अनन्त विज्ञानमतीत दोषं अबाध्य सिद्धान्तममर्त्य पूज्यम्।
श्री वर्धमानं जिनमाप्त मुख्यं, स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये॥
हे प्रभो! मैं आपकी स्तुति करने में उद्यत तो हुई हूँ, परंतु श्री सिद्धसेन दिवाकर तथा कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य भी स्वयं को असमर्थ मानते हैं तो मेरे जैसे उद्वाहुरिववामनः का प्रयास तो धृष्टता ही है। परंतु हरये रोचते भक्तिः (व्याकरणस्य उदाहरणम्) में जिस प्रकार रुचि हरि की भक्ति में प्रेरित करती है, उसी प्रकार मुझे भी यह रुचि ही है, जो प्रभु भक्ति में प्रेरित कर रही है। हे नाथ! मेरी अज्ञानता एवं जड़ता को क्षमा करें।
हे परमात्मा! आप के जीवन एवं संदेश में मानो अभेद्य संबंध है। नीति स्वयं कहती है कि वीर पुरुषों का जीवन ही संदेश होता है। हे जगत् वंदन! आपने अनंत जड़ता में प्राण फूँके हैं, आपने भव्यों को सुषुप्ति से जागृति का मार्ग फरमाया है, वह मार्ग है, ‘आणाय्य मामग्गं धम्मं’। जिन आज्ञा में ही धर्म निहित है। यही ज्ञान-प्राप्ति हेतु है। कारण के बिना कार्योत्पत्ति हो नहीं सकती, अतः यह ज्ञान रूपी कार्य मोक्ष में कारण बन अमृतत्व की प्राप्ति करा देता है। ईशावास्योपनिषद् का भी कथन है— विद्ययामृतमश्नुते।
परंतु प्रभु आपका ही कथन है, ‘संबोही खलु दुल्लहा’ संबोधि प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है। यह आपके जीवन से ही उपदिष्ट है कि जिस प्रकार आपको सम्यक्त्व प्राप्ति के प्रथम भव में सत्संगति से संबोधि प्राप्त हुई, उसी प्रकार हर निकट मोक्षगामी का उद्धार सत्संगति ही कर सकती है। ‘सत्संगति कथय किम् न करोति पुंसां’। इसके पश्चात् हे ज्ञातपुत्र। आपने ‘धम्मं चरं सुदुच्चरं’ का उपदेश दिया। ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्’, श्रद्धा के द्वारा ज्ञान प्राप्त होने पर साता की कामना का अंत हो जाना इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। आपका अनार्य क्षेत्र में गमन जहाँ आपने अपने तन को उपसर्ग शाला बना स्वयं को होम दिया था, अपने मन को साथ लिया था। दीक्षा से पूर्व आपके पारिवारिक सदस्यों द्वारा जो चंदन लेप आप पर किया गया, उसके कारण अनेक जंतुओं का उपसर्ग प्राप्त हुआ, परंतु आप विचलित नहीं हुए, आप लेप के द्वारा प्राप्त होने वाले उपसर्गों को जानते थे, परंतु आपने कौटुंबिकों को रोका नहीं। ऐसी थी आपकी उत्कृष्ट वीतरागता तथा समता।
अब मैं यहाँ त्रिपृष्ठवासुदेव का उदाहरण देना चाहूँगी। जो आत्मतत्त्व स्वयं में शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरञ्जनोऽसि स्थिति में है; वही जीवात्मा शरीर रूपी भोगायतन को धारण कर स्वयं को हानि पहुँचाती है। त्रिपृष्ठ का क्रोध ‘अहं देहोऽस्मि’ का बोधक है तथा महावीर की क्षमा अहं शुद्धोऽस्मि का बोधक है। यह वृत्तांत स्वयं उपदेश देता है कि जहाँ मानसिक आक्रोश है, वहाँ जीवात्मा स्वयं को देहोऽस्मि मानकर आत्मतत्त्व को गौण कर देती है। त्रिपृष्ठ का कृत्य अधोगति का कारण रही तथा महावीर की ‘कानों में कीलें ठोकने वाले’ पर ऐसी क्षमा, ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ रूपी सूत्र बनकर आज भी समस्त लोक को आलोकित कर रही है।
