लेखक, चित्रकार और फिल्मकार। अब तक (काव्य-संग्रह) अनछुआ ख्वाब, मेरे प्रिय, कैनवस पर धूप; (कहानी-संग्रह) रात पहेली, कुछ पन्ने इश्क, (उपन्यास) लव ड्रग, चौबीस छत्तीस जीरो वन इत्यादि प्रकाशित। फिल्ममेकर के रूप में पाँच शॉर्ट फिक्शन फिल्म्स। बॉलीवुड में पटकथा लेखन। चित्रकार के रूप में दस एकल प्रदर्शनियाँ। चंदबरदाई युवा रचनाकार पुरस्कार, प्राउड डॉटर ऑफ इंडिया, सरोजनी नायडू अवार्ड, स्त्री शक्ति पुरस्कार प्राप्त।
ढ़े तीन सौ वर्ग गज पर बना चटक पीले रंग का ‘सरला सदन’ गली में दूर से ही नजर आता था। सरला सदन में बुजुर्ग तिवारी दंपती—केशव और सरला रहते थे। पोर्च में सफेद मारुति आॅल्टो खड़ी रहती थी, जिसे बरसों पुरानी पद्मनी प्रीमियर बेचकर अभी हाल में ही खरीदा गया था। पर गाड़ी चलानी दोनों में से किसी को नहीं आती थी, जब भी कहीं जाना होता, फोन करके जानकार ड्राइवर को बुलाया जाता, जो एक बार के दो सौ रुपए लेता था।
केशव तिवारी लंबी-चौड़ी कद-काठी के आदमी थे, उनकी बाईं आँख के नीचे मोटा सा एक मस्सा था, जिसे वे अपने खानदान की निशानी मानते थे, क्योंकि उनके चारों भाइयों के बाएँ या दाएँ गाल पर ठीक ऐसे ही मस्से थे। उनके मुँह अकसर जर्दे से भरा रहता और सरला की हर बात का वे ‘हु, हु’ करके जवाब देते। जब बोलना बहुत जरूरी हो जाता, तब वे पास रखी छोटी प्लास्टिक की नीली बाल्टी में जर्दा थूकते थे। तिवारीजी को रिटायर्ड हुए चार साल हो चुके थे। वे सिंचाई विभाग में अभियंता रहे थे। अकसर ही वे घर में आए मिस्त्री या मेकैनिक पर अपने इंजीनियर होने की धौंस जमाते, उन्हें ज्ञान देने लगते—
“सुनो भाई, मैं इंजीनियर हूँ, यह काम ऐसे होगा, ऐसे नहीं, जैसे तुम कर रहे हो।”
कई बार तो कोई गरम-दिमाग मिस्त्री तैश में आकर बोल देता—
“बाबूजी, आप सब जानते ही हो तो हमें काहे बुलाए? खुद ही रिपेयर कर लेते!”
कोई नया मेहमान गलती से अगर यह पूछ लेता—“अंकल, आप तो इंजीनियर रहे थे न?”
तो उसे लंबा लैक्चर सुना देते—
“रहे थे? रहे थे, से क्या मतलब है? मैं आज भी इंजीनियर हूँ, वंस इंजीनियर इज ऑलवेज इंजीनियर!”
सरला तिवारी दुबली-पतली, छोटी भूरी आँखों वाली खूबसूरत महिला थीं, हर हफ्ते मेहँदी लगाने की वजह से उनके बाल नारंगी-कत्थई से हो गए थे। जीवन में कभी ब्यूटी पार्लर नहीं गई थीं, पर अब उम्र के बढ़ते असर को देखते हुए उन्होंने साथी टीचर्स की सलाह पर कभी-कभार फेशियल–मसाज करवाना शुरू किया था। वे सरकारी कॉलेज में फिजिक्स लैक्चरर थीं, रिटायरमेंट को दो साल बचे थे। घर के आगे वाली १२ फीट की जगह पर सरला ने बड़ी मेहनत से कॉलेज और आसपास के घरों से माँगे और कुछ चुराए गए पौधों से बगीचा बना रखा था। अड़ोस-पड़ोस से उन्हें ज्यादा मतलब नहीं रहता था। उनका सारा समय कॉलेज, बगीचे और घर को सजाने-सँवारने में बीतता था। सुबह-सुबह ही घर से सरला की बड़बड़ाने की आवाज आने लगती थी, आवाज के साथ बरतनों की खड़खड़ाहट का तालमेल ऐसा होता था कि किसी भी हुनरमंद संगीतकार को भी पीछे छोड़ दे!
