कहाँ चला गया मेरा भोला मन l

कहाँ चला गया मेरा भोला मन l

सुपरिचित लेखक। ‘अभिषेक को लग गया चश्मा’ तथा कुछ संपादित पुस्तकें एवं साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्रों से प्रसारण। युकस, ग्राम्य भारती, छत्तीसगढ़ी साहित्य परिषद्, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग, मुक्तिबोध रचना लेखन शिविर राजनांदगाँव सहभागिता प्रमाण-पत्र से सम्मानित।


प्रकृति में मस्त बहार आई है, मैं उसकी शोभा को अपनी आँखों से देख रहा हूँ। फूलों की खुशबुएँ उड़ रही हैं, मैं उनकी महक ले रहा हूँ। तितली-भँवरे मँडरा रहे हैं, मैं उनकी रंगीनियों पर चकित हो रहा हूँ। चिड़ियों के झुंड उड़ रहे हैं, मैं उनकी चंचलता पर मुग्ध हो रहा हूँ। उनकी मधुर चहक सुनाई दे रही है, मुझे उनके कंठ का स्वर अच्छा लग रहा है।
इस मनमोहक दृश्य ने मेरी इच्छा को भी जगा दिया है। मन किया है कि मैं एक चेतन भोला मन का व्यक्ति बनूँ। यह एक सबसे अच्छी और श्रेष्ठ उदात्त भावना है, जो मुझे आत्मिक प्रगति के शिखर की ओर ले चलेगी। मैं इस विषय में गंभीर हो गया हूँ। मैं उत्कृष्ट और निकृष्ट दोनों का चिंतन करने लग गया हूँ। मेरे संवेदित सोच के दायरे में भी बढ़ोतरी हो गई है। एकाएक कड़क और क्रोधित हो जाने वाले मेरे मन में विनम्रता आ गई है। लेकिन इससे मन में बड़ी व्याकुलता है।
मेरा भोला मन पूछता है—“तुम कहाँ पर हो?” उत्तर देता हूँ—“मेरे स्वयं के विश्वास के अनुसार मैं सही स्थान पर हूँ।” वह आगे पूछता है—“अच्छा। लेकिन क्या दूसरे लोग भी तुम्हारी तरह सही स्थान पर हैं?” मेरा उत्तर होता है—“मेरे अनुमान से कुछ हैं भी सही स्थान पर, कुछ नहीं भी हैं। जो सही स्थान पर नहीं हैं, वे समाज में सही दृश्य उपस्थित नहीं कर रहे।” वह फिर प्रश्न करता है—“तुम्हारा मतलब वे लोग दृश्यमान होते हुए भी दृश्य रचना से पृथक् हैं?” मैं फिर उत्तर देता हूँ—“इसी बात का तो रोना है। ठीक रचना के समय अदृश्य होने वाले लोगों की यही तो अकर्मण्यता है। उनका नहीं रहकर नहीं सोचना खलता है। भई, मैं तो निरंतर अच्छा-खराब सोच लेता हूँ, इसलिए मैं हूँ। मेरा अस्तित्व है।”
तब मन कैसा हो? इस पर शुक्ल यजुर्वेद के चौंतीसवें अध्याय के प्रथम मंत्र में बड़ी सुंदर शुभकामना की गई है—
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥
अर्थात् जो मन जाग्रत् मनुष्य से बहुत दूर चला जाता है, वही द्युतिमान मन सुषुप्तावस्था में सोए मनुष्य के समीप आकर लीन हो जाता है। जो दूर तक जाने वाला है, जो प्रकाशमान है और जो श्रोत्र आदि इंद्रियों को ज्योति देने वाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
