भारत के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान लाल बहादुर शास्त्रीजी ने एक दिन अपने पुत्र सुनील शास्त्री से कहा—मेरी कपड़ों वाली अलमारी बहुत अस्त-व्यस्त हो गई है, उसे ठीक कर देना। कुछ दिन बाद शास्त्रीजी ने देखा कि अलमारी तो सुव्यवस्थित हो गई है किंतु उन्हें दो कुरते नजर नहीं आए। उन्होंने बेटे को बुलाकर पूछा कि अलमारी तो ठीक हो गई, लेकिन दो कुरते नहीं मिले। बेटे ने कहा—बाबूजी, वे दोनों कुरते थोड़े-थोड़े फट गए हैं। शास्त्रीजी बोले—सर्दियाँ आने वाली हैं। सदरी के नीचे किसी को दिखाई नहीं देगा कि कुरते फटे हैं और दोनों फटे हुए कुरते भारत के प्रधानमंत्री की कपड़ाें की अलमारी में वापस पहुँच गए।
यह संस्मरण न केवल सादगी, ईमानदारी की एक मिसाल है वरन् आज के भौतिकतावादी युग में जहाँ धनलिप्सा का भयावह रूप हमारे समाज को दूषित कर रहा है, एक मशाल भी है, जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा का उजाला देता रहेगा।
आचार्य चाणक्य से जुड़ा एक संस्मरण भी बहुत प्रसिद्ध है। आचार्य चाणक्य से मिलने एक व्यक्ति उनकी ‘कुटिया’ में आया। (एक विराट् साम्राज्य के महामंत्री तथा सम्राट् के गुरु का ‘कुटिया’ में रहना ही अपने आप में एक अनूठी बात है)। उस व्यक्ति के आते ही आचार्य ने जो दीपक जल रहा था, उसे बुझाकर एक दूसरा दीपक जला दिया। उस व्यक्ति ने बड़े कौतूहल से आचार्य से पूछा कि एक दीपक बुझाकर दूसरा जलाने का रहस्य क्या है? आचार्य बोले कि अभी मैं कुछ राजकीय कार्य कर रहा था, इसलिए वह दीपक जला रखा था। अब मुझे तुमसे चर्चा करनी है, जो एक व्यक्तिगत कार्य है, इसलिए यह दीपक जलाया है, जिसमें मेरी अपनी आय से खरीदा हुआ तेल खर्च होगा। व्यक्तिगत मुलाकात के समय राजकीय तेल का मामूली-सा व्यय भी उन्हें अनुचित लगा। सैकड़ों साल बाद भी ऐसे संस्मरण हमें प्रेरणा देते रहते हैं।
लगभग ऐसी ही ईमानदारी के उदाहरण हमंे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के समय के मिलते हैं। यही भारतीय परंपरा है, जिसे हम राजा हरिश्चंद्र के जीवन से जोड़कर देख सकते हैं। राजा हरिश्चंद्र अपने बेटे के अंतिम संस्कार के लिए आई पत्नी से भी कर वसूलने से नहीं चूकते। हजारों वर्ष बाद भी राजा हरिश्चंद्र ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के प्रतीक बने हुए हैं।
महापुरुषों अथवा विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी विभूतियों के संस्मरण आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं तथा कष्ट सहकर भी सही कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। संभवतः हर सरकारी, गैर-सरकारी संस्थान में कुछ कर्मठ, समर्पित व्यक्तियों के संस्मरण आए दिन बार-बार बरस-दर-बरस दोहराए जाते हैं। इन संस्मरणों का प्रभाव भी हृदय और मानसपटल की गहराइयों तक जाता है। एक उदाहरण उल्लेखनीय है। अखबार बेचकर घर की आर्थिक स्थिति में सहयोग करने वाला एक बालक अपना कार्य पूरा करके एक पार्क में सुस्ताने बैठ जाता है। पास ही बैठे एक व्यक्ति के ट्रांजिस्टर पर प्रसारित हो रहे किसी वैैज्ञानिक के संस्मरण उस बालक पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ते हैं कि वह वैज्ञानिक बनने की ठान लेता है। उसका संकल्प साकार होता है और वही बालक भारत को मिसाइलों की सौगात देकर ‘मिसाइल मैन’ का खिताब पाता है। कुछ मिनटों का एक संस्मरण एक बालक का जीवन बदल देता है।