जब से तिवारीजी रिटायर हुए थे, सरला की जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं। सुबह उन्हें कॉलेज जाने की जल्दी रहती और तिवारीजी की फरमाइशें शुरू हो जातीं। खाने में दो सब्जियाँ, रायता, सलाद और कुछ मीठा तो जरूर हो। बीच में खाना बनाने वाली भी रखी थी, पर उसका बनाया खाना तिवारीजी को पसंद नहीं आता था, इससे पहले कि वे उसे अलविदा कहते, तिवारीजी की मीनमेख से परेशान हो उसने खुद ही काम छोड़ दिया। और मदद के नाम पर तिवारीजी बस सलाद ही काटते थे।
“पूरी जिंदगी बस खाना-खाना, मैं कॉलेज जाऊँ या तुम्हारे लिए छत्तीस भोग बनाऊँ? अब बुढ़ापे में तो थोड़ा सुधर जाओ, वजन देखो अपना आसमान छू रहा है। सुबह उठकर थोड़ा घूम आया करो, थोड़ा हिलाया करो इस बेडौल शरीर को।”
सुबह से दोनों में नोक-झोंक शुरू हो जाती, जब तक वे कॉलेज में रहतीं, युद्ध विराम रहता, वापस आते ही फिर महाभारत चालू!
तिवारीजी नीली बाल्टी उठाकर पहले मुँह का जर्दा उसमें खाली करते, फिर बोलते—
“मास्टरनी से तो कभी शादी नहीं करनी चाहिए।”
मास्टरनी शब्द सुनते ही सरला मैडम के खून में उबाल आ जाता—
“मास्टरनी? फिजिक्स की लैक्चरर हूँ, कोई प्राइमरी टीचर नहीं, क्लास वन ऑफिसर का पे स्केल है मेरा। तुमने तो कभी अपनी नौकरी ढंग से की नहीं, वरना आज चीफ इंजीनियर से रिटायर होते!”
इस बात को सुन तिवारीजी और भड़क जाते थे, चीफ इंजीनियर न बन पाना उनकी दुखती रग थी, जिसे सरला समय-समय पर दबाती रहती थीं। तिवारीजी और उनकी मैडम दोनों के स्वाभाव में जमीन-आसमान जितना अंतर था, बस एक बात जो उन्हें जोड़ती थी, वह था उनका दुःख!
उनके इकलौते बेटे आकाश की दो साल पहले एक रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई थी। जब भी आकाश का जिक्र आता, दोनों कहासुनी भूलकर गम के सागर में उतर जाते और एक-दूसरे को डूबने से बचाने की कोशिश में दो-चार दिन उनकी खटपट कम हो जाती। सारा घर वीरान हो जाता। आकाश की मौत के बाद उसकी आदमकद तसवीर उन्होंने अपने कमरे में लगवा ली थी। दोनों चुपचाप उस तसवीर को देखते हुए आँसू बहाते रहते।
आकाश शक्ल-सूरत में अपनी माँ पर गया था। सरला अकसर कहती थीं—“जो लड़के माँ पर जाते हैं, वे बहुत भाग्यशाली होते हैं।”
आकाश भी अपने पिता की तरह इंजीनियर था। आई.आई.टी. रुड़की से बी.टेक. करने के बाद वह अच्छे पैकेज पर न्यूयॉर्क चला गया था। साल में दो बार भारत आता था, उसके आने से पहले घर में उत्सव जैसी तैयारी शुरू हो जाती थी। सरला हफ्ते भर की छुट्टी ले लेतीं, आकाश का कमरा विशेष रूप से सजाया जाता। आकाश के न्यूयॉर्क जाने पर तिवारीजी ने इसे स्टडी रूम बना लिया था, पर उसके आने से दस दिन पहले ही रूम में उनकी एंट्री बंद कर दी जाती। सरला बहुत धार्मिक थीं, आकाश के आने पर सुंदरकांड या सत्यनारायण की कथा जरूर रखती थीं। आकाश तो घोर नास्तिक था, शुरू में विरोध करता था, पर बाद में माँ की इच्छा को देखते हुए खुद ही पूछ लेता—
“मम्मी! इस बार हनु या सत्या?”
