अपना बचपन देवास नाम के एक छोटे शहर में बीता है। उसकी विशेषता है। बमुश्किल, तब के चालीस-पचास हजार आबादी के इस छोटे से नगर में एक नहीं, दो-दो राजा थे—एक सीनियर, एक जूनियर। वहाँ से बीस-बाईस किलोमीटर दूर इंदौर था, जहाँ मेरे मामा का निवास मल्हारगंज नामक मोहल्ले में था। उनके पुत्र और मेरे भाई सूरज तब किसी शीशमहल का जिक्र करते थे, जो इंदौर के किसी सेठ ने बनवाया था। रोचक तथ्य यह है कि न उन्होंने उसे स्वयं देखा था, जाहिर है कि हम कैसे देखते? जब भी हम मिलते, इस काल्पनिक शीशमहल की बात जरूर होती। उसे देखने का कार्यक्रम भी बनता, पर यह अनूठा अवसर आ ही नहीं पाया। बड़े होने पर भी कई बार इंदौर आना-जाना हुआ, सूरज के साथ शीशमहल के दर्शन की ललक जारी रही। आज तो खैर, न सूरज है, न इंदौर जाने की इच्छा, न शीशमहल की चर्चा। बहरहाल, यह ऐसा शीशमहल है, जो मन में बसा है। कौन जाने है भी कि नहीं?
ऐसे एक निजी कंपनी के अध्यक्ष के नाते हमें, यानी हम और हमारी पत्नी को गोआ जाने का अवसर कई बार मिला है। गोआ ऐसी-वैसी जगह नहीं है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का आकर्षण है। वहाँ हर प्रकार के पाँच सितारा होटल हैं। उनकी अपनी शराब ‘फैनी’ है। देशी-विदेशी भोजन है। समुंदर की कई सुंदर ‘बीच’ हैं। बीच पर न्यूनतम वस्त्रधारी सुंदरियाँ हैं। मानव को आसमान की सैर कराते उड़ते गुब्बारे हैं। समुंदर के लोकप्रिय खेल भी हैं। सामान्यतः टैक्सी तो है ही, अनूठी मोटरसाइकिल टैक्सी भी है, जिस पर बैठी एक सवारी कहीं आने-जाने का सुख भोग सकती है। गोआ के पास ही मंगेश मंदिर भी है। मंगेश देवी की भक्ति के आधार पर अमर गायिका लताजी का ‘मंगेशकर’ जुड़ा हुआ उपनाम है। बहरहाल, गोआ का वर्णन शायद हम कभी न करते, यदि वह हमारे बचपन के शीशमहल से न जुड़ा होता।
हुआ यों कि एक बार हमें एक ऐसे होटल में ठहराया गया, जहाँ के कमरे शीशे के थे, दीवालें भी। लगता कि आप काँच के कमरे में बैठे हैं। निजता के नाम पर दीवाल नहीं, बस चारों ओर काँच है। गनीमत थी कि बाहरी दीवाल का काँच पारदर्शी न होकर ‘ओपेक’ था, जिससे भीतर का कुछ न दिखे। हमें उन नव-विवाहितों का खयाल आया, जो हनीमून के लिए इस होटल में ठहरते होंगे। जब अंदर से बाहर का हर दृश्य नजर आता हो तो किसी भी अंदर वाले को भ्रम हो कि बाहर से भी सब दिख रहा है। नव-विवाहित जोड़ों की मानसिकता का अनुमान लगाना अपने वश में नहीं है। पिछले दशकों में फैशन से लेकर, रहन-सहन और विचार-चिंतन में भी बड़ा बदलाव आया है।
हमें तो कभी-कभी शक होता है कि इधर फैशन ही क्यों, जीवन के मानक भी बदले हैं। अब खिड़की-दरवाजों का महत्त्व ही कहाँ है? सरकार के पास ऐसी पैनी और सर्वव्यापी दृष्टि है कि जब वह चाहे तो नागरिक का कच्चा चिट्ठा देखने में समर्थ है। किसी के फोन के माध्यम से उसके सारे संपर्क, बातचीत, दोस्त, दिनचर्या क्या-क्या उपलब्ध नहीं है? हम तो अभी इसी तथ्य के आभारी हैं कि अपनी सामान्य सी जिंदगी में ऐसा क्या है, जिसमें किसी को कुछ भी जानने की रुचि हो? ऐसी सब चिंताएँ पूँजीपतियों और नेताओं के लिए हैं, जिनकी कथनी कुछ है, करनी कुछ और। हमारे एक मित्र का तो कथन है कि समाज में नंगेपन की प्रवृत्ति कुछ ऐसी