संभावनाओं का क्षेत्र कथेतर गद्य

संभावनाओं का क्षेत्र कथेतर गद्य

सुपरिचित लेखक। भारतीय साहित्य के प्रतिष्ठित अध्येता एवं मध्यकालीन हिंदी साहित्य के चर्चित विद्वान्। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के कई वर्षों तक प्रधान संपादक। संत साहित्य की समझ, संत रज्जब, दादू पंथ के शिखर संत, रज्जब मोनोग्राम चर्चित पुस्तकें हैं।

हिंदी गद्य का विकास कथेतर साहित्य के साथ हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्राचीन गद्य का रूप ब्रजभाषा और राजस्थानी साहित्य में दिखलाई पड़ता है। आदिकालीन गद्य को २. कुवलयमाला कथा २. राउलवेल ३. उक्ति व्यक्ति प्रकरण ४. वर्णरत्नाकर तथा ५. कीर्तिलता में देख सकते हैं।
‘कुवलयमाला कथा’ को उद्योतन सूरि ने सन‍् ८३५ वि. में लिखा। राजस्थान की भाषाओं के संदर्भ में बात करते हुए डॉ. हीरालाल माहेश्वरी ने ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ में लिखा है—“संवत् ८३५ में मारवाड़ के जालोर नगर में उद्योतन सूरि लिखित कुवलयमाला नामक कथा ग्रंथ में अठारह देश-भाषाओं का उल्लेख मिलता है।” ‘राउलवेल’ ग्यारहवीं शताब्दी की रचना है। इस पुस्तक में पद्य के साथ-साथ गद्य भी है। इसके रचनाकार ‘रोडा’ नाम के कवि हैं। इसमें हिंदी की सात बोलियों की शब्दावली मिलती है। ‘राउलवेल’ का गद्य काव्य की तरह ही आलंकारिक है। 
‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ की रचना पंडित दामोदर शर्मा ने बारहवीं शताब्दी में की। ये महाराज गोविंदचंद्र के सभा पंडित थे। इस ग्रंथ की रचना काशी और कान्यकुब्ज की प्रचलित भाषा में की गई है। इसका उद्देश्य राजकुमारों को संस्कृत सिखाना था। चूँकि इस ग्रंथ का उद्देश्य संस्कृत भाषा को सिखाना था, इसलिए स्वाभाविक रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश की भाषाओं में संस्कृत की शब्दावली का प्रयोग किया गया है। व्याकरण के स्वरूप को भी इसमें देख सकते हैं। ‘वर्णरत्नाकर’ १४वीं शताब्दी की रचना है। ज्योतिरीश्वर ठाकुर नामक मैथिल कवि ने तत्सम शब्दावली का प्रयोग करते हुए इसकी रचना की। तत्कालीन परिष्कृत गद्य का स्वरूप इसमें दिखलाई पड़ता है। ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ और ‘वर्णरत्नाकर’ के रचनाकाल में लगभग दो सौ वर्षों का अंतर है। इन दोनों ग्रंथों ने हिंदी गद्य के स्वरूप को विकसित तो किया ही, व्यवस्थित भी किया। ‘कीर्तिलता’ विद्यापति रचित काव्य की पुस्तक है। इस पुस्तक में गद्य का भी प्रयोग हुआ है। यह चौदहवीं शताब्दी की रचना है। यथार्थ और प्रतिरोध की कविता का प्रामाणिक ग्रंथ है—कीर्तिलता। गद्य का एक उदाहरण द्रष्टव्य है—“मध्यान्हे करी वेला संमद्द साज सकल पृथ्वी चक्र करेओ वस्तु बिकाएँ आएवाज। मानुस के मीसि पासि वर आँगे आँग, उँगर आनक तिलक आनकां लाग। यात्राहृतह परस्रोक वलया भाँग। ब्राह्म‍ण क यज्ञोपवीत चांडाल हृदयलूल, वेश्यान्हि करो पयोधर जरीक हृदय चूर।”
कीर्तिलता काव्यकृति है। गद्य के ​िवकास के साथ ही कथेतर प्रसंगों की अन्विति के संदर्भ में इसकी समझ जरूरी है। राजस्थान में कथेतर गद्य दान-पत्र, पट्टे आदि के रूप में चौदहवीं शताब्दी के पूर्व लिखे गए।
