मूल नाम दुष्यंत कुमार त्यागी। उन्होंने अपने काव्य-लेखन का आरंभ ‘दुष्यंत कुमार परदेशी’ के नाम से किया था। कविताएँ दसवीं कक्षा से ही लिखने लगे थे, जिसे आगे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनों नया आयाम मिला। इन दिनों वह ‘परिमल’ और ‘नए पत्ते’ जैसी संस्थाओं के साथ सक्रिय रहे और उन्हें इलाहाबाद में सक्रिय साहित्यकारों का सान्निध्य मिला। उन दिनों इलाहाबाद में कमलेश्वर, मार्कंडेय और दुष्यंत की मित्रता चर्चित थी। वह कविता, नाटक, एकांकी, उपन्यास सदृश विधाओं में एकसमान लेखन करते रहे, लेकिन उन्हें कालजयी लोकप्रियता गजलों से प्राप्त हुई। ‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए वन का वसंत’ उनके काव्य-संग्रह हैं, जबकि ‘छोटे-छोटे सवाल’, ‘आँगन में एक वृक्ष’ और ‘दुहरी जिंदगी’ के रूप में उन्होंने उपन्यास विधा में योगदान किया है। ‘और मसीहा मर गया’ उनका प्रसिद्ध नाटक है और ‘मन के कोण’ उनके द्वारा रचित एकांकी है। उन्होंने ‘एक कंठ विषपायी’ शीर्षक काव्य-नाटक की भी रचना की है। उनके स्थायी यश का आधार उनका इकलौता गजल-संग्रह ‘साये में धूप’ है। ३० दिसंबर, १९७५ को मात्र ४२ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया है।
हो गई है पीर पर्वत सी
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी, लेकिन ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
कहाँ तो तय था चिरागाँ
कहाँ तो तय था चिरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
मत कहो, आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है।
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।
पक्ष और प्रतिपक्ष संसद् में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है।
इस नदी की धार में
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिंगारी कही से ढूँढ़ लाओ दोस्तो,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खँडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
दु:ख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो गजल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुजरती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ ऐतराज होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूँ
एक बाजू उखड़ गया जबसे
और ज्यादा वजन उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने करीब पाता हूँ
कौन ये फासला निभाएगा
मैं फरिश्ता हूँ सच बताता हूँ
रोज जब रात को बारह का गजर
रोज जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफर होता है
कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए
वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है
सिर से सीने में कभी पेट से पाँओं में कभी
एक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है
सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे
अब तो आकाश से पथराव का डर होता है
वो आदमी नहीं है
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है
देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं
पैरों तले जमीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
वो सलीबों के करीब आए तो हमको, कायदे-कानून समझाने लगे हैं।
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है, जिसमें तहखानों से तहखाने लगे हैं।
मछलियों में खलबली है, अब सफीने, उस तरफ जाने से कतराने लगे हैं।
मौलवी से डाँट खाकर अहले मकतब, फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं।
अब नई तहजीब के पेशे-नजर हम, आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
देख, दहलीज से काई नहीं जाने वाली
देख, दहलीज से काई नहीं जाने वाली, ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली।
कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है, आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली।
एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में,
मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली।
चीख निकली तो है होंठों से, मंगर मद्धम है,
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली।
तू परेशान बहुत है, तू परेशान न हो,
इन खुदाओं की खुदाई नहीं जाने वाली।
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा, चंद गजलों से तन्हाई नहीं जाने वाली।
खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही, अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही।
कैसी मशालें लेके चले तीरगी में आप, जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।
हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया, हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।
मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा,
या यूँ कहो कि बर्फ की दहशत नहीं रही।
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला, इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही।
कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे, कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही।
