रूमी लस्कर बोरा असमिया की सुपरिचित कवयित्री, कथाकार, अनुवादिका, स्तंभ-लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं। दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित, जिनमें तीन कविता-संग्रह, बारह उपन्यास, तीन कहानी-संग्रह, एक जीवनी तथा अनेक अनूदित पुस्तकें शामिल हैं। इनकी रचनाओं का हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला और नेपाली में अनुवाद। इनके उपन्यास ‘डंफु’ का हिंदी अनुवाद इसी नाम से प्रकाशित। विष्णु राभा पुरस्कार, असम साहित्य सभा पुरस्कार, माया मीडिया पुरस्कार (असम) एवं भद्रकुमारी प्रो. उषानारायण ठाकुर वनिता पुरस्कार (नेपाल) से अलंकृत। यहाँ उनकी एक कहानी का हिंदी रूपांतर दे रहे हैं।
देर रात तक मिसेज दत्त को नींद नहीं आई थी। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह सोने में सफल नहीं हो पाईं। एक के बाद एक आ रही भावनाएँ मिसेज दत्त के मन को उद्वेलित कर रही थीं। दूसरे कमरे में सोए मिस्टर दत्त की अवस्था भी वैसी ही होगी, इसमें कोई संदेह नहीं था। मिसेज दत्त अर्थात् शांति यह चाह रही थी कि आकाश दत्त उठकर उसके पास आएँ और धीरे से ‘अरे उठ जाओ’ कहकर उसे उठा दें। लेकिन जब आधी रात तक भी मिसेज दत्त की सोची हुई बात नहीं हुई, तब वह छटपटाने लगी। उसकी छटपटाहट देह के किसी कोमल अंग पर हुए फोड़े के दर्द से छटपटाने की नाईं हो गई। कुछ देर बाद वह बिस्तर से उठी और टेबल पर रखे पानी के गिलास से गट-गट पानी पीकर, फिर बिस्तर पर चली गई। उसके थोड़ी देर बाद बाथरूम का दरवाजा खोला और फिर उसे जोरों से बंद कर धप्प से बिस्तर पर पड़ गई। फिर भी आकाश की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। अब शांति की अस्थिरता हद से ज्यादा बढ़ गई।
पिछले पाँच दिनों से आकाश दत्त ने शांति से सीधे मुँह बात नहीं की है। बेटे-बेटियों के साथ भी हँसी-मजाक नहीं किया है। ऑफिस से यंत्रवत् आते हैं, बहुत देर तक अखबार पढ़ते हैं, चुपचाप चाय पीते हैं, रात का भोजन करते हैं और फिर बिस्तर पर पड़ जाते हैं। बस ऐसा ही चल रहा है।
पिछली बातों को सोच-सोचकर शांति को बहुत बुरा लग रहा है। उस दिन रात को ‘रेत पर शाम’ नामक उपन्यास लिखते वक्त अपनी ओर बढ़े आकाश के हाथ को झटकते हुए शांति ने झुँझलाकर कहा था—“लिखते समय डिस्टर्ब करने पर मुझे गुस्सा आता है। थोड़ी दूर रहिए।” इस पर मान दिखाते हुए आकाश ने अपूर्ण उपन्यास ‘रेत पर शाम’ को झपट्टा मारकर शांति के हाथ से छीना और उसे फर्श पर पटक दिया। इससे परिवेश एकदम गंभीर हो उठा। किसी के मुँह से कोई आवाज नहीं निकली। आकाश गुस्से से काँप रहे थे। शायद शांति भी गुस्से और क्षोभ से अपना आपा खो बैठी थी। आकाश बहुत देर तक फर्श पर पड़े अपूर्ण उपन्यास के पन्नों को देख रहे थे और फिर उन्हें फर्श से उठाकर लिखने-पढ़ने की टेबल पर रख बाहर निकल गए थे। माँ की डाँट पर नाराज होने के मानिंद आकाश चुपचाप उस कमरे से निकलकर पास वाले कमरे में जाकर एकल बिस्तर पर लेट गए थे। उस दिन से ही आकाश यह रूप धारण किए हुए थे। ऐसा लगता था, जैसे हर पल उन पर कोई क्षोभ या जिद्द सवार है।
बिस्तर पर छटपट कर रही शांति, किसी पढ़ी हुई किताब के समझ में न आ पाए कुछ पृष्ठों को पुन: पढ़ने की तरह संपूर्ण घटना के बारे में फिर से सोचने लगी कि ऐसा क्यों होता है?