आकाश बहुत सहज, सरल लड़का था। पहाड़ी नदी में बरसाती बाढ़ की तरह अब उसके रिश्ते आ रहे थे, पर आकाश सबको मना कर देता था। उसका कहना था कि शादी पैंतीस के बाद ही करेगा, ताकि पहले जिंदगी के सब आनंद ले सके!
सरला अकसर भुनभुनातीं—“मैं पहले ही कहती थी कि अमेरिका जाने से पहले अक्की की शादी कर दो, मगर तुमने कभी सपोर्ट नहीं किया, बत्तीस का हो जाएगा इस साल और फिर भी हर लड़की में खामी निकालता रहता है।”
तिवारीजी बिना कोई जवाब दिए सुडूकू भरने में लगे रहते...अपनी बात को अनसुना होते देख सरला जोर से चिल्लाती—“सारा टाइम सुडूकू सुडूकू...घर की प्रॉब्लम्स से कोई मतलब ही नहीं तुमको, कल से अखबार का सुडूकू वाला पन्ना ही फाड़ दूँगी, लड़का बूढ़ा हो रहा है, मुझे तो डर है, कहीं कोई विदेशी लड़की न उठा लाए!”
“विदेशी लड़का भी तो ला सकता है, आजकल गे मैरिज भी होने लगी हैं अमेरिका में!” कहते हुए तिवारीजी हो-हो करके हँसने लगते।
यह सुनकर सरला मुँह बिचकाकर क्वांटम फिजिक्स की मोटी किताब इस तरह उठातीं, मानो अभी उनके सर पर दे मारेंगी! फिर बैठक की तरफ बढ़ जातीं, यहीं पर रोज शाम चार से सात वे ट्यूशन बैच लेती थीं।
उन्हें तिवारीजी का सारे दिन मुँह में जर्दा दबाए हुए सुडूकू भरना और टी.वी. देखना बिल्कुल नहीं सुहाता था, कई बार बोलतीं—“कहीं कंसल्टेंट इंजीनियर की जॉब कर लो या घर पर ही ऑफिस शुरू कर लो, कुछ पैसे आएँगे तो अच्छा ही होगा न! सारा दिन जुगाली करते हुए टी.वी. में आँखें फोड़ते हो, कितना बिल आता है बिजली का!”
“फील्ड जॉब था मेरा, बरसों धूप में तपा हूँ, मास्टरों की तरह आराम की जॉब तो थी नहीं कि चार-पाँच घंटे टाइम पास करो और महीने-के-महीने मोटी तनख्वाह...अब मुझसे मेहनत नहीं होगी, मरने तक अब खूब आराम करना चाहता हूँ।”
“आराम ही किया है आपने। नौकरी कब की ढंग से? आधे टाइम तो मेडिकल ले लिया, वरना आज चीफ इंजीनियर से रिटायर होते...अगर मैं जॉब में नहीं होती तो आज भी किराए के मकान में सड़ रहे होते।”
“मेरी ईमानदारी के चर्चे थे डिपार्टमेंट में। कभी एक पैसा नहीं खाया, न खाने दिया, तभी तो...।”
“हाँ, तभी तो उम्मेद सिंह आपको पीटने आ गया था!” सरला ने बीच में बात काट दी।
“उम्मेद को बाद में अपनी गलती का अहसास हो गया था, सबके सामने पैरों पर गिर गया था और बोला था, तिवारी सर, आप तो खुदा के भेजे फरिश्ते हैं।”
“फरिश्ते...हुहुहु...” कहते हुए सरला बाहर गार्डन में पानी देने चली गईं।
