बनियों, मारवाड़ियों, व्यवसायियों को आप चाहे लाख कोसें, पर सच तो यही है कि साहित्य, संस्कृति, संगीत, कला और ज्ञान-विज्ञान के संरक्षण-संवर्धन और प्रोत्साहन में वे सब ही आगे आए हैं।
चाहे भारतीय ज्ञानपीठ स्थापित करने वाले और ज्ञानपीठ पुरस्कार आरंभ करने वाले श्री साहू शांतिप्रसाद जैन हों; बिड़ला मंदिर, बिड़ला म्यूजियम, के.के. बिड़ला फाउंडेशन और बिड़ला पुरस्कार स्थापित करने वाले श्री घनश्यामदास बिड़ला और कृष्ण कुमार बिड़ला हों या गीता प्रेस, गोरखपुर की स्थापना करने वाले श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार हों या भारतीय भाषा परिषद् स्थापित करने वाले श्री सीताराम सेकसरिया हों; या फिर ‘जनसत्ता’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ शुरू करने वाले श्री रामनाथ गोयनका हों!
बॉलीवुड फिल्मों और हिंदी कथा-कहानियों में बनियों, मारवाड़ियों, व्यवसायियों आदि की प्रायः बेहद क्रूर, अमानुषिक और मक्खीचूस महाजन जैसी रूढ़ और मूढ़ छवि बना दी गई है। लेकिन ऐसे न जाने कितने नामी-गिरामी या गुमनाम बनिक, मारवाड़ी, सेठ और महाजन हैं, जिन्होंने साहित्य, संगीत और कला के संरक्षण-संवर्धन एवं प्रोत्साहन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। चाहे छोटा शहर हो या बड़ा शहर, कहीं भी नजर घुमाकर देख लें। केवल मंदिर और विद्यालय ही नहीं, छोटे-बड़े पुस्तकालय भी जरूर मिल जाएँगे, जिन्हें नगर के किसी बनिक या सेठ ने स्थापित कराया होगा।
कलकत्ता के बड़ा बाजार के सुप्रसिद्ध श्री कुमारसभा पुस्तकालय को ही ले लीजिए। इसे श्री राधाकृष्ण नेवटियाजी ने स्थापित किया था। देश भर में चर्चित इस पुस्तकालय पर अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर आचार्य विष्णुकांत शास्त्रीजी तक अपना स्नेह और समय अर्पित कर चुके हैं। यहाँ मुझे २०१७ में हिंदी भाषा की दशा-दिशा पर एक व्याख्यान देने का सुअवसर मिला था। निमित्त बने थे श्री ऋषिकेश रायजी और श्री प्रेमशंकर त्रिपाठीजी। यह मेरे लिए बहुत अचरज भरा अनुभव था, क्योंकि यहाँ उपस्थित श्रोताओं में बनिक व मारवाड़ी समाज के लोग बहुतायत में थे और भाषा तथा साहित्य से उनका जुड़ाव देखते ही बनता था।
मैं कलकत्ता में बस अढ़ाई-तीन साल ही रह पाया था, इसलिए वहाँ के साहित्यिक आयोजनों में मेरा ज्यादा आना-जाना भी नहीं हो पाया था। ज्यादा कहीं आने-जाने का मेरा स्वभाव भी नहीं। ‘नीलांबर’ में कविता पाठ के लिए आनंद गुप्ताजी ने एक बार आमंत्रित किया था। इस कविता पाठ में जाने का फायदा यह हुआ कि बरसों बाद नरेश सक्सेनाजी से दुबारा भेंट हुई। वहीं विमलेश त्रिपाठी भी मिले। विमलेश भाई के पास बाँहें फैलाकर मिलने का तरीका है। इसलिए हम पहली बार मिलकर भी अजनबी नहीं लगे। और इस दिन सबसे बड़ी आमद यह भी हुई कि कविता पाठ के बाद लक्ष्मण केडियाजी ने आकर तपाक से हाथ थाम लिया—‘मैं लक्ष्मण केडिया!’