शांति दत्त साहित्यानुरागी है। लिखना-पढ़ना उसका शौक नहीं, बल्कि साहित्य के प्रति उसका जुनून है। कमरे में अकेली बैठकर नशे में चूर किसी शराबी की तरह वह कहानी, कविता, नाटक आदि लिखती रहती है। एकांत में अपना लिखा हुआ पढ़कर उसे तृप्ति होती है। कविता के प्रति उसकी दुर्बलता की बात स्थानीय कुछ कवियों को मालूम थी, इसीलिए एक दिन उसे एक कवि-सम्मेलन में आमंत्रित किया गया। निर्दिष्ट समय पर उसका कविता-पाठ आरंभ हुआ। प्रभावशाली, स्वनामधन्य कवियों के समक्ष कविता-पाठ करते समय उसका चेहरा पसीने से चुहचुहा उठा था। होंठ काँप रहे थे। हवा का एक झोंका जैसे पहनी हुई चादर का अगला हिस्सा उड़ा ले जाता है, ठीक उसी तरह उसके हाथ में रखा कविताओं के कागजों का पुलिंदा खर्र-खर्र की मृदु ध्वनि के साथ काँप रहा था।
अनुष्ठान की समाप्ति के बाद साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त एक प्रख्यात कवि ने शांति के सिर पर धीरे से अपना हाथ रख कहा था—“तुम्हारा कविता कहने का ढंग बहुत सुंदर है। तुम्हारी कविताओं का भविष्य है। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं में तो तुम्हारी कविताएँ नहीं देखीं, क्यों?”
परीक्षा में उत्तीर्ण होने की आनंदानुभूति लिये शांति का हृदय बाग-बाग हो उठा था। अब उसने यह सोचना शुरू किया कि वह जो लिख रही है, वे कविताएँ ही हैं। नामी कवि ने इसकी स्वीकृति भी दी है। लेकिन उसने पत्र-पत्रिकाओं में इतनी कविताएँ भेजीं, वे प्रकाशित क्यों नहीं हुईं? कविताएँ भेजकर उन्हें प्रकाशित कराने की चेष्टा व्यर्थ है या वे प्रकाशन योग्य हैं ही नहीं, यह सोचकर शांति ने पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ कविता भेजना बंद कर दिया था—‘क्या जरूरत है, बेकार में समय बरबाद करने की?’ लेकिन उसने कविता लिखना जारी रखा। इतनी देर तक शांति चुप रहकर तन्मयता से इन्हीं सब बातों को सोच रही थी। उसकी चुप्पी भंग कर प्रख्यात कवि फिर बोले, “यदि तुम्हारी कविताओं का पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नहीं हो पा रहा है तो एक काम करना। अपनी कुछ कविताएँ लेकर संपादक के पास खुद जाना। हो सकता है कि उनमें से कोई कविता उन्हें पसंद आ जाए। एक बार पसंद आ जाने पर तो समझो की किला फतह। हाँ, जाने से पहले संपादक से मिलने का समय ले लेना। मेरा विश्वास है कि तुम्हारी कविताएँ स्वीकृत होंगी ही।”
उन प्रख्यात कवि की ये बातें शांति के लिए वरदान सिद्ध हुईं। उनके उपदेश के अनुसार ही काम हुआ। ‘दैनिक जागृति’ पत्र के संपादक ने शांति की कविताएँ पढ़कर उनकी प्रशंसा की। एक सप्ताह के बाद उसकी एक कविता प्रकाशित हुई। बस यहीं से शुरुआत हो गई। इसके बाद शांति ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस समय शांति कथाकार, उपन्यासकार ‘शांति दत्त’ हो गई है। साथ ही उसकी लड़ाई भी शुरू हो गई है। एक गृहिणी होने के नाते सुबह से शाम तक घर का सारा काम-धाम करने, दो छोटे बेटा-बेटी और पति की सारी जरूरतों को पूरा करने के बाद, जो समय बचता है, उसमें आराम करने की जगह लिखने-पढ़ने में लग जाती है। इसी कारण वह रात को बेटा-बेटी और आकाश के सो जाने के बाद उस एकांत समय में लगभग बारह बजे तक निश्चिंत होकर लिखना पसंद करती है। दिन में काम-धाम