालीन प्रवास के दिनों में उनका परिचय सर्वश्री प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और विनोद शंकर व्यास से हो गया था। उनके सहयोग से उन्होंने ‘जागरण’ पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। किंतु उसकी मुद्रण आदि की व्यवस्था ठीक से न कर पाने के कारण उसका दायित्व विनोद शंकर व्यास को सौंपकर वे पटना चले गए। पत्रकारिता के क्षेत्र में श्री शिवपूजन सहाय का योगदान उनके द्वारा संपादित दो महत्त्वपूर्ण साहित्यिक एवं गवेषणात्मक पत्रों से स्पष्ट प्रकट होता है। पुस्तक भंडार, पटना से प्रकाशित ‘हिमालय’ नामक पत्र तथा बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्त्वावधान में प्रकाशित त्रैमासिक शोधपत्र ‘साहित्य’ के संपादक भी सहायजी ही थे। यदि उनके पत्रकारिता के क्षेत्र में किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यों का अनुसंधानपरक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो हिंदी का कोई दूसरा पत्रकार नहीं है, जिसने अपने जीवन में उच्च स्तरीय करीब एक दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया हो। उनकी संपादन कला में जातीय अस्मिता एवं सुरुचिपूर्ण कलात्मकता की रक्षा का प्रमुख स्थान रहता था। ये दोनों तत्त्व आज की पत्रकारिता से विलुप्त हो गए हैं। आचार्य शिवपूजन सहाय ने रचनाकार के रूप में भी हिंदी जगत् को प्रचुर मात्रा में पठनीय साहित्य प्रदान किया है। उनके मौलिक सर्जन के क्षेत्र में उपन्यास, कहानी, निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, जीवनी, इतिहास और पुराण को स्थान मिला है। हिंदी जगत् में जिसे आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी जाती है, वह किसी अंचल विशेष की सभ्यता, संस्कृति, बोलचाल, भाषा और रहन-सहन पर निर्भर होती है। श्री सहाय का सन् १९२६ में प्रकाशित ‘देहाती दुनिया’ शीर्षक उपन्यास इस परिभाषा पर सौ फीसदी खरा उतरता है। इसका प्रकाशन प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ से पहले हुआ था। अतः प्रेमचंद का प्रभाव खोजने का प्रयास करना व्यर्थ है। इस उपन्यास में ठेठ देहात का औपन्यासिक चित्र उकेरा गया है। उपन्यास के प्रथम संस्करण की भूमिका में लेखक ने ‘देहात’ शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘मैं ऐसे ठेठ देहात का रहनेवाला हूँ, जहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही कम धुँधला प्रकाश पहुँचा है। वहाँ केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं—अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य। वहाँ पर मैंने स्वयं जो देखा-सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों-का-त्यों अंकित कर दिया है। इसका एक शब्द भी मेरे दिमाग की उपज या मेरी मौलिक कल्पना नहीं है। यहाँ तक कि भाषा का प्रवाह भी मैंने ठीक वैसा ही रखा है, जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना है।’’ इस उपन्यास के पाँच संस्करण प्रकाशित हुए। उस समय के उपन्यासकारों ने इसकी प्रशंसा में स्तुतिपरक लेख लिखे। किंतु आज यह आंचलिक उपन्यासों की शृंखला में प्रथम उपन्यास नहीं माना जाता। कहानी के क्षेत्र में श्री सहाय ने सन् १९१८ में पदार्पण किया था। उस समय हिंदी कहानी अपना कलात्मक रूप पूरी तरह सँवार नहीं पाई थी। भारतेंदु युग के कहानी लेखक पुराण और इतिहास से चिपटे हुए थे। प्रेमचंद ने कहानी का क्षेत्र विस्तृत किया। श्री सहाय ने उसी धारा में कुछ मौलिक कहानियाँ लिखीं, जो उनकी रचनावली में ‘विभूति’ शीर्षक से संकलित हैं। इनकी संख्या सत्रह है। इनमें से कुछ कहानियाँ पहले पाठ्य-पुस्तकों में भी स्थान पाती रही हैं। ‘मुंडमाल’, ‘वीणा’ और ‘शरणागत रक्षा’ बहुचर्चित कहानियाँ हैं। इन कहानियों में लेखक ने बीच-बीच में कुछ पद्यात्मक पंक्तियों को भी स्थान दिया है। श्री शिवपूजन सहाय को अपने जीवन में एक दर्जन पत्र-पत्रिकाओं के संपादन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अवसर को उन्होंने अपने लेखन-कर्म से भलीभाँति जोड़ा, और विविध विषयों पर गंभीर निबंध, इतिवृत्तात्मक लेख, परिचयात्मक टिप्पणियाँ आदि लिखकर विपुल विचारात्मक, विवरणात्मक, समीक्षात्मक और इतिवृत्तात्मक सामग्री हिंदी जगत् को प्रदान की। उनके साहित्यिक कोटि के कुछ उथले, कुछ गहरे लेख रचनावली के तृतीय खंड में संकलित हैं। इनकी संख्या १४७ है। इनमें अधिकांशतः समीक्षात्मक निबंध ही हैं। कुछ निबंध भावात्मक और विचारात्मक भी हैं। राष्ट्रभाषा हिंदी के संबंध में बीस लेख हैं। संस्थाओं और पुस्तकों पर भी एक दर्जन लेख हैं। कुछ लेख राजनीति और समाज-सेवा से संबंध रखते हैं। एक सौ सैंतालीस लेखों की यह तालिका चौंकानेवाली है। जीवनियाँ और संस्मरण लिखने में शिवपूजन बाबू सिद्धहस्त थे। इनके लिखे संस्मरण चर्चित व्यक्ति को जीवंत रूप में पाठक के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं। जीवनियाँ भी मनोरंजक और रोचक शैली में हैं। संस्मरण और जीवनियों को देखकर विस्मय होता है कि तीन सौ से अधिक व्यक्तियों के विषय में लिखना कैसे संभव हो पाया! ये जीवनियाँ पौराणिक, ऐतिहासिक और वर्तमान के विशिष्ट व्यक्तियों की हैं। सहायजी की तीन सौ पैंतीस संपादकीय टिप्पणियाँ हैं। ये रचनावली के चौथे खंड में संकलित हैं। उनके प्रदेय को यदि साहित्य और राष्ट्रभाषा सेवा के रूप मैं परखा जाए, तो इतनी समृद्ध साहित्यिक राशि बहुत कम लेखकों ने अर्जित की है। साहित्य के अतिरिक्त समाज-सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में आचार्य शिवपूजन सहाय ने जो कार्य किए, वे इतने व्यापक हैं कि वे बिहार प्रदेश में आगे आनेवाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करने के लिए प्रकाश-स्तंभ का काम करेंगे। बिहार प्रदेश में आचार्य शिवपूजन सहाय ने कुछ ऐसे विशिष्ट कार्य किए, जो आज भी उनके यश का प्रकाश फैला रहे हैं। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की स्थापना करवाना, बिहार का साहित्यिक इतिहास प्रस्तुत कराने की महत्त्वपूर्ण योजना, बिहार के प्रमुख व्यक्तियों के अभिनंदन ग्रंथ तैयार करवाना, महावीरप्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ, राजेंद्र बाबू अभिनंदन ग्रंथ, आत्मकथा, ‘बिहार की महिलाएँ’ आदि ऐसे ग्रंथ हैं, जिनका महत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ता जाएगा। श्री सहाय की साहित्य-सेवा के सम्मान में उन्हें भारत सरकार ने सन् १९६० में ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया था। भागलपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया और पटना नगर निगम ने उन्हें ‘नागरिक सम्मान’ का आदर देकर कृतज्ञतापूर्ण भाव व्यक्त किया था। राष्ट्रभाषा परिषद् ने ‘वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान’ दिया था। हिंदी साहित्य जगत् का यह नक्षत्र २१ जनवरी, १९६३ को पटना में अस्त हो गया और अपने पीछे कर्मठता तथा जातीय अस्मिता की अमिट छाप छोड़ गया। सहायजी के दिवंगत होने पर ‘नई धारा’, ‘साहित्य’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘साहित्य संदेश’, ‘ज्योत्स्ना’ आदि पत्र-पत्रिकाओं ने स्मृति में विशेषांक प्रकाशित किए थे। —श्रीनारायण चतुर्वेदी |
मार्च 2025
हमारे संकलन |