चार गजलें

चार गजलें

सुपरिचित बहुमुखी साहित्यकार। गीत, गजल, मुक्त छंद लगभग सभी विधाओं में निष्णात। हिंदी के प्रथम ऑपेरा 'राग-बिराग' के रचनाकार। केंद्रीय हिंदी संस्थान के सुब्रह्म‍ण्य भारती पुरस्कार सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित।


: एक :
अगर उमस में टपक गया कतरा 
ऐसा लगता है कोई मोती झरा 
तुझ से ज़्यादा है दिलफरेब सनम 
शायरी मेरी, पढ़ के देख जरा 
मेरी गजलों की दिलकशी भी समझ 
यों न अपनी अदाओं पर इतरा 
सादगी हुस्न से भी बढ़कर है 
फूल से कम नहीं है पत्ता हरा
यों तो वरदान है मुहब्बत, पर 
जानलेवा है हुस्न का नखरा
सच्ची उलफ़त है उम्र का हासिल 
बेवफाईं है जान का खतरा
वो वफा का नहीं है शौदाई 
जिसका दामन है शोख़ियों से भरा
बेरुखी तोड़ देगी दिल ‘राही’ 
संगदिल से न आशिकी टकरा 
: दो :
हाले-दिल किस को सुनाएँ हम जमाने में 
सब लगे हैं रात-दिन पैसा कमाने में
और ऊँचा खूब ऊँचा उड़ रहा
कोई भी पक्षी न टिकता आशियाने में
नौजवानों तक के चेहरों पर खिंची शिकनें 
छा गया कितना दिखावा मुसकराने में
सत्य अब दर्शन नहीं, केवल प्रदर्शन है 
जिसको देखो व्यस्त है नारे लगाने में
कान पर बच्चों के ईयर फोन हैं छाए 
अब कहाँ जादू बचा खुद गुनगुनाने में
कौन अब हमदर्द है किस का, कहाँ, दिल से 
वक्त कट जाता है बस हँसने-हँसाने में
शायरी में खो गए हैं यार राही जी 
कुछ तो दिलचस्पी दिखाएँ आबो-दाने में
: तीन :
वो खुश है मिल गया जो मुझे उस खिताब से 
उनको न कोई वास्ता मेरी किताब से
होती है वाहवाही उन्हीं की जहाँ भी हों 
जो जी रहे हैं जिंदगी अपनी नवाब से
अब तो यहाँ है हर घड़ी संतों की धूम-धाम 
मतलब नहीं किसी का भी खाना खराब से
कोई न सादगी के चरण चूमता कहीं 
लोगों को सरोकार है बस आबो-ताब से
महफिल में गूँजता नहीं शायर का नयापन 
मतलब है दोस्तों को पुरानी शराब से
सम्मान मिला जिसको, हुई पूछ उसी की 
शायर हैं वो बड़े जो लगें कामियाब-से
चारों तरफ है सिर्फ हकीकत की धूम-धाम 
आँखों का लेना-देना गया छूट खवाब से
कोई भी सादगी को लगाता नहीं गले 
लोगों का वास्ता है महज़ रोब-दाब से
कोई न तामझाम है, कोई न धूम-धाम 
क्या वास्ता बनाइए राही जनाब से
: चार :
घुटने टेके नहीं, मगर हम ने माथा तो टेक दिया 
संघर्षों से जीत न पाए तो ईश्वर का नाम लिया
इम्तहान है जीवन ऐसा जिस का कोई अंत नहीं
जीना पड़ता है हर मौसम, यारो, सिर्फ बसंत नहीं 
चारों ओर मची है हलचल, लोग दुआएँ माँग रहे 
सबका बेड़ा पार लगा दे ऐसा कोई संत नहीं
होने लगे पाँव जब डगमग, साँस फूलने लगी बहुत 
हाथ दोस्तों का हमने भी आखिर कसकर थाम लिया
ऐसा है परिवेश देश का राजनीति ही छाई है 
हाथ न थामो नेता का तो कदम-कदम पर खाई है 
नारे गूँज रहे हैं, चारों ओर भीड़ के जलवे हैं 
बाकी सब बेकार, काम की अब तो बस नेताई है
कैसे वह माहौल बनाएँ जो सपनों में देखा था 
कश्ती तैर रही नेता की, शहर समझ लो है दरिया
जुगनू चमके कहाँ, चमन में भीड़ लगी है भँवरों की 
फूल खिलें कैसे, काँटों की चुभन हो गई है तीखी
नारे नहीं लगा पाए हैं, स्वाभिमान ने हरवाया 
और न कुछ भी सीख सके, हमने तो बस कविता सीखी
जी न सके अपनी शर्तों पर तो समझौता ओढ़ लिया 
कड़वा लगा बहुत, क्या करते, घूँट-घूँट कर जहर पिया

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अकतूबर 2024

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