इस बार उन्होंने अपने साथ ही पढ़ाने वाली केमिस्ट्री लैक्चरर विभा शर्मा की लड़की रेशम को आकाश के लिए पसंद किया था। लड़की रेशम की तरह ही खूबसूरत और नाजुक थी। हाल ही में उसने जे.आर.एफ. क्लियर किया था। पिता आई.ए.एस. ऑफिसर थे। भाई-भाभी दोनों डॉक्टर थे। इससे बेहतर रिश्ता आकाश के लिए हो ही नहीं सकता और पहली बार तिवारीजी भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत थे। कॉलेज की टीचर्स उन्हें छेड़ने लगी थीं—‘बस ये रिश्ता हो जाए तो केमिस्ट्री और फिजिक्स लैक्चरर्स के बीच सदियों से चली आ रही दुश्मनी रिश्तेदारी में बदल जाएगी और टीचिंग के इतिहास में एक नया चैप्टर लिखा जाएगा।’
आकाश इस बार एक महीने की छुट्टी लेकर आ रहा था। तिवारी दंपती ने सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए, इस बार आकाश और रेशम की शादी करवा ही देंगे। सरला ने एक-दो बार रेशम के नाम का इशारा भी कर दिया था। वैसे आकाश कॉलेज टाइम से रेशम को जानता था, वे सोशल साइट पर दोस्त भी थे, अकसर उनकी चैटिंग भी हो जाती थी। तो सरला को पूरी उम्मीद थी कि आकाश इस बार ‘न’ नहीं कर पाएगा।
उन्होंने तो शादी की शॉपिंग भी शुरू कर दी थी। घर में रंग-रोगन करवाया गया। नए परदे सिलवाए गए, पुराने फर्नीचर को नया करवाया गया। तैयारियाँ जैसे युद्ध स्तर पर थीं। तिवारीजी कंजूस आदमी थे, उन्हें यह सब फालतू लगता था, पर सरला उनकी एक नहीं चलने दे रही थीं, वे अपने घर को दुलहन की तरह सजाना चाहती थीं।
आकाश को आने में पंद्रह दिन रह गए थे। एक दिन आकाश का स्काइप पर कॉल आ रहा था। तिवारीजी ने सरला को आवाज दी। दोनों पति-पत्नी बड़े प्यार से लैपटॉप सामने रखकर सोफे पर पसर गए। उनकी जब भी स्काइप पर बात होती थी, लंबी होती थी। सरला तो लैपटॉप उठाकर कभी रसोई में ले जाती, कभी नए परदे दिखातीं। स्क्रीन पर उसके साथ एक गोरी-चिट्टी फिरंगी लड़की को देख दोनों चौंक गए। आकाश ने झिझकते हुए परिचय करवाया—“पापा-मम्मी, यह आपकी बहू है एलिना! मेरे साथ ही काम करती है, पहले सोचा, आपको इंडिया आकर ही सरप्राइज देंगे, फिर मुझे लगा, पहले बता देना ठीक रहेगा!”
एलिना गुलाबी रंग का सलवार-कुरता पहने थी, उसने सिर झुकाकर ‘नमस्ते’ बोला। सरला अवाक् रह गई, आकाश इतना बड़ा हो गया कि उसने बिना बताए शादी भी कर ली और वह भी एक विदेशी से! वह आपा खो बैठी और गुस्से में रोने-चिल्लाने लगीं।
तिवारीजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया था—“तुमने एक बार भी हमसे पूछने की जरूरत नहीं समझी, ऐसी मतलबी औलाद से तो हम बेऔलाद ही ठीक होते!”
“पापा प्लीज...! आप समझने की कोशिश करें, मैं एलिना से बहुत प्यार करता हूँ और मुझे पता था कि आप और मम्मी मेरी शादी उससे होने नहीं देंगे, बहुत प्यारी लड़की है, इस बार मैं उसे लेकर आ रहा हूँ, तब आप...” सरला उसकी बात काटते हुए बोली, “कोई जरूरत नहीं यहाँ आने की...तुम वहीं रहो इस अमेरिकन के साथ, हमारी चिता को आग भी पड़ोसी ही दे देंगे!”
