व्यथा आषाढ़ के पहले बादल की!

सुपरिचित व्यंग्यकार। अब तक चौदह व्यंग्य-संग्रह, एक उपन्यास ‘समय का सच’ एवं बाल-साहित्य की करीब बीस पुस्तकों का प्रकाशन। ‘कन्हैयालाल सहल पुरस्कार’ के साथ-साथ अनेक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।

आषाढ़ का पहला बादल आकाश पर छाया। विरहणी ने उसे देखा और लानत दी—‘मुये आए भी और बरसते भी नहीं। देखते नहीं, दिल कितना दग्ध है। हो सके तो आप सारी रात झूम-झूम कर बरसो।’
आषाढ़ का वह हठीला बादल मुसकराया और बोला, “विरहणी, मुझे पता है, तुम्हारा दिल क्यों दग्ध है। तुम्हारे दिल की जलन मेरे बरसने से दूर नहीं होने वाली, उलटे वह तो और भड़केगी।”
“धत् पगले। अजीब तरह की गंदी बातें करते हो। मेरा तो कहना यह है कि संपूर्ण पृथ्वी आतप से जल रही है। सूखे और अकाल से बेहाल है। यदि ऐसे में तुम्हारी जलधार उसे छू लेगी तो धरती प्राणवान हो उठेगी। इसलिए आषाढ़ के बादल अब तो बरस पड़ो।” विरहणी ने कहा।
बादल ने बिजली चमकाई और जोरों से धड़धड़ाया तो विरहणी ने दिल थामा और वह बोला, “विरहणी, बस डर गई। तुम्हें पता है, तुम्हारा पिया परदेश में गाँठ-गूदड़े बाँधकर तुमसे मिलने चलने की तैयारी में है। वह आता ही होगा, कमाई की पोटली बाँधे।”
“तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर। पिया इस मनभावन ऋतु में घर आए इससे शुभ बात और क्या हो सकती है। मुझ विरहणी के लिए।”
“लेकिन एक बात है गोरी। प्रियतम आते हैं, तुमने कभी उनका दर्द जानने की कोशिश की? परदेश में क्या कुछ सहते हैं?”
“उनका दर्द, तुम्हें भला क्यों हो दर्द?”
“नहीं, ऐसी बात नहीं है। कल मैं उसके गाँव गया तो पता है उसने क्या कहा?”
“क्या कहा?” विरहणी ने पूछा।
“बोला, अरे ओ काले-कलूटे बैंगन लूटे, आषाढ़ के पहले बादल, गोरी इतना बदखर्च करने लगी है कि जाते डर लगता है घर।”
“बस इत्ती सी बात। हे बादल, उनसे जाकर कहो, उनकी मधुमती जैसा तुम चाहोगे वैसा कर लेगी, परंतु वे इस ऋतु में लौटें तो सही।” विरहणी ने कहा।
...और आषाढ़ का प्रथम घन वहाँ से सीधा विरही के पास पहुँचा। विरही चारपाई पर औंधा पड़ा गहरी नींद में खोया था, उसने कुंदी खटखटाई और बोला, “विरही, इस मदमाती ऋतु में तुम्हें अपनी प्रिया के बिना नींद आ रही है। इसका मुझे अचरज है।”
विरही ने ताना मारा—“रहने दो प्रथम घन, किसी को पत्नी बनाते तो चलता पता। इधर से उधर, उधर से इधर नारद विद्या लड़ाते फिरते हो। जाओ अपने घर, तुम बरसो भी तो मेरे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।”
“ऐसी बात नहीं है विरही, तुम्हारी विरहणी तुम्हारी याद में काँटा होती जा रही है। जाओ, चिंता की बात नहीं है। उसने बदखर्ची न करने का वाद किया है। जाओ तुम्हें वेतन न भी मिला तो भी लौट जाओ। उसे सिर्फ तुम्हारी जरूरत है।”
विरही चारपाई छोड़कर उठ खड़ा हुआ और बोला, “बादल, सच बताओ, क्या मैं बिना वेतन लिये हुए भी देश लौट सकता हूँ? खाली जेब इस महँगाई से सुरंगी ऋतु कैसे कटेगी?”
“हाँ...अब तुम बिना वेतन के भी अपने घर लौट सकते हो।” बादल ने कहा और उड़ गया।
बिरही ने गाँठ-गूदड़ा उठाया और चल दिया। रास्ते में विरही को एक पथिक मिला। पथिक बेहद परेशान-झल्लाया सा था। विरही ने पूछा, “क्यों भाई, क्या परेशानी है? इस मदमाती ऋतु में प्रिया के पास जाते हुए भी कुंठित हो। भला कहो तो बात क्या है?”
पथिक ने दाँत पीसे और कहा, “नाम मत लो उस कलमुँही का। उसने मुझे कहीं का नहीं रखा। मैं उसी से नाराज होकर परदेश जा रहा हूँ।”
