गोदावरी, मुझे भूल न जाना

गोदावरी, मुझे भूल न जाना

जी चाहता था कि नौका रुके नहीं, चलती रहे, चलती जाए। मेरा और इस मल्लाह का मुकाबला ही क्या! मैंने सोचा कि वह खुले आजाद पानियों का बेटा है। लंबा कद, तने हुए पुट्ठे, चौड़ा सीना—चालीस अंगुल से तो क्या कम होगा। खाली हाथ दस आदमियों को पछाड़ सकने का साहस। आँखों में एक गुस्ताख मुसकान। हू-ब-हू मँजे हुए ताँबे जैसा रंग। इतनी कमी रह गई थी कि लँगोटी और शरीर का रंग मिलकर एक नहीं हो गया था। तना हुआ सीना, तने हुए बाजू, तनी हुई रानें और पिंडलियाँ—जैसे उनके अंदर रबड़ के गुब्बारे खूब दबाकर भर दिए गए हों। सिर पर घुँघराले बालों ने अवश्य किसी भँवर को देखकर गोल-गोल कुंडलों में मुड़ते रहने का ढंग सीख लिया था। 
खुले आजाद पानियों की एक-एक बात उसे याद थी। भयानक तूफानों की भयानक कहानियाँ उसे थाती में मिली थीं। प्रचंड हवाओं से खेलते-खेलते उसका बचपन बीता और अब यौवन की प्रफुल्लता भी बहुत कुछ इन हवाओं की ऋणी थी। पानी-ही-पानी, सदा बहता पानी। पानी में फैली तरह-तरह की घास की सुगंध में बसे हुए थे उसके सपने। और यह भी प्रत्यक्ष था कि गोदावरी ने अपने सुंदर गान उसे जी भरकर सुनाए थे।
अब उसकी गुस्ताख मुसकान पहले से सुंदर हो चली थी। किसी खटा-खट भर जाने वाली नौका में इस एकांत का रस हर्गिज न आ सकता था। यह नौका छोटी थी, इसलिए कम दाम देने ही की बात थी। दूसरी बात यह कि मैं केवल संकेत से ही काम ले रहा था। न मैं उसकी भाषा जानता था पूरी-पूरी, न वह मेरी भाषा समझता था। उसकी मुसकान ने कई रंग बदले और जिस रंग पर जाकर उसकी मुसकान रुकी-रुकी सी रह गई, उससे तो यही प्रतीत होता था कि वह मुझे अपने मित्रों की सूची में सम्मिलित कर चुका है।
यदि वह मेरी भाषा समझता होता या मैं ही पूरे ठाट से तेलुगु बोल सकता, तो मैंने उसके सम्मुख मैक्सिम गोर्की के शब्दों में अपना साहित्यिक दृष्टिकोण रख दिया होता, “स्वर्गीय (अलौकिक) और पार्थिव का विवाद बहुत पुराना है। वे साहित्यकार जो सदा आकाश पर दृष्टि रखते हैं, उनकी सेवा में मैं केवल यह कहने का साहस करता हूँ कि हमारी धरती भी एक ज्योतिर्मय ग्रह है।” 
उसकी मुसकान फीकी पड़ चुकी थी, जैसे उसने मेरे दिल की बात भाँप ली हो और कहना चाहता हो, “होगी यह धरती एक ज्योतिर्मय ग्रह तुम्हारी दृष्टि में। पर भाई मेरे, पहले मुझे तो देखो। कितना परिश्रम करता हूँ और उस पर भी भरपेट भोजन नहीं मिलता!”