और लैपटॉप का फ्लैप गिरा दिया।
दोनों पति-पत्नी सिर पकड़कर बैठ गए। उनके सारे सपने ताश की इमारत की तरह ढह गए। कई दिन इसी गुस्से और दुःख में बीत गए। उसके पैदा होने से आज तक उन्होंने लाखों उम्मीदें उससे जोड़ी थीं, वे उसके लिए जीते थे। आकाश के इस कदम से उनका दिल टूट गया। इतना सीधा-सादा और आज्ञाकारी दिखने वाला उनका लड़का बिना बताए शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसला ले लेगा, यह वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे।
इस बीच विभा कई बार आकाश के बारे में पूछ चुकी थी। सरला की उन्हें सच बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आकाश के आने की तारीख भी बीत गई। वह नहीं आया और न ही उसने कोई फोन किया। किसी जरूरी कारण से छुट्टियाँ कैंसिल हो गईं, ऐसा कहकर वे लोग सबको टालते रहे।
माँ-बाप का दिल कब तक पत्थर बना रहता? आखिर उन्होंने ही आकाश को फोन मिलाया, पर उसका फोन स्विच ऑफ आ रहा था। दो-तीन दिन तक जब यही हुआ, तब उन्होंने उसके ऑफिस और इंडियन एंबेसी में पूछताछ की।
“आकाश इस नो मोर।” उधर से सूचना मिली।
इन चार शब्दों ने उन्हें गहरी खाई में धकेल दिया। आकाश की दस दिनों पहले ही एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी और उसकी पत्नी एलिना ने उसका अंतिम संस्कार भी कर दिया था। वे दोनों बिखर गए, आखिरी बार अपने बच्चे को देख भी न सके। जिंदगी उनके साथ इतनी क्रूर हो जाएगी, इसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। जैसे बसे-बसाए सुंदर शहर पर किसी ने बुलडोजर चला दिया हो। दोनों हर समय खुद को कोसते रहते—“कितने कड़वे शब्द बोले हमने आकाश को! कितना दर्द अपने अंदर लेकर गया होगा आकाश! वह शादी कर ले यही तो चाहते थे न, फिर क्यों इतनी नफरत से भर गए उसके एलिना से शादी करने पर? जिंदगी तो उन दोनों को ही साथ बितानी थी, पर भगवान् जानता है, हम बस उससे नाराज थे, उसे कभी मर जाने की बद्दुआ नहीं दी थी।”
सैकड़ों बातें उनके दिलो-दिमाग में तूफानी लहरों की तरह टकरातीं तो, इतनी बेचैनी होती कि साँस लेना दूभर हो जाता। वे एलिना से मिलना चाहते थे। उन्होंने उससे बात करने को फोन किया, तो एलिना ने बोला—“बोथ ऑफ यू आर कलप्रिट्स। यू हैव किल्ड माय हस्बैंड। आई हेट यू...डोंट कॉल मी एवर।”
वक्त बीतने लगा, पर कुछ जख्म कभी नहीं भरते, वे रिसते रहते हैं और ज्यादा बीमार कर देते हैं। बाहर का गार्डन सूखने लगा था। सरला का वक्त तो किसी तरह कॉलेज और स्टूडेंट्स के बीच गुजर जाता। पर तिवारीजी डिप्रेशन में चले गए, पूरा दिन बिस्तर पर लेटे रहते। कभी-कभार थोड़ी नींद आती तो कभी आकाश की कब्र नजर आती, कभी आकाश रोता हुआ नजर आता। वे नींद में हँसने-रोने लगते। उन्हें मनोचिकित्सक को दिखाना पड़ा, मुट्ठी भर-भर दवाइयाँ लेते, पर मन से अपराध-बोध न जाता। वे इस तरह छटपटाते, जैसे उनको कालकोठरी में बंद कर दिया गया हो, वे राेशनी देखना चाहते थे।
दो साल बड़ी तकलीफ में गुजरे, धीरे-धीरे ‘तिवारी होम वॉर’ फिर शुरू हो गई, फिर से सुडूकू वाला पन्ना गायब हो जाता या टी.वी. का रिमोट अंडरग्राउंड कर दिया जाता, जर्दे की पुड़िया छुपा दी जाती। सुबह-सुबह उठा-पटक राग चालू हो जाता। मन-ही-मन दोनों को यह आकाश के दुःख से भागने का सबसे कारगर उपाय लगता था।
कुछ दिनों पहले तिवारीजी ने एक अजीब आदत डाल ली थी। नहाने के बाद वे अपने चड्डी-बनियान पानी में निचोड़कर घर के मेन गेट पर सुखाने को टाँग देते। जब सरला कॉलेज से लौटती तो लोहे के बड़े से गेट के भालों पर नीले पट्टे वाली चड्डी और मटमैली सफेद बनियान देख उनका मूड खराब हो जाता। वे चिड़चिड़ाते हुए उन कपड़ों को उतारती और बैडरूम में तिवारीजी के सामने गुस्से में पटक देतीं—
“कितनी बार कहा है कि अपने चड्डी-बनियान गेट पर झंडे की तरह मत टाँगा करो, घर में दो-दो तार लगे हैं कपड़े सुखाने को!”
