वृंदावन के दर्शनीय प्राचीन मंदिर

वृंदावन के दर्शनीय प्राचीन मंदिर

सुपरिचित लेखक-संपादक। बुलंदशहर (उ.प्र.) के मीरपुर-जरारा गाँव में जन्म। देसी चिकित्सा लेखन में विशेष दक्षता। ‘जीवनोपयोगी जड़ी-बूटियाँ’, ‘स्वास्थ्य के रखवाले’, ‘घर का डॉक्टर’, ‘स्वस्थ कैसे रहें?’ तथा ‘शुद्ध अन्न, स्वस्थ तन’ एवं ‘नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे’ (यात्रा-संस्मरण), ‘स्मृतियों के मोती’ (संस्मरण) कृतियाँ चर्चित। ‘साहित्य मंडल’ नाथद्वारा द्वारा ‘संपादक-रत्न’ एवं ‘साहित्य-मनीषी’ की मानद उपाधियाँ। आकाशवाणी मथुरा तथा नई दिल्ली से परिचर्चा, वार्त्ता आदि प्रसारित।

वृंदावन का इतिहास बड़ा ही प्राचीन है। ऐसा बताया जाता है कि वल्लभाचार्यजी ग्यारह वर्ष की अवस्था में वृंदावन आए थे। बाद में उन्होंने भारत में तीर्थस्थलों का प्रचार-प्रसार किया तथा पैदल विचरण करते हुए चौरासी स्थानों पर श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन किया, जिन्हें ‘महाप्रभु की बैठकें’ कहा जाता है। वर्ष में चार महीने वे वृंदावन में ही रहा करते थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि चौदहवीं शताब्दी तक वृंदावन का पूर्णतः विस्मरण हो गया था, तब सन् १५१५ में नवद्वीप के चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् श्रीकृष्ण से जुड़े पवित्र लीला-स्थानों का पता लगाने के लिए वृंदावन धाम की यात्रा की। अपनी आध्यात्मिक शक्ति से उन्होंने श्रीकृष्ण के लीला-स्थलों का पता लगाया और फिर अपने छह शिष्यों (गोस्वामियों) को व्रज धाम को आबाद करने का जिम्मा सौंपा। भगवान् श्रीकृष्ण का लीला-धाम ‘वृंदावन’ पवित्र यमुना किनारे स्थित है। वृंदावन की विशेषता है—यहाँ की ऐतिहासिक धरोहरें, पवित्र तीर्थस्थल, प्राचीन मंदिर, सैकड़ों आश्रम एवं गौशालाएँ। भक्तिकाल के महान् कृष्णभक्त सूरदास, स्वामी हरिदास, चैतन्य महाप्रभु इत्यादि बड़ी गहराई से वृंदावन से जुड़े रहे। 
देश में कोरोना महामारी के चलते लंबा लॉकडाउन रहा। सबकुछ अनलॉक हो जाने के बाद इच्छा बलवती थी कि दर्शन करने वृंदावन जाना है। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की तरह वह अवसर भी शीघ्र उपस्थित हो गया। हुआ यों कि मित्र आनंद शर्माजी की सलहज अपनी दो बेटियों के साथ मुंबई से दिल्ली आ गईं। आनंदजी को उन्हें उनके मायके मथुरा छोड़ने जाना था। इस निमित्त उनकी गाड़ी वहाँ जा रही थी। सो आठ मार्च, २०२१ को हम लोग प्रातः दस बजे मथुरा के लिए निकले। इस गाड़ी में मैं, मित्र आनंद शर्मा, ड्राइवर पंकज, पंकज का भतीजा गोपाल। सबको साथ ले हम मथुरा के लिए निकले। दिल्ली का अनियंत्रित ट्रैफिक गाड़ी की रफ्तार को ग्रहण लगा देता है। सो दिल्ली से पीछा छुड़ाने में ही ढाई घंटा शहीद हो गया। लगभग सवा दो बजे पलवल पार करके एक होटल पर खाना खाया। मथुरा-आगरा राजमार्ग पर अभी कई जगह सड़क चौड़ीकरण का काम चल रहा है, सो गाड़ी की गति बार-बार बाधित होती रही। अंततः अपराह्न‍ साढ़े तीन बजे हम लोग मथुरा जा लगे और जय गुरुदेव धर्मकाँटा पर ही गोपालजी गाड़ी लेकर अपनी बहन और भानजियों को लेने आ गए।