गोदावरी की विस्तृत जलधारा पर धूप की चमक ने चाँदी का पानी फेर दिया था। वह हमारी भावनाओं से अछूती कैसे रह सकती थी। जैसे कह रही हो, ‘मैंने इतिहास के बदलते हुए पृष्ठ देखे हैं। मेरी जलधारा में कई बार मेरे बेटों का लहू भी सम्मिलित होता रहा है। मैंने तलवारों के युद्ध देखे हैं, नेजों और भालों की अनियों पर गरम-गरम खून देखा है। मेरे देखते-देखते कई साम्राज्य स्थापित हुए, पर अब जो युग आने वाला है, वह श्रमिक को सबसे ऊँचा स्थान देगा। उसे कभी भूखों न मारेगा।’

गोदावरी मुझे पहचानती थी। इससे पहले हम महाराष्ट्र में मिल चुके थे। उसे शायद वह दिन भी तो याद था, जब नासिक के पश्चिम में अठारह मील पर स्थित त्र्यंबक में जाकर मैंने उसका जन्म-स्थान भी देख लिया था।...त्र्यंबक नगर से ऊपर पत्थर की सौ-दो सौ नहीं, पूरी छह सौ नब्बे सीढ़ियाँ चढ़ने पर गोमुख देखकर मुझे कितनी खुशी हुई थी, जिसमें से गोदावरी का शीतल जल नीचे गिर रहा था। पर्वतों की इस दैत्याकार दीवार के उस पार अरब सागर कोई पचास मील ही होगा और मैं इस सोच में डूबा खड़ा था कि किस प्रकार गोदावरी ने एक लंबी यात्रा की बात मन में ठान ली थी—पूरी नौ सौ मील लंबी यात्रा। त्र्यंबक और नासिक के बीच गंगापुर का बत्तीस फीट ऊँचा प्रपात देखकर तो मैं कह उठा था, ‘गोदावरी, मुझे भूल न जाना। मैं भी तेरा यह दृश्य अंतिम श्वास तक याद रखूँगा।’
नासिक तो मैंने जी भरकर देखा था। सीताकुंड, रामकुंड और लक्ष्मणकुंड को देखते-देखते राम-वनवास की कहानी मेरी आँखों में फिर गई थी। वहाँ मैंने वह गाँव भी देखा, जो पंचवटी की गाथा से संबंधित रहा। रामसेज पहाड़ी भी देखी, जिस पर अनगिनत बार राम ने विश्राम किया होगा। यों प्रतीत होता था कि गोदावरी पुराने युगों के इतिहास को अभी तक भूली न थी।
समीपवर्ती गाँव के मंदिर में घंटियों की आवाज आ रही थी। मैं झुँझलाता रह गया। मल्लाह की आँखों में एक नई चमक आ गई थी। अपनी घनी दाढ़ी में अंगुलियाँ फेरते हुए मैंने इन घंटियों के विरुद्ध अपने को उड़ेल दिया—निर्लज्ज घंटियाँ। अनगिनत शताब्दियों से ये मानव को वास्तविक समस्याओं से विमुख करती आई हैं। इसी क्रोध में मैंने अपनी दाढ़ी के दो-चार बाल नोंचकर गोदावरी की जलधारा पर फेंक दिए। गोदावरी उसी तरह बहती रही। उसे मेरा यह कार्य अच्छा न लगा होगा, यह सोचकर मैं खिसियाना सा हो गया। मल्लाह की आँखों में झाँककर देखा, तो वहाँ भी उपेक्षा ही सिर उठाती नजर आई। मैंने सोचा कि मुझे अपनी भावना पर काबू रखना चाहिए। घंटियाँ तो बुरी नहीं, निकट भविष्य में हम इनकी दिशा बदल डालेंगे।
मल्लाह की ओर मैंने मित्रता की भावना से देखा। मैं कहना चाहता था, “भाई मेरे, तुम नौका चलाते हो और मैं लेखनी चलाया करता हूँ। अंतर केवल इतना ही है कि नौका तुम्हारे बलिष्ठ पुट्ठों की ताकत चाहती है और लेखनी भी तो प्रतिभा की विद्युत् शक्ति के बिना नहीं चल सकती।” यों ही मैं नौका से झुककर बोला। गोदावरी ने रुपहली लहर के रूप में अपनी बाँह ऊपर उठाई, जैसे वह कह रही हो—‘हाँ, मैं मानती हूँ, मल्लाह और लेखक भाई-भाई हैं!’ 
