‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ निबंध में वर्णित लोकजीवन

‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’  निबंध में वर्णित लोकजीवन

बी.एड., यू.जी.सी. नेट एवं पीएच.डी.। स्नातक पाठ्‍यक्रम पर चार पुस्तकें प्रकाशित। उच्चशिक्षा/साहित्य एवं शोध के क्षेत्र में अक्षर वार्त्ता अंतरराष्ट्रीय अवार्ड, २०२४।

पं. विद्यानिवास मिश्र भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य तथा भाषा के मर्मज्ञ विद्वान् हैं, साथ ही भारतीय लोक जीवन और लोक संस्कृति को उन्होंने गहराई से आत्मसात् किया है। उनके निबंधों में जहाँ एक ओर विद्वत्ता और व्यापक ज्ञान का परिचय मिलता है, वहीं लोकतत्त्वों के कारण निबंध में एक नया पक्ष जुड़ जाता है। मिश्रजी के प्रमुख निबंध-संग्रह—‘तुम चंदन हम पानी’, ‘तमाल के झरोखे से’, ‘संचारिणी’, ‘आँगन के पंछी’ और ‘बंजारा मन’, ‘परंपरा बंधन नहीं’, ‘लागौ रंग हरी’, ‘मैंने सिल पहुँचाई’, ‘छितवन की छाँह’ आदि हैं। प्रमुख निबंधों में एक ललित निबंध के रूप में ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ निबंध आता है। मिश्रजी हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध ललित निबंध लेखक रहे। उन्होंने अपने निबंधों के जरिए शब्दों और भावों की मिठास को पाठकों के लिए आकर्षक बनाया है। मिश्रजी एक अच्छे कथात्मक निबंधकार रहे। उनके निबंधों में कल्पना और भावों की प्रधान रही है।
ललित निबंध को आत्मपरक, विषयप्रधान और व्यक्तिनिष्ठ निबंध भी कहते हैं। ललित शब्द १९४० के बाद रचित हिंदी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों के लिए रूढ़-सा हो गया है। ‘ललित निबंध’ निबंध के साथ ‘ललित’ विशेषण से बना है। ललित से तात्पर्य विदग्धता और रस प्रवणता है। यह सभी विशेषताएँ इस निबंध में वर्णित लोक जीवन में लोक कथाओं और लोक गीतों के माध्यम से देखी जा सकती हैं। 
‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ निबंध में निबंधकार ने साधारण विषयों को पौराणिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक संदर्भों से जोड़कर प्रभावशाली बनाया है। उन्होंने इस निबंध के जरिए यह बताने का प्रयास किया है कि पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के लिए चितिंत है, लेकिन नई पीढ़ी को उनकी चिंता की कोई परवाह नहीं है। इस निबंध में मुकुट को उदार चरित्र और महान् व्यक्ति के ऐश्वर्य का प्रतीक माना गया है। लोक जीवन से जुड़े संदेशों पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि उत्कृष्ट व्यक्ति संसार में निर्वासन की व्यथा भोगता है, लेकिन लोकमन उसका अभिषेक करता है। इस निबंध के जरिए लेखक की मनःस्थिति का भी पता लगाया जा सकता है कि किस प्रकार से राम के बारे में सोचते-सोचते लोक जीवन के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इस निबंध में दो पीढ़ियों के विचारों एवं उनकी सोच में अंतर की समस्या को भी उजागर किया गया है।
