खुशी की खोज

खुशी की खोज

खुशी की खोज युग से लेकर उत्तर-आधुनिक तक की सतत इनसानी तलाश है। यह भी सच है कि आदमी रोते-रोते जन्म लेता है। कौन कहे कि अवचेतन पर इसी का प्रभाव हो कि उसका भरपूर प्रयास रहता है कि उसके भविष्य में ऐसे दु:खद पल नहीं आएँ कि आँखें अनायास गीली हों? कुछ समय के लिए इसमें कुछ सफल भी रहे हैं। हमने स्वयं देखा है। हमारे एक परिचित हमउम्र के जाने पर उनके दोनों पुत्र इस प्रश्न में उलझे थे कि जाते-जाते वृद्ध कितनी दौलत किसके नाम छोड़ गया है? बचपन से यौवन तक जीते-जी दोनों बूढ़े को मुँह नहीं लगाते थे। उनकी अपनी-अपनी व्यस्तताएँ थीं। एक एम.ए. कर रहा था। उसका भविष्य का सपना देश की नेतागीरी था। वह छात्रों की यूनियन में सचिव बनकर अपने भविष्य के मिशन के इसी पूर्वाभ्यास में जुटा रहता। कोई-न-कोई वास्तविक या काल्पनिक समस्या पर वह अपने प्रोफेसर या कुलपति को धमकी देता पाया जाता कि वह छात्रों के व्यापक हित का ध्यान रखें वरना परिणाम अनुकूल न होंगे?
उसका इकलौता लक्ष्य स्थानीय राजनेताओं में संपर्क बनाए रखना था। संभव हो तो, उनके माध्यम से प्रांतीय और राष्ट्रीय नेताओं से। जैसा इधर अकसर होता है, आदर्श, सिद्धांत या उसूलों से, किसी दल विशेष का न होकर, इस विषय में उसका रुख कतई लचीला था। सैद्धांतिक बंधन से मुक्त, उसका इकलौता सिद्धांत उसका निजी स्वार्थ था। कौन दल उसे चुनाव का प्रत्याशी बनाए? किस पार्टी की कब जीत की अधिक संभावना हो? वह उसी का सदस्य-कार्यकर्ता बनने को प्रस्तुत है। बस सवाल अवसर व वक्त का है।
पिताश्री की मृत्यु पर उसने शहर के हर नेता को घर निमंत्रित किया। सब आए भी, पिताश्री की फूलमाला पहने चित्र का दर्शन करने। इस सार्वजनिक संपर्क के बाद उसका पिता जाने की शोकाकुल, रोंआसी मुद्रा का भी अंत हो गया। वह और उसके भाई उनकी पूरी संपत्ति की तलाश में लग लिये। इस सिलसिले में उनके कमरे के लॉकर, मेज के दराज, बिस्तर, दो सूटकेस का, एक-एक कोना, दोनों भाइयों ने मिलकर छान मारा। सरकारी कार्यालय के चक्कर भी काटे, जहाँ से पेंशन आती थी, उस बैंक के भी, जो यह रकम उन्हें हर माह देता था। जहाँ उन्हें बैंक का नंबर दिखा, वह उस बैंक की ओर दौड़ लिये, जमा-राशि की खोज-खबर लेने। हर बैंक की राशि मिलाकर उन्होंने कुल आठ-दस लाख की जमा-पूँजी छोड़ी थी। यह राशि उस घर के अतिरिक्त थी, जो पास के मोहल्ले में किराए पर था। वह इस समय तकरीबन दो करोड़ की राशि दे जाता। रहने वाले घर को शामिल कर बूढ़ा चार-पाँच करोड़ का स्वामी था।
वर्तमान का फिल्मी प्रभाव है। कोई मिलने वाला आता तो दोनों की शक्ल पर शोक की रेखाएँ उभर आतीं। चाचा-ताऊ का परिवार आया तो छोटे-बड़े भाई की अभिनय प्रवीणता की प्रतिभा उभर आई दोनों की नम आँखें, पिता के प्रति स्नेह की कथा, मौन रहकर ही सुना गई। हर मिलने वाले ने स्वर्गवासी पिता के बेटों के गुण गाए ‘भाग्यशाली थे रामदुलारे। ऐसे पितृभक्त बेटे सबको कहाँ मिलते हैं?’