यहीं से आनंद शर्माजी ने अपने एक रिश्तेदार वल्लभजी को यह सोचकर साथ ले लिया कि उनको वृंदावन की अच्छी जानकारी होगी तो हमें भी यहाँ के मंदिरों की सटीक जानकारी मिल जाएगी। पर आनंदजी की यह धारणा निर्मूल साबित हुई। पर हाँ, वल्लभजी गाड़ी को एक अनजाने रास्ते से निर्विघ्न रंगजी के मंदिर तक लिवा ले जाने में कामयाब रहे; अन्यथा अब वृंदावन में कभी भी जाइए, गाड़ी अंदर न जाकर पार्किंग में खड़ी कर देनी पड़ती है। आखिर रंगजी मंदिर के पास चौड़े रास्ते पर गाड़ी खड़ी कर दी गई। जूता, चप्पल, बैग इत्यादि सब गाड़ी में छोड़ दिए। इस पर वल्लभजी कहने लगे कि ड्राइवर को गाड़ी पर ही छोड़ देना ठीक रहेगा, अन्यथा वृंदावन के चोर-उचक्के जो न कर बैठें, कम है। पर मित्र आनंद शर्मा तो सबकुछ बिहारीजी के भरोसे छोड़ हम सबके साथ मंदिर-दर्शनों के लिए निकल पड़े।
सबसे पहले हम लोग दक्षिण की स्थापत्य शैली में बना भव्य-विशाल रंगनाथजी का मंदिर देखने आए हैं। मध्यकाल में इस मंदिर का निर्माण सेठ गोविंददास तथा राधाकृष्णदास के द्वारा कराया गया। यहाँ पर भगवान् का लकड़ी का विशालकाय रथ है, जो वर्ष में केवल एक बार ‘ब्रह्म‍ाेत्सव’ के समय चैत्र माह में मंदिर से बाहर निकाला जाता है। यह ब्रह्म‍ाेत्सव मेला दस दिन तक चलता है। यह पूरा मंदिर किलेनुमा है। इसकी बाहरी दीवार की लंबाई ७७३ फीट और चौड़ाई ४४० फीट है। मंदिर के द्वार का गोपुर भव्य और काफी ऊँचा है। मुख्य मंदिर दो विशाल परकोटों के मध्य है। भगवान् रंगनाथजी के सामने साठ फीट ऊँचा ताँबे का एक ध्वज-स्तंभ है। मंदिर का मुख्यद्वार भी ९३ फीट ऊँचे मंडप से ढका है। मंदिर भले द्राविड़ शैली में बना है, पर यह मंडप मथुरा शैली का है। मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने ऊँचा बरामदा है, इसे ‘भगवान् की चौकी’ कहते हैं। बताया जाता है कि यहाँ पर भगवान् रंगजी का दरबार लगता था। मंदिर में एक ओर ब्रह्म‍ सरोवर है, जो काफी गहरा और सुंदर है, इसमें बहुत सारी सीढ़ियाँ अंदर उतरती हैं।

मंदिर के कुल सात द्वार हैं और तीन गुंबद। मुख्य गुंबद सबसे ऊँचा है, इसके स्वर्णकलश दूर से ही दिखाई पड़ते हैं और यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मंदिर के एक हिस्से में चाँदी-सोने की वे मूर्तियाँ रखी हैं, जो रथयात्रा में रथारूढ़ की जाती हैं। मंदिर के गर्भगृह में भगवान् रंगनाथजी विराजमान हैं, इसके सामने विशाल बरामदा है, जो नक्काशीदार खंभों तथा संगमरमर के फर्श से सजा है, यहाँ से भगवान् रंगनाथ के दर्शन कर सकते हैं। इनके अलावा यहाँ भगवान् नृसिंह, सती सीता, राम-लक्ष्मण, भगवान् वेणुगोपाल तथा रामानुजाचार्य विराजमान हैं। रामानुज संप्रदाय का यह मंदिर वृंदावन के सब मंदिरों में विशाल है।
