प्रयाग महाकुंभ और गंगा की निर्मलता

भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त डॉ. प्रमोद कुमार अग्रवाल हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। वे १९८७ से १९९२ तक गंगा निर्मलीकरण योजना में केंद्र सरकार की ओर से उ.प्र. में निदेशक रहे। हिंदी में पचपन पुस्तकें तथा अंग्रेजी में बीस से अधिक पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित।

गवद्‌पुराण में लिखा है कि गंगा ने प्रदूषण के भय से पृथ्वी पर आने से मना कर दिया था, तब भगीरथ ने मनुष्य जाति की ओर से उनकी शुचिता की रक्षा करने का वायदा किया था। भारतीयों द्वारा इस वायदे को पूरा करने के लिए सन् १९८५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की अध्यक्षता में गंगा कार्य योजना लागू की गई, जिसका उद्देश्य था कि गंगा में ७० प्रतिशत प्रदूषण को रोकना तथा १९८९ के कुंभ मेले के दौरान गंगाजल की स्नान योग्य गुणवत्ता सुनिश्चित करना। स्नान योग्य जल के लिए उसका बी.ओ.डी. (बायो ऑक्सीजन डिमांड) ३ मि.ली. ग्राम प्रति लीटर या इससे कम हो। पीने योग्य पानी में २ मि.ली. ग्राम प्रतिलीटर या उससे कम तथा घुलित ऑक्सीजन की मात्रा प्रति लीटर कम-से-कम ५ मि.ली. ग्राम प्रति ली. हो, पी.एच. ६.५ से ८.५ के बीच में अब नहाने योग्य जल में कुल घुलित कॉलीफॉर्म की संख्या ५०० से बढ़ाकर २५०० फीकल कॉलीफॉर्म प्रति १०० मि.ली. तक कर दी गई है। ये मानक २५ सितंबर, २००० को भारत के राजपत्र में भी प्रकाशित हैं।
वर्तमान में संगम, प्रयागराज पर जल की स्थिति की जानकारी आवश्यक है। वर्ष १९८९ और २०१३ में कुंभ मेले के दौरान गंगाजल की गुणवत्ता उपलब्ध कर ली गई थी। वर्तमान में भी उ.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार जून २०२३ में संगम पर बी.ओ.डी. २.९ मि.ली. ग्राम प्रति लीटर है, जो संतोषजनक है। उसके पश्चात् गंगा की सफाई योजना का काम सरकारी योजना की भाँति हो गया तथा इसमें देश की अधिकांश नदियाँ सम्मिलित कर ली गई थीं। गंगा कार्य योजना के स्थान पर राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना हो गई एवं पर्यावरण हेतु संपूर्ण देश में धनराशि आवंटित हुई, पर जहाँ राज्य सरकारें अपना अंशदान न दे सकीं, उन प्रदेशों में योजना लागू नहीं हो सकी।
सन् १९८९ में प्रयागराज नगर की जनसंख्या प्रायः दस लाख थी, वह संगम पर गंगाजल की गुणवत्ता प्रदूषित करने वाली जनसंख्या प्रायः १५ लाख हो गई। अतः जो आज प्रयागराज में प्रदूषण बोझ है, वह प्रायः ८१ नालों के जरिए २ करोड़ लीटर मलजल प्रतिदिन हो गया है, जबकि १९८९ के दौरान यह १० करोड़ लीटर मलजल से अधिक नहीं था। इस योजना में सीवर लाइन की सफाई, पंपिंग स्टेशनों की क्षमता वृद्धि, सामुदायिक एवं घरों में जलधौत शौचालयों का निर्माण एवं नदी पर पक्के घाटों तथा धोबी घाटों का निर्माण। सन् २०२५ के महाकुंभ के समय योजनाओं की बाढ़ सी आ गई है। यह तो सरकारी कार्यदायी विभागों या संस्थाओं को चुनौती है कि क्या वे श्रद्धालु जनता के लिए संगम, प्रयागराज तथा गंगा-यमुना में स्नान योग्य मानक जल सुनिश्चित कर सकेंगे। गंगा या यमुना में मलजल को संगम तक पहुँचाने के पूर्व ही उसके रोकने तथा दूर ले जाकर शुद्धीकरण करने की व्यवस्था की गई है, क्योंकि कोई भी नदी सफाई योजना, उसके किनारे रहने वालों के घरों से ही प्रारंभ होती है तथा मलजल को संगम से ८-१० कि.