गोदावरी मुसकरा रही थी, जैसे उसे अपनी शक्ति का अनुभव हो गया हो। अपनी लंबी यात्रा के विचार से वह फूली न समाती थी। जब से उसने जन्म लिया, एक दिन के लिए भी वह सोई न थी। दिन को तो सब जनता जागती थी और रतजगा भी तो सदा नहीं किया जाता। पर गोदावरी ने अपनी आयु की सब रातें रतजगे में ही बिता दी थीं। शायद वह कहना चाहती थी—मैं जनता को अपनी छिपी हुई शक्ति पहचानने की प्रेरणा देती आई हूँ। त्र्यंबक से तो मैं केवल अपने बलबूते ही चल पड़ी थी। फिर किनारों से अनेक नदी-नालों ने मेरा आलिंगन किया। कोई छह सौ मील की यात्रा मैंने इसी तरह पूरी कर ली। फिर उत्तर की ओर से वर्धा नदी आकर मेरे वक्षस्थल में समा गई। पैन गंगा और वैन गंगा ने पहले आपस में एक बड़ी नदी को जन्म दिया और फिर इस बड़ी नदी प्रणाहिता ने अपनी समस्त जलराशि मुझे सौंप दी। फिर उत्तर की ओर से बहन इंद्रावती दौड़ी-दौड़ी आई और मेरे गले लगकर अपने को भूल गई। फिर मेरे आनंद का पारावार न रहा, जब शबरी भी पूर्वी घाट की असीम जलराशि समेटे हुए मेरी जलधारा में एकाकार हो गई।
गोदावरी की मुसकान अब और भी स्पष्ट हो गई थी। मैंने कहा, “गोदावरी मैया, तुम सच कहती हो। जैसे अधिक-से-अधिक वोट मिलने से एक प्रतिनिधि की हैसियत बढ़ जाती है, उसी प्रकार एक बड़ी नदी छोटी नदियों का जल प्राप्त करने के पश्चात् अधिक-से-अधिक प्रतिनिधित्व करने के योग्य हो जाती है। मुझे तो जगी हुई जनता और एक बड़ी नदी में कोई अंतर नजर नहीं आता।”

मल्लाह ने अपनी पतली आवाज में कोई पुराना गीत छेड़ दिया था। शायद वह कोई गोदावरी का गीत था। पर मेरे लिए यह निर्णय करना बहुत कठिन है। क्योंकि बार-बार तो दूर रहा, गोदावरी का नाम एक बार भी सुनाई न दिया। उसके कंधे पर बाँह टेककर मैंने अपने संग्रह से एक तेलुगु लोकोक्ति सुना डाली, “कालिमि लो मीड़ी कावड़ि कुंदलू।” अर्थात् अमीरी और गरीबी काँवर के दो घड़े हैं।
मल्लाह की आँखों में चमक आ गई। वह खुश था कि मैं उसकी भाषा के ये चार शब्द बिल्कुल आंध्र उच्चारण के साथ प्रस्तुत कर सका था। इसके लिए मुझे कितना परिश्रम करना पड़ा, इससे वह अवगत न था। उसकी आँखों की चमक से स्पष्ट था कि वह इस लोकोक्ति में पूरा विश्वास रखता है। पर मैं चाहता था कि वह समझ ले कि निकट भविष्य में पुरानी लोकोक्तियों पर जनता का अंधविश्वास कायम न रह सकेगा। बहुत सी लोकोक्तियाँ तो धनियों की बनाई हुई हैं, जिनमें निर्धनों को संतोष की शिक्षा दी गई है। यह केवल निर्धनों की क्रांति को दबाए रखने का प्रयत्न था। ऐसी सब लोकोक्तियाँ केवल ऐतिहासिक सामग्री के रूप में ही सामने आया करेंगी। जनता के लिए ये पहले के समान पगडंडियाँ न बनी रहेंगी, कि वह बिना देखे पराधीनतावश इन पर चलकर अपनी मंजिल से भटकती रहे। मल्लाह बराबर मुसकरा रहा था और मुझे उस पर क्रोध आने के बजाय अपने ऊपर क्रोध आने लगा।
गोदावरी की लहरें तेज हवा से खेल रही थीं। उस समय काका कालेलकर के ये शब्द मेरी कल्पना को छूने लगे, “गोदावरी की सारी कला तो भद्राचलम में ही देखी जा सकती है। जिसका पाट एक से दो मील तक चौड़ा है, ऐसी गोदावरी ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच में से अपना रास्ता साफ करती हुई, जब सिर्फ दो सौ गज की खाई में होकर निकलती होगी, तब भला वह क्या सोचती होगी? अपनी तमाम ताकत और तरकीब खर्च करके, बड़े ही नाजुक मौके में से निकलकर राष्ट्र को आगे ले चलने वाले किसी राष्ट्रपुरुष के समान संसार को आश्चर्य में डालने वाली गर्जना के साथ वह वहाँ से निकलती है। घोड़ा-बाढ़ और हाथी-बाढ़ की बातें तो हम सुनते रहे हैं। पर एकदम पचास फुट ऊँची बाढ़ क्या कभी कल्पना में भी आ सकती है। मगर जो कल्पना में संभव नहीं है, वह गोदावरी के प्रवाह में संभव है। तंग गली में से होकर निकलते हुए पानी को अपनी सतह सपाट बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। अर्घ्य देते समय जैसे अंजलि में छोटे मुँह की नाली सी बन जाती है, वैसे खाई से निकलते हुए पानी की सतह की भी एक भयानक नाली बन जाती है। पर अद्भुत रस का चमत्कार तो इससे आगे है। इस नाली में से अपनी नाव को ले जाने वाले कई हिम्मतवर मल्लाह भी वहाँ पड़े हुए हैं। नाव के दोनों ओर पानी की ऊँची-ऊँची दीवारों को नाव के ही वेग से दौड़ते हुए देखकर मनुष्य के मन पर क्या बीतती होगी!”
