कवि-सम्मेलनों की कविता

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर दशकों पहले दिल्ली में आयोजित एक कवि-सम्मेलन का पत्रक (पोस्टर) बहुत चर्चित हुआ। कवि-सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में महाकवि सुमित्रानंदन पंतजी का नाम है। अन्य ग्यारह कवियों में डाॅ. भगवतीचरण वर्मा, सोहनलाल द्विवेदी, डाॅ. रामकुमार वर्मा, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ सहित सारे नाम साहित्य-जगत् में प्रतिष्ठित एवं समादृत कवियों के हैं। देश के मूर्धन्य कवि जनता के समक्ष अपनी कविताएँ प्रस्तुत करें, यह कितना सुखद एवं श्रेष्ठ है। युवा पीढ़ी को कवि-सम्मेलनों का वर्तमान स्वरूप देखकर अवश्य ही अचरज होगा, किंतु पहले कवि-सम्मेलनों का स्वरूप ऐसा ही होता था। महाकवि निराला, महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, दिनकरजी जैसे कवि भी कवि-सम्मेलनों में जाते थे। श्रेष्ठ कविताओं की प्रस्तुति ही तब कवि-सम्मेलनों का एकमात्र लक्ष्य होता था। भारत की महान् वाचिक परंपरा का यह एक अत्यंत उज्ज्वल रूप था। कवि-सम्मेलनों का स्वरूप कैसे निरंतर परिवर्तित होता गया, यह अध्ययन का विषय है।
यह भी निर्विवाद है कि कवि-सम्मेलन कभी लोकरंजन का सर्वाधिक सशक्त माध्यम होते थे। पुराने दिनों में न रेडियो का प्रसार हुआ था, न ही टेलीविजन आया था, इसलिए लोकनाट्‍य, जैसे नौटंकी या धनुषयज्ञ लीला आदि कुछ ही आयोजन थे, जहाँ जनता जुटती थी। कवि-सम्मेलन का आयोजन अपेक्षाकृत आसान रहा है। उन दिनों किसी शहर या कस्बे में कवि-सम्मेलन हो तो आसपास के छोटे शहरों, कस्बों से लोग सिर्फ कवि-सम्मेलन सुनने आते थे। ये कवि-सम्मेलन प्राय: तीन चक्र में संपन्न होते थे। दो चक्रों के कवितापाठ के पश्चात् तीसरे चक्र में कुछ कवि अपनी चुनिंदा रचनाएँ सुनाते थे। धीरे-धीरे कवि-सम्मेलनों की लोकप्रियता बढ़ती गई तथा आयोजनों की संख्या भी बढ़ती गई। कवि-सम्मेलनों में गीतकारों, लोकगीतकारों, वीर रस के कवियों के साथ हास्यकवि भी शामिल होने लगे। तब इनकी भूमिका रस परिवर्तन के लिए उसी तरह होती थी, जैसे गंभीर हिंदी फिल्मों में हास्य कलाकार वातावरण की गंभीरता को सहज कर देते थे। कुछ बरसों बाद कवि-सम्मेलनों का आयोजन गैर-हिंदीभाषी प्रांतों में भी होने लगा तथा वहाँ की जनता की समझ के अनुरूप कविता भी आसान हुई, हास्य का प्रभाव बढ़ा। गैर-हिंदी प्रांतों में पारिश्रमिक भी बहुत बढ़ा और इस कारण कवि-सम्मेलनों में धन की भूमिका भी बढ़ने लगी। इस प्रकार कवि-सम्मेलनों का व्यावसायिक रूप प्रबल होता गया। आकाशवाणी केंद्रों की बढ़ती संख्या के साथ कवि-सम्मेलनों में श्रेष्ठ कवियों तथा श्रेष्ठ कविताओं को मंच प्रदान करने का दायित्व आकाशवाणी ने सँभाल लिया। कुछ साहित्यिक संस्थाओं ने भी कवि-सम्मेलनों में कविता के स्तर को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन समय के साथ ‘कवि-सम्मेलनों’ का स्वरूप आमूलचूल बदल गया। वर्तमान समय में तो ‘कवि-सम्मेलन’ नाम भी सही सलामत नहीं बचा है। कभी कवि-सम्मेलनों के लिए ‘अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन’, ‘राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन’, ‘विराट् कवि-सम्मेलन’ जैसे शब्द प्रयोग किए जाते थे, अब उन्हें प्राय: ‘हास्य कवि-सम्मेलन’ का नाम दिया जाता ​है और प्रमुखता भी तथाकथित हास्य कवियों को ही दी जाती है। औपचारिकता पूर्ति की तरह प्राय: एक-दो गीतकार तथा एक-दो कवयित्रियों को रख लिया जाता है, किंतु केंद्र में हास्य कविताएँ ही रहती हैं। हालाँकि यहाँ भी एक बहुत बड़ी समस्या रहती है! हास्यरस भी एक रस है तथा हास्य कविता का भी महत्त्व है, किंतु हास्य के नाम पर प्राय: चुटकुलों की बरसात की जाती है या फिर अनावश्यक किस्से परोसे जाते हैं। पुराने कवि-सम्मेलन की ओर लौटें तो आज इस बात की कल्पना भी कठिन है कि कोई मुख्यधारा का या साहित्य से जुड़ा कवि इस प्रकार के आज के कवि-सम्मेलनों में भाग ले सकेगा। कवि-सम्मेलनी कवि तथा कवि-सम्मेलनी कविता बिल्कुल अलग ही रूप ले चुकी हैं। 
