हो गई है पीर पर्वत सी

जिन्होंने ठोकरें खाईं,
गरीबी में पड़े उनके,
हजारों-हा-हजारों,
हाथ के उठते समर देखे॥
गगन की ताकतें सोईं
जहाँ की हसरतें रोई
निकलते प्राण बुलबुल के,
बगीचे में अगर देखे!
महाप्राण निराला की हिंदी गजल के ये दो शेर उनके गीत/गजल संग्रह ‘बेला’ से हैं, जो १९४६ में प्रकाशित हुआ था। निरालाजी लगभग १९४० में गजलों के प्रति आकृष्ट हुए तथा अनेक गजलों का सृजन किया। इन दो शेरों में निरालाजी के सामाजिक एवं मानवीय सरोकारों की झलक देखी जा सकती है, जो हिंदी गजल को एक अलग पहचान देती है।
निरालाजी से पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी गजलें लिखी थीं। हिंदी गजल की यह धारा निरंतर प्रवाहित होती रही। गजल लिखने वाले अनेक कवियों में शमशेर बहादुर सिंहजी का नाम हिंदी गजल को प्रतिष्ठित करने वाले कव‌ि के रूप में उल्लेखनीय माना जाता है। उनके शेर भी सामाजिक मानवीय सरोकारों को सँजोए हुए चलते हैं—
जो धर्मों के अखाड़े हैं,
उन्हें लड़वा दिया जाए...!
जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर 
हमला किया जाए...!!
शमशेर के बाद नई कविता के बहुत बड़े कवि त्रिलोचन ने भी गजलें लिखीं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर शमशेर एवं त्रिलोचन तक तथा दुष्यंत कुमार से पहले बलबीर सिंह रंग, बालस्वरूप राही, सूर्यभानु गुप्त आदि कवियों-गीतकारों द्वारा अत्यंत श्रेष्ठ गजलें लिखे जाने के बावजूद हिंदी गजल की कोई पहचान नहीं बन पाई। गजलें लिखने वालों की केंद्रीय पहचान ‘कवि’ तथा ‘गीतकार’ की ही रही।
१९७५ में आपातकाल में ‘सारिका’ पत्रिका में दुष्यंत कुमार की गजलों के विशेषांक रूप में प्रकाशित होने तथा गजल-संग्रह ‘साए में धूप’ के प्रकाशित होते ही हिंदी गजल की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया। ‘साए में धूप’ की गजलें आपातकाल के डरे-सहमे वातावरण में करोड़ों भारतीयों की आवाज बन गई तथा भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति विद्रोह की हुकार बन गई। स्वयं दुष्यंत कुमार ने लिखा—
मुझ में बसते हैं, करोड़ों लोग, 
कैसे चुप रहूँ
हर गजल अब सल्तनत
के नाम एक बयान है!
दुष्यंत कुमार नई कविता (छंदमुक्त कविता) के बहुत बड़े हस्ताक्षर थे। उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं में भी उत्कृष्ट लेखन किया था। अपनी कविता को जनमानस तक पहुँचाने की तड़प उन्हें गजलों की ओर ले गई, जिसमें दो पंक्तियों में कही गई बात सीधे हृदय तक पहुँचती है। दुष्यंत कुमार ने नई कविता से गजलों की ओर मुड़ने के अनेक कारण बताए हैं। इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि तत्कालीन नई कविता आम पाठक के लिए बौद्धिकता के कारण शब्दों का चक्रव्यूह बनती जा रही थी। दुष्यंत कुमार ने लिखा है—
“मैंने अपनी तकलीफ को, उस शदीद तकलीफ को, जिससे सीना फटने लगता है, ज्यादा-से-ज्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ, ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए गजलें कही हैं।”
‘साए में धूप’ की गजलों में आम आदमी की पीड़ाओं तथा समाज में पनपी विसंगतियों, व्यवस्था में उपजी अव्यवस्था आदि का बेबाकी से चित्रण किया गया है—
कहाँ तो तय था चरागाँ,
हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं
शहर के लिए
          ×    ×    ×
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
          ×    ×    ×
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
ये कमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
आमतौर पर बड़े-से-बड़े शायरों की गजलों में एक-दो शेर ही उद्धरणीय हो पाते हैं, लेकिन ‘साए में धूप’ की लगभग हर गजल का हर शेर हृदय को स्पर्श करता है, उद्वेलित करता है।
आश्चर्य की बात नहीं है कि दुष्यंत कुमार के शेर उद्धरित किए जाने लगे और कुछ ही वर्षों में परिदृश्य ये बना कि संतों का प्रवचन हो, किसी राजनेता अथवा समाजसेवी का भाषण हो, किसी विद्वान् का व्याख्यान हो, विद्यार्थियों की वाद-विवाद प्रतियोगिता हो—दुष्यंत कुमार के किसी शेर के बिना बात पूरी नहीं होती! कहीं कोई आंदोलन हो तो आंदोलनकारी दुष्यंत का सहारा लेते हुए कहते हैं—
सिर्फ हंगामा खड़ा करना 
मेरा मकसद नहीं, 
मेरी कोशिश है कि 
ये सूरत बदलनी चाहिए। 
दुष्यंत कुमार की गजलों का जादू ऐसा प्रभावी हुआ कि हिंदी के लगभग समस्त गीतकार धीरे-धीरे गजलों की ओर मुड़ने लगे। गोपालदास नीरज, डॉ. कुँअर बेचैन जैसे लोकप्रिय गीतकार ​कवि-सम्मेलनों में गजलें सुनाने लगे। हिंदी गजलों को एक सुदृढ़ पहचान मिल गई तथा ‘हिंदी गजल’ एक प्रमुख काव्यविधा बन गई।
जिस प्रकार ‘आजाद हिंद फौज’ बनाई तो कैप्टन मोहनसिंह तथा उनके अन्य साथियों ने थी, किंतु उसे पहचान मिली नेताजी सुभाषचंद्र बोस के जुड़ने के बाद। ठीक वैसे ही हिंदी गजल की धारा तो भारतेंदुजी के समय से प्रवाहित थी, किंतु उसे स्वतंत्र पहचान दुष्यंत कुमार से मिली। दुष्यंत कुमार के शेर ‘हिंदी साहित्य संसार’ तक ही सीमित नहीं रहे; उनका प्रयोग कितने ही नाटकों में तथा सिनेमा में भी हुआ है और जैसा पहले कहा गया वे संसद् में भी गूँजते रहते हैं।
हिंदी गजल की इस यात्रा के एक-दूसरे पहलू पर विचार करना भी आवश्यक है। जैसा हमारे देश में प्राय: हर नए परिवर्तन पर विवाद होता है, हिंदी गजल भी अनेक विवादों से ​िघरी रही। एक स्वाभाविक सा विरोध तो गजल के प्रचलित स्वरूप से हटने का था, क्योंकि उर्दू गजल हो या हिंदी के गीत—उनमें प्रेम का स्वर अधिक मुखर था। गजल के नर्म लहजे का बदलना ऐसा ही था, जैसे कोई पहाड़ के सुरम्य, शीतल वातावरण से मैदानों के गरम वातावरण में आ गया हो। हिंदी के आलोचकों ने भी दुष्यंत कुमार तथा उनकी गजलों की भरपूर आलोचना की। एक तत्कालीन साहि​ित्यक पत्रिका में छपा होता था, ‘कृपया चुटकुले तथा गजलें न भेजें’। स्वाभाविक है कि यह हिंदी गजलों को अपमा​ि​नत करने वाली टिप्पणी थी। (कालांतर में वह पत्रिका भी गजलें प्रका​िश​​​त करने लगी।) हिंदी गजल का विरोध उर्दू जगत् से भी खूब हुआ।
गजल के व्याकरण का निर्वाह बहुत कठिन है। हिंदी गजल के रचनाकारों ने प्राय: गजल के व्याकरण पर पूरा ध्यान नहीं दिया तथा शिल्प संबंधी गलतियाँ कीं, इसलिए आलोचना होना स्वाभाविक था। जब एक विधा, एक भाषा से दूसरी भाषा में जाती है तो कुछ परिवर्तन तथा कुछ छूटें मिलना स्वाभाविक है, किंतु ‘काफिया’, ‘रदीफ’, ‘बहूर’ (मीटर) संबंधी बुनियादी बातों का ध्यान रखा ही जाना चाहिए। हिंदी आलोचकों की एक आपत्ति यह भी थी कि जब हिंदी में इतने छंद हैं तो गजल को इतनी प्राथमिकता क्यों? उन आलोचकों को समझना चाहिए ​था कि जैसे किसी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द प्रविष्ट हो जाते हैं, नई-नई काव्यविधाएँ भी प्रवेश पाती हैं। अज्ञेयजी जापान की हाइकु ​कविता लाए, त्रिलोचनजी ने ‘सॉनेट’ लिखे।