वीर की क्षमा ‘चन्द्रश्चाण्डालवेश्मनः’ सदृश थी। जिस प्रकार चंद्रमा चांडाल के घर को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार प्रभु ने भी क्रोधी चंडकोशिक को प्रकाशित किया। प्रभु के प्रमुख सिद्धांत अहिंसा की पुत्री है, समष्टि भाव। समष्टि भाव की यह अहिंसा ही द्योतक है, क्योंकि जहाँ व्यष्टि भाव है, वहाँ अहिंसा सिद्ध नहीं हो सकती। मात्र स्थूल शरीर के घातकों को ही प्रभु ने हिंसा नहीं स्वीकारा है, वीर की दृष्टि में अहिंसा के पुजारी स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर किसी का भी घात नहीं करते। कैसी वीर की अप्रमत्तता! यथा भर्तृहरि कहते हैं, हम भोगों को नहीं भोगते, भोग हमें भोग रहे हैं, उसी प्रकार वीर योग को नहीं साथ रहे थे, योग उनमें जा स्वयं प्रतिष्ठित हो रहा था, शोभा पा रहा था।
एसे उत्कृष्ट योगी जिन्होंने युक्तिमद्वचनों से अन्य वादियों को भी मार्गस्थ किया। शास्त्रकार कहते हैं—
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु।
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥
आचार्य कहते हैं कि न मुझे कपिलादि से द्वेष है और न वीर के संदर्भ में पक्षपात है, मेरे लिए युक्तिमद्वचन ही ग्राह्य है। प्रभु ऐसे आप्त पुरुष थे, जिन्होंने पूर्ण ज्ञान (कैवल्य) प्राप्त होने से पूर्व तक मौनावस्था में रहकर भीतर की ओर यात्रा की, अतः ऐसे महापुरुषों के वचन तो अकाट्य होते ही हैं। परंतु कुछ तथाकथित विद्वानों ने प्रभु के प्रमुख सिद्धांत स्याद्वाद की अवहेलना कर उसमें संशयवाद ठहराया, परंतु वे नहीं जानते, स्याद्वाद ही परिपूर्णवाद है, ‘परस्परापेक्षत्वम् अनेकत्वम् स्याद्वादः’ एक ही पदार्थ अनेक पर्यायों वाला होता है। अतः अपेक्षा से अनित्यवादियों का भी कथन सत्य है कि पदार्थ अनित्य है तथा एक अपेक्षा से नित्यवादियों का भी कथन सत्य है कि पदार्थ नित्य भी होता है। इस प्रकार अनेकांतवाद के अंतर्गत जो सप्त भंगी है, वह एक सार्वभौमिक समस्या का हल करता है। वैमनस्य को हटा संप स्थापित करता है।
अंत में जिस प्रकार हंस की शोभा मानसरोवर में है, उसी प्रकार भवी प्राणियों की शोभा प्रभुभक्ति में ही है, अतः जो सुज्ञ प्राणी आगमज्ञ ‘मुनि पुण्य विजयजी’ सदृश आगमों में रमण कर प्रभु के उपदेशों को अपना जीवंत आगम बनाएँगे, उनका निश्चय ही कल्याण होगा। अब यहीं मेरी लेखनी मुझे बाध्य कर रही है और कह रही है, प्रभु की महिमा गाने में तुम असमर्थ हो, तुम तो क्या, समग्र लोक में भी कोई प्रभु भक्ति करने में समर्थ नहीं है, अतः प्रभु महिमा का मेरा यह प्रयास अल्प है, अल्पतर है, अल्पतम है तथा लेख में कोई भी वाक्य जिनवाणी के विपरीत कहा हो तो तस्समिच्छामि दुक्कडं। मैं आप श्री के द्वारा इस योजना की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हूँ। इस प्रभावक कार्य के द्वारा पूरे राजस्थान में प्रभु के संदर्भ में जो जागृति बढ़ी है, श्रद्धा बढ़ी है, वह निश्चय ही अत्यंत प्रशंसनीय है, पूरा राजस्थान महावीरमय हो गया है।
इति, महावीर स्वामी नयन पथगामी भवतु मे॥
राजस्थान सरकार द्वारा समर्थित एवं अध्यात्म परिवार द्वारा आयोजित समग्र राजस्थान के ६ से १२ कक्षा के छात्रों की निबंध प्रतियोगिता में माध्यमिक विभाग में राज्य स्तर पर प्रथम विजेता बनने हेतु लोंकाशाह गुरुकुल की छात्रा देशना जैन को `३,०२,५५० का विशिष्ट पुरस्कार प्राप्त हुआ।
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