भक्तिकाल का अधिकांश गद्य कथेतर है। इस कालखंड के गद्य का विषय अध्यात्म, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, चिकित्साशास्त्र, व्याकरण और गणित से संबंधित है। इसके अतिरिक्त अनेक टीकाएँ प्राप्त होती हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास के ‘रीतिकाल’ में बड़ी संख्या में गद्य साहित्य लिखा गया। इस कालखंड का गद्य-साहित्य भी प्राय: कथेतर है। कुछ प्रमुख गद्य कृतियाँ हैं—बिहारी सतसई की टीका (हरिचरणदास), रामचंद्रिका की टीका (जानकी प्रसाद), बीजक की टीका (विश्वनाथ सिंह), रसिकप्रिया की टीका (सरदार कवि) आदि। ये केवल कुछ उदाहरण हैं। सौ से अधिक टीकाएँ विभिन्न रचनाओं की प्राप्त होती हैं। कृष्णभक्ति से संबंधित ग्रंथों पर बहुत-सी टीकाएँ लिखी गईं। 
१८०० ई. के बाद यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि भारत में शिक्षा की माध्यम भाषा कौन सी हो? स्पष्ट है कि अंग्रेज अपनी भाषा अंग्रेजी को स्थापित करना चाहते थे। उनकी समस्या यह थी कि भारत में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न स्तर का था। हिंदुओं में एक उच्च वर्ग था, जो संस्कृत जानता था। वह संख्या भी बहुत कम थी। फारसी की भी आमजन तक पहुँच नहीं थी। अलग-अलग क्षेत्रों की अपनी-अपनी बोलियाँ थीं।
अंग्रेजी को आमजन तक लोकप्रिय बनाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कई प्रयत्न किए। इस दृष्टि से १८१६ ई. में राजा राममोहनराय की सहायता से डेविड हेअर ने कलकत्ते में एक अंग्रेजी स्कूल प्रारंभ किया। एलेक्जेंडर डफ ने कलकत्ते में १८३० ई. में एक कॉलेज प्रारंभ किया। १८३४ ई. में लाॅर्ड मैकाले के आने के बाद अंग्रेजी शिक्षा ने भारत में जोर पकड़ लिया। दूसरी तरफ अंग्रेजी सरकार मिशनरियों के कहने पर संस्कृत और फारसी भाषा की शिक्षा की भी व्यवस्था कर रही थी। ऑनरेबुल फ्रेडरिक जॉन शोर तथा ड्रमंड लोक भाषाओं के पक्ष में थे। उस समय लोक भाषा के रूप में खड़ीबोली का जो स्वरूप था, वह आज की खड़ीबोली नहीं थी। १८०० ई. में मार्क्विस वेलेजली ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज का उद्देश्य सरकारी कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना था। इस कॉलेज में शिक्षा के अनेक विषय और कई भारतीय भाषाएँ थीं। कॉलेज में डॉ. जॉन बोर्थविक् गिलक्राइस्ट को हिंदुस्तानी भाषा का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। गिलक्राइस्ट ने अपनी दृष्टि और विचारानुसार हिंदुस्तानी के विकास के लिए कई काम किए। इसकी चर्चा कथेतर गद्य के संबंध में इसलिए आवश्यक है कि खड़ी बोली हिंदी के विकास में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लल्लूलाल, सदल मिश्र, गंगा प्रसाद शुक्ल, इंद्रेश्वर, नरसिंह, ख्यालीराम, ब्रह्म‍ सच्चिदानंद, मधुसूदन तर्कालंकार, दीनबंधु, शेष शास्त्री, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि इस महाविद्यालय में नियुक्त थे। इन सभी विद्वानों ने खड़ीबोली गद्य के विकास में योगदान किया।
अंग्रेजी भाषा और साहित्य के प्रभाव में हिंदी का गद्य साहित्य विकसित हुआ। उस साहित्य का रंग-रूप भारतीय था। शिल्प अंग्रेजी से प्रभावित था। हिंदी के साहित्य को प्रचारित करने के लिए उसके पास पर्याप्त जनबल था। अनेक प्रकार के अवरोधों के बावजूद अपनी जनशक्ति के बल पर हिंदी आगे बढ़ी। बहुत बड़ी संख्या में लेखकों ने ‘भारतेंदु युग’ के समय गद्य में रचनाएँ लिखनी प्रारंभ कीं। इस युग में हिंदी आलोचना के प्रारंभिक रूप को देख सकते हैं। ‘हिंदी-प्रदीप’ (१८७७-१९१०) में व्यवस्थित रूप से आलोचनाएँ प्रकाशित होती थीं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने स्वयं कथेतर गद्य की अनेक विधाओं में लिखा। अनेक नाटक लिखे। उनके कई नाटक अनूदित हैं। परतंत्र भारत में जनता के ‘स्व’ के जागरण हेतु