सामाजिक समरसता के प्रतिमान थे स्वामी रामानंदाचार्य

भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र पर पुस्तक लेखनाधीन। संप्रति दर्शन विभाग, जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में सहायक आचार्य पद पर कार्यरत

वैदिक सनातन धर्म अति उदार व सहिष्णु है। इसकी दयाशीलता, उदार भावना एवं आत्मनिग्रह की भावना के विचार वास्तविक हैं। वैदिक परंपरा में शांतिपूर्ण ढंग से समाज-सुधार के आंदोलन चलते रहे हैं। इसी वैचारिक विशालता एवं उदारता की ओर संसार का चित्त आकृष्ट करने के लिए सात शताब्दियों पहले चले भक्ति आंदोलन के केंद्र में १२९९ ई. में तीर्थराज प्रयाग में जनमे स्वामी रामानंदाचार्य हैं, जिन्होंने धार्मिक विश्वासों एवं पूजा-उपासना के प्रति सामान्य हिंदुओं के हृदय में भक्ति की ऐसी अलख जगाई, जो आज भी शोभायमान है। रामानंदाचार्य ने काशी के श्रीमठ से रामभक्ति के प्रसार का शंखनाद किया। स्वामी नाभादास द्वारा विरचित भक्तमाल (१६०० ई. के आसपास) के अनुसार उनकी शिष्य परंपरा में १२ महान् संत थे। इनमें महात्मा अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, पीपा, भावानंद, रविदास, धन्ना जाट और सैना जैसी आध्यात्मिक विभूतियाँ हैं। इनके अतिरक्त दो महिला संत पद्मावती और सुरसरी भी इनकी शिष्य परंपरा में सम्मिलित थीं।
विद्वानों का मानना है कि जगद्गुरु रामानंदाचार्य का प्राकट्‍य सात सौ वर्ष पूर्व हुआ था। तपोनिष्ठ साधक और वीतराग संन्यासी होते हुए भी परम कारुणिक स्वामी रामानंद ने प्राणिमात्र के कल्याण के लिए जिस सरल हितकर मार्ग का प्रवर्तन किया, जिस अमोघ मंत्र से अभिमंत्रित संदेश को जन-जन तक पहुँचाया, वह आज भी पूर्णत: प्रासंगिक बना हुआ है। धर्म के संबंध में देश-कालजन्य, जो परिस्थितियाँ उस समय थीं, लगभग वही स्थिति आज भी है। यवन आक्रामकों ने सनातन धर्म पर जिस प्रकार कुठाराघात किया था और भारतवर्ष की धर्मप्राण जनता जिस प्रकार क्रूर शासकों के दमन से हतप्रभ थी, अत्याचारों से त्रस्त थी, कई शताब्दियों की परवशता के निष्ठुर पाश से मुक्त होने के बावजूद उसी तरह उसका स्वाभिमान, उसकी धर्मनिष्ठा और आत्मज्ञान आज भी कुंठित है। उस विकट संकट काल में, धर्मरक्षा का व्रत लेकर रामानंदाचार्य ने अवतरित होकर सनातन समाज को उस त्रास से उबारा और धर्म मर्यादा की रक्षा कर उसे पुनः प्रतिष्ठित किया। उन्होंने आर्ष परंपरा को पुनरुज्जीवित किया। मनुष्य-मनुष्य में कल्पित भेद की दीवार को ध्वस्त करते हुए समाज के विभिन्न वर्गों से अपने प्रधान द्वादश शिष्यों का चयन कर धर्म की दीक्षा दी। इससे समाज में समरसता आई और उनके परमोदार मत का जनाधार व्यापक हुआ। स्वामी रामानंद के पश्चात् उनके शिष्यों ने इसी परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए उनकी धर्मपताका को और भी ऊँचे फहराया।
कोई भी वस्तु कितनी ही पुष्ट और सुंदर बनाई जाए, उसके लाख संरक्षण के बावजूद कालप्रभावतः उसमें विकार आना स्वाभाविक है। आज मानव समाज पुनः विकृति की ओर जा रहा है और दुर्दशाग्रस्त हो रहा है। भले भौतिकता से संपन्न हो रहा है, पर आध्यात्मिकता से दरिद्र हो रहा है। रत्नों के लोभ से भ्रमवश काँच-पत्थर के टुकड़ों का संग्रह कर रहा है। धर्म का वास्तविक स्वरूप विलुप्त हो रहा है। निष्ठा मर रही है, आस्था उखड़ रही है, श्रद्धा समाप्त हो रही है और विश्वास विचलित हो रहा है। मानव के