भारत की विविधता एक सर्वमान्य तथ्य है। इसी प्रकार भारत की असमानता भी एक सार्वजनिक सत्य है। ऐसा नहीं है कि भारत में विकास नहीं है। यह भी सच है कि संसार के विकसित देशों में भी असमानताएँ हैं। अमीर-गरीब का भेद एक सार्वभौमिक सत्य है। पर वहाँ रोजगार न होने पर राज्य का ‘डोल’ या आर्थिक सहायता है। भारत में अभी यह एक प्रारंभिक प्रयास है। ‘नरेगा’, ‘मनरेगा’ या गरीबों को मुफ्त राशन और आयुष्मान कार्ड की सुविधाएँ इस दिशा में शुरुआती और सार्थक कदम हैं। धीरे-धीरे जैसे समृद्धि बढ़ेगी, भ्रष्टाचार घटेगा, यह भी हमारे देश के विकास का अंग होगा।
गैर-बराबरी का सबसे बड़ा कारण, विद्वानों के अनुसार, देश में जातियों का जोर है। कुछ मानते हैं कि भारत जैसे हिंदू बहुल राष्ट्र में हिंदू एक नहीं हैं, जो हैं वे जातियों में विभाजित हैं। राष्ट्रव्यापी शिक्षा और कौशल विकास इसका एक निदान है। कठिनाई यह है कि अंग्रेजों की देन, सरकारी नौकरी को ही राजनेता या आम आदमी ‘रोजगार’ मानते हैं। यह भ्रम सरकारी कर्मचारी के अधिकारों से और पुष्ट होता है, जबकि तथ्य यह है कि एक किराना का सफल दुकानदार आई.ए.एस या आई.पी.एस. से ज्यादा कमाता है, पर सरकारी बाबुओं के पास अधिकार हैं, शक्तियाँ हैं, जिनका दुरुपयोग उसे ताकतवर बाजीगर बनाता है। कहीं चोरी हो या दिनदहाड़े अपहरण अथवा हत्या, आम आदमी पुलिस की ही शरणागत है।
वहाँ सच-झूठ का निर्णय कोर्ट पर निर्भर है। इसमें गवाह और दमदार वकील अदालत का रुख निर्धारित करते हैं। वर्दी के पास अपने पेशेवर गवाह हैं। यह वर्दी द्वारा सुझाया साक्ष्य देने के विशेषज्ञ हैं। कोई धाकड़ वकील ही इन्हें अपने सवालों द्वारा झूठा साबित करने में सक्षम है। निर्धन की दिक्कत है। अपना सबकुछ बेचकर भी वह ऐसे वकीलों की फीस देने में असमर्थ है। इस व्यवस्था में न्याय तो मिलता है, पर यह भी आर्थिक सामर्थ्य पर निर्भर है। कहने को गुनहगार निर्दोष है। सबकी यही मान्यता है। पर वह गरीबी का शिकार है। सजा उसे मिलनी-ही-मिलनी। वकीलों की क्षमता झूठ को सच और सच को झूठ सिद्ध करने से आँकी जाती है।
यह वकील का कमाल है कि वह किसी बेगुनाह को देश के प्रमुख गुनाहगारों में से एक बना सकता है और असली गुनाहगार को सर्वाधिक शरीफ इनसान। हमारे एक मित्र खुद भी वकालत के पेशे में हैं। वह वकालत की शान का बयान स्वयं करते हैं—‘हमारे धंधे की सफलता की पहली शर्त अपने मुवक्किल की बात पर शत-प्रतिशत विश्वास है, उसका सफेद झूठ हमारे लिए ब्रह्म-वाक्य है।’ हमारा काला कोट इस तथ्य का साक्षी है कि हम अपने ‘क्लाइंट’ के हर काले कारनामे के साथ हैं। कोर्ट केवल सबूतों और गवाहों के साथ वकीलों की जिरह और कानून की कठपुतली है।’
संसार का कौन सा जज है, जो इनके विपरीत जाए? इसे हम कानूनी असमानता मानने को विवश हैं। यह दुनिया भर में प्रचलित है। इसका शायद ही कोई निदान हो? यह धनी और निर्धन की स्वाभाविक असमानता है। वर्तमान संसार में शोधार्थियों का बोलबाला है। क्या हम आशा करें कि वे शोध से कोई हल सुझा पाएँगे?