महापुरुषों के जीवन के संस्मरणों से हमें यह सीख भी मिलती है कि उनके जीवन में भी अनेक कष्टों की बरसात हुई, उन्हें भी तरह-तरह की चुनौतियाँ मिलीं, असफलताएँ भी मिलीं, लेकिन उनकी लगन और संघर्ष-शक्ति ने उन्हें सफल बनाया। अकसर किसी शहर में वहाँ पोस्टिंग पर आए किसी बड़े अधिकारी की दयालुता तथा न्यायप्रियता के संस्मरण दोहराए जाते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि संस्मरणों को कुछ बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है।
हम अपने घर-परिवारों के रोजमर्रा के जीवन पर नजर डालें तो परिवार के बुजुर्गों के संस्मरण बच्चों को सुनाए जाते हैं। स्वाभाविक है कि इनका उद्देश्य बच्चों को ऊँचे आदर्शों, जीवन-मूल्यों की शिक्षा देना होता है। विद्यालयों में भी उनके संस्थापकों या वहाँ कार्यरत रहे प्राचार्यों अथवा अध्यापकों के संस्मरण विविध आयोजनों में सुनाए जाते हैं।
संस्मरण स्वाभाविक रूप से इसलिए अधिक प्रभावशाली होते हैं, क्योंकि उनका आधार वास्तविक जीवन होता है, जबकि कविता-कहानी में कल्पना का समावेश होता है। एक साहित्यिक विधा के रूप में जब हम संस्मरण विधा की ओर नजर डालते हैं तो स्वाभाविक रूप से कुछ प्रश्न सामने खड़े हो जाते हैं।
जो संस्मरण हमारे दैनिक जीवन में इतने छाए रहते हैं, उनकी साहित्य में उपस्थिति इतनी क्षीण सी क्यों है? जहाँ प्रतिवर्ष कविता, कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं की सैकड़ों किताबें प्रकािशत होती हैं, वहीं संस्मरणों की किताबों की संख्या उँगलियों पर गिनने लायक होती है। इसका कारण खोजना भी शायद बहुत कठिन नहीं है। ऐसे लोग, जिनको देश-विदेश घूमने तथा प्रख्यात व्यक्तित्वों से मिलने-जुलने के अवसर प्राप्त होते हैं, विविध प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त होते हैं, उन्हें अपने संस्मरण लिखने का या तो समय नहीं होता या उनमें लेखन-काैशल नहीं होता या लेखन में रुचि नहीं होती। एक रास्ता यही बचता है कि कोई विविध क्षेत्रों की बड़ी हस्तियों से उनके स्वयं के जीवन से जुड़े संस्मरण एकत्र करे तथा उन्हें संकलन का रूप देकर प्रकाशित कराए। निश्चय ही यह एक श्रमसाध्य कार्य है।
साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रायः इस विधा के प्रति विशेष उत्साह या आग्रह का अनुभव नहीं होता। जिस तरह जगह-जगह कवि सम्मेलन अथवा कहानी पाठ के आयोजन किए जाते हैं, उसी प्रकार संस्मरणों की प्रस्तुति की जाए तो उनकी सफलता निश्चित है। ‘इडियन सोसाइटी ऑफ ऑथर्स’ नामक साहित्यिक संस्था ने संस्मरणाें के अनेक आयोजन पूरी सफलता के साथ किए। यह बात विचित्र सी ही लगती है कि संस्मरण जैसी प्रभावशाली एवं रोचक विधा पर साहित्यिक संस्थाओं, पत्र-पत्रिकाओं तथा रचनाकारों का समुचित ध्यान नहीं गया है।
संस्मरणों की ही एक विधा यात्रा-संस्मरण अथवा यात्रा-वृत्तांत है। यहाँ व्यक्ति का स्थान किसी देश-प्रदेश अथवा नगर को मिल जाता है। किसी स्थान विशेष का इतिहास, भूगोल, वहाँ के पर्यटन स्थल, वहाँ के रीति-रिवाज, परंपराएँ, त्योहार, लोक संस्कृति का वर्णन पाठक को पूरे विश्व को जानने का अवसर प्रदान करता है। जबसे हवाई यात्रा सुगम हुई है तथा आवागमन के अन्य साधन सुलभ हो गए हैं, ‘यात्रा-वृत्तांत’ विधा को संबल मिला है। लेकिन कविता, कहानी की किताबों से तुलना करें तो बहुत आशाजनक तसवीर सामने नहीं आती। यात्रा-संस्मरणों के कुछ ही स्वतंत्र संग्रह नजरों से गुजरते हैं।
