RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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हिंदी की याद...सितंबर का महीना अर्थात् हिंदी का महीना! हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा, हिंदी माह...! सरकारी कार्यालयों तथा निजी संस्थानों में अपनी-अपनी सुविधानुसार विविध आयोजन किए जाते हैं। जिन सरकारी कार्यालयों में वहाँ के प्रमुख को हिंदी में रुचि हो, अथवा राजभाषा अधिकारी बहुत समर्पित हो, वहाँ राजभाषा के आयोजन बहुत भव्य उत्सव बन जाते हैं, अन्यथा औपचारिकता निभा ली जाती है। जिन कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग न के बराबर होता है, वहाँ भी कार्यालय के बाहर राजभाषा समारोह का एक बैनर ताे लग ही जाता है। बहुत से कार्यालयों में कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, जिनमें टिप्पणी लेखन के साथ-साथ कविता या भाषण प्रतियोगिताएँ सम्मिलित होती हैं। प्राय: हर कार्यालय में दस-बारह लोगों का एक वर्ग होता है, जो हर प्रतियोगिता में भाग लेता है और एक ही व्यक्ति दो-तीन प्रतियोगिताओं में विजेता बन जाता है। किसी में प्रथम तो किसी में द्वितीय या तृतीय। इन आयोजनों में राजभाषा अधिकारी बड़े कठिन प्रयासों से लोगों का जुटा पाते हैं। सार-संक्षेप यही है कि अपवादों को छोड़कर राजभाषा पखवाड़ा जैसे आयोजनों से हिंदी के स्वास्थ्य में काेई विशेष परिवर्तन नहीं होते। कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग उसी ढर्रे पर होता रहता है। अंग्रेजी के सर्कुलर में ‘हिंदी ट्रांस्लेशन फाॅलोस’ लिखा जरूर रहता है, किंतु वह हिंदी अनुवाद कभी-कभी नहीं भी आ पाता है। निरीक्षण समितियों का कार्य भी एक औपचारिकता ही बन गया है। राजभाषा क्रियान्वयन की रिपोर्ट में आँकड़ों में हर वर्ष एक या आधा प्रतिशत बढ़ाने की जो रीति है, उसके अनुसार तो हिंदी के प्रयोग को सौ प्रतिशत के भी पार हो जाना चाहिए था। समाज में भी हिंदी के प्रति रवैया कुछ खास नहीं बदला है। महानगरों के मॉल में जाइए तो हिंदी का एक अक्षर खोजने को तरस जाएँगे। भारत की राजधानी दिल्ली के एयरोसिटी में हिंदी की खोज असंभव सी प्रतीत होगी। महानगरों में ही क्यों, हिंदी के गढ़ रहे प्रयागराज, वाराणसी या अन्य छोटे-छोटे नगरों तक में दुकानों के साइनबोर्ड अंग्रेजी में मिलेंगे। लोगों के विजिटिंग कार्ड प्राय: अंग्रेजी में मिलेंगे, भले ही उनकी रोजी-रोटी हिंदी से चल रही हो। घरों पर नामपट्टिका (अपवादों काे छोड़कर) अंग्रेजी में मिलेगी। जिस तरह आम लोगों में अपने बच्चों को महँगे पब्लिक स्कूलों में प्रवेश दिलाने की होड़ है, उसी तरह पब्लिक स्कूलों में हिंदी के प्रति उपेक्षा बरतने की होड़ है। बच्चों का हिंदी बोलना अच्छा नहीं माना जाता। दरअसल हिंदी की बुनियाद यहीं से कमजोर हो जाती है। पब्लिक स्कूलों के वातावरण में पले-बढ़े बच्चों से हिंदी के प्रति लगाव या सम्मान की अपेक्षा कैसे की जा सकती है! प्रशासनिक सेवाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व आज भी कायम है, इसलिए सरकारी तंत्र में हिंदी के फैलाव की अपेक्षा कैसे रखी जा सकती है? हाँ, हिंदी को लेकर कुछ सुखद परिवर्तन भी हो रहे हैं। कुछ प्रांतों में इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों काे हिंदी में प्रारंभ करने की पहल सुखद परिणाम ला सकती है। हिंदी की सबसे बड़ी समस्या यही है कि जब बी.टेक. एम.बी.बी.एस., चार्टर्ड अकाउंटेंट या कानून के सबसे प्रतििष्ठत पाठ्यक्रम अंग्रेजी में हैं और सुखद भविष्य की डोर अंग्रेजी के ही पास है तो फिर हिंदी के प्रति सम्मान धरती पर कैसे उतरेगा? एक और सुखद पहलू है, केंद्रीय मंत्रियों तथा सांसदों का हिंदी में शपथ ग्रहण करना। भारत सरकार के मंत्रालयों में भी हिंदी का प्रयोग बहुत बढ़ा है। प्रधानमंत्री का दूसरे देशों में या अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में या देशों की संयुक्त प्रेस वार्त्ताओं में हिंदी बोलना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सबसे सुखद पहलू है विश्व के कई दर्जन देशों में बसे प्रवासी भारतीयों तथा भारतवंशियों द्वारा हिंदी के लिए की जा रही सेवाएँ। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर दर्जनों देशों में हिंदीसेवी हिंदी के ज्ञान का प्रसार करने या हिंदी लेखन को समृद्ध करने के लिए विविध प्रकार के ऑनलाइन कार्यक्रमों के आयोजनों में जुटे हुए हैं। ‘वैश्विक हिंदी परिवार’ नामक समूह में कई दर्जन देशों के हिंदीसेवी/हिंदीप्रेमी जुड़े हुए हैं। यह समूह पिछले चार वर्षों से हर सप्ताह हिंदी भाषा के किसी-न-किसी महत्त्वपूर्ण पहलू पर चर्चा आयोजित करता है। इंग्लैंड से ‘वातायन’ संस्था भी कई वर्षों से हर सप्ताह हिंदी-लेखन से जुड़े कार्यक्रम कर रही है। जर्मनी से गौतम सागर, ऑस्ट्रेलिया से रेखा राजवंशी, न्यूजीलैंड से रोहित, तंजानिया से ममता सैनी, कनाडा से शैलजा, नेपाल से मोनी विजय, कुवैत से संगीता चौबे, न्यूयाॅर्क से अशोक सिंह आदि नियमित आयोजन करके हिंदी को समृद्ध कर रहे हैं। अमेरिका से अनूप भार्गव कविता की विविध विधाओं की न केवल कार्यशालाएँ चला रहे हैं, वरन् भारतीय दूतावास के साथ मिलकर एक महत्त्वपूर्ण डिजिटल हिंदी पत्रिका भी प्रकाशित कर रहे हैं। डिजिटल क्रांति ने करोड़ों युवाओं में हिंदी के प्रति रुचि जगाने में भी योगदान दिया है; वर्तमान में सैकड़ों की संख्या में व्हाट्सएप समूह हिंदी लेखन को प्रोत्साहित कर रहे हैं। एक समय था, जब किसी पत्रिका में रचना छप जाने पर दस-बीस पत्र पाकर लेखक प्रसन्न हो जाता था और पचास-साठ पत्र मिल जाएँ तो प्रसन्नता आकाश छूने लगती थी। अब किसी अपरिचित या गैर-पेशेवर कवि की कोई अवसर विशेष या विषय विशेष पर लिखी गई कविता विश्वव्यापी हो जाती है, उसे तीन-चार लाख ‘व्यूज’ (पाठक) मिल जाते हैं। यह क्रांति नहीं तो और क्या है! उन दिनों की कल्पना करिए, जब प्रवासी भारतीयों अथवा प्रवासी लेखकों के लिए विदेशों में हिंदी पढ़ने के लिए या अपने लेखन को प्रकाशित कराने के लिए कोई साधन नहीं थे। आज इंटरनेट पर ‘कविताकोश’ या ‘अनुभूति’, ‘अभिव्यक्ति’ जैसी अनेक वेबसाइट हैं, जहाँ सभी प्रतिष्ठित कवियों-लेखकों की रचनाएँ उपलब्ध हैं। लेखन की हर विधा सीखने के लिए नि:शुल्क सुविधा भी उपलब्ध है। वर्तमान में लाखों कवियों-लेखकों, विशेषकर युवा रचनाकारों को किसी पत्रिका विशेष के संपादक के रहमोकरम की भी आवश्यकता नहीं है। कुछ वर्षों पहले किसी युवा रचनाकार की रचना किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हो जाना किला जीत लेने जैसा ही हुआ करता था। आज कोई भी रचनाकार स्वयं का ‘ब्लॉग’ बना ले, अपना यूट्यूब चैनल बना ले, या सैकड़ों साहित्यिक ‘फेसबुक पेज’ पर रचनाएँ पोस्ट कर ले या सोशल मीडिया समूहों में रचना साझा कर ले। सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई कविताओं ने युवा कवियों-कवयत्रियों को लालकिले के कवि-सम्मेलन तक पहुँचाने का रास्ता बनाया है। युवा रचनाकारों के लिए निश्चय ही यह स्वर्णकाल है, जो डिजिटल क्रांति की देन है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजभाषा समारोहों से कम-से-कम हिंदी के प्रति सरकारों का, समाज का ध्यान तो जाता है। गैर-हिंदीभाषी सरकारी कर्मचारियों को भी प्रोत्साहन मिलता ही है। यदि राजभाषा के क्रियान्वयन को पूरी निष्ठा तथा समर्पण के साथ एक राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर किया जाए तो और भी श्रेयस्कर होगा। समाज को भी अपनी गुलामी की मानसिकता से अब तो बाहर आ ही जाना चाहिए, जबकि स्वाधीनता के ७५ वर्ष से अधिक हो चुके हैं। अंग्रेजी का प्रयोग उतना ही हो, जितना आवश्यक हो। पाँच दशक पहले हिंदी के लिए बहुत बड़ा आंदोलन चला था। कुछ अभियान भी चले