सुपरिचित व्यंग्य-लेखक एवं उपन्यासकार। ‘घूँघट के पट खोल’, ‘शहर बंद है’, ‘अटैची संस्कृति’, ‘अपने-अपने लोकतंत्र’, ‘फ्रेम से बड़ी तसवीर’, ‘कदंब का पेड़’ (व्यंग्य-संग्रह), ‘जाने-अनजाने दु:ख’ (उपन्यास)। उत्कृष्ट लेखन के लिए भारतेंदु पुरस्कार, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार प्राप्त।
विवेक शुक्ला हमारे सीनियर सिटीजन क्लब के सम्मानित सदस्य हैं। कॉलेज में समाजशास्त्र के प्रोफेसर थे। रिटायर हुए पाँच साल हो गए। गांधीवादी हैं। सुबह-शाम नियमित घूमना। अच्छा साहित्य पढ़ना। मित्रों से मिलना-जुलना और सदा प्रसन्न रहना उनका स्वभाव है। कौन सी बीमारी, कब किसे लग जाए, कोई नहीं जानता। यों तो विवेकजी अपने स्वास्थ्य का शुरू से खयाल रखते आए हैं। शुद्ध शाकाहारी हैं। शराब आदि से कोसों दूर रहते हैं। फिर पता नहीं कैसे उनके पेट में ट्यूमर हो गया। डॉक्टर ने कहा, कैंसर है। ऑपरेशन करके निकलना पड़ेगा। विभिन्न प्रकार की जाँचें कराई गईं। सेकंड स्टेज में कैंसर पाया गया। घर में पत्नी, बेटा-बहू एवं छह साल का पोता है।
कोहराम की शुरुआत घर से हुई। जिस दिन कैंसर की रिपोर्ट आई, पत्नी दिनभर रोई। बेटे ने आश्चर्य सहित चिंतित होकर कहा, “बाबूजी, आपको कैंसर हो गया! सहसा विश्वास नहीं होता। आप इतने नियम-संयम से रहने वाले व्यक्ति और आपको कैंसर जैसी बीमारी! ऐसा कैसे हो सकता है?”
“जो सच है। रिपोर्ट में साफ-साफ है। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। मैंने अपने जीवन में बड़ी-बड़ी समस्याओं का सामना किया। तुम्हें मालूम है, अपने ही रिश्तेदारों से दस साल अपनी जमीन, जिस पर उन्होंने कब्जा कर लिया था, के लिए मुकदमा लड़ता रहा। उन्होंने तो मुझे एक हरिजन से शिकायत कराकर हरिजन एक्ट में फँसाया था। मेरे ऊपर कई फौजदारी मुकदमे चलाए। पड़ोस के गाँव में डकैती पड़ी, उन्होंने डकैतों से मेरी मिलीभगत की शिकायत दर्ज करा दी। इस प्रकार समस्याओं पर समस्याएँ सामने आती रहीं। परिवार पालने की जिम्मेदारी अलग से। मैं जीवन भर लड़ता ही रहा। अब फिर एक लड़ाई सामने है, कैंसर से। इससे भी लड़ेंगे, अपनी शक्ति भर। चिंता की कोई बात नहीं है। तुम फिकर मत करो।” विवेक ने अपने बेटे गौरव को समझाया।
बहू रोते हुए सामने आई, “बाबूजी, आपकी बीमारी सुनकर बहुत दु:खी हूँ। अभी तो हम आपकी ठीक से सेवा भी नहीं कर पाए!” इतना कहकर वह सुबकने लगी।
“सेवा करने के अवसर कहीं नहीं गए। मैं कोई अपाहिज थोड़े ही हो गया हूँ। चलता-फिरता हूँ। तुम अपनी सास, अपने पति और बेटे सुरेश का पूरा खयाल रखो। मुझे समय पर नाश्ता, भोजन और रात्रि में गरम दूध मिल ही जाता है। अब मुझे कौन सी सेवा चाहिए? रही मेरी बीमारी की बात, वह मेरे जीवन का संघर्ष है। उससे भी निपटेंगे। तुम बिल्कुल फिकर न करो।” विवेक ने बहू को ढाढ़स बँधाया।
“दादू, आपको कोई गंभीर बीमारी हो गई?” पोते सुरेश ने कौतूहल से पूछा।