बढ़ी है कि फैशन ही क्यों, जीवन ही उसका पर्याय हो चुका है। आज के जमाने में सब बिकाऊ है, स्त्री-पुरुष से लेकर उनकी इज्जत तक। जो जितने नैतिक जीवन-मूल्यों की बात करता है, वह आचरण और व्यवहार में उनकी उतनी ही खिल्ली उड़ाता है। ऐसे हुनरमंद इक्कीसवीं सदी की शोभा, आभूषण, शृंगार व प्रतिनिधि हैं। यही सफलता और प्रसिद्धि के हकदार हैं। लोग इन्हें आदर्श मानकर इनका अनुकरण करते हैं। यही समाज की प्रतिष्ठा व शान हैं।
गोआ के इस होटल में रहकर हमने बचपन के शीशमहल की कल्पना तो जी ली, पर जाने क्यों हमें यह भी संदेह हुआ कि कहीं आज की लोहे-सीमेंट की बस्ती में सबके घर तो काँच के नहीं हैं? या शीर्ष के लोग अपवाद हैं। हमारे मोहल्ले में ताक-झाँक की प्रवृत्ति ऐसी प्रबल है कि किसी के घर में क्या पकता है, यह एक सार्वजनिक सूचना है। सास, बहू, ससुर और बच्चे कितने हैं, सब जानते हैं। किसकी लड़की घर से तड़ी हो ली है, यह भी। स्कूटर दहेज का है या निजी खरीद का, सबको पता है। महँगाई ने सब्जी की खरीद पर कितना नियंत्रण लगा दिया है, यह सूचना सर्वसुलभ है। घर में थोक बाजार से आलू और प्याज एक मुश्त आ गए हैं। तब से आलम यह है कि वही पकाने के प्रयोग में आते हैं। अभी हमारे पुत्र पप्पू की वर्षगाँठ के उत्सव में दो तरह के पकौड़े बने, यानी आलू और प्याज के। फिंगर चिप्स भी आलू की थी। पत्नी को एक ही शिकायत थी कि तेल फालतू जल गया। वैसे वह भी सहमत है कि आलू सब्जियों का सर्वाधिक उपयोगी ऑल राउंडर है। तेल बचाने के चक्कर में हमने कई दिन उबले आलू का सेवन किया है। वह भी स्वादिष्ट है। हमें शक है कि हमारे घर की ऐसी निजी और गोपनीय जानकारी से भी सब परिचित हैं। गनीमत यही है कि अभी कोई यह नहीं पूछता है कि नकदी होने पर ज्यादा मत इतराओ, हमें सब खबर है। इधर उबले आलू पर गुजारा हो रहा है। हमारी जिंदगी भी जैसे सीक्रेट सरकारी फाइल हो गई है। हर बाबू जानता है कि उसमें क्या जानकारी है?
इधर भ्रष्टाचार की रेट भी मुद्रा-स्फीति के अनुरूप बढ़ गई है। हमारे दफ्तर में कुछ प्रयोगधर्मी भ्रष्टाचारी हैं। वे सबको बताते हैं कि नगदी लेना करप्शन है। वह इससे पूरी तरह मुक्त हैं, जैसे सरकार कार्यकुशलता से। उन्होंने नकदी के स्थान पर नया, अभिनव और अनोखा तरीका सोचा है। जो घर का राशन-रसद सप्लाई कर दे, उसका काम तत्काल और प्राथमिकता से होता है। इसमें गाहे-बगाहे मौसम की हरी सब्जी और फल की आपूर्ति भी शामिल है। संपर्क में रहने वाले पैसे वालों को भी इस खोज की खबर है। सुपात्र और योग्य कर्मचारी, अफसरों को भी घर आई आपूर्ति की कुछ ‘जूठन’ भेंट कर शांत और प्रसन्न रखते हैं। नतीजतन, वह ईमानदार-के-ईमानदार ही नहीं उल्टे ईमानदारों के ठेकेदार भी बने रहते हैं। वही सुझाते हैं कि कौन बेईमान है? कौन विजीलैंस की आँखों में धूल झोंककर वसूली में पूरे ध्यान और प्रयास से व्यस्त है? इनमें से कुछ कर्मचारी सामान्य से कहीं अधिक कुशल-चालाक हैं। उनका संपर्क सी.बी.आई. से है। वह सिर्फ निगरानी विभाग की ही नहीं, अपने अफसरों की भी पोल खोलने में माहिर हैं। जिस किसी अफसर ने ऐसे घातक बाबुओं से काम की अपेक्षा की, कर्तव्य-पूर्ति में कड़ाई दिखाई, उसकी शामत आनी-ही-आनी है। कब ऐसे के घर भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘रेड’ पड़ जाए, कहना कठिन है? जानकारों का आकलन है कि अधिकतर भ्रष्ट और करप्ट अफसर स्थानीय सी.