बोलने वाला बुत

बोलने वाला बुत

श्री आनंद प्रकाश का जन्म उ.प्र. के मुजफ्फरनगर जनपद के कस्बा शाहपुर में १५ अगस्त, १९२७ को हुआ था। उनकी पहली कहानी ‘जीवन नैया’ सरसावा से प्रकाशित मासिक ‘अनेकांत’ में सन् १९४१ में प्रकाशित हुई थी। श्री जैन ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का कुशल संपादन किया। वे सन् १९५९ से १९७४ तक उस समय की प्रसिद्ध बाल पत्रिका ‘पराग’ के संपादक रहे। उन्होंने ‘चंदर’ उपनाम से अस्सी से अधिक रोमांचकारी उपन्यासों का लेखन किया। उन्होंने अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास लिखे जिनमें प्रमुख हैं—‘कठपुतली के धागे’, ‘तीसरा नेत्र’, ‘कुणाल की आँखें’, ‘पलकों की ढाल’, ‘आठवीं भाँवर’, ‘तन से लिपटी बेल’, ‘अंतर्मुखी’, ‘ताँबे के पैसे’ तथा ‘आग और फूस’। उन्हें अपने इस सामाजिक उपन्यास ‘आग और फूस’ पर उत्तर प्रदेश सरकार का श्‍लाघनीय पुरस्कार प्राप्‍त हुआ।


