युवक, बेटा, पिता और वृद्ध

हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा चार बार नवोदित लेखन एवं अनेक बार आशुलेखन में पुरस्कृत, ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार’, राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों एवं आकाशवाणी से समय-समय पर रचनाओं का प्रकाशन व प्रसारण।

यार राहुल, वह देख सामने से जो लड़की आ रही है, कितनी सुंदर लग रही है। चल उसका पीछा करते हैं। यह बोलकर अनुज मोटरसाइकिल से नीचे उतर गया। जैसे ही लड़की पास आई, दोनों उसके पीछे-पीछे चलने लगे। लड़कियों को प्रकृति ने छठी इंद्री प्रदान की है, जिससे वह पुरुष नजरों को तुरंत भाँप जाती है। अपने पीछे लड़कों को आता देख उसका दिल धक-धक करने लगा, लेकिन फिर भी बहादुरी से वह चलती रही। मेट्रो स्टेशन के अंदर घुसकर वह जल्दी से लेडीज कोच में घुस गई। 
राहुल और अनुज दोनों हाथ मलते रह गए। राहुल तो सीटी बजाने ही वाला था, लेकिन उसकी सीटी बजने से पहले ही फुस्स हो गई। यह देखकर अनुज हँसते हुए बोला, “ये चिड़िया तो उड़ गई।” राहुल बोला, “कोई नहीं, दूसरी चिड़िया फँस जाएगी।” इस पर दोनों ने एक-दूसरे को देखकर ठहाका लगाया।
दोनों ही कॉलेज में पढ़ते थे। रात में घरवालों को झूठ बोलकर अकसर एक-दूसरे के घर पड़े रहते। रातभर उल्टी-सीधी फिल्में देखते और ठंडी आहें भरते। राहुल कहता, “यह युवावस्था भी अजीब है, ऐसा लगता है कि जैसे पूरा आसमान नाप लिया हो, सबकुछ मुट्ठी में कैद हो गया हो। सारे जमाने की ताकत बाजुओं में आ गई हो।” 
“काश यह जीवन ऐसे ही चलता रहे। खाने-पीने को स्वादिष्ट भोजन मिलता रहे। ताड़ने को सुंदर-सुंदर लड़कियाँ दिखती रहें और रातभर मीठे-मीठे सपनों में खोए रहें। बस और क्या चाहिए?” यह बोलकर अनुज ने राहुल की ओर देखकर आँख मारी। 
“वह सब तो ठीक है। लेकिन भाई, जीवन इसी का नाम नहीं है। कॉलेज का यह अंतिम साल है। इसके बाद क्या करना है, कुछ सोचा है?”
“क्या सोचना? मैं तो पिता का काराबोर ही सँभालूँगा। वह तो पहले ही कह चुके हैं कि कॉलेज टाइम मस्ती में बिता ले, उसके बाद तो तुझे ही सब सँभालना है।”
“मेरे पिता तो एक बैंक में सरकारी क्लर्क हैं। वे मुझे यही कहते हैं कि अभी से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर एक अच्छी सी नौकरी प्राप्त कर ले। समय पर अच्छी नौकरी मिल जाएगी तो पूरे परिवार का जीवन सँवर जाएगा।”
“यार ये मिडिल क्लास माता-पिता बेचारे युवा लड़के पर इतना बोझ क्यों डाल देते हैं कि अगर वह सँवर गया तो पूरा परिवार सँवर जाएगा।”
“और करें भी क्या? महँगाई में गुजर-बसर करना कठिन भी है। ऐसे में वृद्ध होते माता-पिता अपनी संतान से ही आस लगाते हैं। वे जब उनकी पढ़ाई-लिखाई पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटा देते हैं, तो फिर उनका ऐसा सोचना गलत भी कहाँ है?”
“हाँ, सही बात है। तूने क्या सोचा है?”