बेटों ने पिता की संपत्ति का अनुमान तो लगा ही लिया था। तब से वे उनकी वसीयत की खोज में जुटे थे। दरअसल, वसीयत न होती तो भी, सामान्य तौर पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। पर अंत के दो-तीन वर्ष पूर्व, दोनों भाइयों को अब याद आया कि उनके बुढऊ की एक वकील से बहुत पटने लगी थी। सुबह की सैर बूढ़ों का प्रिय शौक है। वहाँ बैंच पर बैठकर बूढ़े अपने लायक-नालायक संतान को कोस लेते हैं, कभी सियासी चर्चा, कभी घटती नैतिकता की बातचीत, कभी महँगाई का रोना, कभी अतीत का स्वर्णिम युग। वक्त का अंत है, विषयों का नहीं। धीरे-धीरे आठ से नौ बजते हैं, तब बेमन वृद्धों को घर की याद आती है। भोर के पंछी, अपने-अपने नीड़ की ओर लौटने को विवश हैं। अभी दोनों भाइयों का विवाह नहीं हुआ था। घर में सिर्फ पिता के जमाने का राजू था। वह भी पिता का समकालीन। उसके बेटे की बहू, चाय-नाश्ते से लेकर खाने-पीने का सारा इंतजाम देखती। उनका पूरा परिवार घर के आउट-हाउस में बसा था। राजू भी पिता के दफ्तर के चपरासी थे और उनके खास विश्वासपात्र। उनसे वकील के नाम, अते-पते की आशा भी व्यर्थ थी। उन्हें वकील में क्या रुचि? बस उनकी स्मृति इस तथ्य तक सीमित थी कि साहब भोर में घूमने जाते हैं और एक-दो घंटे के अंतराल के बाद लौटते हैं।
दोनों भाई एकमत थे कि बाबूजी उर्फ उनके पिता बेटों से अप्रसन्न थे। उनकी महत्त्वाकांक्षा थी कि बेटे प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में भाग लें, वहाँ सफल होकर उनका नाम रोशन करें। पर दोनों ने उनकी एक न सुनी। उल्टे एक वकालत की डिग्री लेकर बिना किसी मुवक्किल के वकील बन बैठा। दिन भर वह अपने सीनियर के यहाँ बैठकर बकौल बाबूजी मक्खी मारता, खाली हाथ लौट आता और दूसरा नेतागीरी के सपनों में मगन था। बाबूजी को दूर-दूर तक बेटों की सफलता के आसार तक नजर नहीं आते। उल्टे उनकी निराशा और बढ़ती जाती। 
दोनों भाई पिता के काले कोट वाले साथी के प्रति शंकालु थे। कौन कहे, बाबूजी को क्या सूझ बैठे? बाबूजी भी अनबूझ आवेश के चलते कोई दूरगामी कदम न उठा लें? इधर बाबूजी दान, परोपकार और अध्यात्म जैसी व्यर्थ की बातें बहुत करने लगे थे। जब सुनो तो दान-पुण्य की चर्चा। वह सशंकित हुए कि कहीं काले कोट वाला कुछ उल्टी-सीधी वसीयत न बनवा दे? वकीलों का क्या भरोसा? उनका कोई सगा तो होता नहीं है। जब तक केस, तब तक फीस। ताल्लुकात भी पैसे के अवसर अधिकतर केस तक चलते हैं। उसके बाद वकील के अपने और मुवक्किलों में व्यस्त हो जाता है। दोनों भाई इसी भय से आक्रांत थे। बूढ़े वकील के साथ मिलकर कहीं सीमित संपत्ति का दान न कर बैठा हो? तब क्या होगा? दोनों के रहने, खाने और अस्तित्व का प्रश्न था। एक की वकालत की भविष्य की शोहरत और प्रसिद्धि का सवाल था, दूसरे की नेतागीरी का। पिता की मृत्यु से दोनों मन-ही-मन मुदित थे कि डेढ़-दो करोड़ बैठे-ठाले मिले तो लक्ष्य की प्राप्ति में कुछ मदद होगी? पर इस वसीयत के खौफ ने दोनों का चैन हर लिया। उन्हें ऐसा लगता कि उनके पास लैप-टॉप तो है, पर उसे चलाएँ कैसे? उसका ‘माउस’ ही गायब है। बिन माउस वाले लैप-टॉप का उनके लिए उपयोग ही क्या है?