मैं मन को संबोधित करता हूँ—“ऐ मेरे प्रिय भोले मन! तुम शुभकर्ता हो। गतिशील हो। कल्पना करते हो। अतीत में जाते हो। भविष्य में जाते हो। फिर वर्तमान में लौट आते हो। पर्यवेक्षण करते हो। विचार करते हो। तुम वैचारिक हलचल हो। तुममें संज्ञान है। बोध है। विवेक है। चेतना है। होश में रहना तुम्हारा धर्म है। मेरे मस्तिष्क के भीतर में ही तुम्हारा निवास है। मैं समझता हूँ, जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ तुम भी रहते हो। जहाँ मैं जाता हूँ, वहाँ तुम भी जाते हो।”
लेकिन समय के साथ मेरे भोले मन के स्वभाव में परिवर्तन आ गया है। यह मन मेरी ही बात को नहीं सुनता। मैं जब भी बोलूँ, मेरी बात को अनसुनी कर देता है। अपने मन की करने में लग जाता है। इस मन को मैं क्या कहूँ। अब तो स्थिति बहुत रुलाती है। अफसोस जताती है। स्वस्थ मन मेरे ही भीतर में नहीं है। मेरे ही नियंत्रण में नहीं है। उसने अस्वस्थ मन को मेरे पास छोड़ दिया है और भोलेपन से लबरेज स्वस्थ मन को अपने साथ लेकर कहीं चला गया है। मैं बिना स्वस्थ मन के अपने मनोभावों को प्रकट करने में असुविधा का अनुभव कर रहा हूँ। मैं उसके बिना अनाथ-सा हो गया हूँ और उसी भोले मन को निरंतर ढूँढ़ रहा हूँ।
तत्क्षण मैं अपने मन को स्थिर कर लेता हूँ। मन के कर्तृत्व का स्मरण करता हूँ—उस भोले मन में बहुत सारी विशेषताएँ थीं। बहुत सारे गुण थे। वह कितना निर्दोष था। उसकी कितनी प्रशंसा होती थी। उसे सुरक्षित रखना मेरा दायित्व था। मैं मन को ही उस सीधे-सादे मन की पिछली भूमिका का स्मरण दिलाता चलता हूँ।
वह भोला मन कितना सुंदर था, जो गाँव के किसी भी अमीर-गरीब घर की किशोरी या किशोर को अपनी भगिनी या अपना भ्राता और अपनी पुत्री या अपना पुत्र मानता था। एक घरु रिश्ता-सा निभता था। कुछ कमी  या अड़चन आ जाए तो सहायता को हाथ ऊपर उठ जाते थे। उसे बराबर सम्मान ही देता था। उसका सम्मान अपना सम्मान होता था। उसकी प्रसन्नता अपनी प्रसन्नता होती थी। उस समय की आँखें ईमानदारी की आँखें होती थीं। नाचती नहीं थीं। कुछ और दृष्टि से देखने की चेष्टा कभी नहीं करती थीं। हाय, कहाँ चला गया ऐसे व्यक्ति का वह शिष्ट भोला मन! उस भोले मन को मेरा विकल मन यहाँ-वहाँ ढूँढ़ रहा है।
वह भोला मन कितना विवेकवान था और उसमें कितनी सहानुभूति थी, जो गाँव से गुजरते किसी अनजान पथिक का हालचाल पूछता था। मसलन ‘तुम कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो। आओ, थोड़ी देर मेरे घर के औसारे पर बैठ लो। धूप जुड़ा लो। पसीना पोंछ लो। थकान मिटा लो। भूख-प्यास लगी होगी। मेरे घर का चींवड़ा-गुड़ खा लो। रोटी-तरकारी खा लो। पानी पी लो। तुम्हारी अभी खाने की इच्छा नहीं है? तब अपने अँगोछे में बाँध लो, रास्ते में खा लेना। अच्छा, तुम लँगड़े भी हो? चलो, तुम्हारे जाने के लिए साइकिल की व्यवस्था करवा देता हूँ। मेरा आदमी तुम्हें साइकिल पर बिठाकर आधी