संस्कृत के ग्रंथों में एक कथा थी, जो उत्तर प्रदेश की संस्कृत की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाती थी। एक साधु ने जंगल में घाेर तपस्या की। कई वर्ष बीत गए थे। एक दिन पेड़ के नीचे बैठकर तपस्या कर रहे उस साधु पर चिड़िया की बीट गिरी तो साधु ने क्रोध में ऊपर पेड़ की तरफ देखा। साधु की नजर पड़ते ही चिड़िया जलकर भस्म हो गई। साधु को लगा कि उसकी तपस्या पूर्ण हो गई है। उसे सिद्धि प्राप्त हो गई है। वह तपस्या छोड़कर भिक्षा माँगने जंगल से बस्ती की ओर चल पड़ा। बस्ती में जाकर उसने एक घर के बाहर भिक्षा हेतु आवाज लगाई। भीतर से आवाज आई—आती हूँ। साधु प्रतीक्षा करने लगा। प्रतीक्षा में विलंब हुआ तो साधु मन-ही-मन परेशान होने लगा। कुछ देर पश्चात् घर की गृहिणी भिक्षा लेकर आई तो विलंब के कारण साधु ने गृहिणी को क्रोधित होकर देखा। गृहिणी बोली, ‘महाराज, मैं चिड़िया नहीं हूँ, जो जलकर भस्म हो जाऊँगी!’ साधु हैरान था! जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं था। इस गृहिणी ने चिड़िया के भस्म होने की बात कैसे जान ली। साधु अब अपने घमंड के जाल से बाहर आया। उसने पूछा, ‘आपको चिड़िया वाली बात कैसे पता लगी? आपके पास ऐसी दिव्य शक्ति का रहस्य क्या है?’ गृहिणी ने कहा, ‘मैं तो एक सामान्य गृहिणी हूँ। एक पतिव्रता नारी होने से ही मुझे शक्ति मिलती है। मेरे पति कुछ अस्वस्थ हैं और दवा देने के कारण ही भिक्षा देने में मुझे विलंब हुआ।’ साधु बोला, ‘मैंने तपस्या में बेकार इतने वर्ष व्यर्थ किए। आप मुझे धर्म का सच्चा स्वरूप समझाइए।’ गृहिणी बोली, ‘धर्म का असली स्वरूप जानना है तो इसी नगर में एक कसाई है, उसका पता देती हूँ। वही आपको धर्म का सच्चा स्वरूप समझने में सहायता करेगा।’ साधु एक बार फिर हैरान था कि धर्म का सच्चा स्वरूप मांस बेचने वाला कसाई बताएगा!
साधु गृहिणी द्वारा बताए मोहल्ले में पता लगाकर कसाई की दूकान पर पहुँचा। कसाई बोला, ‘आपको गृहिणी ने भेजा है? आप वही चिड़िया वाले साधु हो न?’ साधु के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। वह बोला, ‘आप मुझे धर्म का सच्चा स्वरूप समझाइए।’ कसाई बोला, ‘महाराज, आप बैठिए, मैं थोड़ा सा दूकान का और अपने ग्राहकों का कार्य निबटाकर विस्तार से चर्चा करता हूँ।’
थोड़ी प्रतीक्षा के बाद जब साधु ने बड़ी उत्सुकता से कसाई की बातें सुननी शुरू कीं तो वह एक बार फिर बहुत हैरान था। कसाई ने साधु से कहा, ‘महाराज, मैं तो बिल्कुल अनपढ़ हूँ। मैंने तो कोई धर्मग्रंथ नहीं पढ़ा है, मैं आपको धर्म के विषय में क्या बता सकता हूँ। मैं तो बस अपना कार्य पूरी ईमानदारी से करता हूँ, वही मेरे लिए सच्चा धर्म है। मेरे ग्राहक ही मेरे भगवान् जैसे हैं।’ साधु इस बात पर हैरान था कि वर्षों जंगल में बैठकर जिस तपस्या से प्राप्त शक्ति पर वह इतरा रहा था, वह शक्ति तो एक सामान्य सी गृहिणी के पास भी है तथा एक मांस बेचने वाले कसाई के पास भी है। अपना कार्य निष्ठा एवं ईमानदारी से करना ही सच्चा धर्म है।
इस कहानी में हमारे महान् चिंतकों ने यही संदेश देने का प्रयास किया है कि धर्म के पालन के लिए कर्मकांड बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण है धर्म के सच्चे स्वरूप तथा उसके मर्म को पहचानना!