लोक जीवन अर्थात् परंपराओं को साझा करने वाले लोगों के समूहों में होने वाला जीवन। लोक जीवन, लोक संस्कृति का अभिन्न अंग होता है। लोक संस्कृति की आत्मा भारतीय साधारण जनता है, जो गाँव, वन-प्रांतों में रहती है। लोक साहित्य साधारण जनता से जुड़ा साहित्य होता है। लोक साहित्य में जनजीवन की सभी प्रकार की भावनाएँ बिना किसी कृत्रिमता के समाई रहती हैं। लोक गीतों और लोक कथाओं में लोक जीवन की जैसी सरलता, नैसर्गिक अनुभूतिमयी अभिव्यक्ति मिलती है।
‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ एक ललित निबंध है, इस निबंध में लेखक ने राम-वनवास पर लिखे गए एक लोक गीत के माध्यम से मनुष्य के अपने बच्चों के प्रति ममत्व भाव की व्याख्या की है। उन्होंने मनुष्य के आंतरिक मनोभाव की रागात्मकता पर भी प्रकाश डाला है और मनुष्यत्व की उत्कृष्टता को भी रेखांकित किया है। इस निबंध में लेखक की निजता, आत्मीयता, उदात्तता तथा भारतीय संस्कृति और साहित्य के अध्येता के रूप आदि का परिचय मिलता है।
‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ में लेखक के मन में राम के मुकुट को भीगने की चिंता होती है। लेखन के दौरान मुकुट भीगने की चिंता से उनका व्यथिक मन का पता चलता है। इतना ही नहीं, लक्ष्मण के दुपट्टे और सीता की माँग के सिंदूर के भीगने की चिंता सताती रहती है। निबंध में उनका चिरंजीव और मेहमान लड़की का एक कार्यक्रम से लौटने में देरी होती है, तो लेखक अपने दादी-नानी के गाए उन गीतों को गुनगुनाने के लिए विवश हो जाता है, जिसके बोल है—“मेरे लाल को कैसा वनवास मिला था।” पुरानी पीढ़ी की इस व्याकुलता को उस दौर में तो समझ नहीं आता था, लेकिन आज इस स्थिति में पहुँचने पर व्याकुलता के सजीव दर्शन होने लगते हैं। दादा-नानी के गाए गीतों के एक-एक शब्दों का भाव और अर्थ सार्थकता के साथ सामने प्रस्तुत होने लगते हैं। मन उन लाखों-करोड़ों कौसल्याओं की ओर दौड़ जाता है, जिनके राम वन में निर्वासित हैं और उनके मुकुट भीगने की चिंता है। मुकुट लोगों के मन में बसा हुआ है। काशी की रामलीला आरंभ होने से पहले निश्चित मुहूर्त में मुकुट की पूजा की जाती है। इन परंपराओं में लोक जीवन देखा जा सकता है। 
मुकुट तो मस्तक पर विराजमान है। राम भीगे तो भीगे पर मुकुट न भीगने पाए। इसी बात की चिंता है। राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश में, हर दुर्दिन में सुरक्षित रहे। राम तो वन से लौटकर राजा बन जाते हैं, परंतु सीता रानी होते ही राम द्वारा निर्वासित कर दी जाती हैं। निबंध में वर्णित प्रमुख अंश इस प्रकार हैं—
“लागति अवध भयावह भारी, मानहुँ कालराति अँधियारी।
घोर जंतु सम पुर नरनारी, डरपहिं एकहि एक निहारी।
घर मसान परिजन जनु भूता, सुत हित मीत मनहूँ जमदूता।
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं, सरित सरोवर देखि न जाहीं।”