“नहीं बेटू, कोई बीमारी नहीं। जरा-सा पेट में दर्द है। दवाई खाऊँगा तो ठीक हो जाऊँगा। तुम अपनी पढ़ाई में मन लगाओ।” विवेक ने पोते को समझाया।
रात में पत्नी सुशीला ने उनसे रोते हुए कहा, “आपको कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगी! आपके बिना जीना मेरे लिए बहुत दूभर होगा।”
“हमारी उम्र हो गई है। एक-न-एक दिन तो ऐसा होना ही है। पहले मैं जाऊँ या तुम। जाना तो है ही। यह सोचकर परेशान क्यों होना। जो होगा देखा जाएगा। सब अकेले आए हैं, अकेले ही जाना है। इसमें चिंता की कोई बात नहीं है, परंतु मरने के पहले सोच-सोचकर क्यों मरते रहना। तैयार रहो हर स्थिति में जीने के लिए। हमारे जीवन में कितनी परेशानियाँ आईं। हमने साहसपूर्वक उनका मुकाबला किया। इस समस्या से भी निपटेंगे। तुम तनिक भी फिक्र मत करो। जो होगा, ठीक ही होगा।” पत्नी को समझाते हुए उनका मन भर आया, परंतु वे चेहरे पर दृढ़ता बनाए रहे। माथे पर चिंता की रेखाएँ उन्होंने नहीं आने दीं।
दूसरे दिन वे सदा की तरह बगीचे में घूमने गए। अब तक उनके सब मित्रों को पता चल चुका था कि उन्हें कैंसर डिक्लेयर हो गया है। ऐसी बातें छिपती कहाँ हैं। उनके एक मित्र हैं, त्रिपाठीजी। उन्हें ज्योतिष में बड़ा विश्वास है। वे खुद कुंडली बनाते हैं और दूसरों की कुंडली देखकर शुभ-अशुभ बताते रहते हैं। कहने लगे, “विवेकजी, आप अपनी कुंडली मुझे दिखाइए। मैं देखकर बताऊँगा कि यह परेशानी आपको क्यों हुई? शायद मारकेश लगा हो तो महामृत्युंजय का पाठ करा लीजिए। मारकेश कट जाएगा।”
“त्रिपाठीजी, मैं नास्तिक नहीं हूँ। ईश्वर में मेरा विश्वास है। मैं उसके विधान में विश्वास करता हूँ, इसलिए जो है सो है। मैं मानता हूँ कि मैंने कोई गलत काम नहीं किया। किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। अब जो होना हो सो हो। हाँ, डॉक्टरी इलाज में मैं कोई कमी नहीं करूँगा। इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं करना।” विवेक ने त्रिपाठीजी को अपना अभिमत बताया।
त्रिपाठीजी को अच्छा नहीं लगा, परंतु वे कुछ बोले नहीं।
गुप्ताजी जादू-टोना एवं तंत्र-मंत्र में बहुत भरोसा करते हैं। उन्होंने विवेक को समझाया—“मंत्रों में शक्ति होती है, यह बात आधुनिक विज्ञान भी मानता है। मेरे गुरुजी हैं, खड़ेसरी महाराज। बहुत चमत्कारी बाबा हैं। उन्होंने अपने चमत्कारों से कई लोगों की कठिन समस्याएँ हल कर दी हैं। मेरे बेटे की नौकरी न लगती थी। मैंने उनके दरबार में गुहार लगाई। उनकी कृपा से आज मेरा बेटा एक अच्छी नौकरी में है। उनके आशीर्वाद से मैंने कई लोगों के असाध्य रोग ठीक होते देखे हैं। आप उनके दरबार में चलना चाहें तो मैं आपको वहाँ ले चलूँगा।”
