गोपाल चतुर्वेदी

यदि कोई राजनीति को पेशा माने तो सबसे प्रबल परिवार तंत्र सियासत है, पर कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा है नहीं। स्वतंत्रता-संग्रामियों के लिए भारत की आजादी उनके जीवन का एक मिशन था। बहुतों ने इसके लिए पीड़ा-आपदा झेली, कुछ ने जीवन न्योछावर कर दिया। कोई कैसे इसे इस सेवा-भावना को भी संसार का पेशा माने? संभव है कि एक के बाद दूसरे परिवार के सदस्य इससे बच के रहे। या यों कहें कि उनमें देश को स्वतंत्र करवाने का जज्बा न था। यह भी सच है कि कई वकीलों ने इस मुहिम में भाग लिया। इसमें भी संदेह नहीं है कि अधिकतर जाने-माने स्वतंत्रता संग्रामी वकालत के पेशे की शोभा थे। गांधी से लेकर जवाहरलाल, पटेल, राजेंद्र प्रसाद, अांबेडकर आदि सभी वकील थे। 
स्वतंत्रता के पश्चात् देश की राजनीति में परिवर्तन आया। इसे प्रारंभ करने का श्रेय जाने-अनजाने या गैर-इरादतन जवाहरलालजी को जाता है। उनके पश्चात् उनकी पुत्री इंदिराजी ने उनका पदभार सँभाला। फिर तो यह नेहरू-गांधी परिवार की एक आम परंपरा हो गई। नहीं तो कोई सोचे कि क्या कहीं और ऐसा संभव होता कि धंधे से एक हवाई जहाज उड़ाने वाला देश का पॉयलट बन जाए? उनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद उनकी इटैलियन पत्नी, जिनका सियासत से कोई ताल्लुक नहीं है, वह दल की सर्वोच्च नेता बन बैठीं। कई जानकार बताते हैं कि ऐसा संसार के इतिहास के सामंत-युग के बाद किसी लोकतंत्र में न हुआ है, न हो सकता है। यह अजूबा भारत में ही संभव है। परिवार जिसका कठपुतली के खेल से न कोई वास्ता है, न ताल्लुक। वह आदर्श, त्याग और सिद्धांत की कठपुतली को नचा रहा है और पूरा देश इस तमाशे को रुचि के साथ ताक रहा है। पारिवारिक प्रजातंत्र का इससे आदर्श उदाहरण और क्या होगा कि राजीव के पुत्र और पुत्री बिना किसी अनुभव सिर्फ संपन्न वंशगत आधार पर देश का नेतृत्व करने लगे? उनका पूरा दल इसे स्वीकार भी कर ले और उनकी वाहवाही में लग जाए? इतना ही नहीं, उनको स्वयं भी भ्रम हो कि वह सर्वोच्च कुरसी के सुपात्र हैं, भले ही वह संख्या-बल में काफी पीछे हैं? पर इससे क्या?