मल्लाह किसी याद में खोया हुआ सा चप्पू चलाए जा रहा था। जैसे वह अपनी किसी भद्राचलम यात्रा के बारे में सोच रहा हो। उसने एक बार मेरी ओर देखा, जैसे कहना चाहता हो—मैं तुम्हें उधर ले चलूँगा किसी दिन। घबराने की क्या आवश्यकता है। भद्राचलम तो अपना घर ही ठहरा। देवता के दर्शन कर लेना और गोदावरी मैया का वैभव भी देख लेना।
जी चाहता था कि खूब उछलूँ और जोर-जोर से कहकहे लगाऊँ। उस समय मेरी कल्पना में बरैया देवता का चित्र उजागर हो गया था। आज तक किसी ने इस देवता के दर्शन न किए थे, पर उसका ध्यान करते समय हर मल्लाह बड़ी आस्था से सिर झुका लेता था। वह पहाड़, जिसमें से होकर गोदावरी एक भयानक प्रपात का दृश्य उपस्थित करती बहती चली आई है, बरैया कोंडा के नाम से प्रसिद्ध है। यह पहाड़ इस देवता का निवासस्थान है—बरैया कोंडा, अर्थात् बरैया का पहाड़। गोदावरी मैया के जन्म से बहुत पहले ही इस देवता ने अपना प्रभाव जमा रखा होगा। फिर जब गोदावरी आई तो इस शर्त पर रास्ता दिया गया होगा कि वह अपने मल्लाहों को सदा बरैया के भक्त बनने की प्रेरणा देती रहे। सच पूछो तो इस समय मुझे वह चालीस अंगुल चौड़े सीने वाला मल्लाह बरैया के रूप में नजर आ रहा था।
जन्म-जन्म की मुसकान मेरी कल्पना के पाताल से बाहर आना चाहती थी। मल्लाह के मुख पर असीम संतोष झलक रहा था। जी चाहता था कि वह कोई तान छेड़ दे। अपने इस देवता की भाषा से अपरिचित न होता, तो मैं स्वयं उससे कहता कि वह आने वाली खुशियों के उपलक्ष्य में कोई गान सुनाए। दूर से किसी दूसरे मल्लाह के गाने की आवाज पायल की झंकार के समान बहती हुई आने लगी। न जाने यह कैसा गान था! शायद यह नई उषा का नया गान था। मैं मंत्रमुग्ध सा होकर सुनने लगा। उषा का तो ऋग्वेद के ऋषियों तक ने स्वागत किया था। जैसे उषा-सूक्त के स्वर शताब्दियों की निद्रा से जाग उठे हों। उषा आना ही चाहती थी।
मेरी कल्पना एक बार फिर त्र्यंबक की ओर घूम गई।...त्र्यंबक से गंगापुर के प्रपात या अधिक-से-अधिक नासिक पहुँचने से पहले तक गोदावरी एक कन्या ही तो है, जिसका बचपन अभी पूरी तरह बीता न हो। फिर यह एक युवती का रूप धारण करने लगती है। भद्राचलम से राजमहेंद्री तक हम इसे एक दुलहन के रूप में देख सकते हैं। राजमहेंद्री के समीप यह दो मील से कम चौड़ी न होगी। राजमहेंद्री से पाँच मील पर धवलेश्वर है, जहाँ गोदावरी का पाट चार मील हो जाता है, भले ही पाट का तीन-चौथाई भाग तीन टापुओं से घिरा हुआ है। ऐसे टापू तो इधर बहुत हैं—कुछ परंपराओं के समान स्थायी, कुछ नित-नित के स्वप्नों के समान बनने-बिगड़ने के अभ्यस्त। प्रत्येक टापू लंका कहलाता है। स्थायी टापुओं पर खेती भी खूब होती है।