मी. दूर गिरने से रोकना आवश्यक है, क्योंकि एक अनुमान के अनुसार गंगाजल ८ कि.मी. चलकर स्वयं शुद्ध हो जाता है। यह गंगाजल में अंतनिर्हित क्षमता अन्य नदियों के जल से अधिक है, क्योंकि गंगाजल हिमालय से यात्रा करते समय अपने में वे जड़ी-बूटियाँ समाहित कर लेता है, जो सभी प्रकार की गंदगी से लड़ सकती हैं, फिर गंगा रेत, गंगाजल को निरंतर साफ करती रहती है। यही कारण है कि प्रयागराज संगम में जल की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए यमुना नदी पर अधिक योजनाएँ ली गई हैं, क्योंकि संगम पर यमुना जल की मात्रा गंगाजल से अधिक है। यमुना गंगा की बड़ी बहन भी है। अतः कोडरा, सुलेमसराय, पोनघाट, नोमा पाडरी तथा नैनी आदि स्थानों पर प्रायः दस शुद्धीकरण संयंत्रों का जाल फैलाकर संगम पर गंगाजल की गुणवत्ता को स्नानयोग्य सुनिश्चित किया गया। इससे करोड़ों स्नानार्थियों तथा तीर्थयात्रियों को जहाँ एक ओर विशुद्ध जल उपलब्ध होगा, वहाँ प्रयागराजवासियों को आगामी दशक में निश्चिंत होकर शहर में नगरीय सुविधाएँ प्राप्त होंगी, जो उत्तर प्रदेश के ही नहीं अपितु अन्य नगरों में दुर्लभ हैं।
औद्योगिक प्रदूषण एक बड़ी समस्या है तथा वह प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। उद्योगपतियों को औद्योगिक प्रदूषण को नियंत्रण करने के लिए उत्सर्जित अवशिष्ट जल को साफ करने के लिए संयंत्र लगाना चाहिए। क्या औद्योगिक घरानों के व्यक्तिगण गंगा प्रेमी नहीं हैं? वे समाज में अधिक शिक्षित एवं क्षमताशील व्यक्ति हैं।
उन्हें अपने प्रदूषण को स्वयं सँभालना चाहिए, ताकि वे समाज से अलग-थलग न पड़ जाएँ।
गंगा में स्नान करते समय जो शिकायतें सामने आती हैं, वे स्थानीय प्रदूषण की हैं, जैसे शवदाह गृहों की स्थापना के बावजूद लोग शवों को नदी में बहा देते हैं। नदी के किनारे मल विसर्जन करते हैं। घर का सब कचरा फेंकते हैं तथा पुराने फूल, मूर्तियाँ तथा दूध आदि सामान बहा देते हैं। इसके लिए जनजागरण आवश्यक है, जो कुंभ एवं मेलों के दौरान बड़े पैमाने पर देखा जाता है। फिर भी कुंभ के दौरान लोग बीमार नहीं पड़ते।
प्रयागराज के अधिकांश नालों का बहाव यमुना की ओर है। उसमें तीन बड़े नाले घाघर, चाचर एवं मोरीगेट नाला संगम से ४ कि.मी. से कम दूरी पर हैं। इनसे बहने वाला मलजल नियंत्रित होना ही चाहिए। ऐसा न हो कि दिन में मलजल नियंत्रित हो तथा रात के अँधेरे में उसे छोड़ दिया जाए। अब तो इन योजनाओं के रख-रखाव पर भी केंद्रीय सरकार ने ७० प्रतिशत अंशदान देने की पेशकश की है। अतः इन योजनाओं का रख-रखाव नागरिकों को लेकर बनाई गई समिति की देख-रेख में होना चाहिए तथा भ्रष्ट एवं लापरवाह कर्मचारियों तथा अधिकारियों को भी पर्यावरण अधिनियम के अंतर्गत दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए। कम-से-कम मुख्य स्नान के दिनों संगम, गंगा एवं यमुना के जल की गुणवत्ता की जनता को सूचना होनी चाहिए, जैसे वायु प्रदूषण की सूचना मोबाइल पर भी दी जाती है।