मथुरा पर जब यवनों का आक्रमण हुआ, तब रंगजी का विग्रह यहाँ से जयपुर ले जाया गया। आज भी भगवान् रंगनाथ जयपुर के राजमहल में विराज रहे हैं। मंदिर की खूबसूरती देखते ही बनती है। यहाँ आकर दक्षिण के मंदिरों तथा पुरी की रथयात्रा का आनंद एक साथ लिया जा सकता है। आनंदजी मंदिर के अंदर नहीं गए, वे वल्लभजी के साथ गोपुर पर हमारा इंतजार कर रहे हैं। हम भी जल्दी-जल्दी मंदिर से बाहर निकल उनके पास लौट आए। अब हम सब लोग रंगजी के मंदिर के सामने दाहिनी ओर गली में स्थित पवित्र ‘ब्रह्म‍कुंड’ देखने आए हैं।
यह ब्रह्म‍कुंड वृंदावन के आठ प्राचीन पवित्र कुंडों में से एक है। बताया जाता है कि यहाँ पर भगवान् ब्रह्म‍ा का तप-स्थल होने के कारण इसे ब्रह्म‍कुंड कहा जाता है। इस सुंदर सरोवर के किनारे कभी भगवान् श्रीकृष्ण रास रचाया करते थे। ऐसा भी कहा जाता है कि रास में शामिल होने के लिए जब भगवान् शिव ने गोपी रूप धारण किया तो उससे पहले उन्होंने इस कुंड में स्नान किया था। चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं इस कुंड की महिमा का बखान किया है। रूप गोस्वामीजी को वृंदा देवी की मूर्ति यहीं से प्राप्त हुई थी, जो इन दिनों कामवन में स्थापित है। मध्यकाल में महान् संत बिल्व मंगल ठाकुर लंबे समय तक यहाँ भजन-साधना करते रहे थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि महान् कृष्ण-भक्तिन मीराँबाई ने काफी समय तक इस कुंड के पूर्वी घाट पर निवास किया था।
सन् सोलह सौ के आसपास ओरछा नरेश वीरसिंह देव ने इस कुंड का जीर्णोद्धार कराया था। सन् १८८२ में मथुरा के कलेक्टर रहे एफ.एस. ग्राउस ने अपनी पुस्तक ‘मथुरा ः ए डिस्ट्रिक्ट मेमोयर’ में इस कुंड की दुर्दशा का जिक्र किया है। उसने ही सरकारी खजाने से इसकी मरम्मत की व्यवस्था कराई थी। लेकिन बाद के समय में इसकी फिर दुर्गति हो गई। आसपास के वासिंदों ने इसे कूड़े से अँटा दिया। इसकी जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया। सन् २००६ में इसके दिन बहुरे, जब ‘ब्रज फाउंडेशन’ ने इसके उद्धार का काम अपने हाथ में लिया। इसके चारों ओर इमारतें बन जाने के कारण इसके घाट उसमें दब गए थे। लेकिन आज यह अपने भव्य रूप को पाकर तीर्थ-यात्रियों को आकर्षित कर रहा है। कुंड में उतरने के लिए चारों दिशाओं में सीढ़ियाँ बनी हैं। नीचे के तल पर पानी के किनारे चारों ओर पत्थर के बड़े-बड़े कछुए बैठे हैं, जो बिल्कुल सजीव मालूम पड़ते हैं। बाईं ओर दीवार पर इस कुंड के बारे में जानकारी लिखी है। यहाँ से अब हम श्रीराधामाधव यानी लालबाबू का मंदिर देखने निकले हैं, जो यहीं पर एक गली में स्थित है।