कई ऐसे दल भी हैं, जो इस परिवार की देखा-देखी प्रजातंत्र के प्रमुख पद को पुश्तैनी विरासत मानते हैं। ऐसे सब नेता अपने इस प्रेरक आदर्श परिवार के साथ हैं। सबका समान आशय गान है। वह चुनाव में हारकर भी जीते हैं। बस मूल भाव यह कि शासकीय दल का पावन कर्तव्य है कि उनको शीघ्रातिशीघ्र सत्ता सौंपे वरना यह जनादेश की अवहेलना है? देश की आम जनता का अपमान है? जनतंत्र के मूल उसूलों का उल्लंघन है। आश्चर्य तो तब होता है, जब देश के तथाकथित ज्ञानी और बुद्धिजीवी भी इस विषय पर वैचारिक बहस गोष्ठी और परिचर्चा करें? प्रजातंत्र के इस सामंती तत्त्व का समर्थन करें। इसे भारत की उपलब्धि मानें। इसे लोकतंत्र का जायज नमूना बताएँ। हम तो हैरान हैं, ऐसे व्यक्तियों की सामान्य बुद्धि से। सिर्फ अल्पसंख्यक वोट की खातिर वह अगड़े-पिछड़े को बाँटने में लगे हैं। क्या पता उन्हें लगता है कि देश का एक विभाजन पर्याप्त नहीं है? यह दुर्दशा तो तब है, जब देश में राजनीति कोई पेशा न होकर सेवा की भावना का पर्याय है। फिर भी सच्चाई यह है कि जब हम विश्व की सबसे पुरानी नगरी ‘काशी’ का काया-पलट करने में समर्थ हैं तो हमारी अभूतपूर्व कार्य-क्षमता का अनुमान लगाना भले कठिन हो, असंभव नहीं है।
राजनीति के भ्रामक और विवादित पेशे के अलावा देश में कुछ ऐसे धंधे हैं, जो सबको स्वीकार्य हैं कि पारिवारिक प्रमुख है। इनमें से सबसे लोकप्रिय वकालत है। घर का एक वकील सफल हुआ तो काले कोट का परिवार में प्रचलन बढ़ जाता है। पता लगा कि ‘वर्मा एंड संस’ में कुल जमा बारह वकील हैं और सब एक ही परिवार के हैं। कोई क्रिमिनल केसों का विशेषज्ञ है तो कोई अन्य कंपनी लॉ का। कोई सिविल के मुकदमे देखता है कोई कंटैप्ट के। संक्षेप में कहें कि वकालत का कोई दायरा ऐसा नहीं है कि ‘वर्मा एंड संस’ से छूटा हो। कभी-कभी शक होता है कि वर्मा परिवार में बच्चे क्या काले कोट पहनकर ही जन्म लेते हैं? तीन भाइयों और दो बहनों के विस्तृत परिवार में वकालत के धंधे को समृद्ध किया है। बहन ब्याही गई तो वह सक्सेना या माथुर हो गई, पर उसके पुत्रों ने भी ‘वर्मा एंड संस’ की ही शोभा बढ़ाई। कौन कहे, वह यहाँ प्रशिक्षण लेकर ‘वर्मा एंड संस’ के कर्ता-धर्ता बन बैठें?
हमने एक सज्जन से इस पेशे को परिवार द्वारा अपनाए जाने का कारण जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि “कई मुकदमे ऐसे हैं, जो चलते ही रहते हैं, फैसले के बजाय तारीखें पड़ती रहती हैं। न वकील साहब चाहते हैं कि निर्णय शीघ्र हो, न उनके मुवक्किल। मुकदमेबाजी कुछ मुवक्किलों का शौक है। उन्हें पता है कि पड़ोसी की जमीन उन्होंने अपनी हवेली बनाते समय हड़पी थी। तर्क-कुतर्क दोनों पक्ष के हैं। पड़ोसी के पास खानदानी दौलत है। 
प्रश्न अब जमीन का न होकर प्रतिष्ठा का है। वह कैसे हार मान ले? समाज में सम्मान का सवाल है। दोनों पक्ष और उनके काले कोटधारी शीघ्र निर्णय के विरुद्ध हैं। काले कोट को अदालत में मुँह खोलने की फीस मिलती है। वह जब भी जज साहब को ‘मिलाॅर्ड’ संबोधित करता है तो कभी सब्जी का प्रबंध होता है, कभी रोटी का, कभी पाँचतारा होटल का। वह क्यों चाहेगा कि निर्णय या केस का निबटारा त्वरित हो? इसके अलावा मुकदमे के दोनों पक्ष भी जल्दी फैसले के पक्ष में नहीं हैं। 