राम के साथ लक्ष्मण हैं, सीता हैं, सीता वन्य पशुओं से घिरी हुई विजन में सोचती हैं—“प्रसव की पीड़ा हो रही है, कौन इस वेला में सहारा देगा, कौन प्रसव के समय प्रकाश दिखलाएगा, कौन मुझे सँभालेगा, कौन जनम के गीत गाएगा?” मिश्रजी की इसी बेचैनी की स्थिति में उनको दो-तीन रात पहले की एक घटना स्मरण हो उठती है, जहाँ उनका एक साथी, साथ में उनका पुत्र एवं महानगरीय परिवेश में पली एक मेहमान कन्या रात को नौ बजे संगीत कार्यक्रम को सुनने के लिए गए हुए थे। शहरों की असुरक्षित स्थिति एवं एक-डेढ़ घंटे ही नहीं, रात के बारह बजे तक उनका न लौटना उनके दिमाग में दुश्चिंता की धारा को प्रवाहित कर रही थी, जिससे उनकी पत्नी झल्ला उठी। इतने में अचानक बारिश शुरू हो गई। बारिश की शुरुआत मन का आकुलापन एवं आजकल की असुरक्षित स्थिति से लेखक के मन में दादी-नानी द्वारा निरंतर गाए जाने वाले एक लोक-गीत स्मरण हो उठा—
“मोरे राम के भीजै मुकुटवा, लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा, त राम घर लौटहिं।”
(मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा, मेरे लखन का पटुका (दुपट्टा) भीग रहा होगा, मेरी सीता की माँग का सिंदूर भीग रहा होगा, मेरे राम घर लौट आते।)
बचपन में दादी-नानी द्वारा गाए गए यही गीत अर्थात् उनकी विवशता एवं चिंतन पर उन्हें व्यंग्य सूझती थी, परंतु पिता के रूप में दादी-नानी की वही चिंता आज उनके मन को विद्रोहित करती है। अपने बच्चों की चिंता उनकी सुरक्षा एवं उनके साथ वहन किए हुए मान-प्रतिष्ठा की चिंता प्रत्येक माता-पिता को ही होती है। जैसे पत्नी सीता, भाई लक्ष्मण के साथ राम का वनवास माता कौशल्या की व्याकुलता का कारण है। लेखक का मन कौशल्या के मन के तरंग के साथ जुड़ गया। राजा राम उनके प्रियजन के रूप में प्रकट हो गए। राम के वनवास से लौटकर आने से मन को ठीक उसी प्रकार संतोष होता है, जिस प्रकार प्रियजन के वापस लौटने से होता है। लेखक का मन कल्पना लोक में विचरने लगा, जहाँ उनके मन में राजा राम का उनके मुकुट के साथ अभिषेक हो गया। मुकुट के साथ ही उनके वनवास की यात्रा भी शुरू हो गई। मुकुट के साथ राजा राम सबके मन में प्रतिष्ठित हो गए। मुकुट के संग ही अयोध्या की मान-प्रतिष्ठा, मर्यादा, ऐश्वर्य एवं उत्कर्ष भी राजा राम के साथ वनवास चला गया। अखंड सौभाग्यवती सीता की माँग का सिंदूर भी असुरक्षा के घेरे में गिर गया। ‘कमरबंद दुपट्टा’ अर्थात् प्रहरी की जागरूकता उत्कर्ष, मर्यादा, मान-सम्मान एवं ऐश्वर्य के प्रतीक ‘मुकुट’ की रक्षा भावना में सदैव ही जागरूक रहे। उदात्त गुणों से परिपूर्ण ऐश्वर्य का प्रतीक ‘मुकुट’ कभी किसी बारिश या विपत्ति के ज्वार में भीगने न पाए।
सोचते-सोचते लगा कि इस देश की ही नहीं, पूरे विश्व की एक कौसल्या है; जो हर बारिश में बिसूर रही है—‘मोरे राम के भीजै मुकुटवा’ (मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा)। मेरी संतान, ऐश्वर्य की अधिकारिणी संतान वन में घूम रही है, उसका मुकुट, उसका ऐश्वर्य भीग रहा है, मेरे राम कब घर लौटेंगे; मेरे राम के सेवक का दुपट्टा भीग रहा है, पहरुए का कमरबंद भीग रहा है, उसका जागरण भीग रहा है, मेरे राम की सहचारिणी सीता का सिंदूर भीग रहा है, उसका अखंड सौभाग्य भीग रहा है, मैं कैसे धीरज धरूँ?”