करने के साथ-साथ रिश्तेदारों-अतिथियों के साथ व्यस्त रहने के कारण मन में उठती भावनाओं के साथ संगति रखकर लिख पाना बड़ा मुश्किल होता है। अपने प्रथम उपन्यास पर पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया पाने के बाद शांति ने दूसरे उपन्यास पर मनोनिवेश किया। दिन में घरेलू व्यस्तता और रात को बारह बजे तक लिखना चलता रहा। काम-काज करते समय कभी-कभी वह उपन्यास के भावों में डूब जाती है। जो काम करना है, उसे भूलकर दूसरा काम करने लगती है। चाय बनाते समय गलती से चीनी की जगह नमक डाल देती है।
घर आए अतिथियों से बातें करते समय कभी-कभी अन्यमनस्क हो जाती है। उस समय मन में कहानी की बात ही आती रहती है। उस समय वह खुद पर लज्जित हो जाती है। यदि कभी घर का काम ज्यादा हो गया तो तेज गुस्सा आने के बाद उसे हताशा घेर लेती है। सोचती है कि क्या वह ‘रेत पर शाम’ को अपनी अनूठी कृति का रूप दे पाने में सफल नहीं हो पाएगी? इसके बाद अपने घर-संसार की बात भी याद आती है। इन सब में लगे रहने के कारण क्या बेटे-बेटी और आकाश की अवहेलना कर रही है? उपन्यास लिखे या फिर यह सब छोड़कर घर के कामों में ही लगी रहे? नहीं, लिखने-पढ़ने वाले इस तरह के काम करने पर घरेलू दिनचर्या में थोड़ा हेर-फेर तो होगा ही। तो क्या इस कारण रोज की पारंपरिक दिनचर्या में लगे रहकर अपनी साधना को विफल हो जाने दे? ऐसा भी नहीं कि आकाश इन बातों को समझते न हों। घर में रहने पर एकाध काम में मदद भी कर देते हैं। इन बातों को सोचते-सोचते शांति निश्चल-सी हो गई। इसी तरह छटपटाते रहकर करवटें बदलते-बदलते न जाने कब उसकी पलकें मुँद गईं, पता ही नहीं चल पाया।
“हैलो! हाँ, शांति दत्त ही बोल रही हूँ। जी, आपका अभिनंदन ग्रहण किया। आप कौन बोल रहे हैं? ‘प्रगति’ अखबार के संपादक? इंटरव्यू? किस लिए? नहीं-नहीं, कोई दिक्कत नहीं है। आप आदमी भेज सकते हैं। धन्यवाद...”
रिसीवर रखने के बाद ड्रेसिंग आईने के सामने जाकर शांति दत्त ने खुद को अापादमस्तक निहारा। उसके बाद साड़ी बदलकर चादर-मेखला का जोड़ा पहना। सिर के बाल ठीक कर ड्राॅइंग रूम का टी.वी. ऑन कर ‘प्रगति’ अखबार की तरफ से आने वाले संवाददाता का इंतजार करने लगी। रिमोट को हाथ में लेकर ऐसे ही आराम से बैठी रही। अचानक एन.ई. के साथ और दो न्यूज चैनलों पर उनकी नजरें टिक गईं। खबर आ रही थी—“अपने लेखन से साहित्य जगत् में अप्रतिम अवदान हेतु विशिष्ट समाज सचेतन, नारीवादी सुलेखिका शांति दत्त को उनके उपन्यास ‘रेत पर शाम’ के लिए सािहत्य अकादेमी पुरस्कार प्रदान किया जाएगा।” अपने फोटो के साथ दी जा रही खबर ने उसे पुलकित कर दिया।
इसी बीच कॉलिंग बेल बज उठी। शांति ने उठकर दरवाजा खोला। यह क्या? स्वयं ‘प्रगति’ अखबार के संपादक और उनके साथ के बहुत सी जानी-अनजानी पत्र-पत्रिकाओं के लोग। शांति ने सबको नमस्कार किया और उसके साथ ही उसके चेहरे पर कैमरों की फ्लैश लाइट चमक उठीं। एक के बाद एक प्रश्न। शांति ने पहले कभी ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं किया था, इसलिए वह खुद ही समझ नहीं पा रही थी कि किसे क्या उत्तर दे। उसने अनुभव किया कि उसके मुँह और गाल लाल हो गए हैं। उसकी हालत घबराई हुई तितली जैसी हो गई थी। इस बीच संवाददाता एक-एक कर विदाई लेने लगे। फोन