जूता दंश

जूता दंश

लेखन में पत्रकारीय छवि सर्वनिहित है। उनके लेख, रिपोर्ट और इतिहासबद्ध पुस्तकें इसकी प्रमाण हैं। पत्रकारीय लेखन में हेमंतजी ठोस और तथ्यपरक लिक्खाड़ माने जाते हैं। लेकिन पत्रकारिता से इतर उनका लेखन संवाद और बिंबों का एक कमाल का कोलाज है। वह निबंधात्मक लेखन में प्रवीण हैं, लेकिन उस लेखन और लेखक की स्याही बनारसी है, इसीलिए उसमें लालित्य है। ललित निबंध लिखने वाले हेमंतजी कथेतर गद्य के माहिर हैं। संवाद की शैली, दृष्टांतों का रेशम, छोटे-छोटे कथानकों से उकेरे गए बिंब और इन सबकी प्रतिस्थापना में इतिहास तथा परंपरा के प्रमाण, यही ताना-बाना और रचना हेमंतजी के कथेतर गद्य को रोचक और ललित बनाते हैं।

मुझे जूते ने काट खाया। तुर्रा यह कि दुनिया के सबसे महँगे जूते ने मेरे पाँव की खाल उधेड़ी। पहले इस नामुराद जूते ने जेब पर हमला किया, फिर पाँव पर। गुस्सा तो बहुत आया, पर बदले में जूते को काट खाने का खयाल मुझे जँचा नहीं। इस कटखने जूते का गोत्र ‘सेल्वाटोर फेरागामो’ है। पिछली सदी में ये इटली के मशहूर डिजाइनर थे। फ्लोरेंस में इनका घर और कारखाना है। जब मैं फ्लोरेंस गया था तो इनके जूतों का म्यूजियम भी देखा था। आजकल यह कंपनी दुनिया के सबसे महँगे जूते बनाती है। कंपनी के दुनियाभर में ४४७ स्टोर्स हैं। सेल्वाटोर फेरागामो ने कंगारू, मगरमच्छ और मछली की खाल के साथ प्रयोग करते हुए भी जूते बनाए हैं। इटली के गरीब परिवार में जनमे सेल्वाटोर फेरागामो अपने माँ-बाप के चौदह बच्चों में से ग्यारहवें नंबर पर थे। महज ९ साल की उम्र में अपने लिए जूते बनाने के बाद उनको लगा था कि ये ही वह काम है, जो वे करना चाहते थे।
 इतना माहात्म्य और इतिहास सोचकर मैंने भी सेल्वाटोर फेरागामो को अपना पैर दे दिया। सोचा था कि शायद मेरी चाल अब पहले से बेहतर हो जाएगी। पैरों को आराम मिलेगा और बटुए के चमड़े से निकली दमड़ी मेरे पैरों की चमड़ी का खयाल रखेगी। लेकिन अच्छी ब्रीड की पैदाइश होकर भी यह कुल मिलाकर कटखना ही निकला। पहले इटली का माफिया मशहूर था। अब शायद यह जूतों में माफिया है। तभी तो इस नालायक, फेरोगामो जूते ने मेरी एड़ियों को कुतर दिया। हाल मियाँ की जूती मियाँ के सिर वाला हो गया। हालाँकि प्रयोजन-पक्ष से जूता रक्षक है। इसका प्रधान कर्तव्य मालिक के पैरों की रक्षा करना है। पर मेरे मामले में तो इस कटखने ने काट खाया। अमानत में खयानत की।
जूते समाज में आपका जलवा बनाते है। लेकिन बिगाड़ने पर आएँ तो अपंग भी बना सकते हैं, यह इस कमबख्त जूते ने साबित किया। शायद इसीलिए इतिहास ने हमेशा जूतों को अंडरएस्टीमेट किया, जबकि सृष्टि की शुरुआत से आदमी और जूते में नाता रहा है। जैसे—मंदिर के बिना भगवान्, लाला के बिना दुकान, मीठे के बिना पकवान, वैसे ही जूते के बिना इनसान की कल्पना नहीं हो सकती। कभी-कभी तो जूता शासन भी चलाता है। राजकाज की दुविधा से भरत को इसी जूते ने बाहर निकाला था। भगवान् राम की गैरमौजूदगी में इसने ही अयोध्या का राज सँभाला था। चाँदी का जूता बड़े-बड़े सरकारी काम आसानी से करा देता है। असंभव को संभव बनाता है। बड़े-से-बड़ा भूत इसकी मार से घबराता है।
जूते का इतिहास बहुत पुराना है। सदियों से आदमी इसका दीवाना है। इब्नबतूता जूते के चक्कर में जापान घूम आया था।
उड़ते-उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गए