कहते हैं कि गोदावरी को गौतम ऋषि शिव की जटाओं से निकालकर लाए थे। और प्राचीन काल में यह सात धाराओं में बँटकर सागर में गिरती थी। आज भी परंपराओं द्वारा अभिनंदित तट पर स्थित वे सातों स्थल सात धाराओं की स्मृति दिलाते हैं, भले ही गोदावरी अलग ही दो स्थानों पर सागर में प्रवेश करती है। उन सातों स्थलों पर आज भी अनेक लोग संतान-प्राप्ति की कामना से स्नान करने जाते हैं। इसे सप्त सागर यात्रा कहते हैं। इसके अतिरिक्त हर तेरहवें वर्ष राजमहेंद्री और गोदावरी के तट पर स्थित दूसरे नगरों में ‘पुष्करम् उत्सव’ मनाया जाता है, जब शत-शत स्त्री-पुरुष गोदावरी स्नान के लिए उमड़ पड़ते हैं।
एक जनश्रुति यह भी है कि प्राचीन काल में सात ऋषियों ने अपनी असीम शक्ति द्वारा गोदावरी को सात धाराओं में बँटने के लिए बाध्य किया था। अब इन ऋषियों को कोई श्रेय देना भी चाहे तो कैसे दे? अब तो गोदावरी की केवल दो ही धाराएँ रह गई हैं और वे भी पहले स्थलों से हटकर।
धवलेश्वर तक तो गोदावरी का पूर्व-रूप ही नजर आता है। फिर यहाँ से गोमती गोदावरी या पूर्वी गोदावरी अंजारम, यागाम और निल्लापल्ली को छूती हुई, प्वाइंट गोदावरी के स्थान पर सागर में प्रवेश करती है और वशिष्ठ गोदावरी या पश्चिमी गोदावरी दक्षिण की ओर बहती है तथा प्वाइंट नरसापुर के स्थान पर सागर में समा जाती है।
धवलेश्वर में आधुनिक युग के इंजीनियरों ने गोदावरी के चार मील चौड़े पाट पर एनीकट बनाकर बड़े-बड़े ऋषियों के चमत्कारों को पीछे छोड़ दिया है। और फिर यों पानी को अपने वश में करने के पश्चात् ऐसी-ऐसी नहरें निकाली हैं, जिनसे कोई ढाई लाख एकड़ जमीन की सिंचाई होती है। विज्ञान के इन ऋषियों को नमस्कार करने को जी चाहता है, जिन्होंने प्यासी धरती की महान् सेवा की है और भूखी जनता के लिए अन्नोत्पादन के नए साधन प्रस्तुत किए हैं।
धवलेश्वर पहुँचकर मैंने मल्लाह को उसकी मजदूरी के पैसे दे दिए, मुसकराकर संकेत द्वारा उससे विदा ली और नौका से उतर पड़ा।
गोदावरी मुसकरा रही थी। मैंने कहा, “तुम धन्य हो गोदावरी, मैया। तुमने सदा इतिहास को बदलते देखा है। तुमने सदा अपनी विस्तृत जलधारा का गान गाया है।”
गोदावरी के किनारे मैं नई लहरों को गिनने का यत्न कर रहा था। खुली मुक्त हवाएँ मुझे झिंझोड़ रही थीं। वह मल्लाह मेरे समीप से परे जाने का नाम न लेता था। अमीरी-गरीबी को एक ही काँवर के दो घड़े मानने के लिए वह बिल्कुल तैयार न था और गोदावरी खुश थी।


५-सी/ ४६, नई रोहतक रोड,
नई दिल्ली-११०००५
दूरभाष : ९८७१३३६६१६

हमारे संकलन