दूर छोड़ देगा। अच्छा, पैरों में चप्पल नहीं है? धूप से पाँव जलते हैं? बड़ी मुश्किल से इस गाँव में पहुँचे हो? कोई बात नहीं, मैं हूँ न। तुम्हारे पैरों के लिए अभी एक जोड़ी नए चप्पल दिलवा देता हूँ। अच्छा, विवाहिता बेटी को देखने समधी के घर जा रहे हो? धोती-कमीज फट गई है? अरे भाई, मुझे अपना ही समझो। तुम्हारी इज्जत मेरी इज्जत। तुम्हें नई धोती-कमीज दे देता हूँ, पहन लो। बेटी को ग्यारह रुपए भी मेरी ओर से पकड़ा देना। बेचारी कोई तकलीफ-वकलीफ में न रहे।’ इन दिनों कौन पथिक आता है और कहाँ जाता है, कोई पूछता है, न ही पता लगाता है। हाय, कहाँ चला गया ऐसे दयालु और सहृदयी व्यक्ति का वह भोला मन! मैं उस भोले मन को कब से ढूँढ़ रहा हूँ।
वह संयुक्त परिवार में रहने वाला भोला मन कितना आनंदित था, जो सहकार की भावना को महत्त्व देता था। संयुक्त परिवार में सबका काम बँटा हुआ था। खेत-खलिहान के काम को कौन-कौन मिलकर करेंगे, यह तय होता था। नौकरी-चाकरी और विद्यालयीन शिक्षा की ओर कौन-कौन जाएँगे, इस पर विचार होता था। खाना एक चूल्हे में बनता था। रात में सब एक साथ बैठकर भोजन करते थे। किस्से-कहानियों का दौर चलता था। पर्व-समारोह में सबकी भागीदारी होती थी। घर के मुखिया से सब सलाह-मशविरा करते थे। सबकी आवश्यकताएँ पूरी होती थीं। सबमें एकता, समर्पण, त्याग और सम्मान का भाव था। कितना भी दुःख और समस्या आ जाए, उसके समाधान के लिए सब तत्पर रहते थे। पारिवारिक जीवन-यापन में एक सरलता, सुविधा और प्रसन्नता दिखाई देती थी। उस रहन-सहन को भूल गए लोग। अब तो क्रमशः एक-एक पुत्र का विवाह होते ही वे सब अलग-अलग रहने की चुपचाप योजना तैयार करते हैं। माता-पिता और भाइयों में बँटवारे को लेकर कलह, झगड़े और तनातनी की स्थिति बन जाती है। घर के गोपनीय मामलों को पूरा गाँव जान जाता है। ये विवाद चौपाल, ग्राम पंचायत और पुलिस-थाना-कचहरी तक चले जाते हैं। निर्मम अपराध भी होते हैं। उसके पीछे पूरा घर-परिवार बरबाद हो जाता है। उनके लिए तो  घर, जमीन-जायदाद, टी.वी., कंप्यूटर, वाहन, मोबाइल और बाहरी दोस्त-यार ही अपने संयुक्त परिवार के सदस्य हो जाते हैं। दादा-दादी, माता-पिता, भैया-भौजी, काका-काकी, ननद-देवर, नाती-पोते इन सब रिश्तों में बिखराव आ गया है। ओह, कहाँ चला गया वह सद्प्रवृत्ति की मिठास वाला भोला मन! मैं उस भोले मन को ढूँढ़ रहा हूँ।