मोची की दुकान में।
वास्कोडिगामा और कोलंबस को भी जूते ने ही रास्ता दिखाया था। बाबर जूता पहनकर ही समरकंद से हिंदुस्तान आया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय बनने में निजाम के जूते की भी नीलामी का किस्सा खूब कहा जाता है। जूते की नवैयत ऐसी है कि घर के बाहर जूता देखकर अतिथि या घर के मालिक के होने, न होने का अनुमान लगाया जाता रहा है। राजनीति में तो खैर जूते पहनाने, जूता उठाने, जूता सिलवाने और जूते को साफ करने के किस्सों ने सेवकों को नायकत्व दिया है, प्रमोशन दिया है।
मुझे लगता है, भरत को रामजी अपनी कुरसी की रखवाली के लिए आभूषण और कपड़े भी दे सकते थे। पर उन्होंने जूते (खड़ाऊँ) दिए। निश्चित रूप से उस जूते ने राम को काटा होगा और रामजी ने कटखने जूते से अपना पिंड छुड़ाने के लिए उसे भरत को देने का फैसला किया होगा; और वह भी इसलिए छोड़ा होगा कि कहीं भरत को सिंहासन पर बैठने की आदत न बन जाए। ठीक वैसे ही जैसे सार्वजनिक बसों, मेट्रो और लोकल ट्रेन में यात्री सीट पर रुमाल रखकर अपना कब्जा जमाते हैं, भरत को खड़ाऊँ दे रामचंद्रजी का कुरसी पर कब्जा बरकरार रहा।
यह सही है कि जूतों से आदमी की पहचान होती है। आदमी महान् होता है। आदमजात को देखते ही पहली नजर जूतों पर पड़ती है। इस लिहाज से जूता आदमी की हैसियत का मेजरमेंट है। इज्जत का रखवाला है। पैर में रहे तो इज्जत बढ़ाता है, सिर पर पड़े तो इज्जत का फालूदा बना देता है। जूते की इसी कूवत के बरक्स इन दिनों फैशन की सारी बड़ी कंपनियाँ जूतों के कारोबार में उतर आई हैं। मसला यह है कि अब आधुनिक दौर के आदमी ने मुकुट, पगड़ी, साफा, हैट वगैरह पहनने का चलन छोड़ दिया है। सो अब सिर नहीं, पैर ही हैसियत का तसव्वुर हैं। और जहाँ खर्चा होगा, फैशन की फंतासी भी वहीं गलीचा बिछा देती है। 
पिछले दिनों जब मैं अमेरिका गया तो मेरी घरैतिन (पत्नी) मेरे पैरों की बेहतरी की जिद पर अड़ गईं। उन्होंने मेरी इज्जत बढ़ाने के लिए ‘फेरागामो’ का जूता खरीदवा दिया। बिटिया ने न्यूयॉर्क में कहा, ‘आपको फिफ्थ एवेन्यू दिखाते हैं। इसी सड़क पर दुनिया का फैशन दिखता, बिकता और पलता है।’ दुनिया के सारे बड़े डिजाइनर्स ने यहाँ अपना ठिकाना बनाया है। पत्नी ने कहा, ‘तुम्हें जूते चाहिए, यहाँ से ले लो।’ उसी अंदाज में जैसा मैंने कभी गाना सुना था—‘पैसे दे दो, जूते ले लो’। पत्नी के यह कहते ही मेरे दिमाग में जूते चलने लगे। अभी तक जूता गली, मोहल्ले, विधानसभा, संसद् में चलता था। उस वक्त मेरे दिमाग में चलने लगा था। और मैंने फेरागामो का जूता लेने का फैसला कर लिया।
फेरागामो को जूतों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वैसे ही जैसे भगवान् कृष्ण ने ऋतुओं में बसंत, वृक्षों में पीपल, पहाड़ों में सुमेरु, घोड़ों में उच्चैश्रवा, हाथियों में ऐरावत, पक्षियों में गरुड़ और महीनों में माघ को सर्वश्रेष्ठ बताया है। सेल्वाटोर फेरागामो कई राजघरानों और मर्लिन मुनरो जैसी अनेक फिल्मी हस्तियों के लिए जूते बनाते थे। १९३८ में फेरागामो ने ‘द रेनबो’ बनाया। ये पश्चिम में प्लेटफॉर्म शू की वापसी का पहला उदाहरण था। प्लेटफॉर्म चप्पल अमेरिकी गायक और अभिनेत्री जूडी गारलैंड के लिए डिजाइन किया गया था। उनका सबसे प्रसिद्ध आविष्कार ‘Cage heel’ था, यानी महिलाओं के ऊँची एड़ी के जालीदार जूते, जिनका ऊपरी हिस्सा ठोस टुकड़े के बजाय जाली से बना होता है।