“सोचना क्या, मैंने कई प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भर दिए हैं। थोड़ी-बहुत तैयारी भी कर रहा हूँ। गणित तो मेरा अच्छा है, बाकी विषय का भी अभ्यास कर रहा हूँ। एक-दो साल में कहीं-न-कहीं नौकरी लग ही जाएगी।”
दिन बीतते कौन सी देर लगती है, कॉलेज का समय भी बीत गया। दोनों मित्र पास हो गए। अनुज ने पिता का कारोबार सँभाल लिया। राहुल ने स्टॉफ सिलेक्शन कमीशन, कंबाइंड ग्रेजुएट लेवल की परीक्षा पास कर ली। उसका अस्टिटेंट ऑडिट ऑफिसर के पद पर चयन हो गया। 
कुछ ही समय के अंतराल में दोनों के विवाह भी हो गए। 
विवाह होने के बाद दोनों ही अपने घर-परिवार में रच-बस गए। जहाँ पहले दोनों रोज मिलते थे, वहीं ये मुलाकातें अब सप्ताह में बदल गईं। सप्ताह के बाद महीने में। एक साल के बाद राहुल के घर बेटी का जन्म हुआ और डेढ़ साल बाद अनुज के घर जुड़वाँ बच्चों ने जन्म लिया। राहुल ने अपनी बेटी का नाम देविका रखा। अनुज ने अपने बेटे का नाम शिवम और बेटी का आरवी रखा। दोनों ही मित्र पहले से भी अधिक व्यस्त हो गए। अब दोनों दो-तीन महीने में मिल पाते थे और फोन पर बातें भी सप्ताह या दस दिन में ही हो पाती थीं।
राहुल और अनुज काम में व्यस्त रहने के साथ-साथ बच्चों की परवरिश पर भी बराबर ध्यान दे रहे थे। दोनों ने अपने बच्चों के पहले जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाए। फोन पर जहाँ पहले दोनों अपने काम और अपनी रुचियों की बातें करते थे, अब वे सब बातें बच्चों की रुचियों और शरारतों पर टिक गईं। 
उन्नीस साल बीत गए। दोनों के बालों में सफेदी नजर आने लगी थी। राहुल और अनुज की बेटियाँ जब कॉलेज के लिए बाहर निकलतीं तो दोनों का हृदय मुँह को आ जाता था। समय को देखते हुए उन्हें बेटियों का अकेले बाहर निकलना खतरे से खाली न लगता था। वे बेटियों को समझाते थे कि सड़क पर सजगता के साथ चलो। कोई मजनू टाइप लड़का पीछे लगे या बदतमीजी करे तो उसे तमाचा मारने में देर न करो। जब वे ये बोलते तो उनके सामने अपने कॉलेज के समय के सीन घूमने लगते। किस तरह वे दोनों खूबसूरत सी लड़की को देखकर उसके पीछे लग जाते थे। अब जब वे अपनी बेटियों के बारे में ऐसा सोचते तो काँप जाते थे। उन्हें अपने कृत्यों पर शर्म महसूस होती थी। 
एक दिन राहुल अनुज से बोला, “यार, अपनी बेटियों की सुरक्षा की हमें कितनी ज्यादा चिंता रहती है? एक समय वह भी था, जब हम दूसरे की बहन-बेटियों का पीछा करते समय या उन पर फब्तियाँ कसते समय कभी ऐसा सोचते भी न थे। हम सदैव यही सोचते थे कि हमें क्या?”