इस प्रसंग में वेनेजुएला में आयोजित विश्व कविता महोत्सव का स्मरण हो आता है। जब कोई विशाल आयोजन हुआ तो साथ में वाद्ययंत्रों का एक दल (आर्केस्ट्रा) रहता था, जो दो-तीन धुनें सुनाता था, फिर चार-पाँच देशों के कवि कविताएँ सुना देते थे। यही क्रम चलता रहता था। 
यदि छोटे स्तर का आयोजन हुआ तो एक गिटारवादक यही कार्य करता था। वह एक-दो धुनें सुनाता, फिर कविताएँ हो जातीं। कुछ स्थानों पर नाट्‍य विधाओं का सहारा लिया गया अर्थात् सीधे-सीधे कविता पाठ की बजाय कविता को संगीत या नाट्‍य विधा का सहारा लेना पड़ा। दुनिया के दो सौ देशों में सिर्फ भारत है, जहाँ हजारों लोग रात-रात भर कविताएँ सुनते हैं।
इसीलिए भारत की इस वाचिक परंपरा का संरक्षण आवश्यक है। यह कितना विचित्र और विडंबनापूर्ण है कि जो कविता की गरिमा को क्षति पहुँचा रहे हैं, उसे प्रदूषित कर रहे हैं, वही मान-सम्मान पा रहे हैं। लोकप्रियता के कुचक्र के कारण टी.वी. चैनल इस प्रकार की कविताओं को बढ़ावा दे रहे हैं, जिनका उद्देश्य सस्ता मनोरंजन है। 
यहाँ एक और पहलू पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। भारत के बाहर कई देशों में आयोजित होने वाले मुशायरों में हिंदी कवियों को भी आमंत्रित किया जाता है। जहाँ उर्दू से ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित शहरयार जैसे कवि या साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित निदा फाजली या अन्य कवि शामिल होते हैं, वहाँ हिंदी से वही लतीफे सुनाने वाले या सस्ती हास्य कविताएँ सुनाने वाले कवि हिंदी का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में हिंदी और हिंदी कविता की क्या छवि बनती है, यह प्रश्न गहन विचार की माँग करता है। क्या १०० करोड़ लोगों की विराट् हिंदी की कविता इतनी सस्ती है! हिंदी कविता के सच्चे शुभचिंतकों, कविता-प्रेमियों को एक नई पहल करनी होगी तथा सच्ची कविता को जनता के मध्य ले जाना होगा। सिर्फ धन कमाने के उद्देश्य से कवि-सम्मेलनों में जमे तथाकथित कवियों से कवि-सम्मेलनों को मुक्त करना होगा। कवि-सम्मेलनों में सच्चे कवियों तथा कविताओं की वापसी देश एवं समाज, दोनों के लिए शुभ होगी। 
प्रेरणा का अक्षय स‍्रोत 
भारतीय सेना के कैप्टन अरुण जसरोटिया की तैनाती सेनाध्यक्ष की सुरक्षा में तय की गई थी। यह न केवल अत्यंत प्रतिष्ठा भरी पोस्टिंग थी वरन् राजधानी दिल्ली में सुविधा युक्त भी थी। लेकिन कैप्टन अरुण ने फरियाद की, उन्हें वहाँ तैनात कर दिया जाए, जहाँ उनकी यूनिट के साथी सरहद पर आतंकवादियों से जूझ रहे हैं। सेना उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लेती है। कैप्टन सुविधाओं वाली पोस्टिंग छोड़कर सरहद पर पहुँच जाते हैं। कैप्टन अरुण को जिस अभियान का दायित्व सौंपा गया, उसे उन्होंने अदम्य साहस और पराक्रम से सफल बनाया तथा ‘लोलाबघाटी’ से आतंकवादियों का खात्मा कर दिया। इस अभियान के दौरान कैप्टन अरुण गंभीर रूप से घायल हुए तथा देश के लिए उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया। एक बार कैप्टन अरुण किसी ट्रेनिंग से लौट रहे थे। रास्ते में स्टेशन से मात्र २ किलोमीटर पर उनका घर था। माँ ने फोन पर कहा भी कि एक घंटे का ब्रेक ले लेते। लेकिन कैप्टन अरुण ने कहा कि ड्‍यूटी सर्वोपरि है माँ। 
