सुपरिचित लेखिका। धार्मिक, सामाजिक एवं साक्षरता गतिविधियों में सहभागिता। भारत के कोने-कोने में भ्रमण। पत्र-पत्रिकाओं में अनेक लेख, यात्रा-वृत्त और कहानियाँ प्रकाशित।
पुनः ‘गोवा’ जाने का अवसर मिल गया। समय बहुत कम था, फिर भी कार्यक्रम बन गया। आने-जाने का समय बचाने के लिए यह निश्चित हुआ कि इस बार की यात्रा विमान द्वारा संपन्न हो। संयोग से चंडीगढ़ से गोवा की सीधी उड़ान है, इसलिए उसी में सवार हुए। समय भी दिन का होने से हमारे लिए उपयुक्त था। उसी दिन सायंकाल ‘गोवा’ पहुँच गए। मार्ग में बादलों के विभिन्न रूपों को भी निहारा। परिचारिका ने घोषणा की कि ‘हम गोवा पहुँच गए हैं, लेकिन मौसम खराब होने के कारण विमान अभी लैंड नहीं कर पाएगा। सभी यात्री सीट बेल्ट सावधानी से बाँधे रखें।’ यह उद्घोषणा बार-बार की जा रही थी। विमान से बाहर झाँकने पर चारों ओर काला धुआँ जैसा दीख रहा था। खैर, थोड़े समय बाद विमान तल पर लगा, यात्री उतरे, अपना-अपना सामान लिया, गेट से बाहर निकले। पुत्तर प्रभात पहले से ही वहाँ प्रतीक्षा कर रहा था। वर्षा अभी भी हो रही थी। वर्षा में ही गाड़ी में बैठे और चल पड़े घर की ओर। विमानपत्तन से घर की दूरी ३५-४० कि.मी. है, जिसे पार करने में एक घंटे का समय लगा। कारण, वर्षा निरंतर होती रही, टेढ़ी-मेढ़ी घुमावदार सड़कें, तिस पर सड़क के दोनों ओर ऊँची-ऊँची वनराजि, दूर से मार्ग दिखाई ही नहीं देता। खैर, घर पहुँचे, गरमागरम चाय की चुस्कियाँ लीं। बच्चों को अपने दादी-दादा के साथ-साथ अपने-अपने उपहारों की भी प्रतीक्षा थी, वह भी पूर्ण हुई, रात्रि भोजन के पश्चात् विश्राम और शयन। आज का दिन संपन्न हुआ।
अगली प्रातः हो गई, पर वर्षा ने विराम नहीं लिया, यदि विराम लिया भी हो तो अल्प-विराम ही लिया होगा। अभी-अभी मौसम कुछ ठीक लगा, लेकिन चंद मिनटों बाद झमाझम पानी गिरने लगा। लगता है, बस घर में बैठकर इस अद्भुत दृश्य का आनंद लीजिए और अवसर मिलने पर सपना टाउन के झरबेरा एवेन्यू में स्थित अपने आवास के आसपास की लेन्स में ही चहलकदमी कर प्रातःभ्रमण की पूर्ति कर लीजिए। एक बड़ी अच्छी बात कि यहाँ लेन्स के नाम पुष्पों के नाम पर रखे गए हैं, जैसे—मोगरा लेन, जैसमीना व जूली लेन, सदाफुल्ली लेन। इसी लेन में प्रभात का आवास भी था। एक और अच्छी बात, जो मुझे अच्छी लगी कि घरों के नाम शक्ति रूपा देवियों के नाम से जाने जाते हैं, जैसे—महालक्ष्मी आवास, गौरा आवास, शारदा आवास, महागौरा आवास। आज का दिन भी ऐसे ही व्यतीत हो गया। वर्षा शिमला की भी देखी थी, पर यहाँ की वर्षा तो जैसे विश्राम करना ही भूल गई हो, बस सीमा पर तैनात प्रहरी की भाँति दिन-रात अपनी ड्यूटी पूरी करने में ही आनंदित होती रहती हो।