वैसे जूतों का प्रकट इतिहास भी इटली में ही मिलता है। १९९१ में ऑस्ट्रिया व इटली की सीमा पर पुरातत्त्ववेत्ताओं को स्वभाविक तौर पर ममी में बदला हुआ एक मानव मिला। इसका नाम ओएत्जी था, जो प्रस्तर युग में करीब ३३०० साल पहले मरा होगा। आल्प्स और टुंड्रा के बर्फीले इलाकों में विचरण करने वाला ओएत्जी जूते पहने हुए था, जो हिरन की खाल से बने थे। सिला हुआ यह जूता दुनिया में फुटव‍ियर का पहला संस्करण माना जाता है।
रोमन साम्राज्य में तो सैंडल या जूते पहनने की छूट केवल प्रभु वर्ग को ही थी। गुलाम तो नंगे पाँव ही चलते थे। मध्ययुग तक यूरोप में बूट बनने लगे और आधुन‍िक युग में जूता फैशन बन गया। १९३० की मंदी में अमेरिका में लोग काले और ब्राउन जूते पहनते थे। फीते वाले जूतों का प्रचलन अमेरिका से आया, तब तक ऑक्सफोर्ड शूज महिला और पुरुषों के बीच लोकप्र‍िय हो गए थे।
उन्नीसवीं सदी के अंत में यू.एस. रबर कंपनी ने दुनिया का पहला रबर और कपड़े से बना जूता तैयार किया। यह स्पोर्ट्स शूज का पूर्वज था। इन जूतों का नाम स्नीकर अंग्रेजी शब्द स्नीक से आया था, यानी जो चुपके से आ गया हो। मजाक में इसे आप उचक्का जूता भी कह सकते हैं। बाद के २५ वर्ष में यह खेल की दुनिया से होते हुए फैशन तक छा गया। रीबॉक, नाइकी जैसे ब्रांड इसकी पहचान बन गए।
बहरहाल पंडित हेमंत शर्मा, जिनकी जिंदगी कभी ‘जगतगंजी’ जूते से चलती थी, उनके लिए यह वर्गीय झटका था। जूता, उपानह, पदवेश, पदत्राण, पनारू, शू आदि सभी जूते के वर्गीय चरित्र को परिभाषित करते हैं। बनारस में ‘जगतगंज’ जूते का वह बाजार है, जो संत रविदास के समय से चल रहा है। यहाँ मोची लोग हाथ से जूते बनाते हैं। इस शहर में जूता सिलने के पीछे रैदास की सनातन परंपरा है। वे यहीं गंगा के किनारे जूता गाँठते थे। यह रैदास की भक्ति का चमत्कार ही था कि उनके चमड़ा साफ करने की कठौती से गंगा को प्रकट होना पड़ा। यहीं से इस कहावत का भी जन्म हुआ की ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
जगतगंजी जूते को ‘चमरौधा’ जूता भी कहते हैं, जो पहनने में चूँ-चूँ करता है। इसीलिए गुलजार को लिखना पड़ा, ‘इब्नबतूता, बगल में जूता, पहने तो करता है चुर्रर्र’। चमरौधे जूते को खरीदने के बाद उसे पूरी रात तेल से भरकर रखना पड़ता था, तभी दूसरे रोज जूता अपनी पूरी मुलायमियत के साथ पैर की शोभा बढ़ाता था। महाकवि निराला ने इस जूते का जिक्र करते हुए अपने दामाद के पैरों का वर्णन किया है। वे लिखते हैं—‘वे जो यमुना के-से कछार पद फटे बिवाई के, उधार खाए के मुख ज्यों पिए तेल चमरौधे जूते से सकेल निकले, जी लेते, घोर-गंध, उन चरणों को मैं यथा अंध, कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति।’
जगतगंजी जूते के बाद मैंने बाटा का जूता पहनना शुरू किया। पर वह बाटा कंपनी का बना नहीं होता था। माल बाटा का होता था और इसके निर्माता थे, रामचरन। रामचरन बाटा के सेंट्रल रिपेयर सेंटर के प्रधान कारीगर थे। वहाँ जूते की मरम्मत के लिए मेटिरियल आते थे। जो जूता हम बाटा कंपनी में पंसद करते, रामचरन उन्हें बना देता था और हमें चालीस-पचास रुपए के जूते सोलह-सत्रह रुपए में मिल जाते थे। रामचरनजी धीर-गंभीर और दार्शनिक थे। वे लगा लेने के बाद (सोमद्रव) जूते और चप्पल का भेद भूल जाते थे। इसलिए कभी जूते के ऑर्डर पर चप्पल तो कभी चप्पल के ऑर्डर पर जूते बना देते थे।