फिर बज उठा। उसने रिसीव किया। बस एक ही बात। किसी अपरिचित पाठक ने किया था। आज इतने फोन आने के बाद उसकी एक भ्रांत धारणा बदल गई। लोगों का यह अभियोग है कि असमिया लोग खरीदकर किताब नहीं पढ़ते। यदि ऐसा ही है तो फिर जाने-अजाने इतने लोग शांति को फोन क्यों कर रहे हैं? कई-कई ने तो यह भी बताया है कि उपन्यास का कौन सा संवाद, कौन सी पंक्ति उन्हें अच्छी लगी है। ये लोग निश्चित रूप से खरीदकर किताब पढ़ने वाले संवेदनशील पाठक होंगे। पढ़ने वाले लोग तो पढ़ेंगे ही। हाँ, सबको पढ़ने का नशा नहीं होता, यह बात भी सही है। फिर भी टी.वी, कंप्यूटर, फेसबुक, यूट्यूब के प्रतिस्पर्धात्मक युग में लोगों का एक वर्ग है, जो किताब खरीदकर पढ़ने को महत्त्व देता है। इसी कारण बहुत सी किताबों के कई-कई संस्करण भी प्रकाशित होते हैं।
इस बीच सभी संवाददाता और अतिथिगण वहाँ से जा चुके थे। उनके जाने के बाद शांति शयन कक्ष की खिड़की बाहर से बंद करने के लिए बरामदे में गई। “अरे यह क्या? अब और कौन आया?” उसके घर के सदर दरवाजे पर आकर एक रिक्शा रुका। उस पर से एक वृद्ध धीरे-धीरे उतर रहे थे। उन्होंने पंजाबी धोती पहन रखी थी। पाँव में साधारण चप्पलें, आँखों पर मोटे फ्रेम का काला चश्मा, हाथ में एक छतरी और गालों पर कई दिनों से बढ़ी दाढ़ी। शायद गाँव से आए थे। शांति को उनकी चाल कुछ जानी-पहचानी लग रही थी। लेकिन उन्हें कहाँ देखा है, याद नहीं कर पाई। थोड़ा इधर-उधर नजरें दौड़ाने के बाद वे अंत में शांति के घर की ओर ताकने लगे। इसके बाद वे गजराज की चाल में एक पैर-दो पैर आगे बढ़ाते हुए उसके घर की ओर बढ़े। शांति भी उत्सुक होकर आगे बढ़ आई। इस बीच वे शांति के सामने आकर उसके चेहरे को एकटक निहारने लगे। इसके बाद उन्होंने अपना चश्मा उतारा एवं पंजाबी धोती की जेब से रूमाल निकालकर कोटरों में धँसी हुई छलछलाती उज्ज्वल आँखों को पोंछ लिया। एक बार फिर शांति की तरफ देखा। उनके होंठ कुछ कहने के लिए थर्रा रहे थे। अब शांति उन्हें पहचान गई और खुशी से झूम उठी। अरे, ये तो उसे प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाले अत्यंत श्रद्धेय, नीतिपरायण, आदर्श शिक्षक भोलाकांत बरुवा सर हैं। असमिया की वर्तनी गलत होने पर उसे स्कूल के बरामदे में कान पकड़कर घुटनों के बल बैठने की सजा दी थी। फिर शाम को घर जाकर उस वर्तनी के साथ और दो-चार वर्तनियाँ सिखाई थीं। शांति को अभी तक याद है कि एक दिन कक्षा में शांति को छोड़कर कोई भी ‘बभ्रुवाहन’ और ‘अश्वत्थामा’ की शुद्ध वर्तनी नहीं लिख पाया था, इसलिए उन्होंने कक्षा के अन्य सभी छात्र-छात्राओं को बहुत देर तक बेंच पर खड़ा रखा था। उन दोनों शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिखने पर भोला सर ने आवेग में भरकर कहा था—‘एक दिन तू गाँव का नाम रोशन करेगी।’
“अरे, तू बकुलबारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाली शांति है न?”
“जी सर, मैं शांति ही हूँ।” शांति ने बरुवा सर के चरण स्पर्श किए और उन्हें तत्काल ड्राॅइंगरूम में ले गई। इसके बाद वह कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गई। खुशी के इस मुहूर्त में बरुवा सर अपनी उम्र की परवाह न कर उसे खोजते हुए उसके घर आए हैं। यह उसके लिए कम सौभाग्य की बात है क्या?