एक और साधु की कथा भी याद आती है। एक साधु ने वर्षों तपस्या करके पैदल चलकर नदी पार करने की शक्ति अर्जित कर ली थी। उसके पैदल नदी पार करने के सार्वजनिक प्रदर्शन करने का दिन एवं समय तय हो गया था। सैकड़ों लोग इस अनोखे प्रदर्शन को देखने जुट गए थे। साधु ने नदी को पैदल चलकर वैसे ही पार कर लिया था, जैसे वह सड़क या मैदान पर चल रहा हो। लोगों ने खूब तालियाँ बजाईं, उनके लिए यह निश्चय ही एक विलक्षण अनुभव था। जब यह बात स्वामी रामकृष्ण परमहंस तक पहुँची तो उन्होंने कहा कि नदी पार करने का कार्य मात्र ‘आधे पैसे’ में भी हो सकता था। कोई भी मल्लाह नदी पार करा देता। इस छोटे से कार्य के लिए जीवन के कई वर्ष बरबाद कर देना कहीं से भी बुद्धिमानी का कार्य नहीं कहा जा सकता। इतने वर्षों तक साधु कुछ नेक कार्य करता, लोगों की भलाई के कार्य करता तो धर्म का अधिक कार्य होता। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का संदेश भी यही था कि तपस्या से कोई शक्ति अर्जित कर लेने से अधिक श्रेयस्कर है, परोपकार तथा समाज-सेवा के लिए जीवन को समर्पित करना। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद का वह कथन भी विचारणीय है कि यदि देश में एक पशु भी भूखा है तो उसे चारा खिलाना ही मेरा सच्चा धर्म होगा। स्वामी विवेकानंद का एक अन्य कथन भी गंभीरता से विचार करने योग्य है। वे कहते हैं कि मैं धार्मिक कट्टरता के शिकार व्यक्ति से किसी नास्तिक को अधिक महत्त्व दूँगा। धार्मिक कट्टरता का शिकार व्यक्ति अपने उन्माद में समाज का अहित कर सकता है। स्वामीजी कहते हैं कि अंधश्रद्धा तथा अंधविश्वास से कभी समाज का कल्याण नहीं हो सकता! संस्कृत के इन श्लोकों पर नजर डालना भी उपयुक्त होगा—
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्।
परोपकारं पुण्याय पापाय परपीडनम्॥
अर्थात् अठारह पुराणों में व्यासजी ने दो ही बातें कही हैं—परोपकार करना पुण्य है, दूसरे को सताना पाप है। इसी बात को महाकवि तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में कहा है—
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
संस्कृत का एक अन्य श्लोक भी याद आता है—
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानम् प्राणिनामार्तिनाशनम्॥
ईश्वर से प्रार्थना की जा रही है कि न तो राजा बनकर शासन करने की इच्छा है, न ही स्वर्ग की कामना, न पुनर्जन्म की...मात्र दु:खी प्राणियों के कष्ट निवारण की कामना है।
ऐसा भी नहीं है कि संस्कृत में रचे गए महान् ग्रंथों में इस तरह के दो-चार श्लोक हैं। ऐसे कितने ही श्लोक भरे पड़े हैं, जिनमें परोपकार, करुणा, प्रेम एवं मानवता का संदेश दिया गया है। तुलसी कहते हैं—
रामहि केवल प्रेम पियारा।
जान लेह सो जानन हारा॥
प्रभु श्रीराम को ‘प्रेम’ ही प्रिय है! गाँव-गाँव में, घर-घर में कोई अनुष्ठान होता है तो अंत में कुछ कथन सामूहिक उद्घोष के रूप में दोहराए जाते हैं। उन्हीं में से एक कथन है—‘सभी प्राणियों का कल्याण हो,’ इस कथन में भी प्राणी शब्द का प्रयोग किया गया है।