वैसे मोची के लिए यूरोप में Shoe healer शब्द का प्रयोग होता है। सम्मान बहुत रहा है इनका। १७-१८वीं सदी में इनके गिल्ड होते थे। मशीनी जूते आने तक जूता बनाना और सुधारना कला भी थी और कारोबार भी। १७वीं सदी में एक कथाकार हुए—ज्यां दे ला फोंते। इनके कहानी-संग्रह फ्रेंच क्लास‍िक साहित्य का हिस्सा हैं। फोंते बड़े किस्सागो थे। उन्होंने यूरोप के अलग-अलग ​हिस्सों से कहान‍ियाँ जुटाई थीं, जो ‘फेबल्स ऑफ फोंते’ के नाम से छपीं और यूरोपीय लोकायत का हिस्सा बन गईं। उनके संग्रह की एक बेहद मधुर कथा है—‘द कॉबलर एंड द फाइनेंसर’, जिसमें एक बेहद गरीब, लेकिन मस्त मोची या शू हीलर जूते बनाते हुए गाने गाता रहता था। पड़ोस में एक बड़ा बैंकर या कहें क‍ि व्यापारी रहता था। मोची के गाने से कारोबारी की नींद खराब होती थी। सो मोचीराम व्यापारी के यहाँ तलब हुए। उस कारोबारी ने काफी मोटी रकम के बदले मोची से न गाने का सौदा किया। शू हीलर मान गया। लेक‍िन कुछ वक्त बाद मोची का गाना ही नहीं, नींद व चैन भी जाता रहा। गरीबी में यह पैसा सुरक्षित कैसे रहे, यह बड़ा सवाल बन गया। उसके जीवन की खुशी जैसे खत्म। कुछ दि‍न बाद मोची व्यापारी को पैसा देकर अपनी नींद व गाना वापस लेने पहुँच गया। फोंते यह कथा लैट‍िन लोकायत से लाए थे। कथा इतनी लोकप्र‍िय हुई क‍ि फ्रांस में ही नहीं, बल्कि रूस तक इसके कई नाट्‍य संस्करण तैयार हुए।
इसी तरह बाइबिल से जुड़ी कथाओं में एक नि‍र्धन शू हीलर की कथा भी है, जिसने जीसस के जन्मदि‍वस पर बाल यीशु को चढ़ाने के ल‍िए बनाया गया एक सुंदर शिशु फुटवियर अपने घर के सामने से गुजरते एक निर्धन के बीमार शिशु को भेंट कर दिया था। १८-१९वीं सदी ब्रि‍टेन में जन साहित्य की सदी है। इस दौर के कव‍ि अलग-अलग हस्तशिल्प या पेशों से आते थे। अचरज हो सकता है कि उस वक्त छपी रचनाओं में बड़ा हिस्सा शू मेकर्स का था। शू मेकर्स की कव‍िताएँ व‍िश्व साहित्य की न‍िधि हैं। इनमें मशहूर जेम्स वुडहाउस भी स्वयं मोची थे और प्रतिष्ठित कवि भी।
जूता हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा का प्रतिलक्षण भी है। आज किसी समाज को देखना चाहते हैं तो उसमें रहने वालों के जूते देख लें। जूते की चमक, जूते की बनावट, मसलन लकड़ी का जूता यानी खड़ाऊँ, चमड़े का जूता या ऐसे भी लोग थे, जिनको जूता पहनने की किसी जमाने में इजाजत तक न थी। पहाड़ी जूता, पेशावरी जूता, पंजाबी जूता, मारवाड़ी-राजस्थानी जूता, फीतेदार या हाफकट जूता। इतालवी ही नहीं, जापानी, तुर्किए, रूसी और अरबी जूते भी दुनियाभर में बेहद पसंद किए जाते हैं। जूते से झाँकती उँगलियों से लेकर जूतों में जड़े हीरे और कढ़े सोने के तारों से आप हैसियत और खानदान भाँप सकते हैं। वैसे जूते और जूती में भी फर्क होता है। चचा गालिब से एक बार किसी ने पूछा था कि जूते-जूती में क्या फर्क होता है। उस्ताद ने फरमाया था कि ‘जोर से पड़े तो उसे जूता कहते हैं और आहिस्ता से कोई मारे तो उसे जूतियाँ कहते हैं।’