भारतीय महापुरुषों की जीवनियाँ लिखीं। विदेशी महापुरुषों से भारतीयों का परिचय करवाया। उन्होंने सुकरात, नेपोलियन, लाॅर्ड म्योसाहिब, महाराजधिराज जार आदि के विषय में भी संक्षिप्त रूप से लिखा। पुरावृत्त संग्रह किया तथा इतिहास से संबंधित उन तथ्यों की सूचना दी, जिनके विषय में आमजन को तो कोई ज्ञान ही नहीं था, विद्वानों को भी इसकी जानकारी नहीं थी। इस दृष्टि से उनके लेखन का विषय है—‘अकबर और औरंगजेब’, ‘कन्नौज के राजा का दानपत्र’, ‘राजा जनमेजय का दानपत्र’, ‘मणिकर्णिका’, ‘काशी’, ‘नागमंगला का दानपत्र’, ‘चित्रकूट (चित्तौर) स्थ रमा कुंड प्रशस्ति’, ‘गोविंद देवजी के मंदिर की प्रशस्ति’ आदि। भारतेंदु ने यात्रावृत्तांत लेखन की विधिवत् शुरुआत की। इस दृष्टि से ‘सरयूपार की यात्रा’, ‘वैद्यनाथ की यात्रा’ तथा ‘जनकपुर की यात्रा’ उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु युग में कथेतर गद्य लिखने वाले अनेक लेखक हैं। नाटकों की दृष्टि से ‘ललिता’ (अंबिकादत्त व्यास), ‘महारास’ (हरिहरदत्त दूबे), ‘उषाहरण’ (कार्तिक प्रसाद खत्री), ‘प्रद्युम्न-विजय’ (अयोध्या सिंह उपाध्याय), ‘सीताहरण’ (देवकीनंदन खत्री), ‘रामचरितावली’ (शीतला प्रसाद त्रिपाठी), ‘सीता-वनवास’ (ज्वालाप्रसाद मिश्र) आदि कृतियाँ चर्चित हैं। अनेक लेखकों ने जीवनियाँ लिखीं। कार्तिक प्रसाद खत्री ने ‘अहिल्याबाई का जीवन चरित्र’ (१८८७), ‘छत्रपति शिवाजी का जीवन चरित्र’ (१८८०) और ‘मीराबाई का जीवन चरित्र’ (१८९३) लिखा।
इस युग के जीवनी-लेखकों में सर्वाधिक जीवनी लिखने वाले देवी प्रसाद मुंसिफ हैं। इनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक जीवनियाँ हैं—‘राजा मालदेव का जीवन चरित्र’ (१८८९), ‘उदयसिंह महाराजा’ (१८९३), ‘अकबरनामा’ (१८९३), ‘राणा भीम’ (१८९३), ‘जसवंत सिंह’ (१८९६) आदि। राधाकृष्णदास ने साहित्यकारों की जीवनियाँ लिखीं। वे हैं—‘कविवर बिहारीलाल’ (१८९५), ‘सूरदास’ (१९००), ‘श्रीनागरीदासजी का जीवन चरित्र’ (१८९४)। इस युग के साहित्यकारों ने इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र और कला विषयक अनेक पुस्तकें लिखीं। ज्ञान-विज्ञान को हिंदी में प्रस्तुत करने का सूत्रपात ही नहीं किया, उसे लोकप्रिय भी बनाया। संगीतशास्त्र की दृष्टि से भक्तराम लिखित ‘राग-रत्नाकर’ (१८८५), मणिराम की ‘सितार-चंद्रिका’ (१८९३) तथा सौरींद्र मोहन ठाकुर कृत ‘गीतावली’ (१८७८) उल्लेखनीय हैं। आज भी हिंदी में उच्च स्तरीय विज्ञान और चिकित्सा विषयक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें न होने की बात की जाती है। भारतेंदु युग में कई लेखक इस क्षेत्र में लेखन प्रारंभ कर चुके थे। कुछ प्रमुख लेखक हैं—जनार्दन भट्ट ‘वैद्यक रत्न’ (१८८२), श्रीकृष्ण शास्त्री ः ‘चिकित्सा धातुसार’ (१८८५), डॉ. ब्रजलाल ः ‘शस्त्र चिकित्सा’ (१८८७), डॉ. शिवचंद्र मैत्र ः ‘पशुचिकित्सा’ (१८९५), आदित्य भट्टाचार्य ः ‘बीजगणित’ (१८७४), सुधाकर द्विवेदी ः ‘चलन-कलन’ (१८८६), महेंद्र भट्टाचार्य ः ‘पदार्थ दर्शन’ (१८७३) तथा लक्ष्मीशंकर मिश्र ः ‘पदार्थविज्ञान विटप’ (१८७५) आदि।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने स्वयं जीवनी लेखन करके इस विधा को प्रतिष्ठित आधार दिया था। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे समृद्ध बनाया। उन्होंने स्वयं कई लोगों की जीवनियाँ लिखीं। वे लोग समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले विशिष्ट व्यक्तित्व थे। उन्होंने विदेशियों के भी जीवन चरित्र लिखे। द्विवेदीजी द्वारा लिखे गए जीवन चरित्र भारतीय साहित्य के अभिन्न अंग हैं। इससे उनकी रुचि, अध्ययन, शोधवृत्ति तथा दृष्टि का पता चलता है। जिन भातीय नायकों की जीवनियाँ उन्होंने लिखीं, उनमें से कुछ के शीर्षक हैं—वामन शिवराम आपटे, एम.