एक बार गुजरात के नहरवासा नगर पर राय जयसिंह का शासन स्थापित हुआ। राजा जयसिंह बड़ा न्यायप्रिय, प्रजावत्सल तथा बुद्धिमान शासक था, जिसने ‘राय’ की बड़ी पदवी धारण की थी। इसका कारण यही था कि वह अपने प्रदेश पर ही नहीं, अपनी प्रजा के मन पर भी एकच्छत्र शासन करता था और लोग उसे ‘राय’ कहकर खुश भी बहुत होते थे। 
धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि चारों दिशाओं में फैल गई। फैलते-फैलते एक द्रविड़ देश के सम्राट्ï की राजसभा में भी पहुँची। उसकी पदवी भी ‘राय’ के नाम से ही जानी जाती थी। द्रविड़ देश के राजा को इस पर बड़ा क्रोध आया। उसने तुरंत अपने कुछ राजदूत राजा जयसिंह के पास भेजे। उनके हाथों उसने यह संदेश भी भेजा—
‘‘नहरवासा पर आज तक कोई ‘राय’ नहीं हुआ। यह केवल चोरों और लुटेरों की भूमि रही है। यहाँ पर क्या मरने और लुटने के लिए तुम ‘राय’ का बुत बन बैठे हो? तो तुम्हें सूचित किया जाता है कि यह खेल बड़ा खतरनाक है। हमारा संदेश पाते ही तुमने ‘राय’ की इस महत्त्वपूर्ण पदवी को अपने अपवित्र तन से अलग न किया, तो हमारे इतने अश्वारोही गुजरात के ऊपर चढ़ दौड़ेंगे और उनके अश्वों की तरनालों से गुजरात की पृथ्वी ही उलट जाएगी।’’
दो-तीन दिन उन राजपूतों की ऐसी सेवा हुई कि वे अपने-आप को राजदूत न समझकर छोटे-मोटे राजा ही समझने लगे। तीन दिन बाद उन्हें राय जयसिंह की राजसभा में उपस्थित होने का निमंत्रण मिला। समय काटे न कट रहा था, इसलिए वे सहर्ष राजा जयसिंह की सभा में जा पहुँचे। 
कुछ देर राजा जयसिंह सामान्य कामकाज निबटाते रहे। इसके बाद फरियादी के रूप में एक नर्तकी को राजसभा में प्रस्तुत किया गया। 
नर्तकी का आरोप था कि पिछली रात को उसके घर एक रईसजादा आया था। उसने उसका नृत्य देखा, गाना सुना और रात भर उसके घर अतिथि बनकर रहने की प्रार्थना की। जब उसको अनुमति मिल गई और उसे सोने को जगह दे दी गई, तो नर्तकी भी विश्राम करने चली गई। फिर न जाने रात में किस समय उसने उठकर घर का सारा कीमती सामान समेटा और कूच कर गया। नर्तकी का आरोप था कि उसके लिए शहर कोतवाल उत्तरदायी है। उसे उसका चुराया हुआ धन वापस किया जाए तुरंत!
राय जयसिंह ने शहर कोतवाल को हाजिर होने का हुक्म दिया। जब उसके सामने राय जयसिंह ने नर्तकी का आरोप रखा और उसे आज्ञा दी कि वह नर्तकी के नुकसान की भरपाई स्वयं अपने धन से करे, तो वह चकराया। सिर झुकाकर बोला, ‘‘राय जयसिंह की जय हो। यह सही है कि शहर में यदि कोई चोरी-डकैती हो, तो उसका पता लगाने की जिम्मेदारी इस दास की है। पता न लगने पर नुकसान की भरपाई भी मैं करने को तैयार हूँ। इसके लिए एक सप्ताह का अवसर दिया जाए।’’
राजा ने कहा, ‘‘किंतु यह नत्र्तकी अपने नुकसान की भरपाई तुरंत चाहती है। इसलिए तुम्हें भरपाई तुरंत करनी होगी।’’
‘‘महाराज,’’ कोतवाल बोला, ‘‘आपकी जो आज्ञा होगी, सेवक उसका पालन अवश्य करेगा। किंतु इतने विशाल गुजरात देश में किसके मन में, किस समय, क्या पाप समा जाएगा और कौन क्या अपराध कर बैठेगा, यह सिवा अंतर्यामी के और कौन जान सकता है? मैं पता लगाकर दंड की व्यवस्था करूँ, यही मेरी कुशलता और मेरा उत्तरदायित्व है। इसके लिए एक सप्ताह का समय कम-से-कम है। इसके बाद पता न लगा, तो दास रायजू की आज्ञा का पालन करेगा’’
‘‘नहीं,’’ राजा जयसिंह ने द्रविडऱाज के राजदूतों की ओर कनखियों से देखते हुए कहा। राजदूत भी चकित थे। देखती आँखों कोतवाल का तर्क एकदम उचित और संयत था। उन्होंने आश्चर्य से राय की ओर देखा। राय कोतवाल से कह रहा था, ‘‘अपराध को रोकना, और अपराध हो जाने पर उसका पता लगाना, ये दोनों ही काम कोतवाल के हैं। प्रजा में से किसी के मन में, किसी भी समय अपराध की भावना आए, यह न केवल शहर कोतवाल के लिए लज्जा की बात है, बल्कि उस राज्य के लिए भी, जिसमें अपराध हुआ हो। इसलिए या तो तुरंत पता लगाओ—इसी समय, इसी दम—नहीं तो स्वयं हमें कष्ïट करना होगा।’’ 
यह सुनते ही कोतवाल मानो आसमान से गिरा और उसके साथ-साथ औंधे मुँह द्रविड़ राजपूत। नर्तकी और सारी राजसभा आँखें फाडक़र राय जयसिंह की ओर देखने लगी। जिस अपराध का पता अपने हजारों सिपाहियों की शक्ति से, सैकड़ों धुरंधर गुप्तचरों के प्रयत्न से भी कोतवाल ‘तुरंत’ नहीं लगा सकता था, उसका पता राय जयसिंह राजसिंहासन पर बैठे-बैठे कैसे लगा सकते थे? 
राय जयसिंह ने कहा, ‘‘इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। इसका पता हम अपने हब्शी पुतले से लगा सकते हैं। उसे राजसभा में हमारे सामने लाया जाए।’’
तुरंत राय के पीछे खड़े उनके विशेष सेवक दौड़े और एक काला आदमकद पुतला अपने कंधों पर उठाकर लाते नजर आए। वह काले संगमरमर का बना हुआ था। उसे उन्होंने राय जयसिंह के ठीक सामने रखा।
राय ने पुतले से पूछा, ‘‘क्यों रे पुतले! इस नर्तकी का धन कहाँ है?’’
कुछ देर तक वह पुतले की ओर देखते रहे, मानो उसकी बात ध्यान से सुन रहे हों। फिर संतोष से गरदन हिलाकर उन्होंने द्रविड राजदूतों से पूछा, ‘‘आपने सुना, पुतले ने क्या कहा?’’
