RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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छत्तीसगढ़ की लोक-दीपावलीछत्तीसगढ़ में ‘देवारी’ और ‘दियारी’ किसान के धान (अन्न) का घर में आने का लोक उत्सव है। पशुधन के सम्मान का रूप है। दीपावली पर्व का लोक संस्करण है। यह लोकपर्व उजास का प्रतीक है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के महत् बोध से संपन्न। हमारे देश के विविध क्षेत्रों में दीपावली के उत्सव को अनेक रूपों में मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के मैदान में दीपावली को ‘देवारी’ कहा जाता है और छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र बस्तर में ‘दियारी’। ‘देवारी’ से आशय है लगातार तीन दिन तक चलने वाले उत्सव—प्रथम दिन सुरहुत्ती, द्वितीय दिन गोबरधन पूजा, तृतीय दिन मातर। जबकि बस्तर में तीन दिन तक चलने वाली ‘दियारी’ में प्रथम दिन लछमी जगार, द्वितीय दिन गोड़धन पूजा और तृतीय दिन गोठान पूजा के साथ बासी तिहार मनाई जाती है। छत्तीसगढ़ के मैदान में दीपावली का शुभारंभ ‘सुआ गीत’ के साथ होता है— ‘तरी हरि नाना मोर ननरी नाना करेला पान करू लागे अंगना म सोये बड़े भैया उठा दे राम हरू लागे!’ प्रथम दिवस सुरहुत्ति या गौरी-गौरा विवाहोत्सव सुरहुत्ती अर्थात् गौरा-गौरी के विवाहोत्सव और दीपदान का दिवस। कार्तिक अमावस्या के दिन जब पूरा देश लक्ष्मी पूजन करता है, उस दिन छत्तीसगढ़ में लक्ष्मी पूजन के साथ एक विशिष्ट लोकपर्व भी मनाया जाता है, जिसे ‘गौरी-गौरा विवाह लोक उत्सव’ कहा जाता है। गौरा अर्थात् शिव और गौरी से आशय है पार्वती। गौरी-गौरा विवाहोत्सव हालाँकि लक्ष्मीपूजन की रात्रि संपन्न होता है, लेकिन मूल स्वरूप में यह पर्व गौरी और गौरा के जन्म, विवाह और विसर्जन तक के संस्कार तक विस्तारित है। गौरा-गौरी विवाहोत्सव की तैयारी लक्ष्मीपूजन के नौ दिन पहले ही शुरू हो जाती। कहीं-कहीं पर इसकी शुरुआत तीन या चार दिन पहले भी शुरू होती है। यह पर्व मुख्य रूप से आदिवासी समाज के निर्देशन में संपन्न होता है। खासकर छत्तीसगढ़ के मैदान में गोंड एवं कंवर जनजाति द्वारा, लेकिन छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र के गाँव में अगर दोनों जनजाति के निवासी नहीं हैं तो इस पर्व को मिलजुलकर संपन्न करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि लक्ष्मीपूजन के दिन छत्तीसगढ़ के लगभग हर गाँव में गौरी-गौरा की बारात निकलती है। यह छत्तीसगढ़ लोक की विशिष्टता है। गौरी-गौरा लोक उत्सव की शुरुआत लक्ष्मीपूजन के नौ दिन पहले हो जाती है। इसकी शुरुआत से जुड़े लोकरस्म भी हैं। हर गाँव में गौरा चौरा के पास महिलाएँ (मुख्य रूप से आदिवासी) एकत्र होकर गड्ढे में ताँबे का टुकड़ा, मुरगी का अंडा और पाँच प्रकार के फूल कूटकर अर्पित करती हैं। तत्पश्चात् बोरझरी के काँटे गौरी-गौरा को समर्पित किए जाते हैं। वे महिलाएँ टोकरी में फूल लेकर लोकगीत गाती हुई लोकनृत्य करती हैं इसमें गौरा और गौरी का आान किया जाता है। इस प्रक्रिया को ‘फूल कुचरना’ कहा जाता है। नृत्यरत महिलाएँ गाती हैं— ‘एक पतरी रैनी भैनी राय रतन हो दुरगा देवी तोरे शीतल छाँव चौकी चंदन हो पीढूली गौरी के होथय मान जईसे गौरी हो मान तुम्हारे’ लोक की महिलाएँ गौरी और गौरा की प्रार्थना करते हुए कहती हैं कि हे वंदनीय हम सभी महिलाएँ पत्तल में पुष्प रूपी लोकरतन लाई हैं। हे गौरा रूप दुर्गा देवी, तुम्हारे शीतल छाया रूपी आशीष के कारण हम सबके जीवन में उजाला है, खुशी है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि लोक नारियाँ सोना, चाँदी, हीरे जवाहरात गौरा को अर्पित नहीं कर रही हैं बल्कि अपने आसपास मौजूद