महामान्य मदनमोहन मालवीय

महामान्य मदनमोहन मालवीय

स्तक पर चंदन की बिंदी, शुभ्र श्वेत वस्त्रों में आवेष्टित गौरवर्ण देहयष्टि, स्नेह और सहिष्णुता से छलकते नयन—इस रूप का स्मरण आते ही मन-प्राण एक ऐसी पवित्रता से भर आते हैं, जिसे शब्द नहीं दिए जा सकते। हिंदुत्व में जो कुछ सर्वोत्तम है, वह जैसे महामना पं. मदनमोहन मालवीय में पुँजीभूत हो गया था। उन्नीसवीं शताब्दी ने जिन युग-निर्माताओं को जन्म दिया, उनमें वे अग्रणी थे। केवल २५ वर्ष की आयु में उन्होंने जन-सेवा का व्रत लिया और ८५ वर्ष की आयु में देहावसान के साथ ही उसका उद्यापन किया। 
इस देश में राजनीतिक चेतना का उदय उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था और उसका पूर्ण अभ्युदय हुआ बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में। उदय और अभ्युदय के इस इतिहास का कोई भी अंग ऐसा नहीं, जिसमें उनका योग न रहा हो। धर्म, शिक्षा, भाषा-साहित्य, पत्रकारिता, वकालत, आयुर्वेद, गोरक्षा, नारी-जागरण, अछूतोद्धार, संवैधानिक और असंवैधानिक स्वाधीनता-संग्राम कौन सा ऐसा क्षेत्र था, जिसने उनकी प्रतिभा का परस न पाया हो। 
वे एक विद्वान्, किंतु निर्धन पिता के पुत्र थे। बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनकी भी यही इच्छा थी कि वे अपने पूर्वजों के समान धर्म का प्रचार करें, किंतु घर की गरीबी चरमसीमा पर थी। अन्न-वस्त्र तक का अभाव था। अचानक उसी समय जिस स्कूल में पढ़े थे, अध्यापक की जगह खाली हुई। उनके एक चचेरे भाई वहाँ मुख्य पंडित थे। उन्होंने मदनमोहन से कहा, “इस जगह के लिए तुम कोशिश करो।” 
लेकिन उन्होंने मना कर दिया। भाई ने उनकी माँ से कहा। माँ उसके पास आई। उन्होंने माँ की ओर देखा। उसकी आँखें भर आई थीं। वे आँखें जैसे उनकी आँखों में उतर गईं और निमिष मात्र में उनकी सब कल्पनाएँ उन आँसुओं में डूब गईं। उन्होंने तुरंत कहा, “माँ, तुम कुछ मत कहो। मैं नौकरी कर लूँगा।” 
लेकिन जब कोई कामना अभीप्सा का रूप ले लेती है, तब उसे मार्ग मिल ही जाता है। अगले वर्ष (सन् १८८६) वे अखिल भारतीय राष्ट्रीय महासभा के दूसरे अधिवेशन में एक प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिए गए। जिस समय वहाँ ‘व्यवस्थापिका सभाओं में सुधार’ पर भाषण हो रहे थे, उन्होंने सभापति से प्रार्थना की कि उन्हें भी बोलने का अवसर दिया जाए। वे बोले और उस भाषण ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। कांग्रेस के जन्मदाता श्री ूम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा—“जिस वक्तृता को जनता ने बड़े उत्साह से सुना, वह एक उच्च-कुलीन ब्राह्म‍ण पं. मदनमोहन मालवीय की थी, जिनके गौर वर्ण और मनोहर आकृति ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। अचानक सभापति के बराबर वाली कुरसी पर पहुँचकर उन्होंने ऐसा सुंदर, प्रभावशाली और धाराप्रवाह भाषण दिया कि सब चकित रह गए।” 