ए., भवभूति, विष्णुशास्त्री चिपलूणकर, महात्मा रामकृष्ण परमहंस, रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, राजा रामपाल सिंह, सवाई जय सिंह, पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र, पंडित प्रताप नारायण मिश्र, कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर, वीरवर दुर्गादास, सर सुंदरलाल, बाबू अरविंद घोष, वाजिद अलीशाह, बाबू चिंतामणि घोष, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक आदि। वामन शिवराम आपटे ने भिक्षा माँगकर अपनी पढ़ाई की। एक भिक्षुक बालक अपनी जिजीविषा के बल पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का ख्यातिलब्ध विद्वान् हो सकता है। उनके जीवन ने महावीर प्रसाद द्विवेदी को प्रभावित किया। यह जीवनी परतंत्र देश में अनेक विद्यार्थियों के लिए प्रेरक बनी, जो अभावग्रस्त थे। वे लिखते हैं—“उनको गणित और संस्कृत पर बड़ा अनुराग था। इन विषयों में वे अपने सहपाठियों की सहायता करते थे और उनको प्रसन्न करके उनकी पुस्तकें माँगकर अपना काम चलाते थे। पुस्तकों की भी भिक्षा! वस्त्र की भी भिक्षा! अन्न की भी भिक्षा! भिक्षा ही पर उनका जीवन अवलंबित था। ऐसी विपन्न दशा में रहकर भी वामनराव ने बड़े परिश्रम से विद्याध्ययन में चित्त लगाया।” द्विवेदीजी ने एक बड़े व्यक्ति पर पूरी पुस्तक लिखने के स्थान पर अनेक लोगों पर लिखना अधिक उचित समझा। इस युग के प्रमुख जीवनी लेखक हैं—महादेव भट्ट, पारस नाथ त्रिपाठी, शीतलाचरण वाजपेयी, संपूर्णानंद, बलदेव प्रसाद मिश्र, देवी प्रसाद, आनंद किशोर मेहता, लक्ष्मीधर वाजपेयी, कार्तिक प्रसाद आदि।
द्विवेदीयुगीन साहित्यकारों ने देश-विदेश की यात्राओं का वर्णन कर भारतीय मन को यात्रा के प्रति जागरूक किया और वैश्विक स्थिति से परिचित करवाया। इस युग की प्रमुख यात्रावृत्तांत से संबंधित पुस्तकें हैं—देवी प्रसाद खत्री की ‘बद्रिकाश्रम-यात्रा’ (१९०२), गोपालराम गहमरी कृत ‘लंका यात्रा का विवरण’ (१९१६), ठाकुर गदाधर सिंह कृत ‘चीन में तेरह मास’ (१९०२), स्वामी सत्यदेव परिव्राजक कृत ‘अमेरिका दिग्दर्शन’ (१९११), ‘मेरी कैलास यात्रा’ (१९१५), ‘अमरीका भ्रमण’ (१९१६) तथा शिव प्रसाद गुप्त कृत ‘पृथिवी प्रदक्षिणा’ (१९१४)।
महावीर प्रसाद द्विवेदी संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका में अनेक संस्मरण प्रकाशित हुए। उन्होंने स्वयं कई संस्मरण लिखे। ‘अनुमोदन का अंत’ (फरवरी, १९०५), ‘सभा की सभ्यता’ (अप्रैल १९०७), ‘विज्ञानाचार्य बसु का विज्ञान-मंदिर’ (जनवरी १९१८) उनकी महत्त्वपूर्ण संस्मरण रचनाएँ हैं। इस युग के प्रमुख संस्मरण लेखक हैं—रामकुमार खेमका, जगद्बिहारी सेठ, प्यारेलाल मिश्र, काशी प्रसाद जायसवाल, भोलादत्त पांडेय आदि। द्विवेदी युग में कथेतर गद्य की दृष्टि से ज्ञान-विज्ञान का साहित्य प्रभूत मात्रा में लिखा गया। इस युग में इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, कोश विज्ञान, भाषा, व्याकरण, लिपि, धर्मशास्त्र, शिक्षाशास्त्र आदि विषयों पर अनेक लेखकों ने लिखा। आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० की सर्वत्र चर्चा है। इसमें भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने की बात कही गई है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में लेखन का जो एक मजबूत आधार द्विवेदीयुग में रखा गया, उस पर विशाल भवन नहीं बन पाया। इस कारण अन्य भारतीय भाषाओं सहित हिंदी में भी ज्ञान-विज्ञान का अल्प साहित्य उपलब्ध है। वह अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों का सामना नहीं कर पा रहा है।