‘तेरे पुरस्कार पाने की बात रेडियो पर सुनी। सुनते ही तुझसे मिलने के लिए मन बेचैन हो उठा। आजकल शरीर साथ नहीं दे रहा, तो भी इस तरह की खुशखबरी पाने के बाद तुझे देखे बिना कैसे रह सकता था?”
“यह सब आपका ही आशीर्वाद है सर”, कहकर शांति ने फिर उनके पैर छूकर प्रणाम किया। उसकी आँखों के कोनों से अनायास दो बूँद आँसू टपक पड़े। वह उन दिनों के हट्टे-कट्टे भोला सर और देह में शक्ति न होने पर भी अपने मन की शक्ति से उससे मिलने आए आज के भोला सर की तुलना करने लगी। कहीं कुछ नहीं बदला है—वही आदर्श, वही नैतिकता, वही स्नेहपरायणता, दूसरों की सफलता पर आँखों में वही खुशी, मन की अटूट शक्ति के अधिकारी वही भोला सर। बस उनकी आयु ही उनके शरीर पर प्रभाव डालने वाले समय की बात स्मरण करा जाती है। फिर भी अस्सी साल की आयु में भी उनकी आवाज एकदम बुलंद है। शांति के सिर पर हाथ रखकर भोला सर उसे बार-बार आशीर्वाद देते रहे।
“तू आगे बढ़ती जा। जितना हो सके, उतना आगे बढ़। तुम्हारे उस रास्ते पर ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे।”
भोला सर का आशीर्वाद जैसे चारों ओर प्रतिध्वनित होता रहा। वह ध्वनि क्रमश: बढ़ती गई। फिर एक समय ऐसा भी आया, जब उस तेज प्रतिध्वनि से शांति हड़बड़ाकर बिस्तर पर से उठ बैठी।
आँखें खोलकर उसने देखा कि आकाश उसके पास बैठे धीरे-धीरे उसके सिर पर अपना हाथ फेर रहे हैं। शांति को कुछ कहने और सोचने का मौका दिए बिना आकाश अपना मुँह शांति के मुँह के पास ले गए।
“जाग गईं? इन कई दिनों तक तुम्हारी ओर देखने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। अपने व्यवहार पर मुझे स्वयं लज्जा आ रही थी। इसलिए आज तुम्हारे सो जाने के बाद हिम्मत कर तुम्हारे पास बैठ तुम्हारे जागने का इंतजार करता रहा। आज के बाद तुम अपना अधूरा लिखा पूरा करने में लग जाओ, मैं तुम्हारी मदद करूँगा। देखो न, सुबह होने को आई। न हो तो सुबह की चाय मैं ही बना लाता हूँ। लगता है, तुम कोई सुंदर सपना देख रही थी। कहते हैं कि सुबह के सपने बहुत जल्दी सच होते हैं। तुम्हारा सपना भी सच होगा, देख लेना।” आकाश एक ही साँस में सारी बातें कह गए। फिर दोनों हाथों से शांति का सिर उठाकर उसे धीरे से तकिए पर रख चाय बनाने रसोई में चले गए।
एक अनाम आवेग में वह आकाश को भी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन कह नहीं पाई। कहना चाहती थी कि आकाश के प्रति उसका भी कुछ कर्तव्य है। लेकिन आकाश ने उसे कुछ कहने का मौका ही कहाँ दिया!
उसने बिस्तर के सिरहाने वाली खिड़की खोली। सुबह की हवा के झोंके ने उसकी देह-मन को चंगा कर दिया। कहीं दूर से चिड़ियों की मद्धिम चहचहाहट आ रही थी।
शांति धीरे से बिस्तर से उतरी। अब लेटे रहने से क्या फायदा? कितनी अच्छी लग रही है, उसे आज की सुबह! नए दिन की नई सुबह। जिस सुबह ने उसे सुंदर सपना दिखाकर पुलकित कर दिया है। जिस सुबह ने इन कई दिनों तक आकाश के प्रति उसके मन में व्याप्त अंध-धारणा को दूर कर दिया है। जो सुबह सपने के कंचनजंघा पर आरोहण करने का संकेत कर गई है।
सूरज के आगमन की खबर पाकर अँधेरा भाग खड़ा हुआ है। नजदीक के नामघर से वृद्ध नामघरिया द्वारा गाए जा रहे बरगीत की अस्पष्ट ध्वनि आ रही है—‘रजनी बिदूर दिश धवली बरण...’ (बीती रात हुआ उजाला...)।
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