लक्ष्मण केडियाजी से २०१२ में पहली बार बात हुई थी। तब मैं अहमदाबाद में था। उन्होंने ‘वागर्थ’ के जुलाई अंक में मेरा एक आलेख पढ़कर मुझे फोन किया था। आलेख था—‘भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘सतपुड़ा के जंगल’ : गहरे जीवन-दर्शन और सृष्टि के शाश्वत मूल्यों की कविता,’ तब वागर्थ के संपादक एकांत श्रीवास्तवजी थे। चूँकि केडियाजी भवानी प्रसाद मिश्रजी के संपूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व के सबसे बड़े प्रशंसक और संरक्षक भी रहे हैं तो इस आलोचनात्मक आलेख को पढ़कर उनका गद्गद होना स्वाभाविक ही था।
मेरे इस आलेख को पढ़कर जब भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम मिश्रजी ने फोन किया था तो मुझे कितनी खुशी हुई थी, मैं बयाँ नहीं कर सकता। तबसे ही हम दोनों परस्पर जुड़ गए थे। उनके तत्काल बाद भवानी प्रसाद मिश्रजी की बेटी नंदिता मिश्रजी ने भी इस आलेख को पढ़कर फोन किया था और उनसे भी अच्छी बातचीत हुई थी। उन्होंने मुझे ‘सन्नाटा’ शीर्षक कविता पर भी लिखने का सुझाव दिया। पर झूठ क्यों बोलूँ, भवानी भाई मुझे ‘सतपुड़ा के जंगल’ के कारण बहुत भा गए थे बचपन से ही, पर अब तक मैंने उनको व्यवस्थित ढंग से पढ़ना शुरू नहीं किया था। इसलिए मैंने सच स्वीकारते हुए कहा, मैंने यह कविता नहीं पढ़ी है अबतक...
फिर प्रेमशंकर रघुवंशीजी से भवानी भाई के बहाने प्रगाढ़ता बढ़ी तो भवानी भाई पर कुछ और चीजें पढ़ने को मिलीं। उन्होंने उन पर लिखी अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘टिगरिया का लोक देवता’ पढ़ने को भेजी तो भवानी भाई को और निकट से जाना! इस पुस्तक पर मैंने एक विस्तृत समीक्षा भी लिखी थी, जो ‘नया पथ’ के समीक्षा विशेषांक में छपी थी।
कलकत्ता में जब तक रहा, तब तक फेयरली पैलेस के पास बेचूजी की चाय की दुकान पर प्रायः अड्डा तो जमता ही रहा। यहाँ ऋषिकेश रायजी, जितेंद्र धीरजी, कुशेश्वरजी, राज्यवर्धनजी और हनुमंत रावजी से तो अकसर भेंट हो ही जाती थी। पर लक्ष्मण केडियाजी से एक भेंट अविस्मरणीय रही।
एक दिन दोपहर को तय हुआ कि हम मिलेंगे। चूँकि मैं अपने कार्यालय परिसर में निजी मुलाकातों से सायास बचता हूँ, इसलिए मैंने उनसे कहा, लाल दीघी में बैठते हैं। वे आए तो लंच ऑवर में मैं भी अपने बैंक की बिल्डिंग से उतर आया। दोपहर का वक्त था। थोड़ी गरमी थी। पर मुझे इस भोजनावकाश में हर हाल में घूमना अच्छा लगता है। दिल्ली हो, अहमदाबाद हो, कलकत्ता हो या अब मुंबई, यह सिलसिला जारी है। चाहे कितनी ही गरमी पड़े, टहलना नहीं टलता।
तो हम बैठ गए लाल दीघी की अंदर वाली सीढ़ियों पर। सामने तालाब का जल था। जल में जीपीओ की सफेद छाया डोल रही थी। और हमारे ऊपर पीपल के पेड़ की पत्तियाँ हिंडोले कर रही थीं। उमस को काटती मद्धम हवा बह रही थी। कुछ बतख, कुछ बगुले, कुछ कौवे, कुछ पनकौवे, कुछ पंछी पानी पर और पानी के बाहर छप-छपाक कर रहे थे। कुछ कुत्ते सुस्ता रहे थे और ढेर सारे लोग भी इस दुपहरी में यहाँ शरणागत थे। वैसे ही हम दोनों भी शरणागत थे।