वह पेशेवर मुकदमेबाज हैं। केस निबटा तो उनके पास करने को क्या रहेगा? अभी तो केस के कागज सँभालते हैं, वकील को ‘ब्रीफ’ करना है, कोई नया गवाह या सबूत तलाशना है, पुराने को पटाए रखना है कि वह कहीं और न फूट ले। यानी उन्हें व्यस्त रखने को ढेरों बहाने हैं। खेती अधबटाई पर हो रही है। घर बैठे पैसे आ रहे हैं। पुश्तैनी जमीन इतनी है कि खासी आमदनी है। वकील की फीस उन्हें अखरती नहीं है। 
लड़का शहर में पढ़ाई के नाम पर प्रेमिकाएँ बदल रहा है, कभी बी.ए. में नींव पक्की कर, कभी एम.बी.ए. में। कौन कहे ‘मास्टर ऑफ बिजनैस एडमिनिस्ट्रेशन’ की डिग्री लेकर उसे कौन सा व्यापार करना है? व्यापार के विषय में भले संशय हो, पर दहेज की राशि तो डिग्री के अनुरूप तै है। उसकी बिक्री की राशि हर डिग्री के अनुरूप बढ़ती जाती है। अब तक वह चार-पाँच लाख में बिकने योग्य हो गया है। वकालत के समान शादी भी एक सौदा है। इसे लोग जल्द-से-जल्द निबटाना चाहते हैं। लड़की वालों को एक खरीदारी करनी है लड़के की। फिर जिंदगी भर इस शादी की सजा भोगनी है। दहेज एक ऐसी मान्य संस्था है कि इससे किसी को छुटकारा नहीं है। सब इसके दोषों से परिचित है। पर इसमें सुधार के हर प्रयास असफल रहे हैं। सब एक मत हैं कि यह समाज का कलंक है, पर कैक्टस की तरह हर समय फल-फूल रहा है।
यदि मुकदमेबाजी एक लोकप्रिय धंधा न होता तो भारत में पंद्रह-सोलह लाख वकील क्यों होते? इस संख्या से वकालत की परीक्षा पास कर साल-दर-साल साठ-सत्तर हजार की वृद्धि क्यों होती? इसमें कुछ हैं, जो करोड़पति हैं, कुछ सत्तापक्ष के नेता भी। उन्हें धन का आनंद भी है और सत्ता-सुख भी।
अंग्रेजों के समय और आजादी के प्रारंभ में सरकार नौकरी भी एक पारिवारिक धंधा थी। साहब को किसी का बनाया भोजन पसंद आ गया तो वह फौरन से पेश्तर उनका ‘चपरासी कम कुक’ हो गया। इसी प्रकार बाबू-परिवार भी थे। बड़े बाबू के बेटे ने बाबू बनने की न्यूनतम शिक्षा हासिल की कि वह बड़े साहब की अनुकंपा से बाबू बन बैठा। कई बार बाबू-परिवारों की शान-शौकत, दिखावा, प्रदर्शन यह आभास देता है कि सरकार यही चला रहे हैं। धीरे-धीरे हर क्षेत्र में प्रतियोगिता बढ़ी और शिक्षित जनसंख्या भी। तभी योग्यता के आधार पर चयन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। जैसा सर्व-विदित है, इसमें भी आरक्षण है, कभी किसी जात का जोर, कभी भ्रष्टाचार का। 
हमें विश्वास था कि पैसा निर्जीव है। पर इधर जिस प्रकार हर विभाग में वह चलने लगा है, तो हमें अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ा है। पैसे के प्राण हैं और गतिशील हाथ-पैर भी। उसी के धक्के से सरकार में ठप फाइलें कभी चलती, कभी दौड़ती हैं। एक ज्ञानी सज्जन ने हमें अपने सरकारी अनुभव का सार सुनाया, “पहले कभी सरकार न्याय और निष्पक्षता, योग्यता से चलती थी। अब फाइल में, पैसे के पहिये लगे हों, तभी वह आगे बढ़ती है।” उनका आगे का कथन ज्ञानवर्धक है—“क्षमता योग्यता के आधार पर ही हर स्तर के चयन के मानक बने हैं। उनमें भी उचित राशि के आधार पर योग्यता तौली जाती है। यदि रकम चाल दर के अनुरूप है, तभी प्रत्याशी योग्य है। उसका चयन होना-ही-होना। इस प्रक्रिया में परीक्षा के कई टॉपर घर रह जाते हैं और फिसड्डी चुने जाते हैं। वह चयन के आकाश में उड़ने योग्य है, उनमें पैसे के पर जो लगे हैं। उनका निष्कर्ष है, “इधर पैसा ही योग्यता का पर्याय है।”