बी.आई. से साँठ-गाँठ बना कर रखते हैं। कभी निरीक्षक के घर कुछ भेंट-गिफ्ट भेज दी, कभी अफसर-अधिकारी को फॉर्म हाउस की पार्टी में बुला लिया वरना फाइव स्टार में। ऐसे सर्वसंपन्न अधिकारियों की वेतन से अलग कमाई का कोई अंत नहीं है। यह सरकारी सेवा में सठिया कर भी घर नहीं बैठते। उनकी सेवा इतनी खास है कि उसका विस्तार होता रहता है। कहीं किसी कमेटी की शोभा बढ़ाते हैं, कभी किसी कमीशन की। कभी-कभार तो उनका सियासी प्रभाव ऐसा असर डालता है कि वह किसी राज्य के राज्यपाल तक बन बैठते हैं।
ऐसे महानुभाव अफसर अपवाद हैं। ये काँच के घरों में नहीं रहते है। उल्टे उनके आवासीय दरवाजे-खिड़कियाँ ऐसी पुख्ता हैं कि न बाहर का शोर अंदर पहुँच पाता है, न अंदर की आवाज बाहर आ पाती है। लोगों को इनके खान-पान का भी ज्ञान नहीं है। इनकी ऊपरवाले में आस्था है कि नहीं, यह भी कोई नहीं कह सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि जहाँ इनका आका जाता है, ये वहाँ सिधारते हैं। वह चाहे मसजिद, मंदिर या गुरुद्वारा हो। ऐसा बहुधा चुनाव के मौसम में होता है। उनके सियासी आका घूमने-फिरने के शौकीन हैं। पहले वह उनके साथ जाते थे, पर इधर सैर-सपाटा नए कार्यभार से स्थगित है। फिर भी दुनिया के चक्कर के बाद बचा ही क्या है?
ऐसे आदर्श पुरुष न केवल सरकारी कर्मचारियों के बल्कि हर क्षेत्र के कर्मियों के अनुकरणीय पात्र हैं। हर नश्वर इनसान की महत्त्वाकांक्षा है कि वह रहे-न-रहे, उसका नाम तो रहे। पहले राजपरिवार थे तो राजा को विश्वास था कि उसका नाम और परिवार चलता रहेगा। तब भी कभी-कभी विद्रोह हो जाता और यह स्वप्न सच न होता। पर यह नाम की अमरता का हर प्रयास व्यवस्था का अनिवार्य अंग है। भारत दशकों से प्रजातंत्र है। पर हमारे जन-मानस की मानसिकता ऐसी है कि वह प्रजातांत्रिक परिवारों का भी वैसा ही सम्मान देती है, जैसे पहले के राजघरानों को। वर्तमान में उद्योगपतियों, दुकानदारों और सट्टेबाजारियों की सफलता के बावजूद कामयाब नेतागीरी सर्वाधिक कमाऊ पेशा है। इसमें न बाजार की प्रतियोगिता है न माल की गुणवत्ता की ख्याति, बस खानदान का नाम है। जब कोई जनसेवक परिवार में जन्म की दुर्घटना का शिकार हो तो उसका नेता का धंधा तै है। पढ़ाई-लिखाई तो विवशता है, करनी ही पड़ती है। इसी सिलसिले में वह विदेशों के सैर-सपाटे भी कर आता है, कभी डिग्री लेकर, कभी यों ही। उसके खानदानी चमचे हैं। यह भी भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था की खासियत है। उसके डिग्री न लाने पर वह अफवाह फैलाते हैं कि ‘भैया वहाँ भी पिछड़ों की सेवा में ऐसे लगे थे कि उन्हें परीक्षा ‘मिस’ करनी पड़ी। उस समय वह एक दुर्घटना-ग्रस्त को अपनी गाड़ी से अस्पताल में भरती करवा रहे थे, जब कि इम्तहान होना था। उन्होंने जन-सेवा को परीक्षा से प्रमुख माना। ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात,’ वह विदेश से ही जनसेवा की डिग्री लेकर लौटे हैं। देश को ऐसा नेता कहाँ मिलेगा? कौन जाने यह सच है कि प्रचार का झूठ?