छायावाद तक आते-आते कथेतर गद्य परिपक्व हो गया था। अनेक लेखक विभिन्न विधाओं में लिखने लगे थे। कई लेखकों ने रेखाचित्र लिखा। ऐसे संस्मरण और रेखाचित्र में भेद करना कठिन है। दोनों का परस्पर घनिष्ट संबंध है। ‘हिंदी साहित्य कोश’ (डॉ. धीरेंद्र वर्मा) में संस्मरण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है, “संस्मरण लेखक जो स्वयं देखता है, जिसका वह स्वयं अनुभव करता है, उसी का वर्णन करता है। उसके वर्णन में उसकी अपनी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ भी रहती हैं। इस दृष्टि से शैली में वह निबंधकार के समीप है। वह वास्तव में अपने चतुर्दिक् के जीवन का सर्जन करता है, संपूर्ण भावना और जीवन के साथ। इतिहासकार के समान वह विवरण प्रस्तुत करनेवाला नहीं है।” ‘हिंदी साहित्य कोश’ (डॉ. धीरेंद्र वर्मा) में रेखाचित्र के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। विचार के लिए कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ—“रेखाचित्र की विशेषता विस्तार में नहीं, तीव्रता में होती है। रेखाचित्र पूर्ण चित्र नहीं है—वह व्यक्ति, वस्तु, घटना आदि का एक निश्चित दृष्टिबिंदु से प्रस्तुत किया गया प्रतिबिंब है, जिसमें विवरण की न्यूनता के साथ-साथ तीव्र संवेदनशीलनता वर्तमान रहती है। इसलिए रेखाचित्रांकन का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण है, उस दृष्टिबिंदु का निर्धारण, जहाँ से लेखक अपने वर्ण्य विषय का अवलोकन कर उसका अंकन करता है।”
‘छायावाद’ के समय संस्मरण साहित्य अधिक जीवंत होकर लेखन में आया। पं. पद्मसिंह शर्मा के ‘पद्मपराग’ से व्यवस्थित संस्मरणों की शुरुआत हुई। इस विधा की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं—‘बोलती प्रतिमा’ श्रीराम शर्मा, ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ’, ‘पथ के साथी’, ‘मेरा परिवार’ महादेवी वर्मा, ‘हमारे आराध्य’ बनारसीदास चतुर्वेदी। बनारसीदास चतुर्वेदी का ‘रेखाचित्र’ १९५२ ई. में प्रकाशित हुआ। महादेवी वर्मा की इस विधा की चर्चित पुस्तक ‘मेरा परिवार’ १९७२ ई. में प्रकाशित हुई।
संस्मरण और रेखाचित्र लेखकों की १९७० से पूर्व की कृतियों में रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘माटी की मूरतें’ (१९४६ ई.), प्रकाशचंद्र गुप्त की ‘मिट्टी के पुतले’ तथा ‘पुरानी स्मृतियाँ और नए स्केच’, शिवपूजन सहाय कृत ‘वे दिन वे लोग’ (१९४६ ई.), सेठ गोविंददास की ‘स्मृति कण’ (१९५९ ई.), विष्णु प्रभाकर की ‘जाने अनजाने’ (१९६२ ई.), माखनलाल चतुर्वेदी की ‘समय के पाँव’ (१९६२ ई.), जगदीशचंद्र माथुर की ‘दस तसवीरें’ (१९६३ ई.) आदि को पाठकों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। उपेंद्रनाथ अश्क के संस्मरण और रेखाचित्र संकलित पुस्तकें हैं—‘रेखाएँ और चित्र’ (१९५५), ‘मंटो मेरा दुश्मन’ (१९५६) तथा ‘ज्यादा अपनी कम पराई’ (१९५९) १९७० ई. के पूर्व प्रकाशित कृतियों में विष्णु प्रभाकर की ‘कुछ शब्द—कुछ रेखाएँ’ (१९६५), राहुल सांकृत्यायन की ‘बचपन की स्मृतियाँ’, ‘जिनका मैं कृतज्ञ’, डॉ. नगेंद्र की ‘चेतना के बिंब’, हरिभाऊ उपाध्याय की ‘मेरे हृदय-देव’, अमृता प्रीतम की ‘अतीत की परछाइयाँ’ उल्लेखनीय हैं। इस विधा की पुस्तकों ने इतिहास के समानांतर अपने संस्मरणों और रेखाचित्रों के माध्यम से भारतीय इतिहास को विशेष रूप से स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास और जनता के संघर्षों तथा आग्रहों को रचनात्मक धरातल पर समझने के लिए ठोस सामग्री उपलब्ध कराई। भारतीय महापुरुषों तथा जन को इन पुस्तकों में प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
