सोशल मीडिया के वर्चस्व के इस दौर में अब आपको हर दिन कविता-पाठ के अनेक कार्यक्रम देखने काे मिल जाएँगे, जिन्हें देश या विदेश के अनेक पटल नियमित रूप से आयोजित करते रहते हैं। इन कार्यक्रमों में एक सुखद दृश्य यह भी होता है कि किसी कार्यक्रम में केवल कवयित्रियाँ ही भाग ले रही हैं अथवा कवयित्रियों की संख्या कवियों से अधिक है। ऐसी संस्थाएँ भी उभरकर आई हैं, जो केवल कवयित्रियों की ही संस्थाएँ हैं और उनमें वही अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि बनती हैं। ऑनलाइन कार्यक्रमों के साथ-साथ देश भर में आयोजित होने वाले कवि-सम्मेलनों का दृश्य बदला है। जहाँ कुछ बरस पहले तक मात्र एक कवयित्री ही आमंत्रित की जाती थी, अब उनकी भागीदारी निरंतर बढ़ती जा रही है।
बड़े कवि-सम्मेलनों में कवियों के साथ-साथ सात-आठ कवयित्रियों की भागीदारी अत्यंत शुभ परिवर्तन है। पिछले दिनों ही गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में एक ‘राष्ट्रीय कवयित्री सम्मेलन’ आयोजित किया गया, जिसमें देश भर से आईं कवयित्रियों ने भाग लिया। कवि-सम्मेलनों के ही समानांतर मुशायरों में भी अब एक शायरा की जगह एक से अधिक शायराएँ भाग लेती हैं। कविता लेखन के साथ-साथ देश और विदेश में अनेक कवयित्रियाँ तथा लेखिकाएँ हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए ऑनलाइन पटल तथा संस्थाएँ चला रही हैं। इनसे देश-विदेश के हजारों रचनाकार जुड़े हैं तथा जुड़ते रहते हैं। ये पटल नियमित कार्यक्रम करते हैं। इनमें कुछ तो दैनिक अथवा सप्ताह में तीन-तीन कार्यक्रम भी करते रहते हैं। कविता-पाठ, कहानी-पाठ के अतिरिक्त साहित्यिक चर्चाओं का आयोजन भी होता रहता है; कुछ पटल सामाजिक विषयों पर भी विचार-विमर्श करते हैं। ऐसे नियमित साहित्यिक आयोजन करने वाले पटलों में कवयित्री रश्मि अभय का ‘देवशील मेमोरियल’, कथाकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव का ‘विश्व मैत्री संघ’, कुसुम सिंह का ‘सत्य संदेश’, इंदु मिश्रा का ‘अग्रसर’ आदि अनेक नाम हैं।
गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों में कर्नाटक से इंदु झुनझुनवाला का ‘अभ्युदय’, तेलंगाना में सरिता सुराना का ‘सूत्रधार’ साहित्यिक मंच भी उल्लेखनीय योगदान कर रहे हैं। विदेशों में इंग्लैंड से दिव्या माथुर का ‘वातायन’, नेपाल से मोनी विजय का ‘पटल’ तथा कुवैत से संगीता पँखुड़ी का ‘गूँज’ आदि कुछ उदाहरण हैं।
कवि-सम्मेलन आदि के अलावा साहित्यिक लेखन पर दृष्टि डालें ताे यहाँ भी क्रांतिकारी बदलाव नजर आता है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं पर नजर डालें तो लेखिकाओं की भागीदारी लेखकों के बराबर ही नजर आती है। कहानी के क्षेत्र में तो लेखिकाओं का वर्चस्व स्पष्ट रूप से नजर आ जाएगा। कहानी के बड़े नामों में सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, कुसुम अंसल, चंद्रकांता आदि हैं तो बाद की पीढ़ी की लेखिकाओं की भी लंबी सूची है। वर्ष भर में प्रकाशित साहित्यिक पुस्तकों में भी कवयित्रियों तथा लेखिकाओं की भागीदारी भरपूर नजर आती है।
लेखन की विषयवस्तु पर नजर डालें तो अब महिला सशक्तीकरण को लक्ष्य बनाकर किया गया लेखन ‘महिला विमर्श’ का रूप लेकर हिंदी साहित्य का अत्यंत महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। महिलाओं काे घर की चारदीवारी में बंद रखने, बेमेल विवाह कर देने, शिक्षा से वंचित कर देने, उनकी प्रतिभा को अवसर न देने, तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक उत्पीड़नों, दहेज जैसी कुप्रथाओं, गर्भ में ही बेटी की हत्या जैसे अनेकानेक विषयों पर हजारों कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, लेख, नाटक आदि लिखे गए। भारत ही नहीं, दुनिया भर में कवयित्रियों, लेखिकाओं ने नारी-मुक्ति को लेखन का मुख्य विषय बनाया। किसी भी देश की रचनाकारों की रचनाएँ अनूदित होकर पूरे विश्व में फैल गईं तथा जागरूकता के लिए मशाल जैसी बन गईं। ईरान, इराक, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों की रचनाकारों की रचनाएँ भी पूरे विश्व में पहुँचीं।