नौकरी से जो पैसे से पाते हैं, उसकी भरपाई भी अपने शासकीय जीवन में पैसा कमाकर ही करते हैं। वेतन तो केवल उनके कार्यालय आने-जाने के अनुग्रह की भरपाई है, वहाँ किसी काम का खर्च अलग है। कई व्यक्ति भुलक्कड़ किस्म के हैं। वह हर कार्य के खर्च की सूची बनाकर जेब में रखते हैं। उसमें फाइल बनाने, उस पर टिप्पणी लगाने, हस्ताक्षर कर आगे बढ़ाने जैसे कार्यों की निश्चित दर है। वह मिलें, तब ही कागज की प्राण-प्रतिष्ठा होती है। नहीं तो कागज निर्जीव का निर्जीव बाबू की मेज की शोभा बढ़ाता पड़ा रहता है। निर्धारित दर से पैसा ही उसमें प्राण फूँकने का इकलौता साधन है। यही सरकार में भ्रष्टाचार की छवि का अहम कारण भी है। 
सरकार जनता के सन्मुख ईमानदारी का दंभ भरती है। कई बार तो ‘केस’ के निबटाने की समय-सीमा भी निर्धारित रहती है। इसका एक ही आशय है। उसी समय-सीमा में पैसे का भुगतान भी होना है। सरकार के कर्णधार भी प्रसन्न हैं कि उन्होंने कार्य-कुशलता का नया नमूना पेश किया है। बाबू भी इस तथ्य से गद्गद हैं कि अब आवश्यक ऊपरी कमाई भी एक समय-सीमा के अंतर्गत होनी है। न बहानेबाजी चलेगी, न देने वालों की सौदेबाजी। निश्चित रकम का उधर त्वरित भुगतान होगा, इधर केस का निबटान। यदि ‘रकम’ में देर लगी तो केस के कागज गुम हो जाएँगे, वरना यह भी संभव है कि उनके दफ्तर में प्रवेेश पर ही प्रश्न-चिह्न‍ लग जाए। जब बिल आया ही नहीं तो भुगतान कैसे हो? जो सच है, वह केवल इतना है कि रेट की निर्धारित राशि मिली तो कोई देर संभव नहीं है। हर सरकार का दावा है कि उसके कार्य-निष्पादन में इतनी कुशलता की ऐसी चमक है कि आँखें चौंधिया जाएँ? कुछ हद तक यह सच भी है। सरकारी कार्यालय में भ्रष्टाचार की उपस्थित कोई अंधा तक महसूस करने में सक्षम है। 
अब जनता यह मानने को विवश है कि जहाँ सरकार है, वहाँ भ्रष्टाचार है। एक और धंधा डॉक्टरों का है। इधर वहाँ भी परिवार का जोर है। यदि पिता के हाथ में शफा है और उसका इलाज चल निकला तो बेटा, बेटी, दामाद, सभी डॉक्टर हैं। यों डॉक्टर होना आसान नहीं है। पाँच साल का गंभीर अध्ययन है, फिर विशेषज्ञता की पढ़ाई है, तब कहीं जाकर कुछ दवा, तो कुछ आँख, तो कई कान नाक के ‘एक्सपर्ट’ बनते हैं। यों हमारे मोहल्ले में एक क्लीनिक है। उसके डॉक्टर साहब की ख्याति है। उनका यश है। उनके उपचार का हल्ला है। वह सिर्फ डॉक्टर हैं, पर प्रभु-कृपा से उनके...की धाक है। एक लड़का है, उसकी बहू है। वह दोनों विशेषज्ञ हैं, एक नाक-कान के, दूसरे पेट के रोगों के। प्रमुख डॉक्टर की पत्नी क्या करे? वह बिना पीएच.डी. करे, खान-पान की सलाहकार है। वह मरीजों को ‘क्या खाएँ’ का पाठ पढ़ाती है। वहाँ आए बीमार दवा-जाँच के बाद उनके पास पधारते हैं। ‘किस रोग में क्या खाएँ’ का ज्ञान प्राप्त करने। कुछ सफलता के लिए जन्म लेते हैं। शायद इस परिवार की किस्मत बुलंद है। सुबह से कतार लगकर पर्चियाँ बनती हैं। पर्चियाँ बनाने वाले से लेकर डॉक्टर तक पहुँचाने वाले तक व्यस्त हैं। न डॉक्टर को फुरसत है, न दूसरे कर्मचारियों को। फिर भी प्रतीक्षा का कक्ष भरा-का-भरा है।  हमें कभी-कभी ताज्जुब होता है कि क्या इस देश में सिर्फ बीमार बसते हैं? लगता है कि डॉक्टर हैं तो बीमार हैं। अच्छे खासे स्वस्थ दिखनेवाले भी रोगी हैं, सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि डॉक्टर स्वस्थ हैं? क्या पता, वह भी किसी डॉक्टर की शरणागत हों?
