रखियो टेक हमारी

रखियो टेक हमारी

लोक-साहित्य की आधिकारिक लेखिका। कहानी, उपन्यास लोक-साहित्य, नाटक, निबंध, बाल-साहित्य आदि विषयों पर शताधिक कृतियाँ तथा अनेक संपादित कृतियाँ प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों से रचनाओं का निरंतर प्रसारण। अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान एवं पुरस्कार।

दावरी काकी बचपन से ही समझौते जीती आई थीं। पाँच बहनों में सबसे छोटी थीं, जो अवांछित आ गई थीं, इस आशा में कि अबकी बार शायद कुल का दीपक आ जाए।
उनके जन्म से माँ की हैसियत दो कौड़ी से भी कम हो गई थी। माँजी के ससुरजी ने कहा था कि इससे अच्छा तो था बाँझ ही रहती। पाँच-पाँच चुड़ैल घर में आ गईं। अब इनका बोझा मेरा बेटा कैसे उतारेगा। 
गोदावरी के गाँव के पास एक तालाब था, जिसमें वह बहनों के साथ शौच के बाद नहाने और कपड़े धोने जाया करती थी। 
वहाँ जाने पर माँ का सिखाया मंत्र पाँचों बहनें पढ़तीं—
ठुइयाँ भुइयाँ धरम तुहार, 
पाँचों बहिनी धरम तुहार, 
तू मामा हम भैनें तुहार।
उसने माँ से पूछा था कि हमें ऐसा क्यों कहना चाहिए? माँ ने बताया था कि इसी तालाब में पाँच लड़कियाँ एक साथ डूबकर मरी थीं। पाँचों नहा रही थीं, एक लड़की का पैर गड्ढे में पड़ा, वह डूबने लगी, दूसरी ने बचाने को हाथ बढ़ाया, वह भी डूबने लगी, इस तरह पाँचों डूब गई थीं। 
गोदावरी सोचती, कहीं हम पाँचों भी ऐसे ही न डूब जाएँ। लेकिन माँ ने तो इसीलिए मंत्र सिखाया है कि मंत्र बोलो तो रक्षा होगी। मामा-भैनें का रिश्ता क्यों कहा जाता है? पूछने पर दादी ने बताया था कि कहते हैं कि मामा अपने भानजे-भानजी को हानि नहीं पहुँचाता। दादी शेर और गाय-बछड़े की कहानी सुनातीं, जिसमें बछड़े ने मामा कहकर शेर का दिल जीत लिया था और अपनी माँ को उसका शिकार होने से बचा लिया था।
गोदावरी की हर बहन का भिन्न स्वभाव था। सबसे बड़ी हवा से भी बजनी बाजती है, ऐसा गाँव की औरतें कहती थीं।
 नंबर-दो को लोग कहते थे कि ई गेदहरी (लड़की) ठस्स है, जहाँ अड़ गई वहीं जमी रहती है, कोई लाख कहे सुनती नहीं है। 
नंबर-तीन सबसे हँसोड़ थी, उसकी बातें सुनकर लोग लोटपोट हो जाते थे। 
नंबर-चार तो बात-बात पर रोती थी, खुशी हो या दु:ख, उसकी आँखें भर ही आती थीं। बरसती भी थीं। 
नंबर-पाँच पर गोदावरी थी, जो सबकी सुनती, सहती, सबकी बात मानती, सबके सुख-दु:ख की चिंता करती, सबकी सेवा करती।
बाबा बीमार हुए तो उसने जी-जान से उनकी सेवा की। उसे याद करके बाबा पछताते हुए रोने लगते थे। अरे गोदा! मैंने तेरा सबसे ज्यादा तिरस्कार किया था, सबसे ज्यादा दु:ख दिया था। पर तूने मेरी इतनी सेवा की। बिटिया! मुझे क्षमा कर दे, नहीं तो ऊपर वाला भी मुझे माफ नहीं करेगा।
गोदावरी की चार बहनों की शादी हो गई थी, बड़ी बहन के मर जाने पर उसके पति से नंबर-दो की शादी कर दी गई थी। दुहाजू पति की उम्र में पंद्रह वर्ष का अंतर था, पर लड़कों की उम्र थोड़े देखी जाती है। लड़की की इच्छा-अनिच्छा का तो प्रश्न ही नहीं था। वह ‘ठस’ (जिद्दी) थी, उसके लिए वर तलाशना बहुत कठिन था। 
तीसरी को दूर के रिश्ते की निःसंतान बुआ ने अपने देवर के लिए चुन लिया था। यह सोचकर कि देवरानी बनकर आएगी तो सेवा भी करेगी और आदर भी देगी, अपनी भतीजी है, उसके हँसोड़ स्वभाव पर सभी न्योछावर थे। 
चौथी को एक कवि ने पसंद कर लिया था, उन्हें उसकी आँखों में भरे आँसुओं में प्रेम का सागर लहराता दिखता था। वह उसकी संवेदनशीलता के कायल थे। 
अब बची रह गई थी गोदावरी, कई रिश्तेदारों ने आकर उसका हाथ अपने पुत्र के लिए माँगा, क्योंकि उसकी सहनशीलता और कर्मठता के सभी कायल थे। 
गोदावरी का विवाह सेना के रिटायर्ड कर्नल के बेटे से हो गया। पति भी फौज में थे। घर में पूरा फौजी अनुशासन था। गोदावरी ने मायके की लसर-पसर गृहस्थी सँभाली थी। यहाँ की अनुशासनबद्ध गृहस्थी के साथ भी समझौता कर लिया। 
