सिंहवाहिनी

सिंहवाहिनी

आचार्य चतुरसेन बहुमुखी प्रतिभा के धनी उस विराट् व्यक्तित्व का नाम है, जिसने आधी शताब्दी तक अनवरत रूप से, नाना विधाओं में साहित्य-सृजन किया। लगभग साढ़े चार सौ कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने ४० उपन्यास, १० नाटक, १० एकांकी तथा प्रभूत मात्रा में गद्य-काव्य के साथ ही समाज, राजनीति, धर्म, स्वास्थ्य और चिकित्सा आदि विषयों के वृहदाकार ग्रंथों की रचना भी की। उनकी पुरस्कृत रचनाओं और अन्य भाषाओं में हुए अनुवादों की सूची लंबी है। उनकी बहुप्रशंसित एवं क्लासिक स्तर की रचनाओं में ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम:’, ‘सोना और खून’, ‘गोली’, ‘सोमनाथ’, ‘आरोग्य शास्त्र’ आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी राज में सरकार द्वारा जब्त की गई उनकी आठ रचनाओं में—‘सत्याग्रह और असहयोग’ तथा ‘चाँद’ का फाँसी-अंक बहुत प्रसिद्ध हैं। चतुरसेन-साहित्य पर अनेक विश्वविद्यालयों में विद्वानों ने शोधकार्य किया तथा कई शोधग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ उनकी एक चर्चित कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं।

नारी को पुरुष की प्रेरणा, संबल, उत्प्रेरक, मार्गदर्शक माना गया है। नारी प्रसुप्त शौर्य, आत्मसम्मान और पौरुष को जगा सकती है, प्रसुप्त ज्वालामुखी को जगा सकती है। प्रस्तुत कहानी में लेखक ने नारी के कोमल और कठोर, दोनों ही रूपों को चित्रित किया है।
स्त्री किसी पुरुष के त्याग और वीरत्व को ही पूजती है। उसके कर्तव्यच्युत हो जाने पर उसे त्याग नहीं देती, अपितु उसको सही मार्ग दिखाकर उसे अदम्य साहसी, वीर तथा कर्तव्यनिष्ठ बना देती है। नारी अपने शब्दों से ही नहीं, अपितु अपने मौन और कार्यों से भी चमत्कार कर सकती है, यह बात इस कहानी में देखी जा सकती है।
संध्या का समय था। एक वृक्ष के झुरमुट में दो व्यक्ति धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। एक युवक था। दूसरी युवती।
युवक ने कहा—
“ओह! जीवन का मूल्य कितना है, चलो भाग चलें, मैं इस खद्दर को भस्म किए देता हूँ।”
“और देश-प्रेम?”
“भाड़ में जाए।”
“वह वीर-भाव?”
“नष्ट हो।”
“वे बड़े-बड़े व्याख्यान?”
“बकवास थे।”
“तुम्हीं तो वे थे?”
“जब था तब था।”
“अब?”
“अब मैं और तुम। चलो, भाग चलें।”
“आज की सभा में?”
“मैं नहीं जाऊँगा।”
“क्यों?”
“मुझे सूचना मिल चुकी है कि आज मेरी गिरफ्तारी होगी।”
“तब वे हजारों भोले-भाले मनुष्य?”
“सब जहन्नुम में जाएँ।”
युवती चुप हुई। युवक ने कहा—
“क्या सोचती हो?”
“कुछ नहीं। कब चलोगे? कहाँ चलोगे?”
“यह फिर सोचेंगे। आज रात की गाड़ी से पश्चिम को कहीं का भी टिकट लेकर चल दो, फिर शांति से सोचेंगे।”
“अच्छी बात है, मुझसे क्या कहते हो?”
“रात को ९ बजे तैयार रहना।”
“और कुछ?”
“कुछ नहीं।”
“तब जाओ।”
युवती युवक की प्रतीक्षा किए बिना चली गई।