कालाकाँकर के राजा रामपालसिंह ने भी वह भाषण सुना। वे जैसे मुग्ध हो उठे। इसका परिणाम यह हुआ कि अगले ही वर्ष अध्यापकी से त्यागपत्र देकर मालवीयजी राजा साहब के दैनिक पत्र ‘हिंदुस्थान’ के संपादक बन गए। उनकी प्रतिभा को मानो मार्ग मिल गया, परंतु उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया कि जिस समय राजा साहब खाते-पीते हों, उस समय वे उन्हें नहीं बुलाएँगे, लेकिन ढाई वर्ष बाद यह दुर्घटना घट गई। उस दिन राजा साहब नशे में थे। किसी काम के लिए उन्होंने मालवीयजी को बुला भेजा। काम तो उन्होंने कर दिया, परंतु उसके बाद उनसे बोले, “आज से मेरा अन्न-जल आपके यहाँ से उठ गया। आपने मुझसे जो शर्त की थी, उसे तोड़ दिया। मैं आज रात या कल सुबह चला जाऊँगा। आपकी उदारता और स्नेह को सदा याद रखूँगा।” 
और वे सचमुच चले गए। राजा साहब के उन्हें रोकने के सारे प्रयत्न विफल हो गए। लेकिन जाते समय राजा साहब ने उनसे कहा, “अच्छा जाइए, लेकिन वकालत पढ़ना न छोड़िएगा। खर्चा मैं दूँगा।” 
हाईकोर्ट के वकील के रूप में उन्हें कम ख्याति नहीं मिली, लेकिन देश-सेवा की पुकार उन्हें सदा बेचैन करती रही। अंत में उन्होंने इस क्षेत्र को भी छोड़ दिया और संपूर्ण रूप से देश के लिए समर्पित हो गए। लेकिन बहुत वर्षों के बाद एक बार फिर उन्होंने वकालत का चोगा पहना। चौरा-चौरी कांड के १५१ अभियुक्तों को उन्होंने ही फाँसी के तख्ते से उतारा था। 
राष्ट्रीय महासभा में उनका संबंध सदा ही नरम दल के साथ रहा। यद्यपि गांधीजी के प्रति उनके स्नेह की कोई सीमा नहीं थी, तथापि वे असहयोग को मन-प्राण से स्वीकार नहीं कर सके। यद्यपि हिंदू-मुसलिम प्रश्न पर भी उनका गांधीजी से मतभेद था, तथापि संकट के समय वे एक सिपाही के समान उनके झंडे के नीचे आ खड़े होते थे। उनका मतभेद सैद्धां​तिक होता था, व्यक्तिगत कभी नहीं। अवसर आने पर वे जेल गए, लाठियाँ खाईं और सरकार की तीव्र-से-तीव्र आलोचना करने से भी नहीं चूके। उन्होंने सन् १९१६ में जो लंबे-लंबे भाषण दिए, वे उनके ज्वलंत देशप्रेम और स्वाधीनता के प्रति उनकी उत्कट आकांक्षा के प्रमाण हैं। डायर के अत्याचारी शासन से पीड़ित पंजाब की उन्होंने जो सेवा की, वह सर्वविदित है। यद्यपि वे तीन बार महासभा के अध्यक्ष चुने गए, तथापि वे ईमानदारी से विश्वास करते थे कि तत्कालीन राष्ट्रीय महासभा मुसलमानों को खुश करने के लिए हिंदुओं के प्रति अन्याय करती रही है। इसी विश्वास के कारण उन्होंने ‘हिंदू महासभा’ को जन्म दिया। तीन बार उसके भी अध्यक्ष चुने गए। लेकिन जब उन्होंने यह देखा कि यह सभा भी उग्र सांप्रदायिकता और