“अरे यार, उधर तुम्हारे पौधों ने सारी धूप रोक रखी है, धूप में सुखाने पर कीटाणु मरते हैं।”
“हाँ-हाँ...सारे कीटाणु तुम्हारे कपड़ों में ही हैं, इतनी धूप चाहिए तो छत पर सुखाओ और सौ बार कहा है कि वाशिंग मशीन में डाल दिया करो। पानी से धोने से मैल नहीं निकलता, रंग ही बदल गया है कपड़ों का, सफेद बनियान पीली नजर आती है।” पर तिवारीजी ठहरे मस्तमौला, हमेशा अपने मन की करते थे। तो जब भी मैडम कॉलेज से लौटती, पट्टे वाली चड्डी और बनियान गेट के भालों पर ही टँगी हुई उन्हें मुँह चिढ़ाती हुई दिखती।
“पता नहीं तुम्हें कौन सी भाषा में समझाऊँ? पड़ोसी, ट्यूशन वाली लड़कियाँ, सब हँसते हैं। अगर मैं अपने अंडर गारमेंट्स भी गेट पर टाँगने लगूँ तो कैसा लगेगा तुम्हें?”
“अरे बेगम! इससे पता लगता है कि घर में एक मर्द रहता है। गली में कोई तुम्हें छेड़ने की हिम्मत नहीं करेगा।”
“अब बुढ़ापे में कौन छेड़ेगा मुझे?” बड़बड़ाती हुई सरला कपड़े समेटने लगतीं।
एक दिन तिवारीजी नहाने के बाद अपने चड्डी-बनियान सुखाने मेन गेट की तरफ गुनगुनाते हुए बढ़ रहे थे। तभी अचानक उनका पैर फिसला और धम्म से जमीन पर गिर गए। घर पर कोई नहीं था, उनकी दर्द से चिल्लाने की आवाज सुनकर सामने रहने वाले आहूजा साहब ने आकर किसी तरह उन्हें उठाया और उनकी ही ऑल्टो में डालकर अस्पताल ले गए। तिवारीजी की कमर की हड्डी टूट गई थी।
किस्मत जैसे पूरी तरह से दुश्मनी पर उतर आई थी, तिवारीजी की हड्डी क्या टूटी, जैसे घर की रीढ़ चरमरा गई! अचानक सब बिखर गया हो मानो!
कई दिनों तक रिश्तेदारों और दोस्तों का आना-जाना लगा रहा। तिवारीजी का मझला भाई रामफल तिवारी तो अपने बड़े लड़के विक्रम के साथ रोज आने लगा। विक्रम बिल्डर था और वह काफी समय से मकान पर नजर गड़ाए बैठा था। वह पहले भी कई बार इस जगह को बेच मल्टीस्टोरी बनाने की बात तिवारीजी को कह चुका था। एक दिन फिर हिम्मत कर बात छेड़ दी—“ताऊजी, आकाश तो अब रहा नहीं और ताईजी भी अगले साल रिटायर हो जाएँगी, इतने बड़े घर की क्या जरूरत है? यहाँ आराम से आठ २-बी.एच.के. फ्लैट्स निकल आएँगे...।”
“विक्रम सही बोल रहा है केशु भाई साहब, मौके की जगह है। ग्राउंड फ्लोर पर आप और भाभीजी रहना, बाकी फ्लैट हाथो-हाथ बिक जाएँगे।”
“इनकी ऐसी हालत है और आपको यहाँ बिल्डिंग बनाने की पड़ी है।” सरला रसोई से चिल्लाकर बोली।
“भाभीजी, आप बेकार में नाराज हो रही हैं, विक्रम और बहू यहीं आपके पास रह कर आपकी सेवा कर लेंगे, अब आकाश तो रहा नहीं।”