केडियाजी ने अपने बैग से दो-तीन पुरानी डायरियाँ निकालीं। इन सबमें भवानी प्रसाद मिश्रजी की कविताएँ नीली स्याही से अंकित थीं। मैं यह सब देखकर बहुत रोमांचित हुआ। भवानी भाई के प्रति उनका समर्पण देखकर नत हुआ। उन्होंने इन्हीं डायरियों में से उनकी कुछ लगभग अनसुनी कविताएँ सुनाईं। फिर उन्होंने और एक डायरी निकाली और कहा—देखिए, भवानी भाई की हस्तलिपि में उनकी कविताएँ! यह देखकर मैं बहुत अचरज, रोमांच और पुलक से भर गया। वह दोपहर वहीं फ्रीज हो गई। घड़ी की बेड़ी न होती तो हम शायद शाम तक भी वहीं बैठे-बतियाते रहते।
यह मेरे जीवन की एक बेहद कोमल, घनी और दुर्लभ दुपहरी थी।
कुछ ही दिन बीते होंगे कि एक दिन केडियाजी ने फोन किया— आपको एक पुस्तक लोकार्पण समारोह में आमंत्रित करना चाहता हूँ। वहाँ आपको कविता पाठ भी करना होगा। मैंने हिचकते हुए ‘हाँ’ कर दी। हिचक इसलिए कि पता नहीं, मारवाड़ियों के बीच कविता के लिए कितनी तो जगह होगी। ऊपर से जब दिल्ली से एक हास्य कवि भी आमंत्रित हों तो मेरी क्या बिसात! पर उन्होंने आश्वस्त किया। इस समारोह में प्रियंकर पालीवालजी भी बतौर मुख्य वक्ता आमंत्रित थे।
यह संभवतः २०१८ के मई की कोई तारीख थी। कलकत्ता के एक उद्योगपति श्री विनोद मीमानीजी के कविता-संग्रह ‘मेरी खुली किताब’ का लोकार्पण समारोह था यह। पुस्तक केडियाजी के प्रतिश्रुति प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई थी और इसकी भूमिका लिखी थी पालीवालजी ने। केडियाजी और मीमानीजी का विशेष आग्रह था कि सपरिवार ही पधारें तो उनका आग्रह टाल न सका। मना करने के बावजूद, मीमानीजी ने बाकायदा घर से हमें लेने के लिए कार भी भेज दी। पत्नी और दोनों छोटी बेटियों के साथ पहुँचा। समारोह और मंच, दोनों सुव्यवस्थित और गरिमापूर्ण लगे तो पूरी तरह आश्वस्त हो गया। उद्घाटन, लोकार्पण, मुख्य अतिथि का संबोधन और इसके बाद हमारा कविता पाठ भी संपन्न हुआ।
मैंने दो-तीन कविताएँ और दो छोटी गजलें सुनाईं। श्रोताओं की तल्लीनता और तालियों से लगा, उन्होंने मुझे ध्यानपूर्वक सुना और समझा है। मंच संचालक ने जब यह टिप्पणी की कि आप तो हास्य कवि पर भी भारी पड़ गए तो मुझे सचमुच खुशी हुई, जो बाद में भोजन के समय श्रोताओं से मिली कई व्यक्तिगत टिप्पणियों से दुगुनी हो गई। कहने का आशय यह कि मारवाड़ी समाज में भी कविता के लिए इज्जत है, बशर्ते आपकी कविता में दम हो! ऐसे ही बैंकरों को भी शुष्क मिजाज का माना जाता है। लेकिन मैंने महसूस किया कि जब कभी मुझे उनके बीच कविता पाठ का अवसर मिला, उन सबने मेरी कविताओं को बहुत अच्छे से ‘रिसीव’ किया और ‘ऐप्रिशिएट’ भी किया।
फिर एक दिन विनोद मीमानीजी ने मुझे, लक्ष्मण केडियाजी और प्रियंकर पालीवालजी को दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया। उनका मन था कि हम सब एक बार अनौपचारिक तौर पर मिलें, बैठें। समारोह के दौरान वह तसल्ली कहाँ हो पाती है। लाख मना करने के बाद, फिर घर से लेने गाड़ी भिजवा दी। हम सब मिले कोलकाता के दि बेंगॉल रोईंग क्लब में। उस दिन इसी बहाने ढेर सारी बातें हुईं। विनोद मीमानीजी स्वभाव से इतने विनम्र और जमीनी आदमी लगे कि लगा ही नहीं कि वे एक बड़े उद्योगपति हैं। बिल्कुल सादा पहनावा और बिल्कुल सरल-सहज व्यवहार!
