सरयू पार की यात्रा

अयोध्या
कल साँझ को चिराग जले रेल पर सवार हुए, यह गए, वह गए। राह में स्टेशनों पर बड़ी भीड़ न जाने क्यों? और मजा यह कि पानी कहीं नहीं मिलता था। यह कंपनी यजीद के खानदान की मालूम होती है कि ईमानदारों को पानी तक नहीं देती। या सिप्रस का टापू सरकार के हाथ आने से और शाम में सरकार का बंदोबस्त होने से यह भी शामत का मारा शामी तरीका अखतियार किया गया है कि शाम तक किसी को पानी न मिले। स्टेशन के नौकरों से फरियाद करो तो कहते हैं कि डाक पहुँचावें, रोशनी दिखलावें कि पानी दें। खैर, ज्यों-त्यों कर अयोध्या पहुँचे। इतना ही धन्य माना कि श्रीरामनवमी की रात अयोध्या में कटी। भीड़ बहुत ही है, मेला दरिद्र और मैले लोगों का। यहाँ के लोग बड़े ही कंगाल टिर्रे हैं। इस वक्त दोपहर को अब उस पार जाते हैं। ऊँटगाड़ी यहाँ से पाँच कोस पर मिलती है।
कैंप हरैया बाजार
अब तक तीन पहर का सफर हो चुका है और सफर भी कई तरह का और तकलीफ देने वाला। प​िहले सरा से गाड़ी पर चले। मेला देखते हुए रामघाट की सड़क पर गाड़ी से उतरे। वहाँ से पैदल धूप में गरम रेती में सरयू किनारे गुदारा घाट पर पहुँचे। वहाँ से मुश्किल से नाव पर सवार होकर सरयू पार हुए। वहाँ से बेलवाँ, जहाँ कि डाक मिलती है और शायद जिसका शुद्ध नाम बिल्व ग्राम है, दो कोस है। सवारी कोई नहीं, न राह में छाया के पेड़, न कुआँ, न सड़क। हवा खूब चलती थी, इससे पगडंडी भी नहीं नजर पड़ती, बड़ी मुश्किल से चले और बड़ी ही तकलीफ हुई। खैर, बेलवाँ तक रो-रोकर पहुँचे। वहाँ से बैल की डाक पर नौ बजे रात को वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही हरैया बाजार के नाम से यह गीत याद आया, ‘हरैया लागल झबिआ के रे लैहैं ना’। शायद किसी जमाने में यहाँ हरैया बहुत बिकती होगी। इसके पास ही मनोरमा नदी है। मिठाई हरैया की तारीफ के लायक है। बालूसाही बिल्कुल बालूसाही भीतर काठ के टुकड़े भरे हुए। लड्डू ‘भूरके’। बरफी हा-हा-हा! गुण से भी बुरी। खैर, लाचार होकर चने पर गुजर की। गुजर गई गुजरान—क्या झोंपड़ी, क्या मैदान, बाकी हाल कल के खत में।
बस्ती
परसों पहिली एप्रिल थी, इससे सफर करके रेती में बेवकूफ बनने का और तकलीफ में सफर करने का हाल लिख चुके हैं। अब आज आठ बजे सुबह रें-रें करके बस्ती पहुँचे। वाह रे बस्ती, झख मारने को बस्ती है, अगर बस्ती इसी को कहते हैं तो उजाड़ किसको कहेंगे। सारी बस्ती में कोई भी पंडित बस्तीरामजी, ऐसा पंडित नहीं। खैर, अब तो एक दिन यहीं बसती होगी। राह में मेला खूब था, जगह-जगह पर शहाबे का शहाबा। चूल्हे जल रहे हैं। सैकड़ों अहरे लगे हुए हैं। कोई गाता है, कोई बजाता है, कोई गप हाँकता है। रामलीला के मेले में अवध प्रांत के लोगों का स्वभाव रेल अयोध्या और इधर राह में मिलने से खूब मालूम हुआ। बैसवारे के पुरुष अभिमानी, रूखे और रसिकमन्य होते हैं, रसिकमन्य ही नहीं, वीरमन्य भी। पुरुष सब पुरुष और सभी भीम, सभी अर्जुन, सभी सूत पौराणिक और सभी वाजिद अली शाह। मोटी-मोटी बातों को बड़े आग्रह से कहते, सुनते हैं। नई सभ्यता अब तक इधर नहीं आई है। रूप कुछ ऐसा