एक अन्य असामान्यता जन्म की दुर्घटना है। भारत का प्रजातंत्र इसका प्रमुख शिकार है। हमारी सियासी हस्तियाँ जाति-व्यवस्था को अपने निहित स्वार्थ की खातिर हमेशा जीवित रखना चाहती हैं। उनका बड़ा सीधा आकलन है। दो-तीन जातियों का गठ-जोड़ उन्हें सत्ता का सिंहासन दे सकता है। यदि उनके परिवार में कभी कोई प्रदेश या देश में सत्ता पा गया, तो वह स्वयं को उस पद का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते हैं। उस बुजुर्ग को वह खुद आदर्श मानें या न मानें, सार्वजनिक रूप से वह उसे देश का देवता बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। उसने कितनों का कल्याण किया, कैसे साथियों के सुख-दु:ख में उनका साथ दिया, कैसे वंचितों की सेवा की, पर इससे उनका क्या ताल्लुक? उनका जन्म तो पुरखे की संपन्नता का सुख उठाने को हुआ है। पढ़ाई के नाम पर विदेशों के सैर-सपाटे से फीस का उपभोग उसका जन्म-सिद्ध अधिकार है। सत्ता की कुरसी पाने में उसकी जनसेवा उनकी थाती है। जनसेवा कोई दूसरा कितनी भी करे, वह तो पुश्तैनी जनसेवक है। देश या प्रदेश के अधिकार की कुरसी पर उनका खानदानी हक है। यह उनकी उदारता है कि परिवार के चाचा, ताऊ, भाई, भतीजे जैसे अन्य सदस्यों को वह सांसद-विधायक या मंत्री बना दे।
कोई सोचे कि यदि उनका जन्म किसी अन्य परिवार, जाति या सूबे में होता तो परिणाम क्या होता? जन्म की दुर्घटना पर तो किसी का नियंत्रण नहीं है। वह किसी भी परिवार में हो सकती है? महज किसी दुर्घटना पर इतराना क्या उचित है? ऐसा नहीं होता तब क्या वह अपनी निर्धनता या संपन्नता पर ऐसे ही दून की हाँकते? हमें यकीन है। निर्धन को जुबान नहीं होती है, न फालतू बोलने को वक्त। या तो वह श्रम-परिश्रम से अपना काम करता है या फिर मुँह चलाकर अपना पेट भरता है। कुरसी का विचार भी उससे दूर है। किसकी झुग्गी में कुरसी या सोफा होगा? बस किसी ने जमीन का टुकड़ा उसे देने की कृपा की है। झुग्गी तो उसने ही छाई है। जब तक जीवित रहा, यह जमीन की भेंट देनेे वाले को उसने अपना वोट दिया ही नहीं, अपने जैसों को दिलवाया भी है। आज भी वह इसी दयावान के दल से जुड़ा है। हालाँकि, दयावान के परिवार के प्रति उसकी निष्ठा तो स्थायी है, पर उसके दल के प्रति लगाव अस्थायी है। दयावान का परिवार अपनी सुविधा के अनुसार दल बदलता रहता है। गरीब का वोट भी बदलता रहता है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह निर्धन भले हो, अहसान-फरामोश नहीं है। यह संपन्न के चरित्र की विशेषता है।
जैसे एक ठेकेदार परिवार के घर का चिराग है। उसे अब तो याद भी नहीं है कि उसने किस-किस अफसर को घूस देकर उसकी अनुशंसा से छोटे-बड़े ठेके पाए हैं? ऐसों को वह क्यों याद रखे? उसने ठेके की कीमत चुकाकर उसे हासिल किया। अफसर ने कमीशन लेकर उसे ठेका दिया। यह तो सीधा खरीद-फरोख्त का मसला है। कीमत चुकाओ, ठेका पाओ। क्या कोई किसी सामान्य दुकानदार को याद रखता है? यदि कोई रियायत दे या गुणवत्ता का सामान, तो भले खरीदार उसका स्मरण कर ले, वरना वह माल बेचता है, अफसर के समान अपनी कीमत वसूलकर। इसमें याद रखने की बात क्या है?