वह भोला मन कितना संजीदा था, जो ग्रामीण महिलाओं को लघु कुटीर उद्योग से जोड़कर रखता था। पुरुषों का प्रोत्साहन पाकर वे उद्यमी महिलाएँ चना, तिल, मूँगफली, धान और जुवार के फुटेना, लाई और मूढ़ी को गुड़ के साथ मिलाकर अलग-अलग मीठा लड्डू बनाती थीं। आम, इमली, शिमला मिर्च, लेसवा, टमाटर, गाजर, नीबू और आँवला आदि का अचार, साॅस व मुरब्बा बनाती थीं। हवा करने के लिए बाँस की खपच्चियों से रंगीन धागे गूँथकर सुंदर हाथपंखा बनाती थीं। मिट्टी के नमूनेदार रंगीन गुल्लक बनाती थीं। अनेक प्रकार के खेल-खिलौने भी बनाती थीं। उन्हें बाजार में ले जाकर बेचती थीं। उनके ग्राहक बच्चों के साथ-साथ बड़े भी होते थे। उन्हें खूब शौक से खरीदते थे। इससे उन महिलाओं को आर्थिक आमदनी होती थी। वे महिलाएँ कितनी होशियार थीं। अब उसी गाँव की कुछ महिलाएँ जमकर गप्पें लड़ाती हैं। इसकी-उसकी चुगली करती हैं। दो-तीन घंटे के कीमती समय को यों ही व्यर्थ गुजार देती हैं। अंत में कहती हैं कि बहना, बड़ी गरीबी है, क्या करें। पहले की सुंदर पाक, हस्तकला और दो पैसे कमाने की सद्बुद्धि उनकी सूझ में नहीं आती। कहाँ चला गया वह आत्मनिर्भरता वाला भोला मन! मैं उस भोले मन को ढूँढ़ रहा हूँ।
वह भोला मन कितना अनुशासित था, जो गाँव के सामाजिक वातावरण को स्वच्छ रखता था। विशेषकर युवावर्ग हर प्रकार के नशापान से दूरी बनाता था। द्यूतक्रीड़ा से तौबा करता था। आपराधिक कृत्यों को गलत मानता था। उनका ध्यान समग्र कला, शिक्षा और चारित्रिक उत्थान पर केंद्रित होता था। नई प्रेरक बातें सीखने के लिए कलाविदों, ज्ञानियों और महापुरुषों की संगत करता था। तभी तो गाँव से कोई नानकदेव, विवेकानंद, टैगोर, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, ईश्वरचंद्र, सुभाषचंद्र, सावित्रीबाई फुले, सुभद्रा कुमारी, महादेवी, प्रेमचंद, प्रसाद, माखनलाल, दिनकर, रेणु, मुकुटधर, नागार्जुन, प्रदीप, नीरज, श्रीराम शर्मा आचार्य, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री, महर्षि महेश योगी, दशरथ माँझी और डॉ. अब्दुल कलाम जैसी महान् धुनी विशिष्ट प्रतिभाएँ निकलती थीं। पूरा गाँव उन पर गौरवान्वित होता था। सामाजिक कमियों को दूर करने के लिए शिक्षाएँ ली गईं। पर कमियाँ उल्टा बढ़ गईं। चालाकियाँ हावी हो गईं। कहाँ चला गया अति जिज्ञासु और धुनी वह भोला मन! मैं उस भोले मन को ढूँढ़ रहा हूँ।
वह भोला मन कितना संस्कृतिप्रेमी था, जो गाँव में सांस्कृतिक आयोजन को प्राथमिकता देता था। कला और कलाकारों का सम्मान करता था। गाँव में आए दिन कोई-न-कोई कला मंडली आमंत्रित होती थी। अपनी कलाओं का प्रदर्शन करती थी और बहुत बड़ी सामाजिक सीख दे जाती थी। रामलीला, कृष्णलीला, हरिश्चंद्र-तारामती, बालक ध्रुव, भक्त प्रह्ल‍ाद, नारद मोह, सत्यवान-सावित्री और बुद्ध चरित जैसे गीतिनाटिका, नाटक और एकांकियाँ होती थीं। लोकनौटंकी, ओपेरा, लोकनृत्य और लोकखेल भी होते थे। इस बहाने गाँव में कला प्रवृत्ति बढ़ती थी। समरसता का वातावरण बनता था। गाँव के सयाने लोग सामाजिक कार्यों में लोगों की मानसिक ऊर्जा का नियोजन करते थे। दरवाजे पर आई गाय को एक-दो रोटी अवश्य खिलाते थे। कुओं-तालाबों की खुदाई और सफाई कराते थे। पेड़-पौधे लगवाते थे। उनकी सुरक्षा की जाती थी। गाँव से पलायन करने के बारे में कोई सोचता भी नहीं था। एकाएक कहाँ चला गया वह सांस्कृतिक उत्थान करने वाला भोला मन! मैं उस भोले मन को ढूँढ़ रहा हूँ।