नहीं, पर स्त्रियाँ नेत्र नचाने में बड़ी चतुर। यहाँ के पुरुषों की रसिकता मोटी चाल सुरती और खड़ी मोंछ में छिपी है और स्त्रियों कि रसिकता मैले वस्त्र और सूप ऐसी नथ में। अयोध्या में प्राय: सभी ग्रामीण स्त्रियों के गोल आते हुए मिले। उनका गाना भी मोटी रसिकता का। मुझे तो उनकी सब गीतों में ‘बोलो प्यारी सखियाँ सीताराम राम राम’ यही अच्छा मालूम हुआ। राह में मेला जहाँ पड़ा मिलता था, वहाँ बारात का आनंद दिखलाई पड़ता था। खैर, मैं डाँक पर बैठा-बैठा सोचता था कि काशी में रहते तो बहुत दिन हुए, परंतु शिव आज ही हुए, क्योंकि बृषभवाहन हुए। फिर अयोध्या याद आई कि हाँ! यह वही अयोध्या है, जो भारतवर्ष में सबसे पहले राजधानी बनाई गई। इसी में महात्मा इक्ष्वाकु, मांधाता, हरिश्चंद, दिलीप, अज, रघु, श्रीरामचंद्र हुए हैं और इसी के राजवंश के चरित्र में बड़े-बड़े कवियों ने अपनी बुद्धिशक्ति की परिचालना की है। संसार में इसी अयोध्या का प्रताप किसी दिन व्याप्त था और सारे संसार के राजा लोग इसी अयोध्या की कृपाण से किसी दिन दबते थे, वही अयोध्या अब देखी नहीं जाती। जहाँ देखिए, मुसलमानों की कब्रें दिखाई पड़ती हैं। और कभी डाँक पर बैठे रेल का दुःख याद आ जाता कि रेलवे कंपनी क्यों ऐसा प्रबंध किया है कि पानी तक न मिले। एक स्टेशन पर एक औरत पानी का डोल लिये आई भी तो ‘गुपला-गुपला’ पुकारती रह गई, जब हम लोगों ने पानी माँगा तो लगी कहने कि ‘रह: हो पानियैं पानी पड़ल हौं’, फिर कुछ ज्यादा जिद में लोगों ने माँगा तो बोली ‘अब हम गारी देब’। वाह! क्या इंतजाम था। मालूम होता था, रेलवे कंपनी स्वभाव (Nature) की बड़ी शत्रु है, क्योंकि जितनी बातें स्वभाव से संबंध रखती हैं, अर्थात् खाना, पीना, सोना, मलमूत्र त्याग करना, इन्हीं का इसमें कष्ट है। शायद इसी से अब हिंदुस्तान में रोग बहुत है। कभी सराय की खाट के खटमल और भटियारियों का लड़ना याद आया। यही सब याद करते कुछ सोते-जागते, हिलते-हिलते आज बस्ती पहुँच गए। बाकी फिर। यहाँ एक नदी है, उसका नाम कुआनय। डेढ़ रुपया पुल का गाड़ी का महसूल लगा।
बस्ती के जिले की उत्तर सीमा नेपाल, पश्चिमोत्तर की गोंडा, पश्चिम-दक्षिण अयोध्या और पूरब गोरखपुर है। नदियाँ बड़ी इसमें सरयू और इरावती। सरयू के इस पार बस्ती, उस पार फैजाबाद। छोटी नदियों में कुनेय, मनोरमा, कठनेय, आमी, बानगंगा और जमबर हैं। बरकरा ताल और जिरजिरवा दो बड़ी झील भी हैं। बाँसी, बस्ती और मकहर तीन राजा भी हैं। बस्ती सिर्फ चार-पाँच हजार की बस्ती है, पर जिला बड़ा है, क्योंकि जिले की आमदनी चौदह लाख है। साहब लोग यहाँ कुल दस-बारह हैं, उतने ही बंगाली हैं। अगरवाला मैंने खोजा, एक भी न मिला, सिर्फ एक है, वह भी गोरखपुरी। पुरानी बस्ती खाई के बीच में बसी है। राजा के महल बनारस के अर्दली बाजार के किसी मकान से उमदा नहीं। महल के सामने मैदान, पिछवाड़े जंगल और चारों ओर खाई हैं। पाँच सौ खटियों के घर महल के पास हैं, जो आगे किसी जमाने में राजा के लूटमार के मुख्य सहायक थे। अब राजा के स्टेट के मैंनेजर कूक साहब हैं।