कोई ऐसा ‘कुँवर’ या ‘शहजादा’ है, जो अपने जन्म की दुर्घटना पर झूठी शेखी न बघारे? यह शायद इन पारिवारिक हस्तियों की समान सिफत है। पुरखों ने जनसेवा की, किसी ने लोहिया-जयप्रकाश या जवाहर को अपना आदर्श माना। उसके उसूूल और सिद्धांतों का पालन किया। यह पारिवारिक कुँवर उसी की भोंड़ी-भद्दी नकल करते हैं। इनका वास्तविक वास्ता केवल सत्ता से है, उसके लिए वह हर किस्म का ढोंग रचने को प्रस्तुत हैं। कभी यह अल्पसंख्यकों के सेवक बनते हैं, कभी पिछड़ों के? हिंदू वोट पाने को वह कभी मंदिरों में मत्था टेकते हैं, दूसरों के लिए कभी मसजिद-गिरजाघरों में। ये सारे नाटक छवि की खातिर हैं। यदि कोई है तो वह किसी...का वास्तिक आराध्य है।
हमें कबीर का ध्यान आता है। उन्होंने हर धर्म और जातीय ढोंग-ढकोसले की भर्त्सना की। न कोई मठ चलाया, न अनुयायियों का कोई संगठन। फिर भी उनके कुछ भक्त स्वयं को कबीर-पंथी घोषित करते हैं।
देश के दक्षिण का कोई राज्य हो या पूरब-पश्चिम का। हमारे सत्ता के पारिवारिक राजकुँवर हर क्षेत्र में मौजूद हैं। इनकी वास्तविक निष्ठा, श्रद्धा, आसक्ति, भक्ति केवल कुरसी है। ये कुरसी-पंथी हैं।
इनके कुछ मान्य उसूल और सिद्धांत हैं। इनका असली आराध्य अधिकार की कुरसी है। यही उनके जीवन का लक्ष्य है। वोट पाने को इनकी जाति है, वरना कुरसी-पंथ की एकमात्र और इकलौती जाति तथा कर्म सत्ता की कुरसी है। कुरसी पंथियों में कुछ समानताएँ हैं। ढोंग-ढकोसला इनका प्रमुख चारित्रिक गुण है। जन-कल्याण से लेकर निर्धनता उन्मूलन इनका नारा है। चूँकि देश है तो प्रशासन है, सेना है, नौकरी है, कमाई के साधन हैं, तरह-तरह की खरीद है, कमीशन है, धन है, इसीलिए इनका लगाव देश से है। यह कुरसी-पंथी सत्ता की खातिर हर नौटंकी करने को आतुर हैं। कभी यह अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का लालच देते हैं, कभी पिछड़ों और दलितों को आरक्षण का। इसीलिए यह मंदिर, मसजिद, चर्च में सिर झुकाते हैं। दिखाने को हर धर्म में इनकी आस्था है। पर वास्तव में यह सिर्फ कुरसी-पंथी हैं। इनकी आस्था श्रद्धा और विश्वास केवल सत्ता की कुरसी है।
इनके पुरखे देश को एक रखने के पक्ष में थे। यह जातिगत जनगणना से हिंदुओं के विभाजन के पक्ष में हैं। इन्हें न किसी जाति में रुचि है, न अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और प्रगति में। सिर्फ हाथी के समान इनके दिखाने के दाँत और हैं खाने के और। इसी प्रकार इनकी तथाकथित जनसेवा है, जो सिर्फ दिखाने को है, असली तो निजी धनसेवा है। नहीं तो कैसे संभव था, हर शहर के खास इलाकों में इनकी कोठी और बँगला होना और हर राजधानी में एक अदद फाॅर्महाउस।
यह एक ऐसी असमानता है, जो सिर्फ भारत की शोभा है। इसे दूर करना संभव नहीं है। यह पारिवारिक प्रजातंत्र और कुरसी-पंथ का अनिवार्य अंग है। हम इस विषय में संसार में अनूठे हैं। दुनिया के किसी प्रजातंत्र में यह तत्त्व अस्तित्व में नहीं हैं। यह भारत का मौलिक और महत्त्वपूर्ण योगदान है, लोकतांत्रिक अवधारणा में। संसार में ऐसे सैक्युलर कुरसी-पंथ का सोच तक नहीं है, तो पारिवारिक प्रजातंत्र का अस्तित्व भला कैसे हो?