१९७० ई. के बाद प्रकाशित प्रमुख रेखाचित्र हैं—विष्णु प्रभाकर ‘यादों की तीर्थयात्रा’, राजेंद्र यादव ‘औरों के बहाने’, अमृतलाल नागर ‘जिनके साथ जिया’, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ ‘युगपुरुष’, पद्मा सचदेव ‘दीवानखाना’ तथा ‘जम्मू, जो कभी शहर था’, अज्ञेय ‘स्मृतिलेखा’, अमृतराय ‘जिनकी याद हमेशा आती रहेगी’, हरिशंकर परसाई ‘हम इक उम्र से वाकिफ हैं’, बनारसीदास चतुर्वेदी ‘महापुरुषों की खोज में’, गिरिराज किशोर ‘सप्तपर्णि’, विष्णुकांत शास्त्री ‘सुधियाँ उस चंदन वन की’, रामदरश मिश्र ‘स्मृतियों के छंद’, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ‘एक नाव के यात्री’, विद्यानिवास मिश्र ‘चिड़िया रैन-बसेरा’, कांतिकुमार जैन ‘लौटकर आना नहीं होगा’, कृष्ण बिहारी मिश्र ‘नेह के नाते अनेक’, विश्वनाथ त्रिपाठी ‘नंगातलाई का गाँव’, रवींद्रनाथ त्यागी ‘वसंत से पतझर तक’ तथा कमल किशोर गोयनका संपादित ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी : कुछ संस्मरण’ आदि।
हिंदी में निबंध, यात्रावृत्तांत, रेखाचित्र, संस्मरण, पत्र लेखन, डायरी आदि की तुलना में रिपोर्ताज कम लिखे गए। ‘रिपोर्ताज’ फ्रांसीसी भाषा का शब्द है। कई बार ‘रिपोर्ट’ के समानांतर इसे समझने की भूल की जाती है। रिपोर्ताज में तथ्यों की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है। इसकी प्रसरणशीलता तथा प्रभावोत्पादकता अधिक है। यथा तथ्य विवरण के साथ यह रचनात्मक विधा है। हिंदी साहित्य कोश (डॉ. धीरेंद्र वर्मा) में इस विधा को अच्छी तरह से स्पष्ट किया गया है—“रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही रिपोर्ताज कहते हैं। वस्तुगत तथ्य को रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से अंकित करने में ही रिपोर्ताज की सफलता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर रिपोर्ताज लिखा जा सकता है, कल्पना के आधार पर नहीं। लेकिन तथ्यों के वर्णन मात्र से रिपोर्ताज नहीं बना करता, रिपोर्ट भले ही बन सके। घटनाप्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिए।” यह विधा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रकाश में आई। रूसी साहित्यकारों ने रिपोर्ताज लिखना प्रारंभ किया। इस दृष्टि से इलिया एहरेनबुर्ग को सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली। हिंदी रिपोर्ताज लेखकों में शिवदान सिंह चौहान की कृतियाँ चर्चित हुईं। बंगाल के अकाल को लेकर रांगेय राघव ने ‘विशाल भारत’ में रिपोर्ताज लिखे। इनके रिपोर्ताज ‘तूफानों के बीच’ (१९४६) में संगृहीत हैं। प्रकाश चंद्र गुप्त, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, रामनारायण उपाध्याय, भदंत आनंद कौसल्यायन, धर्मवीर भारती, श्रीकांत वर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु, शमशेरबहादुर सिंह, शिवकुमार मिश्र, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ आदि हिंदी के प्रतिष्ठित रिपोर्ताज लेखक हैं।
