चाहे कितनो औढ़े रजाई

चाहे कितनो औढ़े रजाई

हिंदी के मूर्धन्य कवि-साहित्यकार, जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं को अपने रचनात्मक अवदान से समृद्ध किया। ‘जल टूटता हुआ’ और ‘पानी के प्राचीर’ उपन्यासों की धूम रही। अभी हाल में कविता-संग्रह ‘आम के पत्ते’ ‘व्यास सम्मान’ से अलंकृत। इसके अतिरिक्त भी अनेक विशिष्ट सम्मान प्राप्त। विगत १५ अगस्त को उन्होंने अपना सौवाँ जन्मदिन मनाया।

भोजपुरी की एक कहावत च​िरतार्थ हो रही है। लइकन के हम छुएब नाही, जवनका हव हमार भाई, बुढ़वन के हम छोडेब नाही, चाहे कितनो औढ़े रजाई। हाँ, अब मैं ९९ वर्ष का होने जा रहा हूँ। अनेक गरम कपड़ों और रजाई-कंबल की सुरक्षा में रहकर भी ठंड की मार महसूस करता रहता हूँ। कहीं बाहर जाने की हिम्मत तो होती नहीं, घर के भीतर ही पड़ा होता हूँ। उस भोजपुरी कहावत को याद करता हूँ तो अपना बचपन याद आता है। बचपन में जाड़े से लड़ाई लड़ने के आवश्यक अस्त्र-शस्त्र नहीं थे। न कोई गरम कपड़ा होता था, न पाँवों में जूता। रात को पुआल का बिछावन साथी होता था। और सुबह-सुबह अलाव थोड़ा ताप कर बैलों को सानी-पानी करने के लिए उठ जाता था। घना कोहरा हो या शीत लहर, खेतों या स्कूल जाने के रास्ते में हँसता-गाता चलता रहता था। मिडिल स्कूल के मास्टर दूर से आए होते थे तो स्कूल में ही ठहरे होते थे। वे समय काटने के लिए या अपने छात्रों को पढ़ाने के लिए रात को भी स्कूल में उन्हें बुलाते थे। मैं अपने साथियों के साथ स्कूल पहुँच जाता था। हम खुले बरामदे में टाट पर कंबल ओढ़कर सोते थे और चैन से रात कट जाती थी। जाड़े की गहनता के बीच नंगे पाँव और सूती कपड़ों में कितनी-कितनी यात्राएँ की हैं। कुछ प्रसंग याद आ रहे हैं। चाहता हूँ, आप भी उन प्रसंगों के श्रोता बन जाइए। गाँव अभावग्रस्त तो था ही, दूसरे उस साल अकाल पड़ गया था। बाढ़ सबकुछ बहा ले गई थी। पशुओं को चारा भी अनुपलब्ध हो गया था। गाँव के अभावग्रस्त घरो में मेरा भी घर शामिल था। लोग सरैंया के गन्ना मिल से एक पैसे में मिलने वाला घड़ा भर चोटा लाते थे और पशुओं के चारे के लिए न जाने क्या-क्या प्रबंध करते थे। इसी प्रबंध में शामिल था बोगर के अरहर के खेतों में से झरे हुए पत्ते बटोर लाना। तो एक दिन हम तीन व्यक्ति (मैं, मझले भाई रामनवल मिश्र और मेरे मित्र कपिल देव के अग्रज राजदेव मिश्र) पौ फटते-फटते बाँगर की ओर निकल गए पत्ता बटोरने के लिए। ओस से गीली धरती पर थरथराते नंगे पाँव रखते चले जा रहे थे। दो मील के पश्चात् गोरी नदी पड़ी। उसके पानी में पाँव डाले तो झनझनाहट कम सी हुई और तब तक धूप भी निकल आई थी। नदी से मील भर आगे बाँगर के खेत शुरू होते थे। हम तीनों अरहर के खेत में घुस गए और गिरे हुए पत्ते बटोरने लगे। राजदेवजी बीच-बीच में गा भी रहे थे। केहू केतनो बुलावे तू नाहीं बोलके, राम के भजन में मगन रहे के।
न जाने कहाँ से खेत का मालिक आ गया और हम लोगों को डाँटने लगा—क्योंकि हम उसके अरहर के पते तोड़ रहे हैं। हमने सफाई दी कि पत्ते तोड़ नहीं रहे हैं, जो गिरे हुए हैं, उन्हें बटोर रहे हैं। बहरहाल हम लोग अपनी-अपनी गठरी लेकर एक दो बजे के आसपास गाँव लौटे। माँ इंतजार कर रही थी। मुझे देखते ही छाती से भर लिया और बोली, मेरे प्यारे बेटों को यह काल कहाँ-कहाँ घुमा रहा है।