सच भी है नौकरी, निजी हो या सरकारी, पाना कठिन है। क्लास वन में सरकारी नौकरी में लिखित प्रतियोगिता है, उसे पास करने के बाद साक्षात्कार है। दूसरों से बेहतर करने के बाद सेवा की बारी आती है। राज्यों में भी यही पद्धति है। पर यहाँ कुछ अपना वोट बैंक नौकरी देकर बनाते हैं। राज्य के एक भूतपूर्व अपनी जाति पर ऐसे आसक्त थे, उन्हें पुलिस के सिपाही से लेकर प्रादेशिक सेवा तक केवल अपनी जाति के ही व्यक्ति योग्य मिले। तब थाने के सिपाही से लेकर राज्य सेना के अधिकारी भी, अधिकतर उन्हीं के जात-भाई थे। उनकी जात-सेवा इतनी प्रशंसनीय और यशवर्धक रही कि वह चुनाव में चित हो गए। जनसेवा में हो-न-हो, जात सेवा में आज भी उनका नाम है। इतना ही नहीं, सियासत एक ऐसा पुश्तैनी धंधा है, जहाँ नाकारा और श्रेष्ठ दोनों की समान खपत है। एक बार सत्ता में घुस-पैठ हुई तो कमाई का ही क्यों, सार्वजनिक लूट का भी चांस है। ऐसे स्वर्णिम अवसर, तुलनात्मक रूप से बड़ी-से-बड़ी नौकरियों में भी कम ही मिलते हैं। ऐसे भी शीर्ष के अतिरिक्त सबके घर काँच के हैं। उनके साथी, मित्र, बाॅस सब जानते हैं। वह कुछ भी ऐसा-वैसा करें तो किसी-न-किसी स्तर पर पकड़ा जाता है। तब न उनके अधीनस्थ उनकी मदद करते हैं, न उनके बड़े अधिकारी। ऐसे अवसर के शिकार शेष जीवन अपयश में बिताते हैं। उनके सहयोगी ही उनके आलोचक हैं—“हम सब काँच के घरों के वासी हैं। भ्रष्ट आचरण के जेवर एकत्र करोगे तो भ्रष्टाचार का एक पत्थर ही घर बरबाद करने को काफी है।”
सियासत में इसका उलट है। पारिवारिक वारिस का पैसे बनाना एक ऐसा हुनर है, जिसका अनुकरण करने को उसके साथी-सहयोगी लालायित हैं। उसकी अनुशंसा में वह ईर्ष्यावश कहते भी हैं, “देखो, कितना योग्य है यह। इसने मंत्री-मुख्यमंत्री रहते आधा दर्जन कोठी-बँगले बनवा लिए हैं, इतना ही नहीं, कौन जाने कि इसका एक फॉर्म-हाउस है कि दो?” बहरहाल, कोई कुछ भी कहे। यह नेतागीरी के पुरखों की पुश्तैनी परंपरा का। आज जैसा नहीं है कि यदि विरोधी दल में है तो सत्ताधारियों से जैसे निजी शत्रुता है। सच है कि इसने कमाई भले जनता को लूटकर की है, पर हर दल के सदस्यों से इसकी निजी मित्रता है। अपना जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगाँठ, सब को शानदार पार्टी में निमंत्रित करता है। जब सत्ता में था, तब भी विरोधियों की सिफारिश सुनता ही नहीं, मानता भी था।
यों वर्तमान स्थिति है कि बहुसंख्यक नेताओं की मान्यता है कि सियासत का स्तर गिरा है। फिर भी यह स्वीकार करने को कोई भी प्रस्तुत नहीं है कि इसके लिए वही सब सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं। उनकी सत्ता की ललक ऐसी है कि वह दूसरे दल के नेक कामों की प्रशंसा के बजाय आलोचना करते हैं। खुद उद्योगपतियों के सन्मुख झोला फैलाते हैं और उल्लू सीधा होने या चंदा मिलने पर उन्हें सार्वजनिक रूप से गाली देते हैं। खुद धेले भर की जनसेवा नहीं की, पर पुरखों के