ऐसा नहीं कहा गया कि सिर्फ मनुष्यों का कल्याण हो अथवा हिंदुओं का कल्याण हो अथवा किसी जाति विशेष के लोगों का कल्याण हो! प्राणी शब्द के प्रयोग का प्रयोजन ही यही है कि समस्त मनुष्यों, पशु-पक्षियों आदि के कल्याण की कामना की गई है।
परोपकार का आदर्श मात्र ग्रंथों तक या बोधकथाओं या महान् संतों के प्रवचनों तक ही सीमित नहीं रहा वरन् उसे हम सचमुच के प्रसंगों तक भी देख सकते हैं। राजा शिवि एक कबूतर की प्राणरक्षा के लिए उसके बराबर मांस अपनी बाँह काटकर दे देते हैं। पन्ना धाय राजकुमार के प्राणों की रक्षा हेतु अपने ‘बेटे’ का बलिदान दे देती है! भूख से तड़प रहे रंतिदेव हाथ में आया थाल किसी अन्य को सौंप देते हैं!...जब युद्ध कर रहे महाराणा रानी से कुछ निशानी देने को अपने सैनिक भेजते हैं तो हाड़ा रानी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना िसर काटकर निशानी के रूप में दे देती! राजस्थान में एक पेड़ की रक्षा के लिए सैकड़ों लोग अपना िसर कटा देते हैं, किंतु पेड़ नहीं काटने देते।
प्रेम एवं करुणा ही अन्य धर्मों के भी महान् आदर्श हैं। ‘लव इज गॉड’ (प्रेम ही ईश्वर है) अथवा ‘शुरू करें उसके नाम से, जो दयावानों में सबसे दयावान है!’ जैसे कथन दूसरे धर्मों में भी हैं। धर्मों के उच्च आदर्शों को जब हम रोजमर्रा के जीवन में वास्तविकता के धरातल पर देखने का प्रयास करते हैं तो अत्यंत निराशाजनक तसवीर सामने आती है। क्या हमारा समाज धर्म के आचरण से या धर्म के मार्ग से भटक गया है? क्या हम सब अपना सच्चा धर्म भुला बैठे हैं?
यदि ऐसा नहीं है तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुखभाग भवेत्’ का उद्घोष करने वाले देश में ‘ओल्ड होम’ (बुजुर्गों के आश्रय स्थल) क्यों बढ़ते जा रहे हैं। ‘सबके कल्याण’ की बात तो दूर, अपने जन्मदाताओं को भी आश्रय नहीं दिया जा रहा। राम-सीता के देश में तलाक के लाखों मुकदमे क्यों हैं? भाई-भाई के बीच संपत्ति के बँटवारे को लेकर घर-घर झगड़े क्यों हैं? समाचार चैनलों तथा अखबारों में घृणा, हिंसा, अपराध, क्रूरता, संवेदनहीनता, अमानवीयता के भयानक समाचार क्यों छाए रहते हैं? विडंबना तो यह भी है कि कदम-कदम पर पूजास्थल हैं, मोहल्ले-मोहल्ले में धार्मिक अनुष्ठान हो रहे हैं, धार्मिक जुलूसों की संख्या हर वर्ष बढ़ जाती है, धार्मिक पर्यटन जोर-शोर से हो रहा है, लेकिन सच्चे धर्म, प्रेम, करुणा एवं परोपकार के आदर्श कहाँ हैं?
हर अस्पताल में विशेष अवसरों पर भव्य पूजन होता है, मंत्रोच्चार होता है! लेकिन उन्हीं अस्पतालों में विपत्तिग्रस्त मरीजों से अनाप-शनाप धन कमाने की लालसा होती है! बिना जरूरत महँगे-महँगे परीक्षण कराए जाते हैं! अस्पतालों का लक्ष्य तो समाज को रोगमुक्त बनाने का होना चाहिए था।
किसी पुल का शिलान्यास करते समय भी पूजन होता है। लेकिन निर्माण में भ्रष्टाचार के कारण वही पुल कुछ ही समय में टूट जाता है! बात वहीं आकर केंद्रित होती है कि धर्म के सच्चे अर्थ को भूलकर हमने धार्मिकता को अपनी बुराइयाँ ढकने का आवरण बना लिया है। इतने पूजाघर, इतने धार्मिक चैनल, इतने साधु-संत, फिर भी इतना अधर्म! हमें अपने भीतर झाँकना होगा।
(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)