पुष्प और वनस्पति अर्पित कीं। जिसे वे रतन कहती हैं। मनुष्य और प्रकृति के सहजात संचरण के साथ अपने लोकदेव को बिना अतिरिक्त प्रदर्शन के प्रणाम भाव का अनूठा पक्ष है गौरा-गौरी पर्व। शुरुआत के नौ दिन जिस ‘फूल कुचरना संस्कार’ की बात हो रही है वह निराकार गौरा-गौरी का है। सभी महिलाएँ अपने मनोनुकूल अपने आराध्य को देख रही हैं। यह रूप भगवान् को चारदीवारी में बाँधने की बंदिश से जुदा है। आगे छत्तीसगढ़ की नारियाँ समवेत स्वर में कहती हैं कि हे गौरी देवी, हम आपको अपने सूखे लकड़ी से निर्मित पीढ़हा में अपने शुभ प्रतीक बनाकर उसमें स्थान ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करती हैं। यहाँ आदिवासी समाज की महिलाओं ने सूखी लकड़ी से पीढ़हा (आसन)बनाए है, न कि वृक्ष को काटकर। यह उनके लोककारीगरी के साथ उनके जाग्रत् बोध में लबरेज श्रम के सौंदर्य को बताता है। वे आगे कहती हैं—हे गौरी, जैसे हम तुम्हारे मान रखेंगे, वैसे भी तुम हमें अपने कोरा (गोद) में स्थान देती हो। आगे भक्त और भगवान् दो न रहकर एक हो जाते हैं। गौरी ने अभी जन्म नहीं लिया है, सिर्फ उसकी परिकल्पना यहाँ की गई हैं। लोक स्त्रियाँ गौरी को अपने जीवनचर्या के उल्लास से परिचित करा रही हैं—हे गौरी, हम सब पान खाती हैं। पान लालिमा का प्रतीक है। स्त्री जीवन के सहज उल्लास का भी। वे स्त्रियाँ फूल पहनती है, अर्थात् फूलों का शृंगार करती हैं और सागर अर्थात् तालाब के पार (किनारे) पर खेलती हैं। छत्तीसगढ़ में विशाल तालाब को सागर भी कहा जाता है। यहाँ ऐसा लग रहा है, मानो कोई सखी अपने से दूर रहने वाली सखी का अभिनंदन करने के लिए उसे अपने विविध जीवन प्रसंगों को सविस्तार बताकर आमंत्रण दे रही हो। यह आमंत्रण लोक नारियों द्वारा गौरा-गौरी को है। निमंत्रण के साथ ही लोकनारियाँ समस्त जनसमुदाय और देवी देवताओं का आान करती हैं— ‘गौरा जागे मोर गवरी जागे जागे सहर के लोग बाजा बाजे मोर ईसर औ नचनियाँ जागे गवइयाए लोग बैगा जागे, मोर बैगिन जागे जागे सहर के लोग...’ लगातार फूल कुचने के रस्म के बाद लक्ष्मीपूजन के दिन सभी स्त्रियाँ और पुरुष गौरा-गौरी की प्रतिमा निर्माण के लिए मिट्टी लेने जाते हैं। गढ़वा बाजा छत्तीसगढ़ की विशेष पहचान है, जब गौरा-गौरी के लिए ग्रामीण जन तालाब या नदी के किनारे समूह में जाते हैं, उस समय गढ़वा बाजा की लोकधुन नई स्वर-लहरियाँ बिखेरती है। इस अवसर के लिए छत्तीसगढ़ के वाद्य कलाकारों ने विशेष रूप से गौरा-गौरी पार (लोकधुन)का निर्माण किया है। जिसमें विशेष प्रकार की गति और उत्सवधर्मिता का बोध होता है। गौरी-गौरा निर्माण के लिए डिलवा (ऊँचे स्थान) से मिट्टी लाने का रिवाज है। यह ऊँचा स्थान शिव के निवास कैलाश पर्वत का प्रतीक है। मिट्टी कोड़ने के दौरान विभिन्न लोकरस्म अदा की जाती हैं। कोड़े गए मिट्टी को कुँवारी मिट्टी कहा जाता है। कुँवारी मिट्टी के गौरा वाले भाग को नए डलिया में डालकर कुँवारा लड़का उठाता है और गौरी वाले भाग को कुँवारी लड़की। मिट्टी कोड़ने के दौरान जो लोकगीत गाए जाते हैं, वे ईश्वर के मानवीकरण का अद्वितीय रुप है— ‘राजा हिमांचल, गोंडे राजा माटी कोड़ें बर जात है हो कहाँ और गौरा रानी जाति जनमल कहाँ लिए अवतार हो डिलवा के माटी मोरा जाति जनमल राजा हिमांचल घर लेहे अवतार हो...., छत्तीसगढ़ में स्त्रियाँ सामूहिक स्वर में गा रही हैं कि राजा हिमाचल मिट्टी कोड़ने जा रहे हैं । स्त्रियाँ गौरा रानी से प्रश्न कर रही हैं कि आप कहाँ अवतार लेती हो? गौरा उत्तर देती हैं कि हिमाचल राजा के घर। यहाँ हिमाचल का घर लोक नर-नारियों का गाँव है। जहाँ कोई महल नहीं। बल्कि प्राकृतिक ऊँचे नीचे उठान लिए मिट्टी है। जहाँ गौरा जन्म ले रही है। लोक नारियों की