“रामू, हमें पता है कि आकाश नहीं रहा। पर हम अभी इतने लाचार नहीं हुए हैं, यह घर बेचने या मल्टीस्टोर बनाने का फिलहाल हमारा कोई मन नहीं है। बड़े प्रेम से मैंने और सरला ने यह घर जोड़ा है, आगे से इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता हूँ।” केशव तिवारी कठोरता से बोले।
रामफल और विक्रम का चेहरा लटक गया। थोड़ी देर में वे खिसियाए हुए से निकल गए।
बेटे के न रहने का गम, रिश्तेदारों की लालची आँखें और तिवारीजी की ऐसी हालत, सरला की हिम्मत टूटने लगी थी। उन्होंने कॉलेज से लंबी छुट्टी ले ली। अब वे दिन भर तिवारीजी के साथ बैठी रहतीं। तिवारीजी की फरमाइशों में सेंसेक्स की तरह भारी गिरावट दर्ज की गई थी। वे बहुत ज्यादा नरम स्वभाव के हो गए थे। अब जो खिलाओ खा लेते। सरला कोशिश में रहती, उनकी पसंद का खाना बनाए, वो उनके चेहरे पर हँसी देखना चाहती थीं। दोपहर में सरला उनके पास बैठकर स्वेटर बुनती रहती। रोज शाम को वे उनकी पसंद के नॉवेल का एक चैप्टर पढ़ के उन्हें सुनाती। तिवारीजी कई बार लेटे हुए सरला के बालों में तेल लगा देते। कभी बोलते—“लाओ मुझे सब्जी दे दो, मैं बैठे-बैठे काट देता हूँ, वैसे भी सारे दिन बिस्तर पर पड़ा रहता हूँ।”
तिवारीजी को बिस्तर पर दो महीने हो गए थे, पर अभी तक हड्डी जुड़ नहीं पाई थी। बिस्तर पर ही खिलाना, स्पंज बाथ करवाना, रात को डायपर पहनाना, सारे काम सरला ने अपने जिम्मे ले रखे थे।
हल्की सर्दियाँ शुरू हो गई थीं तो एक दिन सरला काम वाली बाई की मदद से तिवारीजी को व्हील चेयर में बिठाकर बाहर धूप में ले आई, तिवारीजी खुली हवा और धूप में अच्छा महसूस कर रहे थे। जब उनकी नजर तार पर सूख रहे अपने चड्डी-बनियान पर पड़ी तो चुटकी लेते हुए बोले, “अच्छा...सरला, तुमने मेरा ध्वज उतार दिया, एक बार मैं ठीक हो जाऊँ, फिर वही फहराऊँगा!” कहते हुए वे जोर से हँस दिए।
“मुझे इंतजार है कि कब तुम ठीक होकर अपनी हरकतों से मुझे इरीटेट करोगे, जिंदगी ठहर सी गई है केशव!” सरला की आँखों में नमी उतर आई।
अगले दिन सरला बाजार गई हुई थीं, ड्राइवर नहीं आया था तो सरला को ऑटो से ही जाना पड़ा। तिवारीजी लेटे-लेटे रिमोट से टी.वी. के चैनल बदल रहे थे। तिवारीजी जब ठीक थे तो बाहर के काम वही निपटा लेते थे। बाजार से आते वक्त सरला लल्लन हलवाई से केशव की पसंदीदा इमरती और समोसे भी लाई थीं। बाजार से आते ही सरला ने कॉफी बनाई, दो प्लेट्स में समोसे और इमरती सजा, मुसकराती हुई तिवारीजी के पास पहुँचीं। उस दिन तिवारीजी सुबह से ही बेचैन थे, तिवारीजी ने कॉफी मग एक तरफ रख उनका हाथ थाम लिया—
“सरला...तुम गाड़ी चलाना सीख लो, मैं तो शायद अब कभी नहीं सीख नहीं पाऊँगा।”
“ऐसा क्यों कह रहे हो? यह देखो, आज इमरती गरम हैं!”