अगली प्रात: भी वर्षा का वही हाल, पर प्रात:भ्रमण के समय हम दोनों अपने-अपने छाते लेकर सपना टाउन से बाहर निकल आए। मुख्य मार्ग आ गया तो अपने बाएँ चल पड़े। थोड़ा सा चलने पर ही सड़क के दूसरी ओर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—‘अयप्पा मंदिर’। उत्सुकता हुई, मार्ग पार कर दूसरी ओर चले गए। लगभग एक फर्लांग की चढ़ाई थी, मंदिर के मुख्य द्वार तक जाने के लिए बढ़ते गए। सामने आ गया मंदिर का द्वार, पर बंद था, उसके एक ओर लिफ्ट थी, वर्षा से बचने के लिए वहीं घुस गए। अब घर वापसी की सोच ही रहे थे, तभी मंदिर कमेटी के एक भक्त-सदस्य आए, उन्होंने लिफ्ट के द्वार खुलवाए और हमें ले गए मंदिर-परिसर में। मंदिर का परिसर काफी बड़ा व विस्तृत था। मध्य में मुख्य मंदिर, जिसमें ‘कार्तिकेय’ की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर की परिक्रमा की दीवारों पर बाहर एक सौ आठ दीपक लगे थे, जिन्हें विशेष अवसरों पर या किसी भक्त द्वारा कराए गए किसी विशिष्ट आयोजन पर ही प्रज्वलित किया जाता है। हर शनिवार को विशेष पूजा संपन्न होती है, जिसमें हवन-पूजन आदि होता है। नारियल की जटाओं से बनी सामग्री का भी प्रयोग होता है। हम थोड़ी देर ही वहाँ रुके और वापस लौट आए।
वर्षा की निरंतरता अद्भुत थी। वर्षा अभी भी हो रही थी, फिर मध्याह्न में भोजनोपरांत लगा कि थोड़ा विश्राम करने लगी। बस जल्दी से गाड़ी में बैठ गए, वहाँ के मुख्य मंदिर मंगेशी के दर्शन हेतु पहुँच गए। ‘मंगेशी’ ग्राम में स्थित मंगेशी मंदिर, जो भगवान् शिव को समर्पित है। शिव का ही एक नाम ‘मंगेश्वर’ भी है। इस ग्राम से एक और नाम जुड़ा है, जो सबका चिरपरिचित है। जब अकबर के दरबार के नवरत्नों की बात होती है तो ‘तानसेन’ की भी, जो अपने सुरों से प्रकृति को भी वैसा करने के लिए विवश कर देते थे, जैसा वे चाहते थे। वे सुरसाधक ही नहीं अपितु उसके पोषक भी थे। अर्जुन अपने एक बाण से धरा की गहराई से जल की धारा लाकर अपने पितामह को जलपान करा सकते थे, वैसे ही सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर, जिन्होंने न केवल हमारे सिने-जगत् को लाभान्वित किया अपितु लाखों हृदयों पर अपने सुरों से राज किया है, उन्हीं ‘लताजी’ की जन्मस्थली, कार्यस्थली व पुण्यस्थली मंगेशी ग्राम में स्थित यह ‘मंगेशी मंदिर’ सबकी आस्था का पुंज बन गया है। विशाल परिसर को घेरे इस मंदिर में सात मंजिला गुंबद सबके मन को मोह लेता है। मुख्य मंदिर के पीछे की ओर परिक्रमा के साथ शिव-परिवार के अन्य सदस्यों की प्रतिमाएँ स्थापित की गई है। इस मंदिर में दर्शकों, भक्तों व पर्यटकों का जमावड़ा प्रतिदिन वहाँ लगता है। गरमी हो, सर्दी हो, बरसात हो, आस्था का सैलाब उमड़ा ही रहता है। हाँ, मंदिर-दर्शन के लिए पुरुष वर्ग को पैंट अथवा लुंगी पहनना आवश्यक है। लुंगी वहीं बाजार में किराए पर उपलब्ध हो जाती है।
मंदिर से बाहर आए, मुख्य द्वार की सीढ़ियाँ उतरे तो बाईं ओर भूतल से भी नीचे जलाशय जैसा आयताकार आकार में चारों ओर की दीवारों में बड़े-बड़े आलय बनाए गए हैं, जिनमें अनेक देवी-देताओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। मुख्य द्वार के सामने के मार्ग पर विभिन्न वस्तुओं के विक्रेता दोनों ओर विराजित थे। वे भी दर्शकों व पर्यटकों को लुभाते ही हैं। वर्षा रानी ने पहले ही अच्छी तरह स्नान कराया हुआ था, फिर भी उन वस्तुओं पर भी एक विहंगम दृष्टि डालते हुए गाड़ी में आ बैठे। मंगेशी परिसर में कुछ तसवीरें भी लीं और उसके आकर्षण से मुँह मोड़कर चल दिए अपने आश्रय-स्थल की ओर।