गोदावरी दो बेटों की माँ बनी। बच्चे अनुशासन की जकड़बंद व्यवस्था से विद्रोह कर उठे। वे नए जमाने की शानो-शौकत और आरामतलब जिंदगी जीने लगे। माँ ने उनसे भी समझौता कर लिया। सास सरलमना थीं, बहू को वही पसंद करके लाई थीं, सास-ससुर की सेवा मन से कर रही थीं। 
अब गोदावरी की पहली बहू आई, सभी सासों की तरह गोदावरी ने भी जो सपनों का महल सँजोया था, वह ध्वस्त हो गया।
जब तक छोटे देवर का विवाह नहीं हुआ, तब तक तो किसी तरह परिवार गोदावरी की कोशिशों से जुड़ा रहा। वह रात-दिन सबको खुश रखने में सबके लिए सुविधा जुटाने में स्वयं को खपाती रही। सास-ससुर पति, बेटे, बहू—सभी की सेवा में वह चुकती रही। परिवारकर्ता के रूप में गौरवबोध लिये हुए। 
छोटे बेटे का विवाह होते ही दूसरी बहू आई तो बड़ी को लगा कि मेरी उपेक्षा हो रही है। उसकी कोई प्रशंसा कर दे तो वह बैरी लगने लगे। धीरे-धीरे कटुता बढ़ती गई, छोटी भी नारी अस्मिता के अहम के बोध से भरी थी। दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं। पलड़े का संतुलन बनाए रखने के लिए गोदावरी तराजू बनकर कोशिश करती रही, परंतु तालमेल नहीं कर सकी। 
बड़े ने अपना घर अलग बसा लिया, पर बड़ी बहू को इससे भी संतोष नहीं हुआ। उसे लगता कि सास-ससुर छोटे को सबकुछ दे देंगे, मेरा अधिकार भी छीन लेंगे।
गोदावरी को अब मानसिक यंत्रणा होने लगी। शरीर से अधिक मन थकने लगा। किसी से सेवा की अपेक्षा तो चुक ही गई थी। सबकी सेवा करके कुछ सुधारने, संतुष्ट करने का उत्साह भी चुक गया। उसके पति को भी बहुएँ अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी ओर करने की चेष्टा करती रहतीं।
पुत्र अपनी-अपनी पत्नी के अधीन थे ही, जो वे कहलवातीं, माँ को वही कहते। धीरे-धीरे शिष्टाचार का भी लोप होता जा रहा था। जिन संस्कारों को डालने के लिए उसने जीवन भर तप किया था, वे कपूर से उड़ गए थे। अपने आसपास के परिवेश में भी संस्कारों की प्रतिष्ठा के लिए वह लगातार कोशिश करती रही। बहुत से लोगों ने उसे श्रेय दिया और अपने बच्चों को उसके पास भेजना चाहा। वहीं उसके अपने बच्चे से कन्नी काटने का और दूर करने का उपक्रम करते रहे।
गोदावरी सोचती और हताश होती, पर उसने मन को समझा लिया था। धीरे-धीरे मन निर्लिप्त हो गया। घर की व्यवस्था में रात-दिन चकरघिन्नी खाने वाली गोदावरी ने हथियार डाल दिए। 
अब तो लोग उसे चिढ़ाने के लिए घर में अव्यवस्था पैदा करते, गंदगी फैलाते, उसकी इच्छा के विरुद्ध आचरण करते, पर वह चुप रहती। वही लोग उसे उकसाते, खीझने को बाध्य करते, पर वह अाक्रोश पीने लगी थी। जन्म से ही अभ्यासी थी। 
वह सोचती, क्या यह मेरी हार है, पर उसके भीतर बैठा अपना आत्मबोध उससे कहता था कि यह तेरी हार नहीं शक्ति है, जीत है। 
इधर काया क्षीण होती जा रही थी तो मन भी कातर हो रहा था। अपनों के दुर्व्यवहार से जाने कितने छेद मन में बन गए थे। कील निकाल देने पर भी छेद तो बने ही रहते हैं। यहाँ तो क्षमा माँगकर कील निकालने की कोशिश भी किसी ने नहीं की थी। 
प्रभु नाम उसके मन में गूँजता रहता था, वह पुकारती मेरी सहने की, कर्तव्य करते रहने की टेक रख लेना प्रभु। वह गुनगुनाती ‘अब मोरी राखो टेक हरी’ उसकी तर्ज पर उसने कई भजन रचे थे। उसके होंठों पर एक पंक्ति उठते-बैठते हरदम फूटती रहती—‘रखियो टेक हमारी प्रभुजी!’ 
उसे विश्वास था कि यह टेक प्रभु जरूर रखेंगे। उसका विश्वास जीत गया। किसी की सेवा नहीं ली। 
पूजा पर बैठे-बैठे हाथ में माला जप रही थी, अचानक धुकधुकी बढ़ गई, सीने में दर्द होने लगा, पूजा की चौकी पर सिर टिका लिया। हे राम की आह निकली और प्राण पखेरू उड़ गए। हाथ में कलम थी और राम-नाम लिखने की काॅपी थी। काॅपी भर चुकी थी। राम नाम बैंक में जमा कर नई लानी थी। 
खबर पाकर परिवार जुटा, उनकी पूजा की चौकी पर नेत्रदान, देहदान के कागज उस दिन ऊपर ही रखे थे। क्या गोदावरी को पूर्वाभास था कि प्रभु टेक रखने वाला है?


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