वात्सल्यजनित पुकार दर्शनीय है, मिट्टी कोड़ने वाले पुरुषों से वे कह रही हैं कि इस डिलवा के नीचे गौरी शिशु रूप में है। इसलिए प्रेम से धीरे-धीरे इस मिट्टी को हटाओ। किसी का हाथ और पैर शिशु पर नहीं लगना चाहिए। नारफुल सहित जैसे शिशु माँ के गर्भ से जन्म लेता है, उसी प्रकार नारफुल सहित गौरी मिट्टी के डिलवा से निकाला जा रहा है। वात्सल्य का ऐसा लोकरूप गौरी-गौरा पर्व की विशेषता है। इस संस्कार में मिट्टी का मनुष्य द्वारा मानवीकरण दुनिया में अनूठी है। मिट्टी के प्रति वात्सल्य का यह रूप आगे बढ़ता है। स्त्रियाँ मिट्टी रूपी नारफुल में लिपटी गौरी को टोकरी में स्थान दे रही हैं। जन-समुदाय अपनी बेटी गौरी को हिमाचल बनकर गाँव के बीच में ले जा रहे हैं। मिट्टी के रूप में गौरा-गौरी गाँव के उस स्थान पर लाया जाता है, जहाँ अब प्रतिमा निर्माण का कार्य संपन्न होना है। अधिकांश गाँवों में गौरी-गौरा के लकड़ी संबंधी सजावट बढ़ई द्वारा और मिट्टी संबंधी सजावट और मूल प्रतिमा निर्माण लोहार (विश्वकर्मा) या कुम्हार जाति के लोग करते हैं। लेकिन जहाँ इस जाति के लोग नहीं रहते, वहाँ कोई भी जानकार व्यक्ति इस कार्य को संपन्न करता है। अगर गौरी-गौरा के लिए मिट्टी कोड़ाई उनका शिशु रूप है तो प्रतिमा निर्माण उसका युवा रूप। गौरी-गौरा की प्रतिमा को मूल रूप से लाई गई कुँवारी मिट्टी का बनाया जाता है। सजावट के लिए इस समय खेतों में मौजूद धान की बालियाँ, मेमरी, सिलयारी आदि प्राकृतिक वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है। साथ ही अब गौरी-गौरा को रंग-बिरंगे कागजों (सनपना) और अन्य साधनों से भी सजाया जाता है। गौरी को कछुएँ में और गौरा को बैल (नंदी बैल) की सवारी में बैठाया जाता है। इस प्रकार धूमधाम से गौरा और गौरी को विवाह के लिए तैयार किया जाता है। लोकसमुदाय की सौंदर्यबोध का एक रूप है यह उत्सव। जब गौरी-गौरा की प्रतिमा बनकर तैयार हो जाती है, तब गढ़वा बाजा में गौरी-गौरा पार (धुन) बजाते हुए। गौरी-गौरा के स्वागत के लिए कलशा निकालने हेतु पूरे गाँव में लोगों और देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया जाता है— ‘करसा सिंगारत बहिनी रिगबिग सिगबिग करसा सिंगारत बहिनी बड़ निक लागे बहिनी सिंगारत बड़ सुख लागे भइया!’ कलसा निकालने के आमंत्रण के बाद समस्त ग्रामवासी शिव (गौरा) के बारात में शामिल होने हेतु प्रतिमा निर्माण स्थल पर आते हैं। कुँवारी लड़की गौरी को सिर में उठाती है और कुँवारा लड़का गौरा को, फिर बारात निकल पड़ती है। शिव-पार्वती के बारात का स्वागत छत्तीसगढ़ के लोकजन अनूठे रूप में करते हैं। सर्वप्रथम गौरा-गौरी धुन में सब मग्न होकर नाचते हैं। लड़कियाँ ‘देवी चढ़ती’ है। देवी चढ़ने के दौरान वे अपने सिर के बाल को हिलाती है और जोर-जोर से आवाज करती हुई धरती में लोटती है। साथ ही स्त्री और पुरुष जलती हुई अग्नि को तेल के रूप में शरीर में गिराती है। इस गरम तेल को शरीर में गिराने की क्रिया को ‘बोड़ा लेना’ कहते हैं। कुश की रस्सी को लपेटकर ‘साटे’ बनाया जाता है, लड़के और लड़कियाँ नृत्य के दौरान अपने शरीर में इस सोटे को मारते हैं। सोटे और बोड़ा लेने का संबंध मनोकामना सिद्धि हेतु किया गया प्रयत्न है। गौरी-गौरा लोकधुन में शरीर का झूमना और धरती पर लोटना लोकसंगीत के मर्मभेदी प्रभाव का अलहदा रूप है। गौरा-गौरी की बारात में स्त्रियाँ गीत गाती हैं— ‘लाले-लाले परसा लाले हे खमार लाले हे इसर राजा घोड़वा सवार... घोड़वा कुदावत ईसर पैया वो लरकगे गिर परे माथा घलो फुले हो लाल... एक तोर बरे बिहईया हो लाल बरे बिहईया बहिनी सब दिन सब दिन हम तुम डुमरी के फुले हो लाल’ बारात के दौरान विवाह संबंधी सभी रस्मों के लोकगीत गाए जाते हैं। एक