इस बीच उनके फोन अनजान नंबर से आती कॉल से घनघनाते रहते। उसूलन, वह दोनों इस प्रकार की ‘कॉल’ बीच में ही काट देते या उठाते ही नहीं। अचानक एक दिन, सबेरे-सबेरे दरवाजे पर खटखट हुई। बिजली दिन में कई बार घंटों अपनी अनजान यात्रा पर निकल पड़ती थी और लौटती ही नहीं। बिजली बोर्ड के विषय में बहुधा यह मजाक लोकप्रिय हो गया था कि वह किसी ‘दोष’ या ‘तकनीकी फाल्ट’ होने पर उसे सुधारने के स्थान पर समवेत प्रार्थना करने में जुट जाता है, बिजली अपने आकाशीय प्रेमी से विदा लेकर शीघ्र पधारे। ऐसी स्थिति में दरवाजे पर थाप देना या उसे खटखटाना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। दोनों भाई चौंक पड़े। एक ने दरवाजा खोला तो आगंतुक ने वसीयत की प्रति दिखाई, उसमें स्पष्ट था कि इस घर के अलावा दूसरा मकान और सारा कैश उनके बाबूजी अर्थात् रामदुलारे ‘कल्याण वृद्धाश्रम’ को दान में दे गए। जो सुरक्षित था, वह उनके सिर की छत अर्थात् यह मकान था। दोनों की आशाओं पर तुषारापात हो गया। 
जहाँ कुछ खुशी को विरासत के आधार पर खोजते हैं तो कुछ व्यापार के जरिए। कइयों का धंधा आयात-निर्यात है। इस बहाने विदेशों का सैर-सपाटा भी हो जाता है। सफल रहे तो एक-दो पल खुशी के भी मिलते, पर अधिकतर परिवर्तित दुनिया और समय के अनुरूप इतने झगड़े-झंझट और गुणवत्ता के मसले रहते कि बैठे-ठाले चैन नहीं है। दिमागी उलझन लगी रहती है खुशी के स्थान पर। न पाने का अवसर होना, न उसकी तलाश का। 
एक अन्य घरेलू व्यापार है। उसमें गजब की प्रतियोगिता है। सेल्स टैक्स से लेकर ‘जी.एस.टी.’ तक का चक्कर है। छोटे-मोेटे अफसर अपनी दिन-प्रति-दिन की वसूली के लिए जीभ लपलपाते प्रस्तुत हैं। यह मुद्दा इतना गंभीर है कि कई व्यापारिक संस्थान इसके लिए अलग अधिकारी नियुक्त किए हुए हैं। जिनका काम ही दे-दिवाकर इन रोजमर्रा के प्रतिदिन के मसलों को निबटाना है। अगर कोई गंभीरता से सोचे तो उसे लगता है कि मनुष्य की रगों में खून की जगह भ्रष्टाचार का लहू दौड़ रहा है। यह तथ्य सरकारी-कर्मियों के लिए शत-प्रतिशत सच है, उन सबके लिए भी जो अधिकार के स्थान पर बैठे हैं। इससे एक तथ्य स्पष्ट है। खुशी सोने-चाँदी के सिक्कों में उपलब्ध नहीं है। 
भ्रष्टाचारियों का इकलौता लक्ष्य ऊपर की कमाई है, जो नियमित वेतन से इतर है। कइयों ने इस कमाई से आट्टालिकाएँ बनवाई हैं, अपने पद के प्रभाव से उसमें बैंक से लेकर व्यापारिक संस्थानों तक को किराए पर दिए हैं। कहीं ऐसा न हो कि पेंशन पर गुजारा करना पड़े? बेटों का जीवन शान से बीते, साथ ही नालायक बेेटे का भी। पुश्त-दर-पुश्त उनका आभार मानें जैसे कि भारतीय प्रजातंत्र का चलन है। उसमें एक पारिवारिक प्रजातंत्र की पुनीत परंपरा है। होगा तो प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री ही होगा, अथवा मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री ही बनेगा। ‘ऐसे राजसी, शाही परिवार हमारे लोकतंत्र की सामंती शोभा है। कुछ को इस पर गर्व है, ऐसे विश्व में कितने लोकतंत्र हैं, जो अतीत की सामंती गरिमा को साथ लेकर चलते हैं। हमने प्रजातंत्र और सामंत-तंत्र का मध्यम मार्ग चुना है। दुनिया में कहीं का जनतंत्र ऐसा है क्या?’