वह भोला मन कितना उदार विचारों का था, जो मानवीय सद्भाव को मद्देनजर रखकर परस्पर संतुलित जीवन में सहभागी होता था। लड़का काना, कनबहरा, लँगड़ा या काला-कलूटा भी होता था, तब भी लड़की उससे विवाह के लिए राजी हो जाती थी। उसी प्रकार लड़का भी लड़की के विकलांग होने के बावजूद उससे वैवाहिक संबंध के लिए राजी हो जाता था। एकमात्र कारण होते थे एक-दूसरे की विशिष्ट योग्यताएँ और विशेषताएँ। विशेष शारीरिक कुरूपता और कमियाँ नहीं देखी जाती थीं। बुजुर्गों की समझाइश पर दोनों पक्षों को ये स्वीकार्य हो जाते थे। जीवनसाथी के रूप में पति-पत्नी एक-दूसरे को पूरक ही समझते थे। उनके मध्य आत्मिक प्रेम के फूल सुरभित होते थे। जीवनयात्रा में गाड़ी अंतिम समय तक सहज भाव से दौड़ती थी। थक गए, कितना तलाशें, क्या-क्या पाएँ, क्या-क्या गँवाएँ, खोट तो हममें भी हैं। हम मनुष्य तो संपूर्ण बिल्कुल नहीं हैं। चारित्रिक सुंदरता ही सार है। इन्हीं सब बातों पर सकारात्मक निर्णय लिए जाते थे। कहाँ चला गया वह समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत होने वाला भोला मन! मैं उस भोले मन को ढूँढ़ रहा हूँ।
वह भोला मन कितना संतुष्ट था, जो छुट्टियों में परिवार के साथ नाना-नानी के गाँव जाता था। आम की अमराई और बगीचा देखता था। आम, अमरूद और केला खाता था। बेल का शरबत, आम का पन्ना, काँजी बड़ा, दही लस्सी और छाछ पीता था। धनिया-टमाटर की चटनी से रोटियाँ खा लेता था और प्रसन्न होता था। अब वह छु​ियों में नाना-नानी के गाँव नहीं जाता। ग्राम्य जीवन की संस्कृति की जानकारियाँ लेने वाली उसकी रुचि पता नहीं किस खोह में घुस गई। किसी हिल स्टेशन या गोवा-मसूरी-शिमला-सिंगापुर-थाईलैंड टूर पर जाने की सोचता है। जन्मदिन या अवसर विशेष पर खाना भी घर में बनाकर नहीं खाता। किसी रेस्टोरेंट और फाइव स्टार होटल में खाना खाता है। वहाँ एक-दो किलोमीटर दूर आने-जाने के लिए पैदल भी चल नहीं सकता। उसके लिए कार की व्यवस्था करता है। बाद में महँगाई पर विलाप करता है। जिह्व‍ा पर नियंत्रण नहीं कर सकता। फिजूलखर्ची पर कटौती नहीं कर सकता। सीधे व्यवस्था को कोसता है। कहाँ चला गया अपने ही निकट के गाँव को देखकर आनंदित हो उठने वाला वह भोला मन! मैं उस भोले मन को चिराग लेकर ढूँढ़ रहा हूँ।