प्रकार से लोक की यह उत्सवी त्योहार देवप्रबोधिनी एकादशी (तुलसी विवाह) से पहले गौरा-गौरी का विवाह शास्त्र परंपरा से इतर लोक परंपरा का द्योतक है। दूसरे रूप में लोकजीवन में व्याप्त विवाह संस्कार से नई पीढ़ी को परिचित कराने का आयाम भी है। जब गौरा अपने ससुराल के लिए निकल पड़ती है, तब लोकनारियाँ उनके लिए विभिन्न प्रकार की शुभकामनाएँ व्यक्त करते हुए कहती हैं— ‘धीरे-धीरे रेंगबे गौरी ओ गोंटी गडी जाही गोंटी गडी जाही गौरी ओ खड़ा होई जइबे जाये बर जाबे गौरी ओ फूल टोरी लाबे फुलवा के टोरत गौरी ओ कनिहा पिराही’ बारात आगमन के बाद गौरा-गौरी को नियत स्थान (गौरा-चौरा)ले जाया जाता है। वहाँ गौरा-गौरी को सोने (विश्राम) करने कहा जाता है— ‘सुतव गौरा मोर सुतव गौरी हो सुतव सहर के लोग सुतव भवइया मोर सुतव बजईया हो सुतव सुनइया लोग हम धनी सुतबो हो मैया के कोरवा चंदा ल दइबोन असिस हम धनी सुतबो हो मैया के कोरवा चंदा ल दइबोन असिस...’ विवाह और विश्राम के बाद पुनः गौरी-गौरा को जगाया जाता है। अब समय गौरा-गौरी का विसर्जन का होता है। बारात के समय का उत्साह अब करुण रस में बदल जाता है। पूरे ग्रामवासी गाजे-बाजे के साथ गौरा-गौरी को सिर पर धारण कर नदी या तालाब में विसर्जन करने जाते हैं— ‘ढेला ढेलौनी जौहर सेनी ढेला ल मारे तुसार ईसर राजा कातिक नहाए धोतियां ल मारे तुसार’ जनसमुदाय विसर्जन में भी आशा देखता है और कहता है—गौरा-गौरी कहीं जा नहीं रहे बल्कि वे कार्तिक स्नान करने आए हैं। विसर्जन के बाद गौरा-गौरी की मिट्टी और सनपना (चमकीली कागज) तथा विभिन्न वनस्पतियों को एक-दूसरे के बीच शुभ भाव के साथ वितरित किया जाता है। छत्तीसगढ़ में मित्र बनाने की अद्भुत परंपरा है, जैसे दवना के पत्ते को साक्षी मानकर दवनापान बदना, गंगा जल को साक्षी मानकर गंगाजल बदना, जंवारा को साक्षी मानकर जंवारा बदना, उसी प्रकार गौरा-गौरी के सनपना को साक्षी मानकर सनपना भी बदते हैं। गौरा-गौरी का यह विवाहोत्सव लोक द्वारा माटी का उत्सव है। माटी जो जीवन का सच है। माटी जीवन और सृजन का प्रतीक भी। जिस माटी की प्रकृति को अपने कर्म से जोड़कर मनुष्य गौरा-गौरी को मूर्त जीवन बोध देता है, वहीं कुम्हार दीपावली के सार दीपक बनाता है। मिट्टी प्रकृति है तो दीपक संस्कृति। द्वितीय दिवस—गोबरधन पूजा लक्ष्मीपूजन के दूसरे दिन देश के अधिकांश हिस्सों में गोबरधन पूजा होती है। छत्तीसगढ़ में गोबरधन पूजा में लोक की विशिष्टता है। गौरी-गौरा विवाह (सुरहुत्ती) में अगर आदिवासी समुदाय की प्रधानता होती है तो गोबरधन पूजा में यादव, जिसे छत्तीसगढ़ में राउत कहा जाता है, की प्रधानता होती है। यह पर्व राउत बंधुओं को समर्पित है, जो छत्तीसगढ़ के गाँवों के पशुपालक और पशुरक्षक दोनों है। मनुष्य और पशु के सहअस्तित्व की अद्भत बानगी है गोबरधन पूजा। राउत बंधु जो सुबह पूरे गाँव को जगाने के कारण पहटिया (पहट के समय जगाने वाले) कहलाते हैं। पहटिया पूरे गाँव के पशु को समूह में ले जाकर वर्ष भर चराते हैं। पशु के आरोग्य का खयाल रखते हैं। गाँव की व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने के कारण इन्हें पवनी पसारी कहा जाता है ,क्योंकि गाँव के पशुधन का यह रखवाला है। राउत बंधु अपने पूरे कुनबे के साथ आज के दिन को विशेष रूप से उत्सवधर्मी बनाते हैं। वे रंग-बिरंगे कौड़ी लगे नए परिधान पहनकर, हाथ में तेंदू की लाठी लेकर और पशुधन के लिए विभिन्न रंगों से बने मयूरपंख से शोभायमान सोहई लेकर पशु मालिक के घर जाता है! गोबरधन पर्व के सारांश पर प्रकाश डालते हुए छत्तीसगढ़ लोक-जीवन के अध्येता पीयूष कुमार लिखते हैं— “हमारे यहाँ छत्तीसगढ़ के गाँवों में आज जितनी खुशी पशु-पालकों की होती है, उससे अधिक ताव