अगले दिन पुनः उसी मौसम में गाड़ी में बैठे और पुत्तर ने गाड़ी को पुराने गोवा की ओर मोड़ दिया। पुराना ‘गोवा’ पहुँचे। गुरद्वारा आया, वहीं गाड़ी पार्क की, दूसरी ओर स्थापित ‘वायसराय आर्क’ देखने चले। यह १५९९ में पुर्तगालियों की जीत के प्रतीकस्वरूप बनाया गया था। १९५४ में इसका पुनर्निर्माण कराया गया। यहीं मांडवी नदी भी प्रवाहित हो रही है, जिसके चौड़े पाट को देखकर नर्मदा व ब्रह्मपुत्र की याद बरबस आ जाती है। सब ओर हरियाली का साम्राज्य है, विशेष रूप से नदी के किनारों पर तो पूर्णरूपेण ही। लंबे-ऊँचे नारियल के वृक्ष शान से खड़े-खड़े भी गगन से मिलने का प्रयास करते से प्रतीत होते हैं। मांडवी नदी के दूसरे तट पर जाने के लिए ‘फैरी’ का सरकारी प्रबंध है। ‘फैरी’ नदी पार कराने का एक ऐसा साधन, जिसमें आप अपने दुपहिया व चौपहिया वाहनों को भी सरलता से ला-ले जा सकते हैं, जिससे दूसरी ओर निर्मित स्थानों का भी भ्रमण किया जा सकता है। एक प्रकार का छोटा जलयान। हम गाड़ी तो गुरुद्वारे के समीप ही छोड़ आए थे, फलतः स्वयं ही उसमें सवार हो गए और निहारने लगे मांडवी के विस्तार को, उसमें उमड़ती-घुमड़ती लहरों को, आकाश से पड़ता पानी उस दृश्य को और भी आकर्षक बना रहा था। उस दृश्य की दिव्यता व भव्यता को शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए अत्यंत कठिन है। मैं तो निःशब्द, निर्विचार; हाँ, ‘प्रसाद’ की कामायनी की यह पंक्ति अवश्य मानस-पटल पर अंकित हो रही थी या यों कहूँ कि मेरी अनुभूति कुछ वैसी ही हो रही थी—‘एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था जल-प्रवाह।’ उस ‘फैरी’ में बिना वाहन वाले हम जैसे पाँच-दस ही यात्री थे, शेष सब वाहनों के साथ थे। कब दूसरा तट आ गया, पता ही नहीं चला, जब वाहन उतारे जाने लगे तो मुझे ज्ञात हुआ कि हम दूसरे तट पर पहुँच गए हैं। इस बीच कुछ तसवीरें भी बच्चों ने खींच ली थीं। उसी ‘फैरी’ से हम अपने पूर्व तट पर ही आकर उतरे। ‘वायसराय आर्क’ से आगे बड़ा सा उद्यान था, उसी ओर बढ़ गए। यहाँ एक गिरजाघर व बादशाह आदिलशाह का दरबारी हॉल है तथा महल का मुख्य द्वार भी। महल के भव्य-भवन को पुर्तगालियों ने अपना आवास बना लिया था। उसके बाद समारोह स्थल के रूप में भी उसका उपयोग होता रहा। शेष बचे द्वार में बसाल्ट-पत्थर के दो स्तंभ हैं। इसके लिंटर के साथ पत्थर की जाली है, जो जटिल नक्काशी का अप्रतिम उदाहरण है। उद्यान-परिसर में कई मुँह बोलती, जीवंत सी पाषाण-प्रतिमाएँ स्थापित हैं, कुछ पक्षियों की प्रतिमाएँ भी हैं। इस आकर्षक परिवेश में भी कुछ तसवीरें लीं। एक ओर छोटा सा मंदिर भी स्थापित है। अब यहाँ खनन व नव-निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इन सब दृश्यों को मीठी-मीठी अनुभूतियों को समेटे गाड़ी में बैठ गए और चल पड़े अपने आश्रय-स्थल की ओर। मार्ग लंबा था, तिस पर मार्ग के दोनों ओर झूमती, इठलाती वनराजि सबका अभिनंदन करती सी प्रतीत हो रही थी। पानी का वर्षण वनराजि के आनंद को द्विगुणित करता प्रतीत हो रहा था। उमंगित, उल्लसित, हर्षविभोर सी वनराजि से अातिथ्य ग्रहण करते हुए अपने आश्रय-स्थल पर पहुँच गए।