यहाँ के बाजार का हम बनारस के किसी भी बाजार से मुकाबला नहीं कर सकते। महज बेहैसियत। महाजन एक यहाँ है, वह टूटे खपड़े में बैठे थे। तारीफ यह सुना कि साल भर में दो बेर कैद होते हैं, क्योंकि महाजन पर जाल करना फर्ज है और उसको भी छिपाने का शऊर नहीं। यहाँ का मुख्य ठाकुरद्वारा दो-तीन हाथ चौड़ा और उतना ही लंबा और उतना ही ऊँचा, बस। पत्थर का कहीं दर्शन भी नहीं। यह हाल बस्ती का है। कल डाँक ही नहीं मिली कि जाएँ। मेंहदावल की कच्ची सड़क है, इससे कोई सवारी नहीं मिलती, आज कहार ठीक हुए हैं। भगवान् ने चाहा तो शाम को रवाना होंगे। कल तो कुछ तबीयत भी गबड़ा गई थी, इससे आज खिचड़ी खाई। पानी यहाँ का बड़ा बातुल है। अकसर लोगों का गला फूल जाता है, आदमी का ही नहीं, कुत्ते और सुग्गे का भी। शायद गला फूल कबूतर यहीं से निकले हैं। बस अब कल मिंहदावल से खत लिखेंगे।
मेंहदावल
आज सुबह सात बजे मेंहदावल पहुँचे। सड़क कच्ची है। राह में एक नदी उतरनी पड़ती है, उसका नाम आमी है। छह आना पुराना महसूल लगा। रात को ग्यारह बजे पालकी पर सवार हुए। बदन खूब हिला। अन्न भी नहीं पचा। इस वक्त यहाँ पड़े हैं। यहाँ मक्खी बहुत हैं और आबादी बहुत है। लड़कों के दो स्कूल हैं और एक लड़कियों का स्कूल है और एक डाक्तरखाना है। बस्ती शहर है, मगर उससे यह मेंहदावल गाँव बहुत आबाद है। फैजाबाद में ५॥) बस्ती तक डाँक का लगा और बस्ती से मेंहदावल तक ३॥।) पालकी का। अभी एक गँवार भाट आया था, बेतरह बका। फूहर औरतों की तारीफ में एक बड़ी भारी पचड़ा पढ़ा। यहाँ गरमी बहुत है और मक्खियाँ लखनऊ से भी ज्यादा। दिन को बड़ी बेचैनी है।
यहाँ की औरतों का नाम श्यामतोला, रामतोला, मनतोरा इत्यादि विचित्र-विचित्र होता है और नारंगी को भी यही श्यामतोला कहते हैं, जो संगतरा का अपभ्रंश मालूम होता है, क्योंकि यहीं के गँवार संतोला कहते हैं। यहाँ एक नाऊ बड़े पंडित थे। उनसे किसी पंडित ने प्रश्न किया ‘कि दूध’ (तुम कौन जात हो) तब नाई ने जवाब दिया, ‘चटपटाक-चटपटाक’ (नाई), तब ब्राह्म‍ण ने कहा, ‘तं दूर’ (तुम दूर जाओ), तब नाई ने जवाब दिया, ‘कि’ छौर’ (तब मूड़ कौन मूड़ेगा)। एक का बाप डूबकर मर गया उसके बाप का पिंडा इस मंत्र से कराया गया ‘आर गंगा पार गंगा बीच में पड़ गई रेत। तहाँ मर गए नायका चले बुज-बुजा देत, धर दे पिंडवा।’ 
कुछ फुटकर हाल भी यहाँ का सुन लीजिए। कल मजहब का हाल हमने नीचे लिखा था। उसका अच्छी तरह से हाल दर्याफ्त किया तो मालूम हुआ कि हमारे ही मजहब की शाखा है। इनके ग्रंथों में हमने एक श्लोक श्री महाप्रभुजी की सुबोधिनी की कारिका का देखा, इसी से हमको संदेह हुआ। फिर हमने बहुत खोद-खादकर पूछा तो वह साफ मालूम हुआ कि इसी मत से यह मत निकला है, क्योंकि एक बात वह और बोले कि हमारा मत श्री बल्लभाचारज की टीका में लिखा है। इन लोगों के उपास्य श्रीकृष्ण हैं और एकादशी, शालग्राम, मूर्तिपूजा, तीर्थ किसी को नहीं मानते। इनके पहले आचार्य देवचंदजी थे, जो जात के कायथ थे और दूसरे प्राणनाथजी, जो कच्छ के क्षत्री (भाटिया) थे। हमारे ही मत की शाखा सही, पर विचित्र (Reformed) मत है। वैष्णव होकर मूर्तिपूजा का खंडन करने वाले यही लोग सुनें। 