संकीर्णता की दलदल में फँसती जा रही है, तब उससे संबंध तोड़ लेने में उन्हें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं हुई। वे न्याय चाहते थे, पक्षपात नहीं। यद्यपि वे कट्टर हिंदू थे, तथापि मुसलमानों से वे गांधीजी से कम प्रेम नहीं करते थे, सांप्रदायिक उत्पात के भयानक दिनों में अपने प्राणों को संकट में डालकर वे कई बार मुसलमानों के मुहल्ले में खाना लेकर गए थे। वे कहते थे, “मेरा अपने धर्म पर दृढ़ विश्वास है, परंतु पर-धर्म का अपमान करने की कल्पना मेरे मन को छू तक नहीं गई। मैं मनुष्यता का पूजक हूँ। मनुष्यता के आगे मैं जात-पाँत नहीं मानता। मंदिर अथवा मसजिद नष्ट-भ्रष्ट करने से धर्म की श्रेष्ठता नहीं बढ़ती। हिंदू और मुसलमान दोनों में जब तक प्रेमभाव नहीं होता, तब तक किसी का भी कल्याण नहीं होगा।” 
इस प्रश्न को सुलझाने के लिए उन्होंने प्रयाग में (सन् १९३२) एकता सम्मेलन भी बुलाया था, परंतु अंग्रेजों की भेद-नीति के कारण वह सफल नहीं हो सका। वस्तुतः इस प्रश्न को हर किसी ने मात्र भावनात्मक स्तर पर ही देखा। इसके आर्थिक और सामाजिक पहलू पर किसी की भी दृष्टि नहीं गई। मालवीयजी भी इतने धार्मिक थे कि वे अपवाद नहीं हो सकते थे। कट्टर सनातनी और कर्मकांड के प्रबल समर्थक वे जीवन-भर सनातन धर्म सभा, महावीर दल और भारत धर्म महामंडल की स्थापना ही करते रहे। अखिल भारतीय सनातन धर्म सभा के तीन बार सभापति बने। गंगा नहर, हरकी पैड़ी तथा प्रयाग में अर्द्ध-कुंभी के अवसर पर लगी पाबंदी के विरुद्ध उन्होंने सत्याग्रह किया। यद्यपि वे अपनी जाति के ब्राह्म‍ण के अलावा किसी के हाथ का बना भोजन ग्रहण नहीं करते थे, तथापि इसके साथ यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने अपने युग के साथ चलने का पूरा प्रयत्न किया। जिस समय सांप्रदायिक निर्णय के विरुद्ध गांधीजी ने आमरण अनशन किया था, उस समय उन्होंने सवर्णों और अछूतों में समझौता कराने के लिए दिन-रात एक कर दिया। उन्होंने स्वयं अछूतों को मंत्र-दीक्षा दी थी और इस अपराध का दंड देने के लिए एक शिखासूत्रधारी गुंडा छुरा लेकर उन पर टूट पड़ा था। 
उस युग में वे निश्चय ही उन विरल पुरुषों में से थे, जो आने वाले प्रकाश को देख लेते हैं। इसीलिए विभिन्न मतों के बीच केवल वे ही भारतीय एकता की मूर्ति के समान दिखाई देते हैं। राजा-महाराजा, गवर्नर वायसराय तथा गांधी-नेहरू जैसे विद्रोही समान रूप से उनका आदर करते थे। 