थे। ऐसे ही एक अभियान का उल्लेख आवश्यक है, जिसमें महिलाओं की टोली दुकानों पर जाकर दुकान-मालिक को राखी बाँधकर बदले में दुकान का बोर्ड हिंदी में करने का आग्रह करती थीं। तब पब्लिक स्कूलों का भी वर्चस्व नहीं था। शायद फिर कुछ अभियानों की आवश्यकता है कि राजभाषा हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने की ओर चला जाए और कभी-न-कभी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बने। बड़े सपने जरूरी हैं प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी के एक व्यंग्य की प्रथम पंक्ति है—‘ओलंपिक उस स्थान का नाम है, जहाँ हम हारते हैं!’ ओलंपिक खेलों के संदर्भ में भारत की स्थिति पर गंभीरता से विचार करें तो ‘व्यंग्योक्ति’ सार्थक ही लगती है। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला भारत ७१वें स्थान पर रहा। क्रमांक ७० तक (एक ही स्थान पर दो-तीन देश) चौरासी देश पदक तालिका में भारत से ऊपर रहे। इन देशों में ऐसे भी देश हैं, जिनकी आबादी भारत के दर्जनों बड़े शहरों के किसी बड़े मोहल्ले की आबादी के बराबर है। उदाहरण के लिए, डोमिनिका देश की आबादी दिल्ली के शकरपुर इलाके या द्वारका उपनगर के एक सेक्टर जितनी होगी। डोमिनिका ने तीन-चार गिने-चुने खेलों के लिए चार-पाँच ही खिलाड़ी भेजे और एक स्वर्ण पदक तथा २ कांस्य पदक जीत लिये तथा भारत से १३ स्थान ऊपर रहा। ऐसे ही अन्य छोटे-छोटे देश हैं। पिछले ओलंपिक में ‘सैन मैरिनो’ नामक चौंतीस हजार की आबादी वाले देश ने कुल ५ खिलाड़ी भेजे और वे ४ मेडल लाए थे। (जबकि भारत ने एक सौ सत्रह खिलाड़ियों का विशाल दल भेजा था।) वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि ओलंपिक के कीर्तिमान सबको पता हैं। यदि खिलाड़ी उनके आसपास का प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं है तो आप ४०० खिलाड़ी भेज दें, क्या फर्क पड़ता है। यहाँ एक बात और भी विचारणीय है। भारत ने जब भी कोई कांस्य पदक जीता तो चैनलों के एंकरों ने चीख-चीखकर आसमान सिर पर उठा लिया। शानदार प्रदर्शन, गौरवशाली जीत...आदि-आदि। एक-एक घंटे के विशेष कार्यक्रम। फिर कहीं पटाखे छूट रहे हैं, कहीं कुछ और हो रहा है। पदक मिलना खुशी और गर्व का विषय है, किंतु यह भी तो विचार करना चाहिए कि अमेरिका को तो ४० स्वर्ण पदक ४४ रजत पदक सहित एक सौ छब्बीस पदक मिले। कोरोना के समय पर तो हम अमेरिका से ही तुलना कर रहे थे। विकास दर के लिए भी हम अमेरिका, जापान, फ्रांस से तुलना करते हैं तो फिर पदकों के लिए क्यों नहीं? कल्पना करिए कि जब कांस्य पदक पर चैनल इतना भावविह्वल हो जाते हैं तो ११७ खिलाड़ियों में से २०-२२ खिलाड़ी स्वर्ण-रजत पदक ले आए तो क्या स्थिति होगी? पिछले ओलंपिक में चैनलों की कवरेज याद कीजिए। ऐसा लगा कि कोई खेलक्रांति हो गई हो। भारत को इतने सारे मेडल मिल गए। अतिरिक्त उत्साह के पीछे एक स्वर्ण पदक तथा हॉकी में कांस्य पदक मिलना था। तथ्यों की कसौटी पर देखें तो २०१२ के ओलंपिक में भारत को ६ पदक मिले और आठ साल बाद चौंतीस अधिक खिलाड़ी भेजने पर सिर्फ एक मेडल बढ़ा तथा कुल ७ मेडल मिले, जबकि २०१६ में मात्र २ मेडल मिले थे। यदि भारत ओलंपिक में अधिक पदक लाने की सोचे तो कम-से-कम ३० पदक बड़ी आसानी से पा सकता है। हॉकी में कितने ही वर्षों की निराशा के बाद स्थिति कैसे बदली? ओडिशा सरकार ने हॉकी को गोद लिया। स्टेडियम बनवाए, एस्ट्रोटर्फ बिछवाए, कोच बुलाए, टूर्नामेंट कराए और परिणाम सामने है। यदि भारत के सारे प्रांत तथा केंद्रशासित प्रदेश एक-एक खेल अपना लें, उस पर पैसा लगाएँ, खिलाड़ी तैयार करें तो निश्चय ही ३०-३५ पदक तो मिल ही जाएँगे। यदि हम कांस्य पदक पाकर ही खुशी से आसमान िसर पर उठाते रहे तो फिर शीर्ष दस की कल्पना भी असंभव रहेगी।
(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)
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