“तूने मेरे मन की बात कह दी, राहुल। मैं भी यही सोच रहा था। हम दोनों अकसर दूसरे की बहन-बेटियों के बारे में कैसी अनर्गल बातें करते थे। तब हम कभी सोचते भी न थे कि उनके माता-पिता के दिल भी डर की भावना से ऐसे ही धड़कते होंगे, जैसे आज हमारे अपनी बेटियों के लिए धड़कते हैं।”
“उस समय तो मैं खुद को सुपरमैन समझता था। मुझे लगता था कि मर्द को दर्द नहीं होता। वह जो करे, सब सही होता है। गलती तो केवल लड़कियों और औरतों की होती है। उन्हें खुद को बचाकर रखना चाहिए। उन्हें छेड़ना और परेशान करना तो हम लड़कों का हक है।” राहुल बोला। 
“अब वही धारणा अपनी-अपनी बेटियों के बाप बनने के बाद एकदम से बदल गई। अब वह सब कितना गलत लगता है न। उस समय हमारे कारण कितनी लड़कियों को लज्जा और अपमान का बोध हुआ होगा। लेकिन हमने कभी इस बात की परवाह ही न की।” अनुज ने जवाब दिया।
“मुझे लगता है कि वह उस वक्त की चढ़ती युवा उम्र का असर था। उम्र बढ़ने के साथ-साथ परिपक्वता आती है और फिर चीजों को सही तरह से देखने का नजरिया भी विकसित हो जाता है। अब देखो न, कल तक जो बातें हमें जीवन का सबसे सुंदर पड़ाव लगती थीं, आज वे बिल्कुल बकवास लगती हैं। तुम्हें पता है, अगर आज हम किसी युवा को ये कहेंगे न कि लड़कियों को ऐसे मत देखों, उनका सम्मान करो। बड़ों का आदर करो, तो युवक हमें कहेंगे कि हम बूढे़ हो गए हैं।” राहुल ने कहा।
“इसी को जनरेशन गैप कहते हैं मेरे यार। जब हमें हमारे माता-पिता यही सब समझाते थे, तो हम उनकी बातों को सुनकर मुँह बिदका देते थे। पर मैंने अपने बेटे को बचपन से यही समझाया है कि सदैव लड़कियों का सम्मान करो। हमारे समय में हमारे पिता हमसे मित्रवत् व्यवहार ही कहाँ करते थे? एक उचित दूरी सदैव बनी रहती थी।” अनुज बोला।
“पिता बनने के बाद मैं तो बहुत भावुक हो गया हूँ। कई बार आँसू आँखों से निकल पड़ते हैं। पत्नी-बेटी का दर्द बिल्कुल नहीं देखा जाता। आज लगता है कि यह बेकार की बात किसने बनाई होगी कि मर्द को दर्द नहीं होता, वह रोता नहीं। मेरे जैसे मर्द के मन से पूछे तो मैं यही कहूँगा कि एक मर्द जब पिता बन जाता है, तो उसका दिल बिल्कुल शीशे जैसा नाजुक हो जाता है। हर पल धक-धक करता रहता है। अपने बच्चों की सलामती की दुआ करता है।”
यह सुनकर अनुज बोला, “हम दोनों बचपन से गहरे मित्र रहे हैं। दोनों लगभग एक ही उम्र के हैं। एक ही समय दोनों के विवाह हुए। दोनों ने ही बेटा, युवक और पिता के पड़ाव को एक साथ पार किया और...इस बात को महसूस किया कि सबसे सुंदर पड़ाव एक बेटी के पिता का होता है।”
राहुल बोला, “बिल्कुल सही कहा तुमने। आज अपने वृद्ध माता-पिता को देखता हूँ तो एक बात और सोचता हूँ। जब हम वृद्ध हो जाएँगे, क्या तब हम भी अपने माता-पिता जैसे हो जाएँगे, जो एक ही बात को बार-बार पूछते हैं। छोटी-छोटी बात पर चिड़चिड़ करने लगते हैं।”
“हो सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि यदि हम आशावादी रहेंगे और अपनी बातें एक-दूसरे से बाँटते रहेंगे तो शायद नकारात्मक भावों से बचे रहेंगे। आज लगता है कि वृद्धावस्था में वृद्ध लोगों को अपने जैसे लोगों का साथ मिलना बहुत जरूरी है। वृद्धावस्था का अकेलापन ही उनके अंदर नकारात्मक भाव और डर पैदा करता है।” अनुज ने कहा।
उसकी बातें सुनकर राहुल बोला, “आज तो मुझे ऐसा लग रहा है कि जीवन में कुछ भी नहीं किया। आधा जीवन ऐसे ही बीत गया। समय मुट्ठी में से रेत की भाँति निकलता चला जा रहा है। जबकि उन दिनों युवावस्था में लगता था कि छलाँग लगाते ही पूरा आसमान हमारा हो जाएगा।” 
“हाँ राहुल, आज पूरा दिन हमने युवक, बेटा, पिता और वृद्ध के पड़ाव पर विमर्श करने में ही गुजार दिया। ऐसा लग रहा है, मानो हम दोनों दार्शनिक हो गए हों, जो जीवन के बारे में ऐसी बातें कर रहे हैं।”
यह सुनकर दोनों हँस पड़े। दोनों ही अपने अभी तक के रूपों के अनुभव बाँटकर दिल को हल्का कर चुके थे।

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