भाषा के क्षेत्र में भी उनकी सेवाएँ कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। युक्त प्रांत की अदालतों में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए उन्होंने अनथक परिश्रम किया था। उन्हीं के कारण यह नागरी आंदोलन (१८६८) सफल हो सका था। हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई। दो बार वे उसके अध्यक्ष भी चुने गए। पत्रकारिता की दीक्षा उन्होंने दैनिक ‘हिंदुस्थान’ का संपादन करके पाई थी। उसके बाद उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी के कई पत्रों का संपादन किया। अभ्युदय, लीडर, सनातन धर्म, मर्यादा और हिंदुस्तान टाइम्स जैसे पत्रों के वे संस्थापक भी थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि अपने प्रारंभिक जीवन में वे कवि भी रहे हैं। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की पत्रिका ‘हरिश्चंद्र-चंद्रिका’ में उनकी अनेक समस्यापूर्तियाँ प्रकाशित हुईं। वे सुंदर गायक भी थे। राग-रागिनियों का उन्हें पूर्ण ज्ञान था। उन्होंने अभिनय भी किया है। वे सुंदर थे, इसलिए नारी-पात्र के रूप में वे अनेक बार मंच पर आए। 
उनकी गतिविधियों के व्यापक क्षेत्र को देखकर आश्चर्य होता है। उन्होंने सेवा समिति (१९१४) की स्थापना की। अखिल भारतीय आयुर्वेद सम्मेलन के जयपुर अधिवेशन (११२६) के वे अध्यक्ष चुने गए। लेकिन उनका सबसे महान् और महत्त्वपूर्ण योगदान शिक्षा के क्षेत्र में ही है। ऐसे बहुत कम व्यक्ति होते हैं, जो इतने व्यापक रूप में इतनी महान् कल्पनाएँ करते हैं। वे व्यक्ति और भी कम होते हैं, जो अपनी साधना के बल पर उन कल्पनाओं को मूर्त रूप देने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। मालवीयजी उन्हीं विरल व्यक्तियों में मूर्धन्य थे। उन्हीं ने १ जनवरी, १९०६ को काशी में राष्ट्रीय महासभा के पंडाल में ‘हिंदू विश्वविद्यालय’ स्थापित करने की घोषणा की और दस वर्ष बाद ४ फरवरी, १९१६ को वसंत पंचमी के दिन उसका शिलारोपण करवाया। उन दिनों उनकी जबान पर बस यही एक वाक्य था, “फकीर कौम के आए हैं, झोलियाँ भर दो।” और सचमुच कौम ने उनकी झोली भर दी थी। यह कहानी भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। वे आदर्श भिखारी थे। उनका मंत्र था—‘कोई चिंता नहीं’। एमरसन ने ठीक कहा है, “कोई भी संस्था अपने संस्थापक की लंबी छाया होती है।” काशी विश्वविद्यालय सचमुच मालवीयजी की एक सुदीर्घ छाया है। कुछ लोगों का विचार है कि इस संस्था के कारण उनका क्षेत्र संकुचित हो गया, नहीं तो वे देश का नेतृत्व अधिक शक्ति से कर सकते। 
लेकिन ऐसा सोचना एक भ्रममात्र है। उनका व्यक्तित्व किसी भी क्षण देश के व्यक्तित्व से अलग नहीं हुआ। वे नियम-निष्ठ और आस्थावान व्यक्ति थे। वे जानते थे कि उनकी सीमा कहाँ तक है। उस सीमा को लाँघने का उन्होंने कभी प्रयत्न नहीं किया, लेकिन उसके भीतर पूर्ण समर्पण की भावना से काम किया। इसीलिए उनका क्षेत्र इतना व्यापक और उनकी कार्यक्षमता इतनी अद्भुत दिखाई देती है। आश्चर्य होता है कि क्या यह सब एक ही व्यक्ति ने किया है? 