भीड़ का पार न था। रामनाथजी का व्याख्यान होगा। साढ़े आठ का समय था, पर नौ बज रहे हैं। कहाँ है वह सबल वाग्धारा का वीर देशभक्त? हजारों हृदय उसके लिए उत्सुक हैं। अनेक लाल पगड़ियाँ और पुलिस सुपरिंटेंडेंट सुनहरी झब्बे में लौह भूषण छिपाए उसकी प्रतीक्षा में थे।
सभापति ने ऊबकर कहा, “महाशय, खेद है कि आज के वक्ता श्री रामनाथजी का अभी तक पता नहीं है, अतएव आज की यह सभा विसर्जित की जाती है।”
इसी समय एक ओजस्वी स्त्री-कंठ ने कहा, “नहीं।”
आकाश चीरकर यह ‘नहीं’ जनरव पर छा गया। भीड़ में से एक युवती धीरे-धीरे सभा-मंच की ओर अग्रसर हुई। मंच पर आकर उसने कहा, “भाइयो, रामनाथजी किसी विशेष कार्य में व्यस्त हैं, उसके स्थानापन्न मैं अपने प्राण और शरीर को लिये आई हूँ। मुझे दुःख है कि मैं उनकी तरह व्याख्यान नहीं दे सकती, मगर मैं अभी इसी क्षण मजिस्ट्रेट की आज्ञा का विरोध करती हूँ। मैं अभी निर्दिष्ट स्थान पर जाती हूँ, आपमें से जिसे चलना हो, मेरे साथ चलें। किंतु जो केवल व्याख्यान सुनने के शौकीन हैं, वे कहीं से किराए पर कोई व्याख्याता बुला लें।”
लोग स्तब्ध थे। स्त्री ने क्षण भर जनसमुदाय को देखा, साड़ी का काछा कसा और चल दी। सारा ही जनसमुदाय उसके पीछे चल खड़ा हुआ। दो घंटे बाद वह वीरबाला जेल की अँधेरी कोठरी में बंद थी।
“तुमने यह क्या किया?”
“जो कुछ तुम्हें करना चाहिए था।”
“मुझसे कहा क्यों नहीं?”
“तुम इस योग्य न थे।”
“अब?”
“तुम जाओ, मैं यहीं तुम्हारे स्थान पर हूँ।”
“मैं जाऊँ?”
“तब क्या करोगे?”
“मैं कहूँ?”
“अवश्य।”
“और तुमसे?”
“मुझसे।”
युवती जोर से हँसी, इस हँसी में अवज्ञा थी। उसने कहा, “तुम्हारे त्याग और वीरता के रूप को ही मैंने प्यार किया था; पर उसके भीतर तुम्हारा वह कायर रूप है, इसकी आशा न थी। जाओ, चले जाओ, हिंदू स्त्री एक ही पुरुष को जीवन में प्यार करती है। मैंने जो भूल की है, उसका प्रातिशोध मैं करूँगी। जाओ प्यारे, जीवन का बहुत मूल्य है।”
इतना कहकर युवती कोठरी में पीछे को लौट गई। वार्डर ने युवक को बाहर कर दिया।
चार मास बाद युवती ने जेल से लौटकर सुना कि रामनाथ का यश दिग्दिगंत में व्याप्त है। वह इस समय जेल में है। इन चार मासों में उसने वीरता की हद कर दी है। वह किसी तरह न रुक सकी। जेल में मिलने गई। रामनाथ जेल के अस्पताल में विषम ज्वर में भुन रहा था।
“कैसे हो?”
“ओह, तुम आ गईं, देखो, कैसा अच्छा हूँ।”
“मुझे क्षमा करो, मैंने तुम्हारा अपमान किया था!”
“तुमने मेरे मान की रक्षा किस तरह की है, यह कहने की बात नहीं!”
“अब?”
“मैं मरूँगा नहीं, आकर फिर कर्तव्य-पालन करूँगा! तब प्रिये, तुम मेरे स्थान पर!”
“पर मैं व्याख्यान नहीं दे सकती।”
“उसकी जरूरत नहीं। तुम्हारे मौन भाषण में वह बल है कि बड़े-बड़े वाग्मियों की मर्यादा की रक्षा हो सकती है।”
“जी कैसा है?”
“अब और कैसा होगा?”
“मैं आशा करती हूँ, शीघ्र अच्छे हो जाओगे!”
“और बाहर आकर, अपनी सिंहवाहिनी को युद्ध करते अपनी आँखों से देखूँगा!”
“मुझे क्या आज्ञा है?”
“यही कि जब-जब मैं कायर बनूँ, अपना प्यार और हृदय देकर मुझे वीर बनाए रखना!”


 

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