विरही का दिल दहल गया। उसे लगा, कहीं वह भी ऐसे ही किसी सलूक का तो शिकार नहीं होगा। तभी आषाढ़ का पहला बादल आया और बोला, “वाह रे विरही! अपनों से भी डरते हो, जाओ। विरहणी तुम्हारी प्रतीक्षा में आँखें बिछाए मकान की देहरी पर खड़ी है।”
विरही थोड़ा और आगे चला तो उसे एक दूसरा पथिक मिला, पथिक प्रसन्नचित्त तथा प्रफुल्लता से मौज में चल रहा था। विरही ने उसके प्रफुल्लित होने का कारण पूछा तो उसने बताया—“भाई, खुश क्यों न होऊँ, पत्नी से पिंड छुड़ाकर अपने परदेश लौट रहा हूँ।”
विरही अब तो बेहद परेशान हुआ। गए हुए तमाम परदेशी लौट रहे थे। उसने पथिक से कहा, “भला यह ऋतु देश में रहने की है या परदेश जाने की?”
“मन में लड्डू फूटे थे देश जाने के, सो गया भी परंतु वहाँ तो दर्दों के तथा समस्याओं के एवरेस्ट खड़े हैं। पत्नी से खटपट करके नाराजी का बहाना करके लौट आया।” पथिक ने कहा।
“लेकिन गए किसके कहने से थे?”
“वही महुआ, जो आषाढ़ का पहला बादल है न, उसी ने प्रेरित किया था।”
विरही के हाथ-पाँव फूल गए। सन्निपात के रोगी की तरह उसके शरीर को लकुवा मार गया। आषाढ़ का पहला बादल कितना चालबाज है। उसे समझते देर नहीं लगी।
तभी आषाढ़ का पहला बादल हाजिर हुआ और बोला, “देखो, इसके बहकावे में मत आओ। प्रकृति की निय‌त‌ि कभी नहीं बदलती। मैं आज भी प्यासी धरती की प्यास बुझाता हूँ। पेड़-पौधों में फूल उगाता हूँ। नई कोपलों को जन्म देता हूँ। धरती का आँचल हरा करता हूँ तथा जवाँ दिलों में हलचल पैदा करता हूँ तथा परदेशी प्रियतम को उसकी प्रियतमा से मिलने के भाव जगाता हूँ। मैं वही चाह आज भी पैदा करता हूँ, जिसमें बिछुड़े दिलों का मिलन हो ही जाता है। घटाएँ घिराता हूँ, बिजली चमकाता हूँ। तभी मूसलाधार तो कभी रिमझिम बरसकर प्रेमियों के दिलों का आतप ठंडा करता हूँ। तुम इसके बहकावे में मत आओ। यह कामचोर-मक्कार आदमी है। इसने परदेश में परनारी से नेह लगाया है। यह अपनी नायिका के दर्द को क्या जाने। मेहनत करके कमा नहीं सकता। इसलिए डरता है। तुम मेहनती हो, तुम्हें भला डर किसका?”
परंतु विरही बेहद डर गया था, वह पुनः परदेश के रास्ते की ओर पलटकर चल दिया। आषाढ़ के उस पहले बादल ने उसे रोककर कहा, “ऐसा मत करो विरही, यह मेरा और विरहणी दोनों का अपमान है। क्या मैं इतना संवेदनशून्य हो गया कि तुम दोनों को मिला भी नहीं सकता।”
परंतु विरही ने आषाढ़ के उस प्रथम घन की एक भी नहीं सुनी और चल दिया पुनः परदेश। हारकर बादल विरहणी के पास आया और बोला, “माफ करना विरहणी, मैंने तुम में व्यर्थ में मिलन के भाव जगा दिए। तुम्हारे प्रियतम इतने कठोर हो गए हैं कि मैं उनके मन में तुमसे मिलने के भाव पूरी तरह नहीं जगा पाया। वह बीच रास्ते में से ही लौट गए।”
विरहणी ने गुस्से में उस पर हाथ मारा और कहा, “बहकाओ मत बादल। मुझे सब पता चल गया कि तुम अब तक मुझे बेवकूफ बना रहे थे। नाशपीटे, अब मत आना तुम मेरी अटरिया पर।”
गाली सुनकर आषाढ़ का वह पहला बादल अपने घर आकर चुपचाप लेट गया और अपनी दुर्दशा पर रोने लगा। सुना है, तब से ही बादल आषाढ़ में पहले की तरह बरस नहीं पाते और वर्षाऋतु सूखी जाने लगी है। उसे अफसोस इस बात का है कि मानव मन संवेदनशून्य होता जा रहा है। पर आषाढ़ के पहले बादल की व्यथा कौन जाने!


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जुलाई 2024

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