यहाँ बूढ़े को खबीस, व्रत को बेनी राम, भोजन को बुलनी, जात को दूध, ऐसे ही अनेक विचित्र-विचित्र बोली है।
गाँव गंदा बड़ा है और लोग परले सिरे के बेवकूफ। यहाँ से चार मील पर एक मोती झील व बखरा ताल नामक झील है। दर हकीकत देखने के लायक है। कई कोस लंबी झील है और जानवर तरह-तरह के देखने में आते हैं। पहाड़ से चिड़ियाँ हजारों ही तरह की आती हैं और मछली भी इफरात। पेड़ों पर बंदर भी। मेंदावल में कोई चीज भी देखने लायक नहीं। जहाँ देखो, वहाँ गंदगी। लोग बज्र मूर्ख, क्षत्री-ब्राह्म‍ण ज्यादा। एक यहाँ प्राननाथ का मजहब है और दस-बीस लोग उसके मानने वाले हैं। ये लोग एकादशी तीर्थ वगैरह को नहीं मानते और सुने-सुनाए दो-तीन श्लोक जो याद कर लिये हैं, बस उसी पर चूर हैं। ‘मदीनास्यां शरदां शतं’ और ‘गोविन्दं गोकुलानन्द मक्केश्वरं’ यह श्लोक पढ़के कहते हैं कि वेद में मक्का मदीने का वर्णन है। ऐसे ही बहुत वाहियात बात कहते हैं और कोई कितना भी कहैं, कुछ सुनते नहीं। कहते हैं कि गोलोक का नाश है और गोलोक ऊपर एक ‘अखंड मंडलाकार’ लोक है, उसमें मेरे कृष्ण हैं। इनका मजहब एक प्राणनाथ नामक एक क्षत्री ने पन्ना में करीब तीन सौ बरस हुए चलाया था। यहाँ चैत सुदी भर रात को औरतें जमा होकर माता का गीत गाती हैं और बड़ा शोर करती हैं। असभ्य बकती हैं। व्यभिचार यहाँ बेतकल्लुफ है। सरयू पार के ब्राह्म‍ण बड़े विचित्र हैं। मांस-मछली सब खाते हैं। कुएँ के जगत पर एक आदमी जाे पानी भरता हो, दूसरा आदमी चला आवै तो अपना घड़ा फोड़ डालै और उससे घड़े का दाम ले। घड़ा कोई कहे तो घड़ा छू जाए, क्योंकि घड़ा मुसलमानी लफ्ज है, दाल कहें तो छू जाए, क्योंकि दाल मुसलमानी है। सूरजवंशी छत्री राजा बाबू को छाता नहीं लगता है, क्योंकि वे तो सूरजवंशी हैं, सूरज से क्या छाता लगावें। नेम बड़ा, धरम बिल्कुल नहीं। एक ब्राह्म‍ण ने कोंहार से नई सनहकी मोल लेकर उसमें पूरी बनाकर खाया, इससे वह जात से निकाल दिया गया, क्योंकि जैसे बरतन में मुसलमान खाना बनावैं, उस आकार के बरतन में इसने हिंदू होकर खाना बनाया। हा-हा-हा! और मजा यह कि ताजिये को सब मानते हैं। मेंहदावल में एक थाना है। थानेदार यहाँ के बादशाह हैं। एक डाक्तरखाना भी है। वह बड़ा सरकार का पुन्य है। बस हमको तो सरकार के पुन्य में कसर यही मालूम होती है कि पुलों पर महसूल लिया जाता है, क्योंकि भला नाव या ऐसे पुल पर महसूल लगे तो ठीक है, जिसकी हर साल मरम्मत हो, पक्के पर भी महसूल। बस्ती में अगरवाला नहीं, एक है, सो जूता उतार कर लायची खाते हैं। मेंहदावल में एक अगरवाले हैं। मुसलमान फर्श पर यहाँ नहीं बैठते। पिंडारे, जिनको इस जिले में जमीन मिली है, अब नवाब हो गए हैं और उनकी मुस्तैदी आराम से बदल गई है। यहाँ कहीं-कहीं धारु लोगों का रखा सोना खोदने से अन्न तक मिलता है। यहाँ के बाबू ऐसे हठी कि बंगला गिर पड़ा, पर जूता उलटा था, खिदमतगार को पुकारा, वह न आया, इससे आप वहाँ से न चले और दबकर मर गए ।
गोरखपुर
अहो बरनि नहिं जात है आज लह्‍यो जो खेद। 
आतप उष्मा वायु सों चल्यो नखन सों स्वेद॥ १॥ 