यह लालबाबू मंदिर वृंदावन के प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण सन् १८१० में कृष्णचंद्र सिंह उपाख्य लालबाबू नाम के एक जमींदार ने कराया था। ऐसा कहा जाता है कि धनाढ्य जमींदार परिवार में जनमे कृष्णचंद्र सिंह को घर के लोग ‘लाल बाबू’ कहकर पुकारते थे। एक बार नदी किनारे टहलते हुए नाव खेते एक माझी के ऐसे बोल सुने कि उन्हें वैराग्य हो गया और सबकुछ छोड़कर भगवान् कृष्ण की लीला नगरी वृंदावन में आ गए। गोवर्धन के सिद्धबाबा कृष्णदास से उन्होंने दीक्षा ली। ऐसा भी कहा जाता है कि यहीं के सेठ लक्ष्मीचंद से इनका झगड़ा-टंटा रहा और मुकदमा भी चला। गुरु के फटकारे जाने पर लालबाबू वैर-भाव भुलाकर सेठ लक्ष्मीचंद के द्वार पर भिक्षा माँगने गए। लालबाबू को अपने द्वार पर भिक्षुक के रूप में देखकर सेठ लक्ष्मीचंद भी वैर-भाव भुलाकर उनसे गले मिले। दोनों के सब शिकबे दूर हो गए। अब गुरु की दृष्टि में लालबाबू सच्चे वैरागी बन गए।

अपनी सब धन-दौलत को बेचकर लालबाबू ने भगवान् श्रीराधामाधव का यह मंदिर बनवाया। मंदिर बन जाने पर लालबाबू ने पूरे विधि-विधान से प्राण-प्रतिष्ठा कराई, लेकिन विग्रह की श्वास नहीं चली, तब भक्त लालबाबू ने विह्व‍ल होकर पुनः प्राण-प्रतिष्ठा कराई, जब विग्रह के नथुनों पर हाथ रखकर देखा तो साँस चलने का अनुभव हुआ, इसके बाद ही राधामाधव के परम भक्त लालबाबू को संतोष हुआ। मंदिर तो भगवान् कृष्ण एवं राधा रानी को समर्पित है, पर लोग इसे ‘लालबाबू का मंदिर’ ही पुकारते हैं। गर्भगृह में भगवान् श्रीकृष्ण एवं राधारानी की नयनाभिराम झाँकी है। यहाँ पुष्पों से शृंगार किया जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर केलि करते राधा-माधव की सुंदर मूर्तियाँ उकेरी गई हैं। जगमोहन मंडप के विशाल स्तंभ इसे अन्य मंदिरों से अलग बनाते हैं। यहाँ पर पूजा गौड़ीय संप्रदाय के अनुसार ही होती है। दिन भर में प्रभु को पाँच भोग अरोगाए जाते हैं। यहाँ की सायं आरती बड़ी भव्य होती है।
मंदिर के बाहरी परिसर में भक्त लालबाबू की समाधि बनी है। मंदिर का शिखर दूर से ही तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है। अब बहुत कम तीर्थयात्री ही यहाँ दर्शनार्थ आते हैं। यहाँ दंडवत् प्रणाम कर हम यहीं पास में ही स्थित श्रीगोदाविहार मंदिर देखने आ गए हैं। मित्र आनंद शर्मा कहने लगे कि तुम लोग दर्शन करके आओ, तब तक मैं यहाँ दुकान पर चाय बनवाता हूँ और फिर वहीं चाय की दुकान पर बैठ गए। मैं, पंकज और गोपाल मंदिर-दर्शन करने आगे बढ़े।