“पुरा यत्र  स्रोत: पुलिनमधुना तत्र सरितां, 
विपर्यासं यातो घनविरलभाव: क्षितिरुहाम्।
बहो: कालाद् दृष्टं ह्यपरमिव मन्ये वनमिदं, 
निवेश: शैलानां तदिदमिति बुद्धिं द्रढयति।”
उक्त पंक्तियों के माध्यम से यह कहने का प्रयास किया गया है कि इंतजार की वेदना कितनी कष्टकारी होती है। चिरंजीव के मेहमान लड़की के साथ कार्यक्रम के लिए जाने और वापस आने में देरी होने पर यह सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि तुम लोगों को इसका क्या अंदाजा होगा कि हम कितने परेशान रहे हैं। भोजन-दूध धरा रह गया, किसी ने भी छुआ नहीं, मुँह ढाँपकर सोने का बहाना शुरू हुआ, मैं भी स्वस्ति की साँस लेकर बिस्तर पर पड़ा, पर अर्द्धचेतन अवस्था में फिर जहाँ खोया हुआ था, वहीं लौट गया। अपने लड़के घर लौट आए, बारिश से नहीं संगीत से भीगकर, मेरी दादी-नानी के गीतों के राम, लखन और सीता अभी भी वन-वन भीग रहे हैं। तेज बारिश में पेड़ की छाया और दु:खद हो जाती है, पेड़ की हर पत्ती से टप-टप बूँदें पड़ने लगती हैं, तने पर टिकें तो उसकी नस-नस से आप्लावित होकर बारिश पीठ गलाने लगती है। जाने कब से मेरे राम भीग रहे हैं और बादल हैं कि मूसलधार ढरकाए चले जा रहे हैं, इतने में मन में एक चोर धीरे से फुसफुसाता है, राम तुम्हारे कब से हुए, तुम, जिसकी बुनावट पहचान में नहीं आती, जिसके व्यक्तित्व के ताने-बाने तार-तार होकर अलग हो गए हैं, तुम्हारे कहे जाने वाले कोई हो भी सकते हैं कि वह तुम कह रहे हो, मेरे राम! और चोर की बात सच लगती है, मन कितना बँटा हुआ है, मनचाही और अनचाही दोनों तरह की हजार चीजों में। दूसरे कुछ पतियाएँ भी, पर अपने ही भीतर प्रतीति नहीं होती कि मैं किसी का हूँ या कोई मेरा है।
नारी के सौभाग्य, पति के सुख का प्रतीक नारी के मस्तक पर सुशोभित उसकी माँग का सिंदूर होता है। वही सिंदूर सीता की माँग को उज्ज्वलित कर रहा है। सीता की माँग का सिंदूर असुरक्षित न हो पाए, परंतु राम के सुख की चिंता करने वाला समाज एवं सीता की माँग का सिंदूर तो राम को वन‌वास से अयोध्या वापस लौटने के लिए सक्षम रहा। लेकिन सौभाग्यवती सीता अपने प्रसव के दर्द को लेकर पुनः वनवास की एकांत ज्वाला को भोगने के लिए मजबूर हो गई। प्राचीन काल की यही परंपरा आधुनिक काल में भी अपना वर्चस्व बनाए हुए सबसे अधिक उन कष्टों को झेलती है। असुरक्षा के इस दौर में नारी मिश्रजी अपने इस भावानुकूल मन में विचारते ही हैं कि भोर के चार बज जाते हैं। तब कहीं अचानक उनके पुत्र एवं कृष्णा का संगीत कार्यक्रम से आगमन होता है। लेकिन वर्षों से चले आ रहे वनवास की यात्रा को भोगते राम की कथा लेखक के मन में तब भी विराजमान है। 