और उल्लास राउतों में होता है। आज किसान पशुओं को खिचड़ी खिलाते हैं और खुद भी खाते हैं। खिचड़ी में नए चावल का भात, सोहारी रोटी (नए चावल का), उड़द का बड़ा, कोचई (अरबी) और मखना (कद्दू) की सब्जी तथा उड़द की दाल अनिवार्य है। राउत भाई सुंदर छींट का कुरता पहन पहले तो अपने घर में इष्ट की पूजा करते हैं, फिर चटख सिंगार कर मड़ई लेकर शान से निकलते हैं। अब तो वह आठ दिनों का राजा है। साल भर उसने पशुओं को चराया है, अब वह आनंद मनाएगा। वे अपने हाथ से बनाई बांख की बनी सोहई बाँधते हैं और पशु मालिकों को आशीष देते हैं— ‘जैसे मईया-लिहा दिया, तईसे देबो असीसे! घर-दुवार भण्डार भरे अउ जिवय लाख बरीसे!!’ शाम को पशुओं से गोबर खुंदा कर उसका टीका एक-दूसरे को लगाकर लोग गले मिलते हैं। बुजुर्ग कह उठते हैं—“जियत रबो त इही दिन मिलबो जी...!” यह आप्तवाक्य तब अर्थपूर्ण लगता है, जब साल भर बाद गाँव जाने पर पता लगता है कि फलाना कका रेंग दिस...। सरगुजा अंचल में इसी समय ‘सोहराई’ पर्व मनाया जाता है, जिसमें पशुधन को छत्तीसगढ़ के मैदानों की भाँति नहला-धुलाकर, पूजन कर खिंचड़ी खिलाई जाती है। यह पर्व भी अपने पशुधन के प्रति प्रणम्य होने का पर्व है। इस दिन सरगुजा क्षेत्र में पशुधन के साथ गाय के निवास स्थान (कोठा), गाय के सामूहिक इकठ्ठा होने के स्थान (कोठार) के साथ अपने कृषि के साथी यंत्र, हँसिया, हुमेल, जांता, सूपा आदि की भी पूजन कर कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। यह लोकपर्व दीपावली का सरगुजिया संस्करण है। तृतीय दिवस—मातर तिहार गोबरधन पूजा के बाद के दिन छत्तीसगढ़ में मातर लोकपर्व मनाया जाता है। यह लोकपर्व यहाँ के मूल गोपालक समुदाय राउत जाति के अगुवाई में होता है। रंग-बिरंगे परिधान में सजे राउत भाई के इस पर्व में पूरा गाँव शामिल होता है। मातर लोक उत्सव के कार्यक्रम स्थल पर पूरा गाँव एकत्र होता है। इस कार्यक्रम स्थल पर लोक देव के रूप में ‘खुड़हर’ स्थापित किया जाता है। ‘खुड़हर’ लकड़ी से बनाया जाता है, हल्की नक्काशी के साथ। यह ‘खुड़हर’ लोक देव का प्रतीक है। इस लोकदेव में ही मातर का भाव समाहित है। मातर का अर्थ होता है लोकमाता के प्रति समर्पण। इस प्रतीक में राउत समुदाय की अटल आस्था है। मातर कार्यक्रम का शुभारंभ गोबरधन पूजा के दिन खुड़हर स्थापना के साथ शुरू होता है। अब मातर के मूल आकर्षण की ओर आते हैं। छत्तीसगढ़ के राउत बंधु के मूल अस्त्र तेंदू का लाठी होता है। रंग-बिरंगे परिधान में सजावट का अंग मयूर पंख की शोभा के साथ कौड़ी (समुद्री सीप की आकृति का) होता है। मानो कृष्ण कन्हैया पूरे गोप-ग्वालों के साथ गाँव में उतर आये हो। सभी ग्रामवासी राउत बंधुओं की शौर्य और लोक-सौंदर्य की अगुवाई में मड़ई को बलिष्ठ व्यक्ति लेकर चलता है। रुककर दौड़ता भी है। जो काफी चित्ताकर्षक होता है। यह मड़ई बाँस का बना होता है, जिसमें काशी (कुश घास) की रस्सी को हाथ में भाँजकर, पूरे बाँस की ऊँचाई तक क्रमशः सजाते हैं। पश्चात मड़ई के रस्सी में नदी किनारे नम भूमि में मिलने कंदील कांदा का उपयोग किया जाता है। इस कांदा को परत-दर-परत निकालकर मड़ई को सजाया जाता है। लेखक के ग्राम भटगाँव में मड़ई ढीमर और केवन्ट जाति के बंधुओं द्वारा बनाया जाता है। इनका प्रबल विश्वास है कि मड़ई में आदिशक्ति का वास होता है और यह तमाम अनिष्ट शक्ति से ग्राम की रक्षा करता है। यह जन कल्याण का प्रतीक है। मड़ई और खुड़हर कथा के बाद अब पुनः आते हैं। मातर पर सभी ग्रामवासी तालाब के किनारे एकत्र होते हैं। एकत्र होने का मूल कारण है मातर के मुख्य आकर्षण-अखाड़ा के आयोजन से युवा पीढ़ी को जोड़ना और लोक मनोरंजन को बल प्रदान करना। अखाड़े में हमारे गाँव के नव-युवक