कथेतर गद्य साहित्य में पत्र लेखन अपने समय का बोध कराने वाला तथा सत्य से साक्षात्कार का विश्वसनीय माध्यम है। इस दृष्टि से डॉ. धीरेंद्र वर्मा के ‘यूरोप के पत्र’ (१९४४), बैजनाथसिंह ‘विनोद’ संपादित ‘द्विवेदी पत्रावलि’ (१९५४), डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय द्वारा संपादित ‘प्राचीन हिंदी पत्र-संग्रह’ (१९५९), वियोगी हरि द्वारा संपादित ‘बड़ों के प्रेरणादायक कुछ पत्र’ (१९६०), कमलापति त्रिपाठी लिखित ‘बंदी की चेतना’ (१९६२), अमृतराय द्वारा संपादित, संगृहीत ‘चिट्ठी-पत्री (दो-भाग)’। काका कालेलकर द्वारा संगृहीत ‘बापू के पत्र’, जीवनप्रकाश जोशी द्वारा संपादित ‘बच्चन ः पत्रों में’ (१९७०), जानकीवल्लभ शास्त्री द्वारा संपादित ‘निराला के पत्र’ (१९७१), मुकुंद द्विवेदी द्वारा संपादित हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्रों का संग्रह ‘पत्र’ (१९८३) आदि महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने पत्रों को रुचि लेकर प्रकाशित किया।
कथेतर गद्य विधाओं में जीवनी और आत्मकथा लेखन स्वतंत्रता के पश्चात्, प्रमुख रूप से हिंदी साहित्य में प्रभावी रूप से उभरा। जीवनी लेखक से प्रामाणिकता और आत्मकथा लेखक से सत्यता और यथार्थ की अपेक्षा रहती है। आत्मकथा लिखने के लिए साहस आवश्यक है। पाठक की श्रद्धा कम न हो जाए, इसलिए आत्मकथा लेखक को अपने जीवन का सत्य लिखने का संकट हमेशा उसके सामने उपस्थित रहता है। कई बार वह आत्मप्रशंसक बनकर लिखने के प्रयास में पाठक से दूर होता चला जाता है। हिंदी में इस विधा का प्रारंभ बनारसीदास जैन की ‘अर्धकथानक’ (१९४१) से माना जाता है। यह पद्यात्मक रचना है। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भाई परमानंद की ‘आपबीती’ (१९२१), महात्मा गांधी लिखित ‘आत्मकथा’ (१९२३), सुभाष चंद्र बोस की ‘तरुण के स्वप्न’ (१९३५) प्रतिष्ठित आत्मकथाएँ हैं। इनमें ‘आत्मकथा’ (महात्मा गांधी) और ‘तरुण के स्वप्न’ (१९३५) अनूदित हैं। मुकुट बिहारी लाल ने दो महापुरुषों की जीवनियाँ बहुत ही श्रम और प्रामाणिक स्रोतों से लिखी है। वे हैं ः ‘आचार्य नरेंद्र देव : युग और नेतृत्व’ (१९८७) तथा ‘महामना मदन मोहन 
मालवीय ः जीवन और नेतृत्व’ (१९७८)। हिंदी की कुछ प्रमुख जीवनियाँ हैं ः अरविंद मोहन लिखित ‘लोहिया ः एक जीवनी’ (२००६), विष्णुचंद्र शर्मा लिखित ‘समय साम्यवादी’ (१९९७)। यह राहुल सांस्कृत्यायन की जीवनी है। राजकमल बोरा लिखित आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जीवनी ‘चिंतामणि चिंतक : रामचंद्र शुक्ल’ (२०००) आदि। साहित्यकारों की पत्नियों ने भी जीवनियाँ लिखी हैं ः ‘महामानव महापंडित’, कमला सांकृत्यायन, ‘रांगेय राघव : एक अंतरंग परिचय’ ः सुलोचना रांगेय राघव, बिंदु अग्रवाल लिखित भारत भूषण अग्रवाल की जीवनी ‘स्मृति के झरोखे से’, महिमा मेहता लिखित ‘उत्सवपुरुष : नरेश मेहता’ आदि।
प्रतिदिन की घटनाओं का सत्य विवरण तथा उस पर प्रतिक्रिया दैनंदिनी (डायरी) है। कुछ लेखकों ने लंबे समय तक डायरी लिखी हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों तथा उस समय डायरी लिखने वाले साहित्यकारों की डायरियों से इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ा जा सकता है। डायरी के कुछ पन्नों या अंशों को लेखक प्रकाशित करना नहीं चाहता। इसलिए अधिकांश डायरियाँ संपादित रूप में प्रकाशित हुई हैं। हिंदी की कुछ उल्लेखनीय दैनंदिनी हैं—राधाचरण गोस्वामी की ‘दैनंदिनी’ (१८८५), इलाचंद्र जोशी की ‘डायरी के कुछ नीरस पृष्ठ’ (१९५२), रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘दिनकर की डायरी’ (१९७३), जयप्रकाश नारायण की ‘मेरी जेल-डायरी’ (१९७७), जानकीवल्लभ शास्त्री की ‘एक असाहित्यिक की डायरी’, ‘मोहन राकेश की डायरी’ आदि। काका कालेलकर डायरी को ‘जीवन सखी’ कहते थे। ३१ अगस्त, १९३९, जयपुर की डायरी में उन्होंने लिखा है, “डायरी अर्थात् जीवन सखी। उसके साथ सारी बातें की जाए। अपने सुख-दु:ख, आशा-निराशा, विश्वास-अविश्वास और कच्चे विचार—जिसे हम अन्य लोगों के समक्ष व्यक्त करना पसंद नहीं करते ऐसी वस्तु भी, डायरी के सामने मुक्तता से रखी जाए। ‘कल एक कहा और आज दूसरा कहते हैं’, ऐसा परस्पर विरोध दिखाकर अपनी फजीहत करने का डायरी को न सूझे, इसलिए ही डायरी जीवन-सखी है।”
भारतेंदु युग में हिंदी निबंध लेखन की शुरुआत हो गई थी। आलोचकों ने उस युग में लिखे गए निबंधों को लेख कहना अधिक उचित समझा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, जगमोहन सिंह, अंबिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ आदि की कुछ रचनाएँ निबंध जैसी लगती हैं। बालकृष्ण भट्ट को अनेक विद्वानों ने हिंदी का पहला निबंध लेखक स्वीकार किया है। निबंध साहित्य के इतिहास में भारतेंदु युगीन निबंधकारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, लाला श्रीनिवास दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या प्रमुख हैं। द्विवेदी युग में आकर निबंध साहित्य प्रतिष्ठित हो गया। इस कालखंड ने हिंदी को श्रेष्ठ निबंधकार दिए। इस दृष्टि से पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, श्याम बिहारी मिश्र, शुकदेव बिहारी मिश्र, सरदार पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पद्मसिंह शर्मा आदि उल्लेखनीय हैं। अनेक निबंधकारों ने द्विवेदीयुग में लिखना प्रारंभ किया, वे छायावाद के कालखंड में प्रतिष्ठित और चर्चित हुए। छायावाद के समय माखनलाल चतुर्वेदी, रायकृष्णदास, जयशंकर प्रसाद, वियोगी हरि, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ महादेवी वर्मा, शांतिप्रिय द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, नंददुलारे वाजपेयी, चतुरसेन शास्त्री आदि के निबंध प्रकाश में आए। हिंदी निबंध साहित्य ने छायावादोत्तर काल में लेखन के अनेक क्षेत्रों को स्पर्श किया। निबंध को बहुआयामी बनाने में डॉ. संपूर्णानंद, शिवपूजन सहाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. राजबली पांडेय, परशुराम चतुर्वेदी, यशपाल, अज्ञेय, नलिन विलोचन शर्मा, हरिशंकर परसाई, विद्यानिवास मिश्र, धर्मवीर भारती, विष्णुकांत शास्त्री, निर्मल वर्मा, कुबेरनाथ राय, कृष्ण बिहारी मिश्र, रमेशचंद्र शाह तथा श्रीराम परिहार जैसे लेखकों की बड़ी भूमिका है।
कथेतर गद्य हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा का आधार है। उसने लेखन के क्षेत्र को विस्तृत कर एक व्यापक फलक प्रदान किया है। कथा साहित्य और कविता में जो शेष रह गया या किन्हीं कारणों से नहीं कहा गया, उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर यह क्षेत्र व्यापक हुआ है। लेखन की आधुनिक विधाओं ने भी, यथा रेडियो लेखन, ब्लॉग लेखन ने भी अपनी जगह और दुनिया बनाई है। इस लघु आलेख में अनेक क्षेत्र अछूते रह गए हैं। इन पर पुन: विचार किया जाएगा। 

अध्यक्ष (हिंदी विभाग) एवं पत्रकारिता तथा जनसंचार विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
दूरभाष : ९९९७६५९५८
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