इस निबंध में उन्होंने लिखा है कि इतनी असंख्य कौसल्याओं के कंठ में बसी हुई, जो एक अरूप ध्वनिमयी कौसल्या है, अपनी सृष्टि के संकट में उसके सतत उत्कर्ष के लिए आकुल, उस कौसल्या की ओर, उस मानवीय संवेदना की ओर ही कहीं राह है, घास के नीचे दबी हुई। पर उस घास की महिमा अपरंपार है, उसे तो आज वन्य पशुओं का राजकीय संरक्षित क्षेत्र बनाया जा रहा है, नीचे ढकी हुई राह तो सैलानियों के घूमने के लिए, वन्य पशुओं के प्रदर्शन के लिए, फोटो खींचने वालों की चमकती छवि-यात्राओं के लिए बहुत ही रमणीक स्थल बनाया जा रहा है। उस राह पर तुलसी और उनके मानस के नाम पर बड़े-बड़े तमाशे होंगे, फुलझड़ियाँ दगेंगी, सैर-सपाटे होंगे, पर वह राह ढकी ही रह जाएगी, केवल चक्की का स्वर, राह तलाशता रहेगा—किस ओर राम मुड़े होंगे, बारिश से बचने के लिए? किस ओर? किस ओर? बता दो सखी।
कैसे मंगलमय प्रभात की कल्पना थी और कैसी अँधेरी कालरात्रि आ गई है? एक-दूसरे को देखने से डर लगता है। घर मसान हो गया है, अपने ही लोग भूत-प्रेत बन गए हैं, पेड़ सूख गए हैं, लताएँ कुम्हला गई हैं। नदियों और सरोवरों को देखना भी दुस्सह हो गया है। केवल इसलिए कि जिसका ऐश्वर्य से अभिषेक हो रहा था, वह निर्वासित हो गया। उत्कर्ष की ओर उन्मुख समष्टि का चैतन्य अपने ही घर से बाहर कर दिया गया, उत्कर्ष की, मनुष्य की ऊर्ध्वोन्मुख चेतना की यही कीमत सनातन काल से अदा की जाती रही है। इसलिए जब कीमत अदा कर ही दी गई तो उत्कर्ष कम-से-कम सुरक्षित रहे, यह चिंता स्वाभाविक हो जाती है। नर के रूप में लीला करने वाले नारायण निर्वासन की व्यवस्था झेलें, पर नर रूप में उनकी ईश्वरता का बोध दमकता रहे, पानी की बूँदों की झालर में उसकी दीप्ति छिपने न पाए। उस नारायण की सुख-शेष बने अनंत के अवतार लक्ष्मण भले ही भीगते रहे, उनका दुपट्टा, उनका अहर्निशि जागर न भीजे, शेषी नारायण के ऐश्वर्य का गौरव अनंत शेष के जागर संकल्प से ही सुरक्षित हो सकेगा और इन दोनों का गौरव जगज्जननी आ‌द्याशक्ति के अखंड सौभाग्य, सीमंत, सिंदूर से रक्षित हो सकेगा, उस शक्ति का एकनिष्ठ प्रेम पाकर राम का मुकुट है, क्योंकि राम का निर्वासन वस्तुतः सीता का दुहरा निर्वासन है। राम तो लौटकर राजा होते हैं, पर रानी होते ही सीता राजा राम द्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं। 
निबंध के माध्यम से भारत विशेष तौर पर अवध क्षेत्र के आसपास के क्षेत्र के लोक जीवन में राम की करुणामयी कहानी को प्रदर्शित करने का सफल प्रयास किया गया है। मानवीय चिंता का वर्णन भी देखा जा सकता है। इसमें संगीत कार्यक्रम की घटना का उल्लेख किया गया है। घर आने वाली मेहमान लड़की संगीत कार्यक्रम में बेटे के साथ जाती है, जब उनको लौटने में देर होती है, तो मन में चिंता होना स्वाभाविक होती है। इस चिंता में पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी की सोच के अंतर को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। 
इस निबंध के माध्यम से परंपराओं पर भी कटाक्ष किया गया है कि काशी में रामलीला के आरंभ होने के पूर्व बाकायदा मुहूर्त निकालकर राम के मुकुट की पूजा-अर्चना की जाती है। यानी सभी को भीगने की चिंता होती है, लेकिन आज करोड़ों लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, जो अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश हैं। 