यह तो डिग्री प्राप्त है। दूर-दराज के कई कंपाउंडर भी डॉक्टर बन बैठै हैं। वह रंग-बिरंगी दवाओं के धनी हैं। पूरे गाँव के स्वास्थ्य का जिम्मा-उठाएँ हैं। उनमें अनुमान लगाने की विलक्षण प्रतिभा है। कोई-न-कोई रंग की गोली देकर मरीज को चलता करते हैं। कमाल यह है कि वह स्वस्थ भी हो जाता है। वह नाम के ‘एलोपैथ’ हैं। यों उनके भंडार में होम्योपैथी से लेकर आयुर्वेद तक की दवाएँ हैं। वह मौके मूड और समय के अनुसार कुछ तो भी दवा देने में माहिर हैं। ऐसे खुद को डॉक्टर कहते हैं, उन पर पूरे गाँव का भरोसा है, आसपास के इलाके के लोगों का भी। ऐसे इस देश में सब राम भरोसे है तो इलाज क्यों न हो?
यों देश में पारिवारिक पेशों की कमी नहीं है। कुछ खानदानी नाई हैं तो कुछ जूता रिपेयर करने वाले तो कुछ मंत्र बुदबुदाने वाले पंडित, तो कुछ ज्योतिषी। पर ये सारे पेशे वकालत से लेकर डॉक्टर और हज्जाम तक सियासत के सम्मुख फीके हैं। सब में पढ़ाई या हुनर की दरकार है। बस एक पेशा या धंधा ऐसा है, जिसमें केवल जन्म की दुर्घटना ही महत्त्वपूर्ण है। वह है सफल सियासी परिवार में पैदा होना। यह एक ऐसी दुर्घटना है, जो उनको सत्ता, समृद्धि, प्रभाव देने में समर्थ है। भले ही ऐसों ने जीवन भर केवल सैर-सपाटा किया है। जनसेवा से इनका इतना ताल्लुक है जितना कौए का कोयल से, पर वह एक प्रजातांत्रिक वंशवाद के स्वाभाविक राजकुँवर हैं। 
उनके चमचे उन्हें हर विषय का ज्ञानी बनाने में जुटे हैं। कौन कहे, उन्हें भी अपने बारे में यही भ्रम हो? वह रेल के कुली से लेकर कल्चर तक सब पर दूसरों का लिखा भाषण तक गलत-सलत पढ़ने को प्रस्तुत हैं। उनके हर झूठ के पर लगे हैं। वह उड़कर कहीं-से-कहीं जा सकता है। ऐसे भी उनके मुख से निकले हुए हर ब्रह्म‍ वाक्य को पूरे देश में दोहराने वालों की विशाल तादाद है। यह खानदान के खैरख्वाह हैं। उसकी कृपा-दृष्टि पर ही पलते और जीते हैं।

९/५, राणा प्रताप मार्ग, 
लखनऊ-२२६००१
दूरभाष : ९४१५३४८४३८

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