पद्माकर और ग्वाल कवि की नोक-झोंक

पद्माकर और ग्वाल कवि समकालीन थे। दोनों ही भिन्न-भिन्न राजाओं द्वारा सम्मानित थे और दोनों के ही कवित्व की धाक देश में फैली हुई थी। पाकर ने एक छंद लिखा—
जब लौं घर को धनी आवै घरैं, तब लौं इतनो करि जैबो करौ।
‘पदमाकर’ ये ‌बछरा, अपने बछरान के संग चरैबो करौ॥
अब औरन के घार सों हमतें तुम दूनी दुहावनी लैबो करौ।
नित साँझ-सकारे हमारी ह हा! हरि! गैया भल दुहि जैबौ करौ॥
छंद सुंदर और गठा हुआ है। बड़ा स्वाभाविक है। उसमें सरल प्रवाह है। भाषा बड़ी प्रांजल और सरल है। यह लोगों को बहुत पसंद आया और जैसा कि उस समय प्रथा थी, ‘पढ़ंतों’ में बड़ा जनप्रिय हो गया। ग्वाल कवि के शिष्यों को शायद पाकर के एक छंद की इतनी जनप्रियता बहुत अच्छी न लगी। उन्होंने ग्वाल कवि से इसकी चर्चा की। ग्वाल कवि ने भी इसी विषय पर एक छंद बनाया—
यह लात-चलावनी हाय! गऊ, हर एक सों नहि छुहावनी है।
सुनि तेरी तरीफ मिलावनी की हित तेरे सुमाल पुहावनी है॥
‘कवि ग्वाल’ चराय लै आवनी है, अरु बाँधनी पौर सुहावनी है।
मनभावनी दैहों दुहावनी मैं, यह गाय तुही पै दुहावनी है॥
और इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्वाल के छंद का अंतिम चरण पाकर के छंद के तीसरे चरण से बहुत ऊँचा उठ गया है। पाकर की ग्वालिन तो ‘दूनी-दुहावनी’ से आगे न सोच सकी, किंतु ग्वाल कवि की ग्वालिन ने कोई सीमा ही नहीं रखी, वह तो ‘मनभावनी सुहावनी’ देने को तैयार है और उसने निश्चय कर लिया है कि ‘यह गाय तुही पै दुहावनी है।’ पाकर की ग्वालिन ‘ह-हा’ खा के ही संतोष कर लेती है। पाकर की ग्वालिन ने तो ‘जब लौं घर को धनी आवै घरैं’ तब तक के लिए ही कृष्ण को बुलाने को सोचा है, किंतु ग्वाल की गोपी ने लातचलावनी को दुहाने के बहाने कृष्ण के दर्शन सदैव करने का पुष्ट बहाना खोज लिया है। भाव की दृष्टि से ग्वाल का यह छंद अवश्य बहुत ऊँचा उठ गया है, किंतु पाकर की भाषा में जो प्रवाह और प्रांजलता है, वह ग्वाल के इस छंद की भाषा में नहीं है। ‘हर एक’ और ‘तरीफ’ (तारीफ) खटकते हैं। और दूसरे चरण का अंतिम भाग तो ठूँसठाँस मात्र है।

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