संसार में अंतर आर्थिक आधार पर है, कुछ घनघोर धनपति हैं, कुछ भयंकर धनहीन। ऐसे धनहीनों का जीवन सुगम बनाने को विकसित देशों में सरकारी सहायता का प्रावधान है, जिसे ‘डोल’ भी कहते हैं। यह एक प्रकार से समृद्ध और निर्धन का सहअस्तित्व है। सबको आशा है कि कभी-न-कभी यह निर्धन भी अपने प्रयास से धन कमाने लगेंगे। कहीं भी भारत की तरह सरकारी सेवकों की श्रेष्ठता नहीं है, न इस कलम-घिस्सू और शासकीय फाइलों का निबटान करने वाले रोजगार का कोई विशेष महत्त्व। हमारे यहाँ पान, सिगरेट चाय बेचने वाले भले आला सरकारी सेवक से अधिक कमाई करें, किंतु श्रेष्ठता के सामाजिक आकलन में सबसे आगे शासकीय सेवक हैं।
वह प्रचुर दहेज का हकदार है विवाह में। उसके रहने के लिए सरकारी आवास है, फ्री फोन है, नौकर हैं, आने-जाने को सरकारी वाहन है, इनका एक से अधिक होना भी संभव है। एक साहब की सेवा में रहता है, दूसरा मेम साहब की। यह बच्चों के स्कूल, किटी पार्टी अथवा बाजार से शॉपिंग आदि के लिए प्रयुक्त होता है। जाहिर है कि निजी से सरकारी सेवा अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाए। सरकार में एक अन्य सुविधा भी है। इसका जिक्र औपचारिक रूप से कम ही किया जाता है। ऊपरी कमाई, सुविधा शुल्क या घूस हर सरकारी सेवक की आय का अनौपचारिक अंग है। जिसके पास रत्ती भर भी अधिकार है, उनका उचित प्रयोग इसी कमाई में होता है। यह सरकार की नैसर्गिक बीमारी है, जिसे अफसर, प्रशासक और नेता लाइलाज मानते हैं। क्यों न मानें? उन सब ने कभी-न-कभी इसके सुख भोगे हैं।
सरकारी सेवक की यह महत्ता अतीत के अंग्रेजों के शासन की गुलाम मानसिकता की प्रतीक है। दु:खद है कि भारतीय समाज इससे आज भी पीड़ित है। जैसे खून का प्रवाह मानवीय जीवन के लिए अनिवार्य है, वैसे ही घूस का प्रचलन सरकार के संचालन के लिए। कितनी भी निगरानी की जाए, इसे रोकने के प्रयास में निगरानी करने वाले खुद ही इस मर्ज के शिकार हैं। जब डॉक्टर ही झोला-छाप हैं, तो मरीज का इलाज कैसे हो? लिहाजा, यह ऊपरी कमाई का रोग खूब फल-फूल रहा है। सरकारी नौकरी में प्रवेश के लिए लाखों की कोशिश और कुल जमा सैकड़ों की सफलता इसकी लोकप्रियता का एक छोटा सा उदाहरण है। क्लर्क से लेकर अफसर तक की प्रतियोगी परीक्षा में लाखों की संख्या इस आकर्षण का जीवंत साक्ष्य है।
कुछ का आरोप है कि इन प्रतियोगी परीक्षाओं में भी पैसे का चलन है। बिचौलिए भारतीय समाज और जीवन के हर क्षेत्र के अंग हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के भी। उनका धन-पूजन सफलता का माध्यम है। वह वसूली को सुपात्रों के घर पहुँचाते हैं। अधिकार के सुपात्र से संपर्क ही बिचौलियों की कमाई का साधन है।