अपने आप में अलग तरह के इस मंदिर का निर्माण संत बलदेवाचार्यजी द्वारा करवाया गया है। इसके सामने के भाग में खुले में बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित हैं। अभी इसका विस्तार किया जा रहा है, लेकिन अंदर जाकर विशाल हॉल के अलग-अलग कमरों में तरतीब से अवतारों की चित्ताकर्षक मूर्तियाँ, देवी शक्तियों, ऋषि-मुनियों, अप्सराओं, देशभक्तों और अंत में महान् राजाओं, महान् संत एवं महापुरुषों की बड़ी ही नयनाभिराम मूर्तियाँ हैं कि आँखें वहाँ से हटती नहीं हैं। बीच हॉल में मुख्य मूर्ति श्रीलक्ष्मीनारायणजी की है। यह बड़ा ही जानकारीपरक भव्य-दिव्य मंदिर है। यहाँ भीड़-भाड़ नहीं है। मंदिर के सामने का भाग उजाड़ सा है, शायद इसीलिए तीर्थयात्री यहाँ नहीं आ पाते हैं। बहुत लोगों को इस मंदिर की जानकारी भी नहीं है। यहाँ पर दर्शन कर हम लोग बाहर आए; बेंच पर बैठ चाय का आनंद लिया और फिर पास में ही स्थित प्राचीन राधा-गोपीनाथ मंदिर के दर्शन के लिए निकल पड़े।
पतली सी गली में बाईं ओर उत्कल के मंदिरों की शैली में बना वैष्णव संप्रदाय का यह राधा-गोपीनाथ मंदिर अति प्राचीन है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कछवाहा राजपूत राजा रायसिल ने करवाया था; लेकिन कालांतर में सन् १८२१ के लगभग एक बंगाली भक्त नंदकुमार घोष ने इसका जीर्णोद्धार कराया। यहाँ राधा-गोपीनाथ ठाकुर की जो मूर्ति है, वह स्वयं प्रकट है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि पहले-पहल यहाँ पर मंदिर का निर्माण भगवान् कृष्ण के पौत्र ने कराया था। चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं यहाँ पूजा-आराधना की थी। ‘भक्तमाल’ में इनकी कथा का उल्लेख है। यह भी प्रसंग आता है कि सैकड़ों साल पहले परमानंद भट्टाचार्य ने यमुना के तट पर वंशीवट में भगवान् राधा-गोपीनाथ की खोज की थी। मधु पंडित ने भी यहाँ रहकर इनकी सेवा की थी।

इस मंदिर की एक बड़ी ही रोचक कथा प्रचलित है कि एक बार संत नित्यानंद की पत्नी जाह्न‍व ठकुरानी वृंदावन तीर्थ-दर्शन करने आईं। जब वे इस मंदिर में श्रीराधा-गोपीनाथजी के दर्शन कर रही थीं, तब उनके मन में भाव आया कि राधिका का देवता तो बड़ा छोटा है, अगर यह थोड़ा सा और लंबा होता तो यह युगल जोड़ी कितनी सुंदर दिखाई देती। सायं को दर्शन कर ठकुरानी अपने डेरे पर लौट आईं। उस रात को उन्होंने एक स्वप्न देखा कि गोपीनाथ भगवान् स्वयं उनसे एक लंबे देवता की व्यवस्था करने को कह रहे हैं। ठकुरानी के पास उतनी लंबाई की मूर्ति पहले से ही थी, तब प्रातः में उन्होंने मंदिर के पुजारी को कहा कि गोपीनाथ भगवान् के कक्ष में उसके देवता की मूर्ति स्थापित कर दें। पुजारी ऐसा करने से हिचकिचाने लगे, तब भगवान् गोपीनाथ ने उन्हें प्रेरणा दी कि संकोच मत करो; यह मेरी प्यारी अनंग मंजरी है, इसे मेरे बाईं ओर और राधिका को दाहिने ओर बिठा दो।