अब जब लक्ष्मण केडियाजी के एक फेसबुक पोस्ट से उनके निधन का पता चल रहा है तो उनका चेहरा बरबस आँखों के सामने घूम रहा है...मन दु:खी हो गया है... २८ नवंबर, २०२० को उनका स्वर्गवास हो गया था। केडियाजी ने उनका स्मरण करते हुए बहुत ही आत्मीयता के साथ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला है।
खैर, इस कार्यक्रम के बाद और एक सुंदर अवसर मिला कविता पाठ का। इस बार प्रियंकर पालीवालजी का आग्रह था। बालीगंज सर्कुलर रोड में ही ‘सृजन पोएट्री अड्डा’ नाम की एक छोटी सी साहित्यिक संस्था है। पर बहुत संजीदा और सुरुचिपूर्ण। इसमें भी कुछ मारवाड़ी उद्योगपतियों की सक्रियता है। विभिन्न भाषाओं के कवि-लेखक तो जुड़े ही हैं, इससे तो ९ जून, २०१८ को हम सब जुटे ‘सृजन’ के अड्डे पर। इस आयोजन में ऊषा उत्थुपजी मुख्य अतिथि थीं तो इस आयोजन का रुतबा ऐसे ही बढ़ गया था। बहुभाषा-भाषी कवियों का कविता पाठ था। अंग्रेजी, असमिया और बांग्ला के तीन-चार कवि थे और हिंदी से मैं ही था।
ऊषा उत्थुपजी के साथ मंच साझा कर सचमुच बहुत अच्छा लगा। उन्हें भी मेरी कविताएँ पसंद आईं। उन्होंने खुद कविताओं वाले पन्ने मुझसे माँग लिए कि लाओ, कभी हुआ तो इनको गाऊँगी! जब तक मैं सेल्फी लेने की सोचता, उससे पहले ही उन्होंने कह दिया—आओ, तुम्हारे साथ एक सेल्फी हो जाए! सचमुच ऊषा उत्थुपजी का अंदाज ही कुछ अलग है! इतनी उम्र में भी वे इतनी ‘यंग’ लगती हैं कि ‘यंग’ लड़कियाँ उनसे मात खा जाएँ।
ऊषा उत्थुपजी से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी। पहली मुलाकात हुई थी विकास कुमार झाजी के उपन्यास ‘मैकलुस्कीगंज’ पर आयोजित एक कार्यक्रम में। प्रभा खेतान फाउंडेशन ने इस उपन्यास पर अंग्रेजी में एक पैनल डिस्कशन रखा था, कोलकाता के होटल हयात रिजेंसी में। यह संभवतः २०१७ के शुरुआती दिसंबर की बात होगी। बिलासपुर से सतीश जायसवालजी और तनवीर हसनजी भी आए थे। सतीशजी ने ही कहा था, तुम भी आ जाओ।
दफ्तर के बाद शाम को थोड़ी देर से पहुँचा था, पर आयोजन के बाद हम देर तक जमे रहे ऊषा उत्थुपजी के ठहाकों के साथ! ऊषाजी के जाने के साथ यह महिफल उठी तो हम विकासजी के कमरे में एक बार फिर जम गए। और जाम के साथ गजलों और गानों का जो सिलसिला चला तो रात जवाँ हो उठी। ऊषा उत्थुपजी को किसी ने गोवा की बियर की ढेर सारी छुटकी थैलियाँ भेंट की थीं, और उन्होंने ये सब हमें भेंट कर दी थीं।
ओह, इस रात का नशा अब भी तारी है! जीवन में इस रात की याद बनी रहेगी।
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