हिंदी गजल में शिल्पगत दोषों से होने वाली आलोचना से बचने के लिए एक रास्ता यह निकाला कि उसे गजल की बजाय कुछ और नाम दिया जाए। और फिर ‘​गीतिका’, ‘तेवरी’, ‘सजल’, ‘पू​िर्णका’, ‘गजालिका’ आदि कितने ही नाम चलने लगे।
दुष्यंत कुमार का एक अत्यंत उल्लेखनीय योगदान यह भी है कि उन्होंने उर्दू गजल का स्वरूप भी बदल दिया। उर्दू गजल विषयों के सीमित संसार को विस्तार मिला। उर्दू गजलें जो हुस्न, इश्क, लबो-रुखसार, जुल्फ, अँगड़ाई से घिरी थीं, समाज के दु:ख-दर्द से जुड़ीं। डॉ. बशीर बद्र, शहरयार, निदा फाजली जैसे शायरों ने समकालीन संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया, जिसे डॉ. राहत इंदौरी, निश्तर खानकाही, शीन काफ निजाम, मुनव्वर राणा जैसे अनेक शायरों ने आगे बढ़ाया। उर्दू गजलों के कुछ शेर इसकी पु​िष्ट करेंगे—
रंग का डिब्बा उठा लेने की 
इक सादा सा भूल!
घर के बाहर खेलते बच्चे के 
चिथड़े उड़ गए...!!
(निश्तर खानकाही)
जिंदगी तूने मुझे कब्र से कम दी है जगह 
पाँव फैलाऊँ तो दीवार से सर लगता है!
(बशीर बद्र)
ऊँची इमारतों से मकाँ मेरा ढक गया 
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए।
(जावेद अख्तर)
ऐसे सैकड़ों उदाहरण साबित करते हैं कि आज की उर्दू गजलों में वर्तमान समय और समाज की धड़कने हैं।
 हिंदी गजल की उनचास वर्षों की यात्रा पर विचार करें तो पाते हैं कि वर्तमान में हिंदी गजल सबसे लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण काव्यविधा है। हिंदी गजल के अनेक रचनाकार उर्दू के मुशायरों में देश-विदेश में ससम्मान बुलाए जाते हैं, हिंदी गजल के शेर खूब उद्धृत किए जाते हैं, विश्वविद्यालयों के पाठ्‍यक्रमों में हिंदी गजलें सम्मिलित हुई हैं, हिंदी गजलों पर सैकड़ों शोध हुए हैं, साहित्य अकादेमी ने हिंदी गजलों का संचयन प्रकाशित किया है। दुनिया की किसी भी भाषा की किसी काव्यविधा ने शायद ही इतनी उपल​िब्धयाँ प्राप्त की हों, जितनी हिंदी गजल ने प्राप्त की हैं। विवादी स्वर आज भी सक्रिय हैं। एक ओर हिंदी गजल को उर्दू गजल के पैमानों पर नापने वाले शुद्धतावादी हैं, दूसरी ओर हिंदी के शुद्धतावादी हैं। गनीमत है कि हिंदी तथा उर्दू दोनों में बोलचाल की भाषा में गजल लिखने वाले ही सर्वाधिक हैं।
प्रसन्नता की बात है कि साहित्यिक संस्थाओं ने दुष्यंत कुमार की पचासवीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में वर्ष भर आयोजनों का संकल्प लिया है। ‘साहित्य अमृत’ परिवार की ओर से दुष्यंत कुमार के योगदान को नमन!

भारतवर्ष की सनातन परंपरा और मान्यताओं के प्रतीक महाकुंभ का आयोजन सन् २०२५ का बड़ा अवसर है, जिसमें लगभग पैंतालीस करोड़ श्रद्धालुओं के प्रयागराज आकर गंगाजी में डुबकी लगाने का अनुमान है। सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टि से भारत की एकात्मकता के प्रतीक महाकुंभ पर इस अंक में​ विशेष सामग्री प्रस्तुत है।

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

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