आज एक ‘बीच’ की ओर चल पड़े। बीच का आकर्षण भी इतना होता है कि चाहे अापने कितने भी ‘बीच’ देख लिये हों, फिर भी समुद्र की उछलती-दौड़ती लहरें निमंत्रण देती सी प्रतीत होती हैं। मौसम अनुकूल नहीं था, फिर भी हम जैसे सिरफिरे उत्साही लहरों के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए उनकी ओर बढ़ रहे थे। पर मैं अवश्य उसमें सबसे पीछे थी। एकाएक तीव्र गति से वर्षण और वायु आई, लहरें भी दौड़ती हुई तट की ओर चलीं, तब सभी उत्साही आगंतुक उलटे पैर दौड़े, हम भी उस दौड़ में भागीदार बने। एक-दो दुकानों पर विचरण करते अपनी गाड़ी में आ बैठे और चल दिए अपने आवास की ओर। सर्वप्रथम नित्य की तरह सबने अपने गीले वस्त्रों को उतारकर सूखे, वस्त्र धारण किए, फिर चाय की चुस्कियाँ लीं।
अगले दिन हमें ‘पटियाला’ वापस आना था, अतः प्रातः से ही वह प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। फलतः मनोहर परिकर विमानपत्तन की ओर प्रस्थान किया। यह भी प्रभात के आवास से डेढ़-दो घंटे की यात्रा संपन्न करने पर आता है, उसी हिसाब से घर से चल पड़े। विलक्षण भी अपने दादी-दादा को सी-ऑफ करने आया था, दरअसल उसे भी अपने ‘बिट्स पिलानी, गोवा’ के हॉस्टल जाना ही था। उड़ान निर्धारित समय से आधा घंटा विलंब से आरंभ हुई, फलतः दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय विमान तल पर भी विलंब से ही उतरे। वहाँ से सामान लेकर जब बाहर आए तो ज्ञात हुआ कि हम भूतल पर हैं और टैक्सी वाले भैया सर्वोच्च तल पर। उनका भूतल पर आना कठिन था, अत: हमें ही उनके पास जाना पड़ा। रात्रि में लगभग ९ बजे अपने घर आ गए। बढ़ती जनसंख्या व वाहनों की बढ़ोतरी ने हर चौराहे पर १०-१५ मिनट प्रतीक्षा कराई। पर इस अल्प समय में ही ‘गोवा’ को जितना देख व समझ पाए, वह सब मैंने आपके लिए प्रस्तुत कर दिया।
यहाँ का व्यक्ति धार्मिक है, आस्थावान है, आस्तिक है। घर-घर पूजाघर हैं। ‘तुलसी’ का मंदिर तो विभिन्न आकार-प्रकार का सभी ने अपने घरों में सजाया है, जिसकी नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। छोटे-मोटे देवालयों की गणना कठिन है। गिरजाघर भी बहुतायत में हैं। एक बड़ा सा गिरजाघर हमारे आवास से थोड़ी ही दूरी पर था, जहाँ हम प्रात:भ्रमण के समय कभी-कभी पहुँच जाते थे।
मुझे ऐसा अवश्य लगा कि जिन बाह्याडंबरों पर कबीरजी ने चोट की थी, वे आडंबर यहाँ आज भी विद्यमान हैं। वैसे लोग सीधे-सरल और आस्थावान हैं।
इन्हीं सब अनुभूतियों को समेटे हुए वहाँ के नारियल के वृक्षों को याद करते हुए पुनः ‘गोवा’ आने का आश्वासन देते हुए पहुँच गए अपने पटियाला।
२८-बी, प्रेमनगर, भादसों रोड,
पटियाला-१४७००१ (पंजाब)
दूरभाष : ९४१७०८८४६६