आत्मकथा विधा भी संस्मरण विधा का ही एक रूप है। आत्मकथा विधा इसलिए बहुत चुनौतिपूर्ण हो जाती है, क्योंकि अपनी कमियों, अवगुणों को सार्वजनिक कर पाना सबके वश की बात नहीं। आत्मकथा में निकट के संबंधियों, मित्रों तथा अन्य लोगों से रिश्ते बिगड़ने अथवा विवाद खड़े होने अथवा कोर्ट-कचहरी का डर भी इस विधा से दूर करता है। उच्च पदों पर रहे कुछ लोगों के पास तरह-तरह के अनुभवों का खजाना है, किंतु वे उसे सार्वजनिक रूप से सामने लाने का साहस नहीं जुटा पाते, क्योंकि बात सिर्फ उनकी ही नहीं वरन् परिवार के लोगों तक भी कुछ विवादों की आँच पहुँचती है।
महात्मा गांधी ने अपने जीवन की हर कमजोरी को सबके सामने पूरी पारदर्शिता के साथ साझा कर लिया, इसीलिए उनकी आत्मकथा विश्व की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली किताबों में शामिल है। ऐसा साहस सबके लिए संभव नहीं।
हरिवंशराय बच्चन को उनकी कविताओं से कहीं अधिक सम्मान उनकी आत्मकथा ने दिलाया। अनेक आत्मकथाएँ पूरे विश्व में बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं, किंतु साहित्यिक परिदृश्य में इस विधा की उपस्थिति भी बहुत क्षीण है। डायरी विधा के साथ भी लगभग ऐसी ही स्थितियाँ हैं! डायरी लिखते समय लेखक अपने मन की पीड़ा को बेबाकी से लिखकर अपना मन हलका कर लेता है। साहित्यकारों के अतिरिक्त दूसरे क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोग डायरी लेखन करें तथा उसे प्रकाशित करें तो निश्चय ही पाठकों को बहुत राेचक सामग्री उपलब्ध हो, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। डायरी प्रकाशन में भी वही डर प्रभावी रहते हैं कि बहुत सी दबी-छुपी बातें बाहर आने से कहीं संबंध न बिगड़ जाएँ।
सर्वाधिक चिंता का विषय है ‘रिपोर्ताज’ विधा, जो अब लगभग विलुप्त सी हो गई है। ‘धर्मयुग’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने समय-समय पर रिपोर्ताज प्रकाशित करके इस विधा को बहुत ऊँचाई प्रदान की थी। रिपोर्ताज विधा को ‘रिपोर्ट’ से अपना नाम मिला था। हम किसी समाचार-पत्र में किसी प्रांत में अकाल पड़ने पर हुई मौतों की ‘रिपोर्ट’ तो पढ़ लेते थे किंतु लाखों लोगों के जीवन पर क्या गुजरी, उसके मानवीय पहलुओं पर लेखक जो मार्मिक विवरण संस्मरणों के रूप में प्रस्तुत करते थे, वे रिपोर्ताज साहित्यिक संपदा बन जाते थे।
इसी प्रकार भूूकंप या अन्य आपदाओं पर मार्मिक रिपोर्ताज पढ़ने को मिलते थे। रिपोर्ताज के साथ-साथ रेखाचित्र या ‘ललित निबंध’ जैसी गद्यविधाएँ भी दुर्लभ होती जा रही हैं। इनके स्वतंत्र संग्रहों की तो उपलब्धता बहुत कठिन हो गई है। साक्षात्कार विधा अपने पाँव जमाए हुए है, लेकिन साक्षात्कारों के स्वतंत्र संग्रह कम मिलते हैं।
साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यकारों तथा साहित्य-प्रेमियों को हिंदी गद्य की कथेतर विधाओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इन विधाओं से समाज, विशेषकर युवा पीढ़ी बहुत लाभान्वित होती है, क्योंकि इन विधाओं से ज्ञान, अनुभव के साथ-साथ संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती है। साहित्यिक आयोजनों में कथेतर विधाओं को अवसर मिलना चाहिए। इसी संदेश के साथ ‘साहित्य अमृत’ का यह अंक कथेतर गद्य पर केंद्रित है, ताकि इन विधाओं के प्रति लेखकों व पाठकों में अभिरुचि विकसित हो।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ और आप सबके सुख-सौभाग्य हेतु मंगलकामनाएँ।
(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)