“गुप्ताजी, आपकी शुभेच्छा के लिए धन्यवाद। परंतु मैं यह सोचता हूँ कि जादू-टोना, तंत्र-मंत्र से कुछ होता तो पूरी दुनिया भारत का लोहा मानती, परंतु ऐसा नहीं है। दुनिया ज्ञान-विज्ञान से चलती है। मेरा चिकित्सा विज्ञान पर भरोसा है। मुझे किसी आश्रम में जाकर अपने रोग का इलाज नहीं कराना।” विवेक ने सहज मन से गुप्ताजी के सुझाव का जवाब दिया।
“जैसी आपकी मर्जी।” गुप्ताजी ने मुँह बनाकर कहा।
तिवारीजी का जड़ी-बूटियों वाले इलाज में भरोसा है। वे कहने लगे—“विवेक भाई, जड़ी-बूटियों में हर रोग का इलाज है। यह हमारी पुरानी पद्धति है और बहुत कारगर। इससे हर प्रकार के रोग जड़ से दूर हो जाते हैं। हाँ, कुछ समय जरूर लगता है, परंतु बीमारी पूरी तरह ठीक हो जाती है। कैंसर का इलाज भी जड़ी-बूटियों में है। विश्वासपूर्वक इनका इस्तेमाल कीजिए, आप अच्छे हो जाएँगे।’’
“जड़ी-बूटियों वाला इलाज, जिसे आप लोग आयुर्वेदिक पद्धति कहते हैं, इसमें कुछ रोगों के उपचार हैं, परंतु इस पद्धति में रिसर्च एंड डेवलपमेंट नहीं है। इसलिए जटिल रोगों में इसकी उपयोगिता नहीं है। इसके जानकार बड़े-बड़े दावे करते हैं, परंतु उन पर भरोसा करके लोग अपना रोग बिगाड़ लेते हैं। मधुमेह के विषय में कितने दावे किए जाते हैं, परंतु मैंने कई लोगों को इस पद्धति के चक्कर में अपनी किडनियाँ खराब करते देखा है। लापरवाही में लोग डायलिसिस तक पहुँच जाते हैं। मधुमेह के रोगियों को शुरू में ही किसी चक्कर में न फँसकर इंसुलिन अपना लेना चाहिए। उससे वे ठीक रहते हैं। मेरी जानकारी के अनुसार कैंसर का कारगर इलाज इस पद्धति में नहीं है। इसलिए मरीज को सीधे आधुनिक चिकित्सा की शरण में जाना चाहिए। मैं वही कर रहा हूँ।” विवेक ने जवाब दिया।
तिवारीजी विवेक के तर्क का कोई उत्तर न दे पाए। वे चुप हो गए।
विवेक के मित्रों में सबके पास उनकी बीमारी के लिए एक अदद नुस्खा जरूर था। सबने अपने नुस्खे उन्हें यह कहते हुए बताए कि इससे आपका कैंसर शत-प्रतिशत ठीक हो जाएगा। कई लोग, जिनके पते और फोन नंबर हमारे पास हैं, हमारे सुझाव मानने से उनकी बीमारी पूरी तरह जाती रही। आप चाहें तो फोन पर उनसे बातचीत कर लें। हम उनके नंबर आपको दिए देते हैं। विवेक ने उनकी सद्भावना के लिए उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा, “मुझे जो इलाज कराना है, वह मैं करा रहा हूँ। अब मुझे अतिरिक्त कुछ नहीं करना है।”
घर पर भी विवेक को देखने, उनसे मिलने कई लोग आने लगे। सबके पास कैंसर की शर्तिया दवा की जानकारी रहती। कोई बताता, उसके चाचा को इसी प्रकार पेट में कैंसर हो गया था। डॉक्टरों ने कह दिया था कि ये सालभर से ज्यादा नहीं जी पाएँगे। गाँव के वैद्यजी से जड़ी-बूटियाँ लेते रहे और पूरे दो साल जिए। किसी ने बताया, मेरी मौसी को स्तन कैंसर हुआ था। उन्होंने ऑपरेशन नहीं कराया। गोमूत्र लेती रहीं। वे भी दो साल तक सफलतापूर्वक जीकर गईं। किसी ने कहा, यह ग्रह-नक्षत्रों का खेल है। कुंडली दिखाकर ग्रह शांति करा लेने से भी बहुत लाभ होता है। विवेक सबकी सुनते रहते। अपनी ओर से वे कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करते। दूर-दूर के रिश्तेदार आकर मिल गए, उन्हें देख गए, जैसे अब वे जाने वाले हैं। जो कोई भी उन्हें देखने आता, यही भाव लेकर आता कि अब ये चंद दिनों के मेहमान हैं। विवेक तो शुरू से ही हँसमुख हैं। अब भी उनके चेहरे पर विषाद का कोई भाव न रहता।