हमें लगता है कि सरकार हो, व्यापार हो या अन्य कोई रोजगार, सबकी अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। कुछ का जीवन इनसे जूझने में ही बीत जाता है, खुशी कहाँ से हासिल हो? कमाई भ्रष्टाचार की हो या ईमानदार व्यापार की, वह अपने साथ जोखिम कठिनाइयाँ लाती है। अवैध कमाई के खतरे हैं। उनके रहते कोई खुश रहे तो कैसे रहे? 
ईमानदारी की कमाई में आयकर की खुर-पेंच हैं, आयकर विभाग का काम ही आय बढ़ाने के नए-नए अन्वेषण करना है। कैसे-कैसे करके उसके नए स‍्राेत तैयार हों? कैसे कर व्यक्ति की भले घटे, सरकार की कमाई बढ़े? कैसे कर को परिभाषित करें उसके दायरे में और अधिक धन आए? 
यह इस विभाग की ऐसी सिफत है, जिससे रोजगार बढ़ता है। सनदी लेखाकार (चार्टड अकाउंटेंट) हर व्यापारिक उद्यम की एक अनिवार्य आवश्यकता है। इसी प्रकार आयकर के विशेषज्ञ वकील भी होते हैं, जो संस्थानों की ओर से इनकम टैक्स विभाग के काल्पनिक या वास्तविक अन्यायों के विरुद्ध मुकदमे लड़ते हैं। कतई साँप और नेवले के मिथकीय युद्ध का किस्सा है। देखा न आपने है, न हमने, पर उसका जिक्र तो करना ही पड़ता है।
कभी-कभी हमें प्रतीत होता है कि खुशी स्थायी रूप से तो किसी को उपलब्ध नहीं है, पर उसका एकाध पल सबके जीवन का अंग है, जैसे पहली बार झूला झूलना या हरियाले बगीचे के खिलते फूलों को देखना या जीवन का प्रथम प्रेम। कहीं खुशी, उस हँसती-मुसकराती चंचल लड़की के समान तो नहीं है, जो घर से स्कूल या बाजार जाते-जाते गायब हो जाए और इनसानी पाशविक प्रवृत्तियों की शिकार हो? पुलिस ने बहुत प्रयास करके उसकी क्षत-विक्षत लाश बरामद की है। उसके पल भर के दर्शन तो सबने किए हैं, पर उसकी स्थायी गुजर-बसर किसी के साथ नहीं है। यह जीवन की क्रूर सच्चाई है, जिससे इनकार करना कठिन ही नहीं, असंभव है। कौन कहे यह सिर्फ रूमानी साहित्य का न होकर, जिंदगी की वास्तवकिता का वर्णन है! 
खुशी की खोज में, अपने-अपने अंदाज में सब लगे हैं, पर पूरी तरह सफल शायद कोई नहीं हुआ है। यह कुछ-कुछ नश्वर जीवन में अमरता की तलाश है।


९/५, राणा प्रताप मार्ग, 
लखनऊ-२२६००१
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