“सरला, तुम मेरी माँ बन गई हो और मैं तुम्हें कभी कोई सुख नहीं दे सका।”
“ये कैसी बातें कर रहे हो? लो समोसे खाओ, ठंडे हो रहे हैं।”
“ये घर कभी मत बेचना...चाहे कोई कितना भी प्रेशर डाले, मुझे पता है कि तुम न होती तो यह घर भी न होता। तुम इस घर की लक्ष्मी हो सरला।” तिवारीजी जैसे उसकी बात सुन ही नहीं रहे थे, वे अपनी धुन में बोले जा रहे थे।
“हम नहीं होते तो यह घर नहीं होता, केशव! तुम्ही अब मेरे ‘आकाश’ हो। जल्दी ठीक हो जाओ, फिर हम कहीं घूमने चलेंगे, मेरा कॉलेज जाने का मन नहीं होता, पैंतीस साल नौकरी कर ली, बहुत हो गया।”
दोनों एक-दूसरे को देखते हुए देर तक खामोश बैठे रहे। कितना कुछ वे कहना चाहते थे, पर दर्द का लावा बह न निकले, इस डर से उसे किसी तरह चुप्पी से रोके हुए थे। दर्द उबल रहा था और कॉफी भी ठंडी हो गई थी।
“मैं कॉफी गरम करके लाती हूँ।” कहते हुए वे कप लिये रसोई की तरफ बढ़ गईं।
अपने-अपने आँसू पोंछने को दोनों को वक्त मिल गया था।
रात में तिवारीजी ने खाना नहीं खाया। उनका कहना था कि जी भर के समोसे और इमरती खा लिये। अब कुछ खाने की इच्छा नहीं कर रही। सरला ने थोड़ी सी खिचड़ी खाई और स्वेटर लेकर वहीं बैठ गईं।
“कल यह पूरा हो जाएगा,” तिवारीजी के सीने पर अधबुना स्वेटर लगाते हुए बोली।
“सरला, मुझे भी स्वेटर बुनना सिखा दो, मैं भी मरने से पहले एक स्वेटर तुम्हारे लिए बुनना चाहता हूँ।” तिवारीजी सरला के हाथ थामते हुए बोले।
“छी! मरने की बात मत करो!”
“ओके मैडम, स्वेटर बुनना तो सिखा दोगी न?”
सरला मुसकरा दी। आकाश की आदमकद तसवीर भी दीवार पर मुसकरा रही थी।
अगली सुबह सरला की नींद जल्दी खुल गई। वह नहाकर बगीचे में बैठकर स्वेटर बुनने लगीं। एक घंटे में स्वेटर पूरा हो गया। सूरज की सुनहरी रोशनी में स्वेटर का सुरमई रंग चमक उठा।
वे बहुत खुश थीं, जब चाय के साथ स्वेटर लेकर वे तिवारीजी को जगाने पहुँचीं, कंधे पर टँगा स्वेटर उन्होंने तिवारीजी के सीने पर रख दिया। दो-तीन बार आवाज देने के बाद भी वे उठे नहीं। तिवारीजी चिरनिद्रा में सो चुके थे। सरला स्तब्ध रह गईं। चाय का कप हाथों में लिये हुए वे तिवारीजी को पुकारती रहीं। फिर वे बेसुध हो उसी कप से चाय पीने लगीं। उनकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।
फिर अचानक जैसे सरला को कुछ याद आया, वे उठी और अलमारी से तिवारीजी के सारे चड्डी-बनियान निकाल कर बाथरूम में जाकर पटक दिया और उनको साबुन लगाकर रगड़-रगड़कर धोने लगीं। तिवारीजी की हड्डी टूटने के बाद से जो भी दर्द और आँसू उन्होंने रोक रखे थे, वे आज बेलगाम बह निकले, पूरे बाथरूम के फर्श पर झाग-ही-झाग था, पानी बाल्टी से लगातार बाहर बहता जा रहा था। उसके शोर में सरला के रोने की आवाज दब गई थी।
सरला सदन में आज भारी सन्नाटा पसरा हुआ है और मेन गेट के भालों पर तिवारीजी के चड्डी-बनियान पताका की तरह लहरा रहे हैं।
५०/२६, ‘सौभाग्य’,
सेक्टर-५, प्रतापनगर, सांगानेर,
जयपुर-३०२०३३ (राज.)
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