शहरी और औद्योगिक ठोस अपशिष्ट पदार्थों जैसे कूड़ा-करकट आदि से विभिन्न रासायनिक विधियों द्वारा अन्य उपयोगी पदार्थ बनाए जा सकते हैं। यहाँ तक कि उनसे विद्युत् भी उत्पन्न की जा सकती है। इन पदार्थों को जलाने या पुनः चक्रण की व्यवस्था करना अति आवश्यक है। आशा है कि संपूर्ण प्रयागराज शहर एवं आस-पास जलधौत शौचालय का निर्माण करके मल ढोने की प्रथा बंद करने के इलाहाबाद महानगरपालिका के प्राक्तन मेयर पं. जवाहर लाल नेहरू का वर्ष १९२७-२८ का स्वप्न पूरा हो गया। जानवरों का गंगा-यमुना में नहलाना बंद करके लोग गंगा-यमुना के जल को पीने योग्य बनाने का प्रयत्न करेंगे।
हमारे देश में उत्तम श्रेणी के तकनीशियनों तथा अभियंताओं का अभाव नहीं है। आशा है कि वे पूर्ण इच्छाशक्ति से संगम की सफाई में जुटेंगे तथा प्रशासनिक एवं राजनैतिक प्रबल इच्छाशक्ति उन्हें इस महायज्ञ में सहयोग करेगी।
कुंभ क्षेत्र में निरंतर यज्ञों का आयोजन प्रदूषण कम करने में सहायता करता है। वायु अपने साथ में यज्ञीय स्थल की यज्ञीय औषधों को बहाकर ले जाती है और शुद्ध वायु शरीर में प्रवेश कर नीरोग करती है और आयु को बढ़ाती है तथा पर्यावरण को भी शुद्ध करती है। शुद्ध वायु के सेवन से हमारा रक्त शुद्ध होता है। उसमें रोग के कीटाणु-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। अंततः जल प्रदूषण भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रचेष्टा से या सफाई से अपने शरीर में जाने से रोक सकता है।
अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा है कि शहंशाह अकबर गंगाजल ही पीना पसंद करता था। उसके लिए उसने एक अलग विभाग का गठन किया, जिससे हर समय शुद्ध एवं ताजा गंगाजल ऊँटों पर लादकर ले जाया जाता था। उसके उत्तराधिकारी जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब ने भी इस परंपरा को जारी रखा।
धन्वंतरि ने कहा है कि गंगाजल एक औषधि है तथा चरक ने कहा कि गंगाजल एक अति उत्तम भोजन है। भारत के सभी लोग मिलकर गंगा की प्राचीन शुचिता को फिर से लौटाने का प्रयत्न करेंगे। गंगा भारत की संस्कृति तथा सभ्यता की प्रतीक है। अतः गंगा एवं अन्य नदियों को उनका अपना मौलिक स्वास्थ्य लौटाना हमारा राष्ट्रीय एवं संवैधानिक कर्तव्य है, जिसकी अवधारणा भारत के संविधान के ५१क अनुच्छेद में निहित है। यह कार्य केवल सरकारी योजनाओं एवं प्रयत्नों से नहीं पूर्ण हो सकता। उसके लिए गैर-सरकारी संगठनों, स्थानीय निकायों तथा जनता की भागीदारी आवश्यक है।

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