उनका जीवन, पहनावा और खान-पान सभी सदा सादा रहा। पर नियम और स्वच्छता से उन्हें अत्यंत प्रेम था। वे स्वयं सुंदर, स्वस्थ और मधुरभाषी थे। उनमें एक ऐसा आकर्षण था कि संपर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपना बना लेते थे। यह आकर्षण उनमें इन्हीं अद्भुत चारित्रिक विशेषताओं के कारण पैदा हुआ था। मुझे बहुत अच्छी तरह याद है कि जिस समय उन्होंने सांप्रदायिक निर्णय को लेकर कांग्रेस से अलग राष्ट्रीय दल की स्थापना की थी, तब वे उस बुढ़ापे में भी चुनाव सभाओं में भाषण देने के लिए देश में घूमे थे। पंजाब के एक छोटे से नगर में कांग्रेस की ओर से सरदार पटेल और राष्ट्रीय दल की ओर से मालवीयजी एक साथ ही पहुँचे। एक ही स्थान पर आमने-सामने दोनों मंच लगे हुए थे। जैसे ही मालवीयजी भाषण देकर चले, वैसे ही सरदार पटेल की कार वहाँ आ पहुँची। मालवीयजी ने तुरंत अपनी कार रोकी और दोनों नेता कई क्षण तक बड़े प्रेम से हँसते-बतियाते रहे। 
लोगों का विश्वास था कि अत्यंत सरलप्राण और निश्छल व्यक्ति होने के कारण कोई भी उन्हें ठग सकता था। वे ठगे भी अवश्य जाते थे, लेकिन इसलिए नहीं कि वे सरलप्राण थे, बल्कि इसलिए कि वे देश को निश्छल मन से प्यार करते थे और उसकी मुक्ति के लिए कुछ भी कर सकते थे। अपने देहावसान से कुछ दिन पूर्व रुग्णावस्था में ही वे दिल्ली आए थे। उनकी शारीरिक चेतना बहुत शिथिल पड़ गई थी। उनकी वाणी उनका साथ नहीं दे रही थी। हाथ-पैर काम नहीं करते थे, परंतु उनकी आँखों में तब भी यौवन का तेज छलकता था। हृदय में अनंत भाव उभर रहे थे। शरीर जर्जर हो चुका था, परंतु आत्मा युवा थी। वे गांधीजी से कहने आए थे कि वे ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजे गए प्रस्तावों को स्वीकार कर लें। उसी समय हिंदी के कुछ लेखक और प्रेमी उनसे मिलने के लिए गए। मैंने देखा, भारतीय राष्ट्रीयता का वह भीष्म पितामह अपनी शरशैया पर शांत लेटा हुआ है। आँखें चारों ओर देख रही हैं मानो बदलते युग को पहचानने का प्रयत्न कर रही हों। वे बहुत कुछ कहना चाहते हैं, पर वाणी को स्वर नहीं मिल रहा। उनके पुत्र ने अपना कान उनके मुख पर रख दिया। मानो पुत्र के मुख से ही वे बोलने लगे। एक परात-भर लड्डू वहाँ लाए गए। वे अपने हाथ से सबको देना चाहते थे, लेकिन इतनी शक्ति भी उनमें नहीं रह गई थी। उन्होंने उन लड्डुओं को बड़ी कठिनता से छू भर दिया। मेरा हृदय उमड़ आया। हिंदी साहित्य सम्मेलन के बनारस अधिवेशन में मैंने उनका भाषण सुना था। 
चुनाव सभा में उनकी धीमी पर मधुर वाणी से मतभेद होने के बावजूद मैं रोमांचित हो उठा था। उस दिन उसी समर्थ युग-निर्माता की असमर्थता देखकर मेरा हृदय दर्द से टीस उठा। 
उनकी मृत्यु के साथ भारतीय जागरण का एक युग समाप्त हो गया। वे क्रांतिकारी नहीं थे, परंतु क्रांतद्रष्टा निश्चय ही थे। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा को देखकर उन्हें चमत्कारी पुरुष कहा जाता है। चामत्कारिक शक्तियाँ केवल प्रतिभा और परिश्रम से ही प्राप्त नहीं होतीं, बल्कि इस कारण प्राप्त होती हैं कि वह व्यक्ति शुद्ध हृदय से काम करता है और दूसरों के प्रति उसकी करुणा की सीमा नहीं होती। उनकी करुणा की सीमा न थी। वे प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, परंतु जब कभी भी उनके मस्तिष्क और हृदय में संघर्ष होता तो विजय हृदय की ही होती थी, क्योंकि वह तपस्वी ब्राह्म‍ण का हृदय था। 
तपस्वी ब्राह्म‍ण का यही हृदय उनकी महत्ता की कुंजी था और सीमाओं का भी।

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