वह भोला मन कितना सरल था, जो अपने शरीर के पहनावे के लिए मात्र एक जोड़ी कपड़े पर ही संतुष्ट रहता था। पैंट-कुरता, कमीज-पजामा या धोती-कमीज, जो भी मिले, पहनकर गुजारा कर लेता था। उसी कपड़े को धो-धाेकर पहनते साल बिता देता था। जब दीपावली का त्योहार आता था, तब ही उसके लिए नए कपड़े का जुगाड़ जमता था। बरसात में कपड़े धो ले या पानी की बौछार से कपड़े भीग जाएँ तो धूप में सुखाने में उसे बड़ी मुश्किल होती थी। बिना कपड़ा पहने घर से निकलना हो जाता था पूरा बंद। तब जैसे-तैसे आग से सेंक-साँककर उसे अधसूखे कपड़े पहनने पड़ते थे। काम चलाने की एक विवशता होती थी। जिस प्रकार आज के जमाने में लोगों का अपने स्टेटस सिंबल को बनाए रखने के लिए हर दो माह में शाॅपिंग माॅल से कपड़े खरीदकर पहनने का शौक है। उन दिनों लोगों के हाथ में उतने पैसे जुटते नहीं थे। नए कपड़े पहनने का उनका मन तो होता था, लेकिन इच्छा मन में ही दम तोड़ देती थी। फटे कपड़े पहनने में लज्जा भी आती थी। उसी को पैबंद लगाकर सिल-सिलकर पहनते थे। शहरी सभ्यता को देखें तो आजकल फटे कपड़ों को कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है। जाँघ-घुटना दिखाने वाले फटे जींस कपड़ों को पहनना एक फैशन बनाया गया है। फिर भी नए कपड़ों के लिए पूरे एक साल की प्रतीक्षा लोगों के धैर्य और सहनशीलता का परिचायक है। कहाँ चला गया मात्र एक जोड़ी कपड़ों में टिके रहकर तपस्वी-सा तपकर कुंदन-सा दमकने वाला वह संतोषी भोला मन! मुझे उस भोले मन की कई दिनों से तलाश है।
वह भोला मन कितना सत्यभाषी था, जो हर पल, हर किसी से सत्य भाषण करता था। जिससे भी सत्य वचन करता था, उसे पूरा निभाकर ही छोड़ता था। उससे पलटता नहीं था। भले ही सत्य बोलने में भारी कष्ट मिले, उसे भारी कष्ट सहना मंजूर था। उसके चेहरे की आभा में ही सत्यता दिख जाती थी। ऐसा कदापि नहीं होता था कि कोई व्यक्ति किसी सज्जन की कला की भरपूर प्रशंसा करे। उसके बाद किसी रविवार की संध्या उन्हें समोसा, बड़ा, दूध, खीर आदि अल्पाहार या स्वादिष्ट मूँग की खिचड़ी जिमाने के लिए अपने घर में आमंत्रित करे और कहीं खिसक जाए। जब भेंट हो तो मीठी-मीठी बातों से सफाई दे दे कि श्रीमान्, मैं तो अचानक मित्र के साथ फिल्म देखने शहर के टाकीज में चला गया था। मुझसे भूल हो गई क्षमा करें। आप कल सोमवार को पक्का उसी समय पर मेरे घर आइए। मैं अवश्य मिलूँगा। जब श्रीमान् उस दिन पहुँचे तो कहे कि बहुत दुःख की बात है, आज ठीक समय पर हमारा गैस चूल्हा खराब हो गया है। चूल्हा जलाने के लिए सूखी लकड़ी का भी टोटा हो गया है। हाँ, कल मंगलवार का दिन एकदम पक्का रहेगा। आप खाने के लिए अवश्य पधारें। फिर अगली संध्या को जब वे बहुत विश्वास से जाएँ तो उस मेजबान के घर में अलीगढ़ का ताला लटकता हुआ मिले।