ऐसी ही कर्तव्यनिष्ठा, अटूट देशप्रेम, अदम्य साहस, वीरता, पराक्रम, धीरज और हिम्मत की गाथाएँ हैं सेना में उच्चाधिकारी (सेवानिवृत्त) की पत्नी एवं सुप्रसिद्ध लेखिका शशि पाधा की ‘शौर्यगाथाएँ’ नामक किताब में। 
आम नागरिक सेना तथा सैन्य जीवन के विषय में बहुत कम ही जानकारी रखता है। आए दिन सरहद से वीर सपूतों की शहादत के समाचार मिलते हैं। इन वीर सपूतों के अंतिम संस्कार के दृश्य हम अवश्य टी.वी. चैनलों पर देख लेते हैं या गणतंत्र दिवस पर सम्मान की एक झलक माननीय राष्ट्रपति द्वारा वीरता अलंकरण प्रदान करने के समय बहुत थोड़ी सी झलक पा लेते हैं। सैनिकों तथा उनके परिवारों का पूरा जीवन कितनी चुनौतियों से जूझता है, हम सब नहीं जानते। 
यह सुखद है कि हिंदी में अब ऐसी किताबें आई हैं, जो सैनिकों के जीवन की रोमांचक कहानियों से परिचित कराती हैं। सैनिकों के परिवारों के संघर्ष पर एक उपन्यास ‘कितने मोरचे’ आया, ‘सैनिक पत्नियों की डायरी’ नामक किताब आई। वर्तमान समय में जब समाज में तरह-तरह के अपराध, हिंसा, क्रूरता, संवेदनहीनता, अमानवीयता के समाचार हमारे सभ्य होने पर प्रश्नचिह्न‍ खड़े कर रहे हैं, तो सैनिकों की शौर्यगाथाएँ हमें एक नए मनुष्य से परिचित कराती हैं। 
वह मनुष्य जो देशप्रेम, अनुशासन, धैर्य, परिश्रम, त्याग, बलिदान परोपकार की साकार मूर्ति है। शौर्यगाथाओं का एक नायक लांस नायक रमेश खजूरिया एक अभियान में आतंकवादियों के ठिकाने नष्ट करके आता है तो पता चलता है कि एक साथी वहीं छूट गया। 
रमेश पुन: साथी को खोजने जाते हैं, जहाँ छुपे हुए आतंकवादी के हमले से घायल हो जाते हैं, किंतु घायल अवस्था में भी अपने बेहोश साथी को सुरक्षित पहुँचा देते हैं और स्वयं दम तोड़ देते हैं। नायक जगपाल सिंह की दोनों आँखें तथा दोनों टाँगें आतंकवादी हमले में बेकार हो जाती हैं। वे जीवन के प्रति इसलिए निराश हैं कि नई-नई शादी करके आई उनकी पत्नी के लिए वे एक बोझ बन जाएँगे। लेकिन पत्नी कहती है कि उनका होना ही बहुमूल्य है, वे जैसे हैं, उसी रूप में स्वीकार्य हैं।
‘शौर्यगाथाएँ’ का एक प्रसंग अत्यंत हृदयविदारक है। एक युवा सैनिक अधिकारी मेजर राठौर अपने मित्र कैप्टन मलिक को लेकर शशिजी के घर आते हैं कि इनकी नई-नई शादी हुई है और इनका सरहद से बुलावा आ गया है तो हमने इनकी पत्नी को ५ दिसंबर को बुला लिया है कि वे कुछ दिन आपके घर रुक जाएँ तो कैप्टन मलिक कभी-कभार मिल लेंगे। 
अचानक युद्ध शुरू हो जाता है और ५ दिसंबर को कैप्टन मलिक की पत्नी नहीं आ पातीं। मेजर राठौर से शशिजी को पता लगता है कि कैप्टन मलिक ४ दिसंबर को ही शहीद हो गए थे। 
इन शौर्यगाथाओं में शहीदों के माता-पिता का धैर्य, उनका देशप्रेम, अपने दूसरे बेटे को या शहीद के बेटे को भी सेना में भेजने का संकल्प रोमांच पैदा कर देता है। आम लोग जरा सी असुविधा से परेशान हो जाते हैं, लेकिन हमारे वीर सैनिक रात-दिन तपते रेगिस्तान, दुर्गम बर्फीली चोटियों, दुरूह जंगलों आदि में डटे रहते हैं। इन वीर सैनिकों में एक प्रेम, करुणा, संवेदना से भरे मनुष्य का दिल धड़कता है। इनके भीतर भी तरह-तरह की प्रतिभाएँ तथा कलाएँ होती हैं, लेकिन देशप्रेम के यज्ञ में ये सबका बलिदान कर देते हैं। ‘शौर्यगाथाएँ’ की हर गाथा एक अनूठा रंग, अनूठा संदेश लिये हुए है। काश ये गाथाएँ युवा पीढ़ी तक पहुँचें, छात्र-छात्राओं तक पहुँचें। इन मार्मिक गाथाओं से निश्चय ही ऐसी प्रेरणा मिलेगी, जो कभी भी मानसपटल से मिट नहीं सकेगी। एक प्रेरक कथा किसी का जीवन बदलने में सक्षम होती है, शौर्यगाथाएँ की सत्रह प्रेरक गाथाएँ तो निश्चय ही युवा पीढ़ी को बदल देंगी। 

(लक्ष्मी शंकर वाजपेयी)

अकतूबर 2024

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