भगवान् का आदेश मानकर पुजारी ने ऐसा ही किया। तब से भगवान् गोपीनाथ बाईं ओर और राधारानी दाईं ओर अवस्थित हैं तथा जाह्न‍व ठकुरानी गोपीनाथजी के बाईं ओर बैठी हैं। भगवान् की छवि बड़ी ही मनोहारी है। यहाँ पुजारी भगवान् की फोटो खींचने की मनाही नहीं करते। मंदिर काफी लंबा-चौड़ा है, पीछे के एक ऊँचे कमरेनुमा हॉल में प्रभुजी की सेवा हो रही है। मंदिर की पुरानी इमारत सुनसान पड़ी है। हलका अँधेरा धरती पर उतरने लगा है। यहाँ पर दर्शन कर अब हम श्रीराधारमण ठाकुरजी के दर्शन करने के लिए निकले। वृंदावन के बंदर बड़े ही शातिर हैं, सो इनके डर से मंदिर से बाहर आते ही मैं अपना चश्मा उतारकर जेब में रख लेता हूँ। नोट्स लेते हुए मैं अपने साथियों से पीछे रह जाता हूँ।
मेरे सब साथी श्रीराधारमण मंदिर के विशाल द्वार से अंदर चले गए। मैंने मंदिर के बारे में लिखने के इरादे से जैसे ही चश्मा पहना कि घात लगाए बैठे एक छोटे कद के बंदर मामा ने इस सफाई से चश्मा झपट िलया कि मुझे कुछ करते नहीं बना। मैं हड़बड़ाया। वहीं पर खड़ा एक ई-रिक्शा चालक बोला कि इसके लिए कुछ ले आओ। मैंने पूछा, क्या लाऊँ? वह बोला, फल तो यहाँ नहीं मिलेंगे, एक फ्रूटी ले आओ। यहीं थोड़ा आगे स्थित दुकान से मैं फ्रूटी ले आया। उस रिक्शेवाले भाई ने बंदर को फ्रूटी दी तो उसने चश्मा नीचे फेंक दिया। मैंने देखा, बंदर ने उतनी देर में चश्मे की डंडियों की रबर उतारकर फेंक दी थी। फिर भी मैं अपना चश्मा पाकर बहुत खुश था। बंदर स्वभावतः शरारती होते हैं, पर वृंदावन के बंदरों के तो कहने ही क्या! जब मैं मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचा तो मेरे साथी दर्शन कर लौट रहे थे। मुझे देखते ही बोले—कहाँ रह गए? मैंने अपना चश्मा दिखाते हुए कहा कि बंदर मामा मेरा चश्मा ले भागा, उसी में इतनी देर हुई। फिर मैं पंकज को साथ ले मंदिर में दर्शन करने गया।

आपको बता दूँ, श्रीराधारमण मंदिर वृंदावन के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इसका बाह्य‍ वास्तु बाँकेविहारी मंदिर के जैसा है। यहाँ पर श्रीराधारमणजी की त्रिभंगी मूर्ति के दर्शन होते हैं। ऐसा माना जाता है कि भक्त गोपाल भट्ट के अनन्य प्रेम के वशीभूत होकर विहारीजी पूर्णिमा के दिन श्रीराधारमण विग्रह के रूप में प्रकट हुए। इसीलिए यह विग्रह महाप्रभु के अनन्य कृपापात्र गोपाल भट्ट द्वारा सेवित है। इनके संदर्भ में एक कथा आती है कि भट्टजी एक शा‌िलग्राम शिला की सेवा-पूजा किया करते थे। प्रभु की सेवा करते हुए ही एक बार उनके मन में भाव आया कि अगर इन शालिग्राम के हाथ-पैर और सिर होते तो मैं नित्य इनका शृंगार किया करता; इन्हें अलंकरणों से विभूषित करता; इन्हें झूले में झुलाता। अहा! तब प्रभु की कैसी सुंदर छवि होती!!