हमें लगने लगा है कि भारत में भ्रष्टाचार के प्रचार का कुछ अतिरेक है। प्रतियोगी परीक्षाओं में क्या पता चयन योग्यता पर हो? उन पर भी इस प्रकार का आक्षेप कहाँ तक उचित है? फिर भी देश में बकवास करने और अपना मत रखने की सबको स्वतंत्रता है। लोग अनर्गल आरोप लगाने को आजाद हैं। इसके निदान का एक साधन कोर्ट-कचहरी में मुकदमा है। किसके पास इतना फिजूल का धन है कि इस पर लुटाए? सरकार कब तक ऐसी खबरों या अफवाहों पर ध्यान दे? कौन कहे, उसकी भी विवशता हो? इतनी अफवाहें हैं, किन-किन पर अपना वक्त जाया करें? यों भी भ्रष्टाचार की सदाबहार अमर बेल की उसे खबर है और उसे मिटाने की असफलता की भी। धीरे-धीरे जनता भी इसे सरकार की कार्य-पद्धति का अनिवार्य अंग मानने लगी है। इसके विनाश के निष्फल प्रयास क्यों किए जाएँ? बर्र के छत्तों में हाथ डालने से क्या लाभ?
हम विद्वानों से चर्चा कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जीवन का अंत तो है, इन असमानताओं का अंत नहीं है। महिलाओं के प्रति महाभारत काल से लेकर आज भी वही-का-वही पुरुष श्रेष्ठता बोध का नजरिया है। द्राैपदी का चीर-हरण वर्तमान काल में भी प्रचलित है। सोने की लंका के छोटे-बड़े रावण आज भी अस्तित्व में हैं। केवल उनका नाम बदला है। गंभीर तथ्य यह है कि उनके विनाश के राम इस युग में केवल रामायण में हैं, जीवन में नहीं। यह भी एक युग-सत्य है कि आज भी रामायण-महाभारत काल के खलनायक जीवित और सक्रिय हैं। वर्तमान काल में इन दोनों युग के नायकों का अभाव है। राम मंदिर में विराजमान हैं और पांडव महाभारत के पन्नों में, यह भी एक प्रकार की विषम असमानता है, जब खलनायक हर काल और समय में विद्यमान है और नायक केवल पूजाघर या ग्रंथों में।
हमें लगता है कि उस रामायण-महाभारत के कालखंड में वास्तविक नायक होते थे, वनवास या राज्य छिनने के बावजूद। आज वह वास्तविकता में हों, न हों, कुछ नेताओं को प्रचार की टीम के माध्यम और मीडिया की मदद से नायक सा बनाया जाता है। नतीजा सबके सामने है। यह रचे हुए या कृत्रिम छवि के नायक, सिर्फ प्रचार साधनों की उपज हैं। असली जीवन में इनकी झूठी छवि दानवीर कर्ण की न होकर चालबाज शकुनि की नजर आती है। क्रूर सच्चाई यह है कि असली भीष्म पितामह जैसे असली नायक शर-शैया पर पड़े हैं और सत्य के साधक निर्वासित हैं पांडवों के समान। प्रचार के कागजी और काल्पनिक नायक हर होर्डिंग से लेकर टी.वी., समाचार-पत्रों में छाए हैं।
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