भीतर से मानवता निकली जा रही है और स्वार्थ बुद्धि उसे अनाचार के मार्ग पर चलने के लिए उसके कान ऐंठ रही है। धर्म के नाम पर छल-छद्म के ताने-बाने से बुना धर्माडंबर का जामा ओढ़कर परम धार्मिक बनने का ढोंग रचा जा रहा है और इस तरह समाज में धर्माभास और अपसंस्कृति का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। ऐसी विकट परिस्थिति में सात शताब्दियों पूर्व भगवद्भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक लोकतंत्र की भावभूमि को प्रतिष्ठित करने वाले स्वामी रामानंदाचार्य के भक्ति आंदोलन को पुरातन शास्त्रीय स्थापनाओं से अपार बल मिला था, जिसकी आज भी परमावश्यकता है। परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
तात्पर्य है—‘जो अत्यंत दुष्ट होने पर भी मुझे अनन्य भक्ति से भजता है, उसे संत ही माना जाना चाहिए, क्योंकि उसने सही निर्णय लिया है।’ आखिर भक्ति का उपक्रम करने वाला भी भक्त ही कहलाता है। ध्यातव्य है कि कोई जीव भगवद्विभूति से बहिर्भूत नहीं है। प्रभु के साथ जीवों का सांसिद्धिक संबंध है। वे महापराधियों के प्रति भी शोभनहृदय हैं। उन्होंने अपनी ओर से किसी का परित्याग नहीं किया है। यह तो जीव का ही दुर्भाग्य है कि वह अपने पापों के परिणामतः भगवद्विमुख रहता है—जैसे पुत्र माता की गोद में बैठने का सदा ही अधिकारी होता है, एतदर्थ उसे किसी अवांतर योग्यता की आवश्यकता नहीं। परमप्रभु तो अपने इस वचन को सार्थक करने हेतु सर्वदा ही उद्यत रहते हैं—
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोय।
सर्वभाव भजि कपट तजि मोहि परम प्रिय सोय॥
स्वामी रामानंदाचार्य ने इसी उदार भाव को जीव कल्याण का मार्ग बनाया। महात्मा कबीर से उनके मिलने की यह कथा रोमांचित करती है—शताब्दियों पहले बनारस के एक मुसलिम जुलाहे कबीर को गुरु की तलाश थी। उन्हें पता था कि गुरु के बिना सफलता नहीं मिल सकेगी। उनके मन में स्वामी रामानंद को गुरु बनाने की इच्छा थी। तब रामानंद बनारस ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया में पहचाने जाते थे। उनका आध्यात्मिक तथा सामाजिक दायरा विशाल और जात-पाँत से परे था। कबीर जानते थे कि आचार्य रामानंद अलसुबह स्नान करने श्रीमठ से पंचगंगा घाट पर उतरते हैं। कबीर सीढ़ियों पर उस जगह लेट गए, जहाँ से रामानंद गुजरते थे। स्नान के लिए गंगाघाट पर उतरे स्वामी रामानंद का पाँव अकस्मात् कबीर पर पड़ा। बहुत अफसोस और अपराधबोध के साथ अँधेरे में स्वामी रामानंद ने झुककर कबीर को उठाया और कहा, ‘राम-राम बोलो, तुम्हारा दु:ख दूर होगा।’ बस कबीर को राम मंत्र मिल गया। उन्हें गुरु मिल गए और कबीर की ‘चदरिया झीनी-झीनी’ हो गई। महात्मा कबीर की भक्ति-संवेदना में गुरु का स्थान गोविंद से भी बड़ा है। इसीलिए कबीर जब कभी अपने गुरु रामानंद का नाम लेते हैं तो वे उनका नाम बड़े गौरव और श्रद्धा से लेते हैं—‘कहै कबीर दुविधा मिटी गुरु मिल्या रामानंद।’ सत्रहवीं सदी में हुए इतिहासकार मुहसिन फनी ने अपनी पुस्तक दबिस्तां-ए-मजाहिब में लिखा है—‘कबीर जन्म से मुसलमान थे, पर वे स्वामी रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे, क्योंकि रामानंद राम को जानते थे।’