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही।
सीने में जिंदगी के अलामात हैं अभी, गो जिंदगी की कोई जरूरत नहीं रही।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा।
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है, कि इनसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फाके बिताकर मर गया, जो उसके बारे में, वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।
चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
चाँदनी छत पे चल रही होगी
चाँदनी छत पे चल रही होगी, अब अकेली टहल रही होगी।
फिर मेरा जिक्र आ गया होगा, वो बरफ-सी पिघल रही होगी।
कल का सपना बहुत सुहाना था,
ये उदासी न कल रही होगी।
सोचता हूँ कि बंद कमरे में, एक शमआ-सी जल रही होगी।
शहर की भीड़-भाड़ से बचकर, तू गली से निकल रही होगी।
आज बुनियाद थरथराती है, वो दुआ फूल-फल रही होगी।
तेरे गहनों-सी खनखनाती थी, बाजरे की फसल रही होगी।
जिन हवाओं ने तुझको दुलराया, उनमें मेरी गजल रही होगी।
पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी
पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी, ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी।
लपट आने लगी है अब हवाओं में, ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी।
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते,
इन्हें कुंकुम लगाकर फेंक दो तुम भी।
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे। इधर दो-चार पत्थर फेंक दो तुम भी।
ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो,
अगर कुछ शब्द कुछ स्वर फेंक दो तुम भी।
किसी संवेदना के काम आएँगे, यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी।
ये रोशनी है हक़ीकत में एक छल लोगो
ये रोशनी है हकीकत में एक छल लोगो,
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो।
दरख्त हैं तो परिंदे नजर नहीं आते,
जो मुस्तहक हैं वही हक से बेदखल लोगो।
वो घर में मेज पे कोहनी टिकाए बैठी है, थमी हुई है वहीं उम्र आजकल लोगो।
किसी भी कौम की तारीख के उजाले में, तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो।
तमाम रात रहा महवे-ख्वाब दीवाना,
किसी की नींद में पड़ता रहा खलल, लोगो।
जरूर वो भी इसी रास्ते से गुजरे हैं,
हर आदमी मुझे लगता है हम-शक्ल लोगो।
दिखे जो पाँवों के ताजा निशान सहरा में, तो याद आए हैं तालाब के कँवल लोगो।
वे कह रहे हैं गजलगो नहीं रहे शायर,
मैं सुन रहा हूँ हरेक सिम्त से गजल लोगो।
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए, ऐसा भी क्या परहेज, जरा-सी तो लीजिए।
अब रिंद बच रहे हैं जरा तेज रक्स हो, महफिल से उठ लिए हैं नमाजी तो लीजिए।
पत्तों से चाहते हो बजें साज की तरह, पेड़ों से आप पहले उदासी तो लीजिए।
खामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर, कर दी है शहर भर में मनादी तो लीजिए।
ये रोशनी का दर्द ये सिहरन, ये आरजू, ये चीज जिंदगी में नहीं थी तो लीजिए।
फिरता है कैसे-कैसे खयालों के साथ वो, उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए।
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे, मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे।
हौले-हौले पाँव हिलाओ, जल सोया है छेड़ो मत, हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे।
थोड़ी आँच बनी रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो, कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएँगे।
उनको क्या मालूम विरूपित इस सिकता पर क्या बीती,
वे आए तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आएँगे।
रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी, आगे और बढ़ें तो शायद दृश्य सुहाने आएँगे।
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता, हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे।
हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए,
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएँगे।
आज वीरान अपना घर देखा
आज वीरान अपना घर देखा, तो कई बार झाँक कर देखा।
पाँव टूटे हुए नजर आए,
एक ठहरा हुआ सफर देखा।
होश में आ गए कई सपने,
आज हमने वो खँडहर देखा।
रास्ता काटकर गई बिल्ली,
प्यार से रास्ता अगर देखा।
नालियों में हयात देखी है,
गालियों में बड़ा असर देखा।
उस परिंदे को चोट आई तो,
आपने एक-एक पर देखा।
हम खड़े थे कि ये जमी होगी, चल पड़ी तो इधर-उधर देखा।
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतंबरा
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतंबरा,
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा।
खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख्वाब,
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा।
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है,
मेरी नजर में अब भी चमन है हरा-भरा।
लंबी सुरंग-सी है तेरी जिंदगी तो बोल,
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा।
माथे पे रखके हाथ बहुत सोचते हो तुम,
गंगा कसम बताओ हमें क्या है माजरा।