दूसरी कोहरा यात्रा का संकेत कर रहा हूँ। तब मैं साहित्यरत्न करने के लिए २४ मील दूर बरहज जाता था, नंगे पाँव और कुछ सूती कपड़ों में लिपटा हुआ। गाँव आया हुआ था। बरहज लौटना था। घना कोहरा छाया हुआ था। गाँव और खेत कोहरे में डूबे हुए थे। मैं ६:०० बजे सुबह बरहज के लिए निकला। रास्ते कोहरे में डूबे हुए थे और अदृश्य थे। किंतु मैं तो सारे रास्तों को जानता था। अतः आगे बढ़ता जा रहा था। गाँव के पास के गाँव पकड़पुरा के बगीचे में पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि कोई मुझे आवाज देता हुआ मेरे पीछे-पीछे आ रहा है। मैं बाग में ठहर गया और जान गया कि यह आवाज मदनेशजी की है। मैंने उत्तर दिया—आ जाइए पंडितजी।
“अरे भाई, तुम कहाँ हो?”
“मैं पकड़पुरा के बाग में हूँ। आ जाइए।”
वे अपने से बात करते हुए से धीरे-धीरे मेरी ओर आ रहे थे और कह रहे थे कि मैं तुम्हारे घर गया तो ज्ञात हुआ कि तुम निकल चुके हो। तो तुम्हारा पीछा करता हुआ इधर को चल पड़ा।
वे मेरे पास आ गए तो दो रुपए मुझे दिए और कहा, “इसे रामानुज को दे देना। वे चातक की तरह चाेंच खोले हुए रुपयों की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। स्वाति की दो बूँद की तरह उनकी चोंच में डाल देना।” खूब हँसी पड़ी और मैं कुहरा काटता हुआ बरहज की ओर बढ़ने लगा।
किसान का बेटा रहा और असंपन्न परिवार का नन्हा सदस्य। ऐसी कुहरा यात्राएँ बार-बार होती रहीं। यहाँ तो मैंने उदाहरण के रूप में दो यात्राओं की बात की है। लेकिन शहरी कोहरा और देहाती कोहरा में अंतर होता है। शहर के कोहरे के नीचे सड़कें अदृश्य होती हैं, जिन पर कई बसें, दुपहिया चलते रहते हैं रेंगते हुए। परस्पर टकराते भी हैं। किंतु गाँव के कोहरे के नीचे फसलों की अनंत छवियाँ छिपी होती हैं। कोहरे में यात्राएँ करते हुए कृषक-पुत्रों को अदृश्य फसलों के सौंदर्य की प्रतीक्षा होती रहती है। जैसे ही धूप खिलती है, अनेक गाँवों के बीच के खेत विस्तार से फसलों की छवि दीप्त हो उठती है। मटर, तीसी, सरसों, चना और कुछ अन्य फसलों के फूल खिलखिला उठते हैं। हरी-हरी फसलों के उमड़े हुए समुद्र में मन तैरने लगता है। फसलों भरे खेतों की मेंड़ों से गुजरते हुए लोगों की आँखों में हरीतिमा का विस्तार छा जाता है। यदि बाढ़ के न आने से अरहर के खेत बचे होते हैं तो उनके बीच के रास्ते से गुजरना एक रूमानी प्रभाव छोड़ जाता है। गाँव में बचपन बीता। शहर आया। किंतु गाँव में निरंतर जाना बना रहा और बचपन का गाँव यौवन के गाँव के साथ संवाद करता रहा और बचपन तथा यौवन के गाँव का एक बड़ा और संश्लिष्ट बिंब मेरे भीतर बनता गया, जो मेरी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों आदि में रूपांतरित होता रहा। यानी यौवन काल शीतकाल का भाई बना रहा। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। इसलिए जाड़ा मुझे खूब सताने लगा है। जाड़े से लड़ने के लिए अब मेरे पास पर्याप्त साधन हैं तो भी वह मुझ पर भारी पड़ रहा है। सबसे बड़ा दु:ख यह है कि अब मैं गाँव नहीं जा पाता। इसलिए जाड़े में उसकी फसलों के बीच आनंद की जो अनुभूति होती थी, उससे वंचित हो गया हूँ। चाहता हूँ, बेटी स्मिता के कुंडली स्थित मकान में कुछ दिन रहूँ और वहाँ जाने की प्रक्रिया में रास्ते के दोनों किनारे उमड़ी फसलों को जी भर देखूँ। स्मिता के मकान के आसपास भी खेतों का विस्तार है, जिनमें तरह-तरह की फसलें सौंदर्य बिखेरती रहती हैं। तो मकान के अगले भाग में बैठकर इन खेतों को निहारूँ और मन से कुछ देर के लिए बचपन के गाँव में लौट जाऊँ। किंतु वाणी विहार के मकान में रहना कई तरह से मेरी विवशता बन गया है। तो वाणी विहार के मकान और इसके परिवेश में रहकर ही जाड़े की यातना सहन कर रहा हूँ। किंतु 
गाँव की फसलें मेरी यादों में आकर मुझे ताजगी दे जा रही हैं और मेरे प्रिय महीने फागुन की प्रिय प्रतीक्षा में कविमन को पुकारती सी लग रही हैं।

  
आर-३८, वाणी विहार
उत्तम नगर
नई दिल्ली-११००५९

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