प्रिय दुरगा परसाद गृह ठहरे हैं इत आय। 
बाट बिलोकत दुष्ट की रहे उतहि बिलगाय॥ २॥ 

आवत ह्वैहे दुष्ट सो लीने नग निज साथ।
पै निकस्यौ जो खोट तो रहिहैं हम धुनि माथ॥ ३॥ 

करम लिखी सो होय है यामैं कछु न सँदेह। 
बृथा लोभ बस लोग सब छाँड़त सुख मैं गेह॥ ४॥ 

“करम कमंडल कर गहे तुलसी जहँ जहँ जाय। 
सरिता सागर कूप जल बूँद न अधिक समाय॥ ५॥”

तऊ सोच नहिं कछु करिय मम प्रभु मंगल धाम। 
करिहैं सब कल्यान ही यामैं कदु न कलाम॥ ६॥ 

रजिस्टरी को पत्र इक गयो होइहैं तत्र। 
ताहि जतन करि राखियो फिरि नहिं आवै अत्र॥ ७॥ 

जेहि छन सो खल आइहैं ताही छन दिखराइ। 
ताहि तुरंतहिं लौटिहैं तितहि पहुँचिहैं आइ॥ ८॥ 

तित प्रबंध सत्र राखिहौं रहिहौं ह्वैं हुसियार। 
कीजौ रच्छा अग की करि उपाय हर बार॥ ९॥ 

आवत हैं हम बेग ही यामैं संसय नाहिं। 
अति व्याकुलता तित बिना मेरेहू जिय माहिं॥ १०॥ 

प्रति पद माधव की प्रथम रस शिव दृग ग्रह चंद। 
संवत् मंगल के दिवस लिख्यौ पत्र हरिचंद॥ ११॥
 

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