और बुजुर्ग अखाडे़बाज अपना शौर्य, लाठी का चालन, तलवारबाजी, आग से संबंधित प्रदर्शन दिखाते हैं। अखाड़े के साथ-साथ ग्रामवासियों को राउत बंधु गिलास में दूध भरकर अपने हाथों से पिलाने के लिए आमंत्रित करते हैं। आज के दिन मातर स्थल पर राउत बंधु मेजबान बन जाता है और गाँव मेहमान। अद्भुत है यह परंपरा। समय के साथ मातर के स्वरूप में परिवर्तन आया है। अब लोग दूध से अधिक शराब की ओर आकर्षित हैं। मातर लोकपर्व हम सबके अंदर सामूहिकता और उत्सवधर्मिता बची रहे इस लोककामना का सजीव प्रतीक है। राउत भाइयों के दोहे में कहूँ तो— ‘पान खायेन सुपारी मालिक, सुपारी के दुई कोर। तुम तो बइठो रंगमहल में, राम-राम लेव मोर। आवत दिएन गारी गोढा, जावत दिएन असीस। दुधे खाव पूते बिहाव, जुग-जुग जियो लाख बरिस!’ छत्तीसगढ़ के राउत बंधु गढ़वा बाजा के ‘शक्ति-धुन’ में छत्तीसगढ़ी के साथ कबीर, तुलसी, रहीम सबके दोहे पारते हैं, जिससे समूचा वातावरण वास्तविक भारत के रूप का दर्शन करा जाता है। बस्तर की दीपावली—‘दियारी’ लोकपर्व जब छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में देवारी लोकपर्व मनाया जाता है। उस समय के ही आसपास छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित बस्तर क्षेत्र में ‘दियारी’ तिहार मनाई जाती है। दियारी तिहार के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लाला जगदलपुरी लिखते हैं— “बस्तर भूमि के वनवासी समाज की अपनी अलग दीपावली मनती है, जिसे ‘दियारी-तिहार’ कहा जाता है। बस्तर में दियारी तिहार के अंतर्गत लक्ष्मी पूजन नहीं होता। उनका लक्ष्मी पूजन अलग होता है। धान की तैयार फसल को वे लोग लछमी मानते हैं और धूमधाम के साथ धान की बालियों को खेत से लाकर उस फसल-लछमी का विधिपूर्वक विवाह रचाते हैं। नराएन राजा के साथ। इस प्रथा को ‘लछमी जगार’ कहते हैं। बस्तर के ग्रामीण परिवेश में ‘लछमी जगार’ प्रति वर्ष क्वांर महीने से प्रारंभ होकर अगहन पूस तक चलता रहता है और ‘दियारी तिहार’ फसल कट जाने के बाद प्रति वर्ष पूस माह से लेकर माघ पूर्णिमा तक मनाते रहते हैं।” ‘लछमी जगार’ में लछमी का अर्थ है धान की बालियाँ एवं जगार का अर्थ है जागरण। ‘लछमी जगार’ के विषय में बताते हुए बस्तर लोकसंस्कृति के आधिकारिक विद्वान् हरिहर वैष्णव लिखते हैं— ‘लछमी जगार’ लोक महाकाव्य की मुख्यत: दो शाखाएँ हैं। पहली शाखा ‘बेसरा खँदा (बाज शाखा)’ के नाम से जानी जाती है, जिसका प्रचलन कोंडा गाँव के आसपास है, जबकि दूसरी शाखा ‘जम खँदा (यम शाखा)’ कहलाती है, जिसका प्रचलन जगदलपुर के साथ-साथ कोंडा गाँव के आसपास भी है। नारायणपुर में भी दोनों शाखाओं का प्रचलन मिलता है तथापि थोड़ी-सी भिन्नता क्षेत्र के हिसाब से पाई गई है। ‘बेसरा खँदा’ में नरायन राजा बेसरा पक्षी लेकर चिड़ियों का शिकार करने जाते हैं और इसी दौरान उनकी भेंट माहालखी, यानी महालक्ष्मी (अर्थात् धान) से होती है। फिर नरायन राजा माहालखी से विवाह करने की जिद ठान लेते हैं और अंतत: उन दोनों का विवाह हो जाता है, जबकि नरायन राजा की पहले से ही २१ रानियाँ होती हैं। ये रानियाँ हैं, कोदों, कुटकी, सरसों, अरहर, मूँग, उड़द, चना, बड़रा (मटर) आदि मोटे तथा दलहनी अन्न। ये २१ रानियाँ माहालखी को तरह-तरह के कष्ट देती हैं, जिससे दुखी हों कर वे नरायन राजा का महल छोड़कर अन्यत्र चली जाती हैं। उनके वहाँ से जाने के साथ ही नरायन राजा का महल सूना हो जाता है। फलत: वे और उनकी २१ रानियाँ और भाई बलराम भूख से व्याकुल हो जाते हैं और माहालखी की खोज करने लगते हैं। अंतत: नरायन राजा माहालखी को मना-बुझाकर वापस लाने में सफल हो जाते हैं। उनकी वापसी के साथ ही महल धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। इस