इस प्रकार किसी भूखे-प्यासे सज्जन के साथ हास्यास्पद मजाक और झूठा व्यवहार सर्वथा निंदनीय था। लोकलाज के भय से कोई करता भी नहीं था। वस्तुओं के लेन-देन की बातें मुँहजुबानी भी होती थीं, जो सत्य वचन पालन के लिए पर्याप्त थीं। सत्य की रक्षा के लिए लोग मर मिटते थे। जैसे कि सत्य और मानव कल्याण के लिए गौतम बुद्ध ने राजभोग का सुख छोड़ दिया। भिक्षुक बन गए। दुःखियों के आँसू पोंछे। उनकी सेवा की। कहाँ चला गया ऐसा सत्यसेवी और सत्यमार्गी वह भोला मन! मैं उस भोले मन की खोज में भटक रहा हूँ।
वह भोला मन पहले कितना ज्ञानी भी था, जो सदैव मीठी वाणी बोलता था। आत्मभाव में रहता था। स्वयं को देहभाव से पृथक् रखता था। उसने भलीभाँति जान लिया था कि देहभाव उसमें अहंकार उत्पन्न करेगा, क्योंकि उसी देहभाव में ही द्वेषभाव आता है। जबकि आत्मभाव में निर्मलता आती है। जैविक रूप से सब मनुष्यों का शरीर समान है। शरीर की संरचना भी समान है, लेकिन लोगों की तेरे-मेरे की सोच उसे केंद्रिक, सांप्रदायिक और सामाजिक बंधन में बाँधती है। यही सोच सबको देह अहंकार से ग्रसित करती है। भोला मन कहता था—“मैं स्वयं को आत्मा मानता हूँ। अपने शरीर में आत्मशक्ति की वृद्धि करता हूँ। वाक् संयम करता हूँ। जहाँ भी रहूँ, वाणी का उपयोग सोच-समझकर करता हूँ। वाणी का संयम मेरे मन को एकाग्र रखता है। मुझे मालूम है, मेरी वाणी से निकले शिष्ट भाषा के सार्थक शब्द किसी झगड़ा, बहस, कटुता और द्वेष को जन्म नहीं देंगे।” मधुर वचन अमृत तुल्य होता है। वह औषधि का काम करता है, यह जानते हुए भी कई लोग दूसरों को बात-बात में कटु वचन बोलते हैं। उनके मर्मस्थल को चोट पहुँचाते हैं। इस दोष से बचना चाहिए और मधुर वाणी ही बोलनी चाहिए। कहाँ चला गया ऐसा वाणी का ज्ञान रखने वाला वह मृदुभाषी भोला मन! मैं उस भोले मन को आज ढूँढ़ रहा हूँ।
मैं अपने मन को आर्त स्वर में बार-बार पुकार रहा हूँ—“ऐ मन! तुम कितने अच्छे हो। मेरे अतिरिक्त जिस मनुष्य में भी रहते हो, उसके द्वारा नियंत्रित रहो, कुशल रहो। तुम अपनी संकल्प शक्ति को बेजोड़ बनाए रखो। तुम्हारा बचकर रहना आवश्यक है। तुम बचे रहोगे तो मेरी मनुष्यता बची रहेगी। सभ्यता और संस्कृति बची रहेगी। तुम्हारी पवित्र निश्छलता वरेण्य है। तुम्हें बचाना मेरा ही दायित्व है। मेरी दृढ़ इच्छा पूरी करो, आओ, शीघ्र लौट आओ और मेरे अंतर प्राण-मस्तिष्क में स्थायी रूप से बस जाओ।”
अब तो मेरी प्रार्थना स्वीकारी जा चुकी थी, इसका शुभ संकेत वह भोला चेतन मन अपनी पुलकन से ही दे रहा था। मन की चेतना का प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा था। मन जाग रहा था। वास्तव में मन कहीं गया नहीं था, बल्कि मेरे ही अंदर के किसी कोने में सोया पड़ा था।
                                              
ऋतु साहित्य निकेतन, जूट मिल थाना के पीछे बगल गली, 
हनुमान मंदिर के पास, 
रायगढ़-४९६००१ (छत्तीसगढ़)
दूरभाष : ७०६७६४३४५२

अकतूबर 2024

   IS ANK MEN

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