उन्होंने इनकार में सिर हिलाया। ‘‘हमें तो कुछ सुनाई दिया नहीं।’’
‘‘तब आप लोगों को सुनाई देगा भी नहीं, क्योंकि आपकी भावना हमारे राज्य के प्रति पवित्र नहीं है। इन्होंने कहा है कि हनुमान मंदिर से सौ पग की दूरी पर जो अकेला अमरूद का पेड़ है, उसी की जड़ में सारा माल दबा हुआ है।’’
सारी राजसभा में सन्नाटा छा गया। कोतवाल का इशारा पाते ही तुरंत उसके सैनिक दौड़ गए और एक घड़ी बीतते-न-बीतते उन्होंने आकर समाचार दिया कि पुतले का कहना सही था। सारा माल मिल गया है। इस बीच राय जयसिंह राजसभा का अन्य काम निबटाते रहे और पुतला वहीं खड़ा रहा।
नर्तकी ने राय जयसिंह का लाख-लाख धन्यवाद दिया, उन्हें प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से अपना माल लेकर चली गई। राय ने कोतवाल की ओर हँसकर देखा। वह लज्जित होता हुआ बोला, ‘‘महाराज, यह तो चमत्कार हो गया! इतना और बता दीजिए कि वह चोर कौन है?’’
राय जयसिंह ने कहा, ‘‘इसके लिए हमारे पुतले को कष्ïट क्यों देते हो? यह तुम्हारा कर्तव्य है और तुम उसका पता बड़ी आसानी से लगा सकते हो।’’
‘‘लगा तो सकता हूँ, महाराज, मगर अपने कर्तव्य-पालन में मुझे सबसे पहले उस व्यक्ति को पकडऩा होता है, जो माल की सूचना देता है। इसलिए अगर महाराज इस पुतले को गिरफ्तार करने की आज्ञा दें, तो मैं स्वयं पता लगा लूँगा।’’
राय जयसिंह हँसकर बोले, ‘‘अरे मूर्ख, हम इतने मामूली काम के लिए इस पुतले को कभी कष्ïट नहीं देते। वह तो कहो, हम अपने इन अतिथियों का मनोरंजन करना चाहते थे, इसलिए इस छोटी सी बात का पता लगाने के लिए हमने अपने पुतले को सोते से जगाया। इस पुतले के द्वारा हम बड़ी-बड़ी जटिल राजकीय समस्याओं को सरल बनाते हैं। हम अभी पूछकर बताते हैं कि वह कंबख्त चोर कौन है ‘‘और यह कहकर राय ने फिर पुतले की बात सुनने का यत्न किया। राज्यसभा स्तब्ध होकर देखती रही। राजा बोला—
‘‘कोतवाल, इस नर्तकी के घर से साठ पग की दूरी पर एक जुलाहा रहता है। वही चोर है। किंतु पुतले ने हमें कहा है कि विधाता की इच्छा है कि इस जुलाहे को इसका कोई दंड न दिया जाए, क्योंकि उसने अपने दुष्कर्म का भारी पश्चात्ताप मन-ही-मन बहुत किया है। वह कुछ देर पहले उस माल को स्वयं नर्तकी को लौटाने का निश्चय कर चुका है।’’
घड़ी भर में जुलाहा पकड़ बुलाया गया। कोतवाल ने उसे डराया-धमकाया। बेचारा घिघिया गया और बोला कि वह माल खुद ही लौटा देगा। उसने माल को जमीन में गाडऩे के स्थान का पता भी बताया। कोतवाल ने उसे छोड़ दिया।
उसके बाद राज्यसभा में पहले की ही भाँति दैनिक कामकाज चलता रहा। पुतला वहाँ से हटा दिया गया। राजसभा के अंदर पुतले से बने बैठे राजपूतों को अंत में राय जयसिंह ने अपने पास बुलाया और उनसे बोला—
‘‘राजदूतो, हम अतिथियों का स्वागत करते हैं। आशा करते हैं कि जब हम आपके देश आएँगे, या हमारी प्रजा में से कोई आएगा, तो उनको भी वहाँ अतिथियों की तरह आदर-मान मिलेगा। मिलेगा न?’’
‘‘अवश्य, राय जयसिंह!’’ राजदूतों ने समवेत स्वर में कहा।
‘‘तो अब प्रत्युत्तर में हमारा संदेश अपने राय से कहना कि हम चाहते तो अपनी प्रजा को अपार कष्ïट देकर उनकी ‘राय’ की पदवी छीनने के लिए आज से बहुत पहले कूच कर चुके होते। किंतु हमारे पुतले से हमें सलाह मिली कि इतनी दूर आक्रमण करने के लिए जाकर हमारी प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठेगी। हम विजय अवश्य प्राप्त करेंगे, लेकिन हमारी आधी सेना कट मरेगी। हमने अपना इरादा बदल दिया, लेकिन यही सलाह आज हम तुम्हारे राय को पहुँचाना चाहते हैं—यदि उन्हें शांति से रहना नहीं आता, तो अशांति का मजा चखने के लिए गुजरात की ओर प्रस्थान करें। हम अपने पुतले की सहायता से तीन दिनों के भीतर-भीतर उसकी सारी सेना का विध्वंस कर देंगे।’’
राजदूतों ने सिर हिलाया, मानो अपने राय की ओर से राय जयसिंह को आश्वासन दे रहे हों कि ऐसा न होगा। और वास्तव में ऐसा नहीं हुआ।
उनके गुजरात से कूच करते ही एकांत में कोतवाल शहर राय जयसिंह की सेवा में उपस्थित हुआ और हाथ जोडक़र नीची नजरें करता हुआ बोला, ‘‘देव, सेवक सेवा से अवकाश ग्रहण करना चाहता है।’’
‘‘क्यो?’’ आश्चर्य से राय जयसिंह ने पूछा।
‘‘इसलिए महाराज, कि आपका यह तुच्छ सेवक यदि बेजान पुतलों में विश्वास किया करता, तो कोतवाल के पद तक न पहुँच पाता। वास्तव में जुलाहा दोषी नहीं है। उसके पास आज ही कुछ राजकीय मुद्राएँ मिली हैं—और नर्तकी ने अपराधी के रूप में जिस व्यक्ति को पहचाना है, उसे बंदी बनाना मेरी हैसियत से कहीं ऊपर की बात है।’’
राय जयसिंह हँस पड़े और उसकी पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘जाओ, हम तुम्हारा वेतन बढ़ाते हैं और पदवृद्धि करते हैं। अपने राजा को तो बख्शो!’’
 

अकतूबर 2024

   IS ANK MEN

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