हाँ, उनसे जो लोग मिलने आते, उनके चेहरे से विषाद टपकता रहता। वे सब अपनी ओर से खूब सहानुभूति प्रकट करते। विवेक ये चाहते कि दूसरे दिनों की तरह लोग अन्य विषयों पर उनसे बातचीत करें। वे अपनी तरफ से बातों का विषय बदलते, लेकिन लोग घूम-फिरकर उनकी बीमारी पर आ जाते। जैसे ग्रामोफोन की सुई वहाँ आकर अटक गई हो, जबकि विवेक अपना ध्यान, बीमारी की ओर से हटाना चाहते। वे इन दिनों टी.वी. पर अपनी मनपसंद पुरानी फिल्में देखते और नए उपन्यास मँगवाकर पढ़ते रहते। बीमारी के लिए तो उन्हें वही करना है, जो स्थानीय कैंसर विशेषज्ञ डॉ. कमलेश बंसल कहेंगे।
विवेक की अनुपस्थिति में लोग उनके विषय में कई तरह की बातें करते। कोई कहता, सब कर्मों का फल है। इस जन्म के या पूर्वजन्म के कोई बुरे कर्म रहे होंगे, जिसका परिणाम उन्हें इस प्रकार भोगना पड़ रहा है। कोई बताता—यार, वे बहुत घमंडी हैं। अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते। इतना घमंड अच्छा नहीं होता। कोई उल्हाना देता, उन्हें कोई नुस्खा बताओ तो वे मानते ही नहीं। न उन्हें आयुर्वेदिक प्रणाली पर विश्वास है, न पूजा-पाठ पर। वे किसी की सुनते ही नहीं। अब उनकी किस्मत में जो होगा, झेलेंगे। कोई क्या कर सकता है। हम तो उनका भला चाहते हैं।
विवेक अपनी तरफ से अपनी बीमारी की बात किसी से नहीं कहते। कोई पूछता तो इतना कहकर विषय बदल देते कि इलाज चल रहा है। घर पर उनकी पत्नी, बेटा-बहू और पोता उनकी बीमारी को लेकर बहुत चिंतित रहते। वे सबको समझाते, चिंता करने से समस्याएँ हल नहीं होतीं। प्रयास करने से हल होती हैं। हम शहर के सबसे अच्छे डॉक्टर का इलाज ले रहे हैं। हमें उसके ही सुझाव मानने हैं और किसी के नहीं। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं ठीक हो जाऊँगा। तुम लोग तनिक भी चिंता न करो। मेरे अनुसार यह भी जीवन का एक पड़ाव है, जो बीत जाएगा।
एक सप्ताह पश्चात् मुंबई में उनका ऑपरेशन होना तय हुआ। वे जाने की तैयारी करने लगे। पत्नी को साथ चलने से उन्होंने मना कर दिया। सिर्फ गौरव उनके साथ जाएगा और कोई नहीं। वहाँ के समाचार यहाँ मोबाइल पर सबको मिलते रहेंगे। इस प्रकार उन्होंने घर पर सबकी हिम्मत बँधाई और निर्धारित दिन गौरव के साथ मुंबई चले गए। डॉक्टरों से पहले ही फोन पर बातचीत हो गई थी। पूर्व की जाँचें और रिपोर्ट भी वहाँ के अस्पताल में पहले ही भेज दी गई थीं। ऑपरेशन के पूर्व विवेकजी पूरी तरह संयत थे। उनके मन में कोई ऊहापोह नहीं थी। वे तो मानकर चल रहे थे, ‘होनी होए सो होए।’