शाखा की कथा में पारबती रानी द्वारा वर्षा के लिए भिमा देवता का विवाह, फिर संतान-प्राप्ति और कीर्तिवान होने के उद्देश्य से संतानहीन मेंगिन रानी (वर्षा के देवता मेघ राजा की पत्नी) द्वारा सरोवर खनन और सरोवर के तट पर आम के बीजारोपण का प्रसंग आता है। फिर जब आम अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलदार होता है, तब उसके विवाह का प्रसंग भी इसी कथा में गाया जाता है। इसके साथ ही, सरोवर का भी विवाह संपन्न होता है। अंत में होता है माहालखी और नरायन राजा का विवाह। ‘जम खँदा’ की कथा ‘बेसरा खँदा’ की कथा से थोड़ी-सी भिन्न है। इस शाखा में भी कथा तो माहालखी और नरायन राजा की ही है, किंतु इसमें मुख्य भिन्नता है माहालखी का तीन बार जन्म लेना और नरायन राजा के साथ विवाह के पूर्व जमराजा यानी यमराजा के साथ अपूर्ण विवाह। दोनों ही शाखाओं की कथा में माहालखी द्वारा नरायन राजा का महल छोड़कर अन्यत्र चले जाने एवं इस कारण नरायन राजा और उनकी रानियों तथा भाई बलराम पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ने की कथा है। दोनों ही शाखाओं की कथाएँ लोक-मानस की अद्भुत रचनाएँ कही जा सकती हैं, जिनके रचयिता का कोई पता नहीं। बस, जगार गायिकाएँ यानी गुरुमाएँ इसे वाचिक परंपरा के सहारे गाती चली आ रही हैं। ‘दियारी तिहार’ मुख्य रूप से बस्तर के मैदान जहाँ धान उत्पादन होता है, वहाँ प्रमुखता से मनाई जाती है। ‘दियारी तिहार’ का तिथि निर्धारण माटी देव गुड़ी का पुजारी, जिसे बस्तर में गाँवों का मुखिया होने का दर्जा प्राप्त होता है। वह माटी देव गुड़ी का पुजारी अन्य गाँवों के पुजारियों के साथ बैठक आयोजित कर ‘दियारी तिहार’ की तिथि तय करते हैं। बस्तर क्षेत्र के अलग-अलग गाँवों में ‘दियारी तिहार’ पूस माह से माघ पूर्णिमा तक अलग-अलग तिथि में मनाई जाती है। इस लिए इन महीनों में लगभग हर दिन किसी-न-किसी गाँव में ‘दियारी तिहार’ का उत्सव बस्तरवासी मनाते हैं। दियारी तिहार का मुख्य आकर्षण—‘धोरई’ दियारी तिहार के मुख्य केंद्र ‘धोरई’ होते हैं। छत्तीसगढ़ के मैदान में जिस तरह गोबरधन पूजा और मातर तिहार के मुख्य आकर्षण केंद्र राउत बंधु होते हैं। ठीक वैसे ही ‘दियारी तिहार’ में धोरई। धोरई बस्तर में गाय-बैल में चरवाहे को कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के मैदान में चरवाहे का कार्य ‘राउत’ जाति के लोग करते हैं, वहीं बस्तर क्षेत्र में यह कार्य अधिकांश रूप में ‘माहरा’ जाति के लोग करते हैं। ‘दियारी तिहार’ का उत्सव रूप भी छत्तीसगढ़ के मैदानों में मनाए जाने वाले गोबरधन पूजा और मातर तिहार की तरह ही होता है। बस लोकरंग में अंतर है। बस्तर में ‘दियारी तिहार’ में लोकपर्व का विशुद्ध रूप दिखाई देता है जबकि छत्तीसगढ़ के मैदानों में मनाई जाने वाली ‘देवारी’ में बाजार के प्रभाव के कारण लोक का रंग दिन-ब-दिन फीका पड़ रहा है। ‘दियारी तिहार’ किसानी संस्कृति के आधार पशुधन के सम्मान का लोकपर्व है। धोरई और पशु मालिक के बीच आपसी समन्वय और सदाशयता का उत्सव है। ‘दियारी तिहार’ के प्रथम दिवस धोरई पशु मालिकों को अपनी हैसियत के अनुसार खिला-पिलाकर सम्मान करता है। ‘दियारी तिहार’ के प्रथम दिवस को छत्तीसगढ़ के मैदानों में जिस प्रकार राउत बंधुओं द्वारा गोबरधन पूजा के दिन पशु धन को सोहई पहनाते हैं और पशु मालिकों के आँगन में दीपदान करते हैं। बस्तर क्षेत्र में दियारी का रूप भी इससे मिलता जुलता है—“दिन में पशुओं के मालिकों को पिला-खिलाकर, धोरई रात में उनके घर ‘गेठा’ बाँधने जाता है। ‘गेठा’ को जेठा भी कहते हैं। कोठों (पशु शालाओं) तक वह गाजे-बाजे के साथ पहुँचता है और प्रत्येक कोठे के प्रत्येक जानवर के गले में बाँधता है। सन रस्सी