वैसे समाज किसी को कैसे भी देखता हो, जूता केवल पैरों का साइज देखता है। पैर की औकात नहीं। जूता इस मामले में आदमी से ज्यादा साम्यवादी है। हालाँकि जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। उपन्यास सम्राट् प्रेमचंद तो इस कलंकी जूते के कारण गरीब मान लिये गए, क्योंकि पत्नी के साथ उनका एक फोटो है, जिसमें उनके जूते फटे हुए हैं। बस प्रेमचंद गरीब मान लिये गए। जबकि आज लमही में उनका घर और मौत के बाद बैंक की पासबुक देखें तो तसवीर कुछ और बयाँ होती है।
अष्टछाप के कवि कुंभनदास तो इसी नामुराद जूते के कारण अकबर के नौरत्नों में शामिल होने से रह गए। अकबर ने उन्हें संदेश भेज अपने नौरत्नों में शामिल होने का निवेदन किया। कुंभनदास ने लिखा, ‘संतन को कहाँ सीकरी सों काम? आवत जात पनहियाँ टूटीं, बिसरि गयो हरि नाम।’ यानी पनही के टूटने के डर से वे नवरत्न नहीं बन पाए; और लोगों ने इसे सत्ता के प्रति कुंभनदास की उदासीनता समझा, जबकि इसके पीछे कुंभनदास की जूते के प्रति चिंता थी।
जूते को आदमी का स्थानापन्न माना गया। तभी तो जूते ने भी राज चलाया। पर धूमिल ने तो आदमी को ही ‘जूता’ कह दिया। वे कहते हैं—
मेरी निगाह में न कोई छोटा है, न कोई बड़ा 
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है, 
जो मेरे सामने 
मरम्मत के लिए खड़ा है, 
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं 
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’ बतलाते हैं
सबकी अपनी शक्ल है
अलग-अलग शैली है।
जब से जूता राजनीति में आया है, उसकी चाल बदल गई। पहले आदमी की चाल ही जूते की चाल थी। लेकिन जूते ने राजनीति सीखी। जूता राजनीति में एक हैसियत बन गया। जिसने सही जूता चूम लिया, वे पदासीन हो गए। जिन्होंने गलत जूता उठा लिया, वे नेपथ्य में मूँगफली छीलते-छीलते खत्म हो गए। इसके बाद तो जूता पाँव छोड़ खुद भी चलने लगा। हवा में बातें करने लगा। सबसे पहले जॉर्ज बुश पर चला। फिर तो केजरीवाल, चिदंबरम सब पर चलने लगा। हालाँकि इस जूतमपैजार से जूते चिढ़ गए हैं। कहते हैं, यह हमारी तौहीन है। ये क्या कि हमें जिस-तिस पर उछाल दिया, जैसे हमारी कोई इज्जत ही नहीं। अब तो पता नहीं, जूता रक्षक है, पदवेश है, हथियार है या प्रक्षेपास्त्र है। पर मेरा जूता तो अब मांसभक्षी भी है। तभी तो उसने काट खाया। 
जूता अभिनंदन के भी काम आता है, कभी-कभी उसका हथियार के तौर पर इस्तेमाल देखा गया है। जूतों का हार पहनाकर ‘अपराधियों’ का जुलूस निकाला जाता है। सुँघा दिए जाने पर मिर्गी के दौरों का भी इलाज है। हैसियत का ऐलान है और पैरों की लोकलाज है। प्रचार के लिए तड़पते कुछ लोग इस पावरफुल प्रक्षेपास्त्र को सीधे टारगेट पर चलाते हैं। टारगेट मिस हो जाने पर भी सुर्खियों में जगह पाते हैं।
जूतों के काटे जाने से बने मेरे घाव तो अब भरने लगे हैं, लेकिन इन जूतों का काटा कई बार पानी भी नहीं माँग पाता। रूस-यूक्रेन युद्ध जारी है, ’६० के दशक में रूस के महान् नेता निकिता ख्रुश्चेव ने संयुक्त राष्ट्र आमसभा में जब जूते खोलकर टेबल पर रख दिए थे, तो उन जूतों ने अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी के दिल में आज के परमाणु बम से कम दहशत का काम नहीं किया था। क्या पता अमेरिका के दिल में उन जूतों की टीस आज भी कायम हो और यह युद्ध उसी की करामात हो।

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नोएडा-२०१०३०१
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