स्वामी रामानंद ऐसे अद्भुत गुरु थे, जिन्होंने जातियों और वर्गों में बँटे हिंदू समाज में वह महत्त्वपूर्ण उद्घोष किया, जिसकी आज भी जरूरत है। उनकी अप्रतिम घोषणा है—जात-पाँत पूछे नहिं कोई, हरि को भजै से हरि का होई। स्वामी रामानंद की १२ शिष्यों की मंडली में कपड़े बुनने वाले बुनकर कबीर ही नहीं थे, बल्कि उसमें संत रविदास भी शामिल थे, जो चमड़े का काम करते थे और काशी की गलियों में जूते सिलते थे। वहाँ एक भक्त धन्ना जाट थे, वहीं दूसरे थे संत सेन नाई, जो लोगों के बाल बनाते थे। उनके शिष्य भक्त पीपा ने गागरौन गढ़ का राजा होने के बाद भी दर्जी की आजीविका को अपना लिया था।
 सदन कसाई, कूबा कुम्हार और भक्तमाल के रचयिता नाभादास समेत अनेक संत-भक्त-कवि आचार्य रामानंद के चलाए संप्रदाय के हिस्सा हैं। स्वामी रामानंद ने जन्म सत्ता की बजाय व्यक्ति सत्ता को महत्त्व दिया। भेदभाव को न मानने वाला भारतीय संविधान तो आठ दशकों पहले बना, पर स्वामी रामानंद ने यह नींव १४वीं सदी में ही रख दी थी। उन्होंने अपने प्रवचन और लेखन का आधार संस्कृत के साथ देशज भाषाओं को भी बनाया। उनके कुछ पद्य सिखों के पवित्र ‘गुरुग्रंथसाहिब’ में संकलित हैं। ‘वैष्णव-मताब्ज-भास्कर’ में उन्होंने शास्त्रों के आधार पर यह घोषणा ही कर दी थी कि भगवान् अपनी भक्ति में जीवों की जाति, बल और शुद्धता की परवाह नहीं करते। सभी समर्थ और असमर्थ जीव भगवान् को पाने में समान अधिकारी हैं।
उत्तर भारत की लोक-परंपरा स्वामी रामानंद को ‘जात-पाँत पूछै नहिं कोई’ की घोषणा करके सामाजिक रूप से समावेशी (सोशली इंक्लूसिव) भक्ति-धारणा के प्रतिपादन का श्रेय देती आई है। ‘हरि को भजे सो हरि का होई’ कहने वाले स्वामी रामानंद मनुष्य की जन्मजात सामाजिक अस्मिता से अधिक महत्त्वपूर्ण उसकी व्यक्ति-सत्ता को मानते थे। ब्राह्म‍ण कुल में जनमे रामानंद ने ब्राह्म‍ण सर्वोच्चता के दंभ को रद्द करके वैष्णवता की जाति-कुलनिरपेक्ष धारणा का प्रचार किया। अपनी अभिव्यक्ति का ही नहीं, साधना का भी माध्यम उन्होंने संस्कृत को नहीं, लोक-भाषा को बनाया।
स्वामी रामानंद के शिष्यों में रामावत संप्रदाय के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों, संस्कृत के विद्वानों के नाम भी हैं, लेकिन अधिक प्रख्यात वे ही हैं, जिन्होंने लोक-भाषा में कविता की और जिनका जन्म तथाकथित ‘निम्न’ जातियों में हुआ था। पद्मावती नाम की साधिका भी रामानंद की शिष्या थीं।
रामानंद का प्रयत्न संवाद स्थापित करने का था, संप्रदाय निर्माण करने का नहीं। विभिन्न भक्तों, संतों की अद्वितीयता का बखान गागर में सागर भरने के ढंग से करने वाले नाभादास रामानंद के व्यक्तित्व को भी एक मूल सूत्र के जरिए कह देते हैं। दीर्घजीवी रामानंद की स्तुति उनके शिष्यों के नाम गिनाते हुए नाभादास ने (छप्पय ३६ में) इन शब्दों में की है—
अनंतानंद कबीर सुखा सुरसुरा पावती नरहरि
पीपा भवानंद रैदास धन सेन सुरसुर की घरहरि,
औरो शिष्य प्रशिष्य एकटे एक उजागर
विश्वमंगल आधार भक्ति के श्रद्धा के आगर।
बहुत कल वपु धरिकै, प्राणतजनन को पार दिए
श्री रामानंद रघुनाथ ज्यों, द्वितीय सेतु जगतरण किए॥
स्वामी रामानंद ने समाज के विभिन्न तबकों, उनकी जरूरतों और साधनाओं के बीच समझ और विश्वास के पुल बनाए। वैष्णव साधु नाभादास के बाँधे सेतु रूपक की मूल भावना को रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी कवि-दृष्टि और कल्प-सृष्टि के जरिए और भी मार्मिक रूप दे दिया। उन्होंने रामानंद पर अनेक कविताएँ रचीं। १९३२ में रची गई ‘शुचि’ कविता में कबीर चतुर संयोग उत्पन्न करके रामानंद के शिष्य नहीं बन जाते। कवि रवींद्र के रामानंद हृदय की सच्ची ‘शुचिता’ प्राप्त करने के लिए कबीर और रैदास तक पहुँचने की पहल स्वयं करते हैं। स्वामी रामानंद के नाम से प्रसिद्ध वह उक्ति याद करें : “जात-पाँत पूछे नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।” भगवान् श्रीरामानंद स्वामीजी अपने शिष्यों के प्रति ‘वैष्णव-मताब्ज-भास्कर’ में कहते हैं—
सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणो मता: शक्ता अशक्ता: पदयोर्जगत्प्रभो:।
नापेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च न चापि कालो न हि शुद्धतापि वा॥
तात्पर्य है—भगवान् अपनी प्रपत्ति में जीवों के कुल (जाति) बल की और कालशुद्धता की अपेक्षा नहीं करते, इसी कारण समर्थ-असमर्थ सभी जीव भगवान् की शरणागति के अधिकारी हैं।
आचार्य रामानंद द्वारा स्थापित श्रीमठ आज भी काशी में मौजूद है। श्रीमठ में उनकी चरण-पादुकाएँ स्थापित हैं। अनेक संत परंपराएँ आचार्य रामानंद के श्रीमठ से निकलीं। दादू, रामस्नेही, वारकरी, घीसा पंथ, कबीर पंथ और रैदास पंथ जैसी ढेर सारी भक्ति परंपराओं का मूल उद्गम श्रीमठ है। हिंदी साहित्य के अमर ग्रंथ रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास भी स्वामी रामानंद के प्रशिष्य थे।
काशी में गंगा किनारे बना श्रीमठ शताब्दियों से निर्गुण तथा सगुण रामभक्ति परंपरा का मूल केंद्र है। कालांतर में इसकी हर शाखा ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया। जिस बात पर विवाद है, वह यह है कि श्रीमठ को कब व किसने बनाया? कुछ इसे रामानंद स्वामी का बनाया मानते हैं तो कुछ उनके गुरु स्वामी राघवानंद का बनाया बताते हैं। जिस बात पर कोई विवाद नहीं है, वह यह है कि श्रीमठ मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का सबसे बड़ा केंद्र था।
स्वामी रामानंद का चलाया हुआ संप्रदाय जातीय आधार पर टूट रहे समाज के बीच एक अकाट्‍य सत्य है। इस संप्रदाय में छुआछूत और खान-पान में कोई भेदभाव नहीं है। यह संप्रदाय समाज को एक सूत्र में बाँधने का धागा है, जो जातीय वैमनस्यता की रामबाण औषधि है। स्वामी भगवदाचार्य के जमाने में महात्मा गांधी ने श्रीमठ को ‘सामाजिक समावेशी’ मठ की संज्ञा दी थी। रामानंद का वह विशाल श्रीमठ अब काशी में बहुत थोड़ा सा रह गया है। आश्चर्य की बात है कि स्वामी रामानंद का वह विशाल श्रीमठ, जहाँ हजारों फकीर, सैकड़ों जंगम-जोगड़े, नाथपंथी, वैरागी और संन्यासी रहा करते थे, वहाँ अब लोगों के घर हैं, तरह-तरह के पड़ाव हैं, मसजिदें हैं और दुकानें हैं। काशी में श्रीमठ के नाम से बहुत जरा-सी पुण्य भूमि बची हुई है, जहाँ अभी नैयायिक स्वामी रामनरेशाचार्य रहते हैं।
जिस तत्परता और आसानी से रामानंदाचार्य ने अपने समय में धर्म और धार्मिक चेतना से उस समय के समाज की विसंगतियाँ दूर कीं, उसकी आज जरूरत है। मानवता को आधार बनाकर नकारात्मक विचारों के विरुद्ध एक आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है। आवश्यकता है एक भाषा, एक मनोवृत्ति और एक प्रतिबद्धता की, जो परस्पर विरोधी धाराओं को इकट्ठा कर उन्हें स्वामी रामानंदाचार्य की तरह रामभक्ति के महासागर में समेट सके।

अध्यक्ष-दर्शन एवं योग विभाग
जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय,
जयपुर-३०२०२६ (राज.)
दूरभाष : ९२१४३१६९९९

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