योगदान पर ऐसा इतराते हैं, जैसे वह उनका ही कर्म हो। उनके लिए राजनीति केवल कमाने और प्रसिद्ध होने का पुश्तैनी पेशा है। सड़कों से लेकर श्मशान तक, पार्क से लेकर होटलों तक उनके पुरखों के नाम पर है। इस विषय में पूरे देश में उनका कोई सानी नहीं है। ऐसों के आवास भी इस तरह से निर्मित हैं कि उनमें ताक-झाँक की कोई गुंजाइश नहीं है। फिर भी आलोचक किसके नहीं होते? वह उनके पुरखों से लेकर वर्तमान पीढ़ी के सदस्यों तक के चरित्र-हनन से बाज नहीं आते हैं। क्या सच है, झूठ क्या का निर्णय भविष्य पर निर्भर है।
वर्तमान में एक अन्य वर्ग है, जिसका पूरा जीवन ही पारदर्शी काँच है। उसकी जिंदगी देश के नेताओं, पूँजीपतियों और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के विपरीत एक खुली किताब है। वह एक पाँच तारा होटल के पीछे बनी झुग्गियों में रहता है। यहाँ बेसहारा लोगों के बसने की भी एक रोचक गाथा है। सरकारी जमीन समझकर होटल ने इसका उपयोग नहीं किया वरना एक दिलकश बगीचा तो बन ही जाता। सरकार कागजी योजनाओं पर कई मंत्रालयों का स्वामित्व है। जमीन किसकी है, ऐसे विवाद सरकारी कार्यप्रणाली के प्रतीक हैं। जब तक इस अंतहीन प्रक्रिया का अंत हो, तब तक एक लालची जनसेवक ने ‘झुग्गी आवास’ योजना प्रारंभ कर दी। जिसने उसे एक दो हजार की राशि दी, उसने झुग्गी छाने की अनुमति प्राप्त कर ली। दस रुपए से शुरू अब झुग्गी का किराया सौ रुपए प्रति माह है, जो झुग्गीवासी बिना चूँ-चपट दे देते हैं। हर सियासी दल गरीब-समर्थक है। फिर यहाँ तो ‘वर्कर’ और वोट दोनों की सप्लाई है। हर पार्टी की रैली या मीटिंग एक वक्त की पूड़ी-आलू और निर्धारित कैश देकर आयोजित होती है। जनसेवक हर चुनाव में इन वोटों के एवज में झुग्गी बस्ती के न हटाए जाने की कीमत वसूलता है। अब तो इस गौरवशाली झुग्गी में बिजली-पानी की सुविधा भी है।
सियासी दलों के लिए यह बस्ती निर्धन-कल्याण का आदर्श उदाहरण है। पुलिस वालों को भी जब कहीं अपराधी पकड़ में नहीं आते, तो वे जनसेवक दादा की अनुमति से, किसी भी झुग्गी वाले को उठा ले जाते हैं। पता लगता है कि उसने किराए की रकम निर्धारित तिथि को नहीं भरी थी। पाँच तारा होटल भी वर्दीवालों से प्रार्थना करता है कि उसके पीछे के इस स्थायी कलंक को हटाया जाए। वह भी हाँ-हूँ करते रहते हैं, यह जानते हुए कि ऐसा अन्याय निर्धन-समर्थक कोई भी दल कैसे कर सकता है?
हमें तो धीरे-धीरे विश्वास होने लगा है कि हर लोहे-पत्थर की बस्ती में काँच के घरों की बहुतायत है। जिन अति महत्त्वपूर्ण घरों में झाँकने की गुंजाइश नहीं है, वहाँ भी लोग सेंध-सुराख से झाँककर किसी-न-किसी रहस्य से परदा उठाते रहते हैं। ऐसे घर-परिवार खोजू पत्रकार या शोध-परक लेखकों के निशाने पर हैं। वह कोई-न-कोई ‘राज’ खोलकर अपना महत्त्व सिद्ध कर इन अभेद्य किलों को भी काँच के घरों में तब्दील करते रहते हैं।
९/५, राणा प्रताप मार्ग,
लखनऊ-२२६००१
दूरभाष : ९४१५३४८४३८