तीन दिन बाद मोबाइल पर गौरव ने बताया, “मम्मी, पापा का ऑपरेशन सफल हुआ। हम लोग जल्द ही वापस आ रहे हैं।” सुशीला ने भगवान् को धन्यवाद दिया। वह रोज मंदिर जाती है। पूजा-पाठ भी करती है। विवेक सुबह उठकर अपने पलंग पर बैठकर ही पंद्रह-बीस मिनट मौन प्रार्थना कर लेते हैं और कुछ नहीं। उनका मानना है, यदि मैंने किसी का दिल नहीं दुखाया। जीवन में कोई बुरा कार्य नहीं किया तो मेरे साथ भी बुरा नहीं होगा। घटनाएँ तो जीवन में घटती रहती हैं। यह आपके धैर्य की परीक्षा है। इन्हें शांतिपूर्वक लेना चाहिए। व्यर्थ परेशान नहीं होना चाहिए।
एक सप्ताह के पश्चात् विवेक और गौरव मुंबई से लौट आए। विवेक इस तरह प्रसन्नचित्त, जैसे कुछ हुआ ही न हो। घर में उन्होंने सबको आश्वस्त किया—“ऑपरेशन सफल हुआ। डॉक्टरों का कहना है, अब चिंता की कोई बात नहीं है। हाँ, एक-दो बार कीमोथेरैपी के लिए जरूर जाना पड़ेगा। लेकिन ट्यूमर उन्होंने पूरी तरह निकाल फेंका है।”
अगले दिन से विवेक अपनी सामान्य दिनचर्या के अनुसार सुबह की सैर के लिए बगीचे में जाने लगे। उन्हें देखकर उनके सभी मित्र आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने सबको बताया, “ऑपरेशन सफल हुआ। अब कीमोथेरैपी का कोर्स पूरा करना है, बस!”
सुनकर सभी मित्रों ने उन्हें शुभकामनाएँ दीं। अगले दिनों में उनके मित्र कैंसर को छोड़कर दूसरे विषयों पर बातचीत करने लगे। विवेक को अच्छा लगा। विवेक ने कीमोथेरैपी का कोर्स भी पूरा कर लिया। एक दिन वे अपनी फाइनल रिपोर्ट लेकर परिवार सहित अपने स्थानीय डॉक्टर कमलेश बंसल के अस्पताल में पहुँचे। सब लोग डॉक्टर से यह जानना चाहते थे कि अब आगे कोई खतरा तो नहीं है?
कमलेश बंसल ने रिपोर्ट ध्यान से देखी और विवेक सहित पूरे परिवार को आश्वस्त किया—“देखिए, मौत तो किसी-न-किसी कारण से एक दिन सबको आनी है, लेकिन मैं यह विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि प्रोफेसर साहब की मौत कैंसर से नहीं होगी। इस बीमारी को उन्होंने जीत लिया है। अब वे अपनी पूरी उमर भलीभाँति जिएँगे। कुछ दवाइयाँ मैं लिख रहा हूँ। ये नियमित लेनी हैं। ये दवाइयाँ कैंसर से संबंधित नहीं हैं। ये शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने के लिए हैं। इसके अलावा आपको अब किसी दवा की कोई जरूरत नहीं है।”
डॉक्टर को धन्यवाद कहकर पूरा परिवार उनके क्लीनिक से बाहर आया। सबके चेहरे पर एक अपूर्व प्रसन्नता थी।
विवेक के सभी मित्रों को मालूम हो गया था उनकी फाइनल रिपोर्ट आ गई है। अगले दिन बगीचे में विवेक के मित्रों ने उनसे पूछा, “क्या कहते हैं आपके डॉक्टर?”
विवेक ने डॉक्टर बंसल के शब्द उनके सामने दोहरा दिए। सबने कौतूहलवश पूछा, “आपने इस बीमारी को कैसे जीता?”
“भरोसे से। हर परिस्थिति में मैं अपना भरोसा कायम रखता हूँ। उसे कभी नहीं खोता।” विवेक ने हँसकर जवाब दिया।
३७६-बी, सेक्टर आर,
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