थोड़ा सा पीछे मुड़कर देखें तो सात-आठ दशक पहले लड़कियों का कविता लिखना अनुचित माना जाता था तथा कविता लिखने पर उन्हें प्रताड़ना मिलती थी। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी महिलाओं को घर की चारदीवारी से सड़कों तक ले आए, फिर संविधान ने नारी को शक्तियाँ दीं और नारी-शिक्षा का सिलसिला बढ़ा तो परिदृश्य बदलता चला गया।
पुरुष वर्चस्व की जंजीरें टूटती गईं। महिलाएँ हर क्षेत्र में आगे आईं और नए-नए कीर्तिमान गढ़े। साहित्यिक लेखन भी निरंतर रूप से बदलता गया। अब नारी-लेखन में याचना का स्वर नहीं है, लाचारी के स्वरों की जगह अपने अधिकारों की माँग है; पुरुष वर्चस्व को चुनौती तथा चेतावनी भी है। भारत की नारी एक अच्छी माँ, बहन, पत्नी के साथ-साथ अपनी अस्मिता तथा सम्मान के प्रति भी सचेत है।
वह चाहती है कि उसे देवी या दासी की जगह एक सामान्य ‘मानवी’ समझा जाए, जिसकी अपनी भावनाएँ हैं, आकांक्षाएँ हैं। उसकी प्रतिभा को भी अवसर दिया जाए। वह चाहती है कि उसे ‘देह’ से परे भी समझा जाए। कदम-कदम पर छेड़छाड़ तथा अन्य प्रकार के उत्पीड़न उसकी आत्मा को आहत करते हैं। कवयित्री रेणु पंत की कविता का अंश हमें सोचने को विवश करता है—
हर पल, हर जगह
इस देह के कारण रहती हूँ
डरी, सशंकित
बार-बार मेरी देह
इस समाज में
बर्बरता से रौंद दी जाती है
× × ×
टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है
मेरा वजूद
न जाने कितनी बार
मेरी आत्मा का भी
चीरहरण होता है
भारत जैसे देश में, जहाँ ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ का उद्घोष होता है, वहाँ हर दिन महिलाओं से दुष्कर्म की भयावह खबरें बेहद लज्जाजनक हैं।
सोशल मीडिया ने जहाँ बहुत-कुछ अच्छा दिया है, वहीं इसने अश्लीलता को फैलाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है, जिसका दुष्परिणाम हमें महिलाओं के प्रति अपराध के रूप में भी नजर आता है।
एक ओर नारी सशक्तीकरण में भारत ने एक से एक नई ऊँचाइयाँ छुई हैं, वहीं महिला सुरक्षा में भारत का दयनीय प्रदर्शन एक महान् संस्कृति वाले देश के लिए अभिशाप जैसा है। नारी लेखन पर फिर से लौटें तो आज लेखिकाएँ देश तथा समाज की हर विसंगति, विडंबना, भेदभाव, शोषण, दमन, अन्याय विषयों पर लेखकों के समान ही रचनाकर्म कर रही हैं।
कविता, कहानी, उपन्यास आदि हर विधा में विषयों का अनंत आकाश हमारे सामने है। लेखिकाओं ने समाज में हो रहे परिवर्तनों के अनुरूप अनेक ऐसे विषयों पर भी लेखनी चलाई है, जो पहले वर्जित माने जाते थे। उन विषयों पर भी, जिन पर समाज का ध्यान कम हो गया है। बहुत समय तक थलसेना, वायुसेना, नौसेना आदि की दुनिया हमारे समाज से ओझल सी ही रही। किसी सैनिक की शहादत की चर्चा हुई, लेकिन लाखों परिवारों की व्यथा-कथा पर किसी का ध्यान नहीं गया। यह सुखद है कि लेखिकाओं ने फौजियों तथा शहीदों के परिवारों की व्यथा को अभिव्यक्ति दी है। फैशन जगत् में होने वाले शोषण पर भी लिखा गया है। लिव इन जैसे संवेदनशील विषय पर भी कई कृतियाँ आई हैं। समाज में पनप रही अनेकानेक विकृतियों पर भी लेखिकाओं ने सार्थक हस्तक्षेप किया है। जहाँ दलित-विमर्श भी साहित्य का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बना है, वहीं दलित महिलाओं तथा दिव्यांग महिलाओं की पीड़ाएँ और चुनौतियाँ अलग हैं।
यह भी सुखद है कि विभिन्न प्रांतों की साहित्य अकादमियों ने महिला लेेखन पर अलग से पुरस्कार रखे हैं। केंद्रीय साहित्य अकादेमी से सम्मान प्राप्त करने में हिंदी कवयित्री को कई दशक भले ही लग गए हों, किंतु अब स्थितियाँ निरंतर बदल रही हैं।
लेखन के क्षेत्र में कवयित्रियों, लेखिकाओं ने अपनी प्रतिभा एवं योगदान का लोहा मनवा लिया है। अब दायित्व समाज तथा सरकार का है कि नारी सशक्तीकरण की राह में जो बाधाएँ हैं, उन्हें दूर करे। किसी भी देश के सभ्य तथा सुसंस्कृत होने की कसौटी यही है कि वहाँ महिलाओं तथा बच्चों की स्थिति कैसी है। इसलिए महिलाओं के प्रति अपराधों पर नियंत्रण करना होगा; राजनीति, प्रशासन तथा अन्य क्षेत्रों में उनकी भागीदारी को और बढ़ाना होगा।
(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)