मिश्रजी के निबंध में मौलिक चिंता, पांडित्य शैली, संस्कृति-बोध तथा लोक जीवन के प्रति गहन संवेदना प्राप्त होती है। ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ निबंध में लेखक ने सीता, लक्ष्मण, भगवान् राम एवं कौशल्या के जरिए आधुनिक युवक की त्रासदी को उजागर करने की नितांत कोशिश की है। निबंधकार अपने अनुभवों के साथ ईश्वरी कथाओं को सम्मिलित कर लोक जीवन के प्रति गहरी संवेदनशीलता प्रकट करते हैं। इस निबंध के जरिए लेखक की मनःस्थिति का भी वर्णन किया गया है, जो राम के बारे में सोचते-सोचते समाज के सभी वर्ग के लोगों के बारे में सोचने के लिए विवश हो जाता है। जैसे सीता की मनोदशा का वर्णन करते-करते उन सभी माँ के प्रति सहानुभूति प्रकट करने का प्रयास किया है, जो कष्ट सहन कर भी पति का साथ नहीं छोड़ती हैं। इस प्रकार से संवेदना के माध्यम से अंतर वेदना को व्यक्त करने का कार्य बड़ी सावधानी के साथ किया है। 
निबंध के जरिए लोक जीवन से जुड़े उस पहलू को व्यक्त करने का भी प्रयास किया गया है कि जीवन में कष्टों का कोई अंत नहीं है। दूसरा कष्ट सामने आने के बाद पहला कष्ट आसान नजर आने लगता है। लिखित निबंध में सीता दो बार जंगल के जीवन की पीड़ा को भूल जाती है, लेकिन दूसरी बार का निर्वासन अत्यंत कष्टकारी और दयनीय हो जाता है। इसके साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से बेरोजगार युवकों की पीड़ा को सीमांकन करने का भी प्रयास किया गया है, लेकिन यह सीमांकन पूरा नहीं हो पाता है।
राम के वनवास को करुणा का प्रतीक बताया गया है। प्रस्तुत अध्ययन के दौरान लोक जीवन से जुड़े इन्हीं पहलुओं की विस्तार से विवेचना की गई है। राम के साथ लक्ष्मण वन में गए थे, ताकि मुकुट की रक्षा की जा सके। निबंधकार ने राम के कमरबंद दुपट्टे को प्रहरी की जागरूकता का प्रतीक माना है। अप्रत्यक्ष रूप से आज के लाखों-करोड़ों बेरोजगार राम इस लोक में दर-दर भटक रहे लोगों के प्रति चिंता व्यक्त की। इस प्रकार से ललित निबंध के जरिए लोक जीवन के कई पहलुओं को छूने का प्रयास किया गया है। बेघर एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों का वर्णन किया है, जिनको समाज भूल गया है।
इस निबंध के जरिए उन्होंने पुरानी पीढ़ी की अपनी संतान के लिए चिंता को उजागर करने का प्रयास किया। वनवासी होने पर भी उसे मुकुट पहनाया जाता है और उस मुकुट को भीगने से बचाना होता है। लेखक ने लोक जीवन की अंतर्वेदना को राम के राजतिलक के समय की घटना के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की है।
निबंध के माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि जिस व्यक्ति का राज-अभिषेक हो रहा था, विडंबनावश उसे राजसिंहासन की अपेक्षा वनवास हो गया। यानी जीवन में समय का महत्त्व है, परिस्थितियों के हिसाब से कभी भी बदलाव हो सकता है। कुछ भी इस संसार में निश्चित नहीं है।


मकान नं.-२१, सरदार पटेल नगर कॉलोनी, 
भारत टॉकीज के पीछे, हमीदिया रोड, 
भोपाल-४६२००१ (म.प्र.)
दूरभाष : ८९८९०९३६०४

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