से बनी इन मालाओं को धोरई स्वयं तैयार करता है। पलाश जड़ की रस्सी से भी मालाएँ बनाई जाती हैं। बैलों और गायों की अलग-अलग प्रकार की मालाएँ होती हैं। बैल की माला ‘जेठा’ और गाय की ‘चुई’ या ‘छुई’ कहलाती है। धोरई को प्रत्येक घर से जेठा बाँधने का पारिश्रमिक थोड़ा सा धान मिल जाता है।” छत्तीसगढ़ के मैदानों में जिसे हम गोबरधन पूजा कहते हैं, उसे बस्तर में ‘गोड़धन पूजा’ कहा जाता है। दूसरे दिन धोरई गाय बैलों को पशु मालिकों के घर जाकर खिचड़ी खिलाता है। पशुओं को लाल तिलक लगाकर पुष्प से पूजन किया जाता है। पशुधन को प्रणाम करते हुए खिचड़ी खिलाई जाती है। खिचड़ी में चावल और सब्जी और अनेक भाजी के टुकड़े के अलावा अरहर, उड़द, मूँग की दाल डाली जाती है। गोड़धन पूजन के बाद धोरई गाजे-बाजे के साथ पशु मालिकों के घर जाते हैं, वहाँ धोरई को सम्मान में राशि या अन्न भेंट की जाती है। गोठान अर्थात् वह खुला स्थान जहाँ गाँव भर के पशुधन इकट्ठा होते हैं और आराम करते हैं। गोठान के आसपास पशुओं को धोरई चराता है और वह भी अपनी पत्नी या बच्चे के द्वारा लाए गए पेज को पीकर पशुओं के साथ दिन में आराम करता है। पेज उस पेय को कहा जाता है, जो मांडिया (मांड) और कनकी (चावल के टुकड़े) को मिलाकर बनाया जाता है। गोठान का भी देवता होता है। बस्तर में ऐसी मान्यता है। गोठान देव पशुधन की सब प्रकार से रक्षा करता है। इस देव को ‘गोठान देव’ कहा जाता है। गोठान पूजा के समय पशु मालिक अपने पशुओं के सींगों पर लंबे-लंबे नए कपड़ों के सिंगोटी बाँधकर धूमधाम से गोठान पहुँचते हैं। सिंगोटी अर्थात् बैल के सींग पर पहनाए जाने वाली पगड़ी। गाँव की गृहणियाँ भी इस कार्यक्रम में शिरकत करती हैं। वे नए कपड़े और धान या कोई भी अन्न या फल लेकर गोठान में उपस्थित होती है। गाँव के समस्त लोगों द्वारा लाए गए अन्न का ढेर बनाया जाता है। इसके पश्चात् सभी भेंट गोठान देव को अर्पित करते हुए। पूरे मनोयोग से पूजा की जाती है। गोठान देव को पूजन के दौरान शराब चढ़ाई जाती है और मुरगे की बलि दी जाती है। सभी भेंट आखिर में धोरई अपने पास रख लेता है। पूजन के अंत मे पशुपालक अपने बैलों को पूजन स्थल से दौड़ा देता है। उसे पकड़ने धोरई भी दौड़ता है और बैलों को पकड़कर नए सिंगोटी पर भी अधिकार कर लेता है। कार्यक्रम के आखिरी हिस्से में धोरई और पशुधन मालिक गोठान में प्राप्त राशि और अन्न का बहुत बड़ा हिस्सा धोरई को देकर बचे हुए राशि से सब मिलकर उत्सव मनाते हैं। इस उत्सव का मुख्य आकर्षण बस्तर बियर ‘सल्फी’ का सामूहिक सेवन होता है। इस उत्सव को ‘बासी-तिहार’ कहा जाता है। इस बासी तिहार में पशुचारक,पशुपालक और पूरे ग्रामवासी नशे में मस्त होकर गाते और नाचते हुए हुल्लड़ मचाते हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में जब स्थानीयता के सौंदर्य के मूल लोकभाषाएँ खतरे में हैं, हमारे लोकतांत्रिक देश में ‘भाषाओं का लोकतंत्र’ प्रश्न के घेरे में है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वभाव लोकभाषाओं के संरक्षण तक दिखाई देना चाहिए तभी लोकतंत्र की परिभाषा कर्म में तब्दील होगी। लोकतंत्र का ‘लोक’ बचेगा तभी ‘तंत्र’ लोककल्याणकारी होगी। लोकपर्व को बचाना लोकगीतों को बचाना है और इस रूप में लोकभाषाओं को भी। लोकगीत बचेंगे तभी एक अनुभव संसार बचेगा। देवारी, दियारी और सोहराई जैसे लोकपर्व भूमंडलीकरण के एकरूपता के नारे के बरक्स स्थानीयता का उत्सव है। ग्लोबल विलेज के भूल भुलैया को छोड़कर अपने स्वत्व की विनम्र घोषणा है। सहायक प्राध्यापक शासकीय महाविद्यालय भखारा, धमतरी (छत्तीसगढ़) दूरभाष : 7509322425 bhuwal.singhthakur@gmail.com |
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