बस फिर क्या था, अपने भक्‍त की भाव-पूर्ति के लिए शालिग्राम प्रभु ललित त्रिभंग श्रीराधारमण विग्रह के रूप में प्रकट हुए। तब भट्ट गोस्वामीजी ने नाना अलंकारों से विभूषित कर उन्हें झूले में झुलाया और बड़े ही भक्तिभाव से उन्हें भोग-राग अर्पित किया। भक्तजन अगर पीछे से इस विग्रह के दर्शन करें तो यह शालिग्राम शिला जैसा ही प्रतीत होता है। विग्रह मात्र बारह अंगुल का है, फिर भी बड़ा ही मनोहर है। एक खास बात, इनके साथ श्रीराधाजी का विग्रह नहीं है, परंतु इनके वाम भाग में गोमती चक्र की पूजा होती है। इस मंदिर के दक्षिण भाग में श्रीराधारमण प्रभु के प्रकट होने का स्थान तथा गोपाल भट्ट गोस्वामीजी की समाधि है।
यह मंदिर कई कारणों से विशेष है। एक तो यवनों के आक्रमण के समय वृंदावन के लगभग सब ठाकुर यहाँ से बाहर सुरक्षित स्थानों पर चले गए, पर श्रीराधारमणजी वृंदावन छोड़कर कहीं नहीं गए। दूसरी बात यह कि वृंदावन के अन्य मंदिरों से इतर यहाँ सैकड़ों वर्षों से आज भी दीप प्रज्वलन एवं आरती के लिए माचिस का उपयोग न करते हुए पत्थर रगड़कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। हवेलीनुमा इस मंदिर में आज काफी भीड़ है। यहाँ दर्शन कर अब हम लोग निधि वन के लिए निकले।
निधि वन यमुनाजी के किनारे बहुत ही रमणीक कुंज है। वास्तव में तो यही नित्य वृंदावन है। यहाँ पर जो तुलसी के वृक्ष तथा लताएँ हैं, कहा जाता है कि ये सब भगवान् कृष्ण की सखियाँ हैं। स्वामी हरिदासजी समा‌धि-अवस्था में यहीं कुंजबिहारी की नित्य लीलाओं का दर्शन किया करते थे। यहीं पर बाँकेविहारीजी के विग्रह का प्राकट्य हुआ। बादशाह अकबर तानसेन के साथ यहीं पर हरिदासजी के दर्शन करने आया था। आज भी कुंजबिहारी रात्रि-वेला में यहाँ रास रचाया करते हैं। यहीं पर अब स्वामी हरिदास की समाधि है। श्रीहरिदास की दिव्य आभा से यह परिसर आज भी देदीप्यमान रहता है। मैं देख रहा हूँ, यहाँ हनुमान बंदर बड़ी तादात में हैं। पूरे परिसर में पुरा काल की लता-पताएँ पत्रविहीन आड़ी-तिरछी फैली हुई हैं।
दिन भर यहाँ भक्तों और तीर्थयात्रियों का आना-जाना लगा रहता है; लेकिन सायं को यह वन निर्जन हो जाता है, यहाँ तक कि पक्षी भी यहाँ रात्रि-बसेरा नहीं करते हैं। निधिवन काफी प्राचीन होते हुए भी बड़ा ही जीवंत है। यहीं पर स्वामी हरिदासजी ने श्रीबाँकेविहारीजी की सेवा की। अपनी वाणी से वे उनका ही गुणगान किया करते हैं। सब लोग अब यहाँ से बाहर निकल रहे हैं; दर्शक-दीर्घा की टीन की छत पर बंदर धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं। हम लोग भी श्रीहरिदासजी ‌की समाधि पर दंडवत् हो यहीं पास में स्थित श्रीराधा-दामोदर मंदिर के दर्शनार्थ निकल पड़े हैं। समय कम है, सो जल्दी-जल्दी दौड़-दौड़कर दर्शन कर रहे हैं।
राधा-दामोदर मंदिर भी सैकड़ों वर्ष पुराना है। विश्वास किया जाता है कि संवत् १५९९ की माघ शुक्ल पक्ष की दसवीं के दिन श्री रूप गोस्वामी ने यहाँ पर राधा-दामोदरजी के विग्रह की स्थापना करके उनकी सेवा-पूजा का दायित्व जीव गोस्वामीजी को सौंप दिया। कहा जाता है कि सनातन गोस्वामीजी नित्य नियम से गिरिराजजी की परिक्रमा किया करते थे। वृद्धावस्‍था में उनकी असमर्थता को देखते हुए विहारीजी ने बालक रूप में प्रकट होकर उनको डेढ़ हाथ लंबी एक श्याम शिला भेंट की, जिस पर भगवान् के चरण-चिह्न‍ तथा गौ के खुर का चिह्न‍ अंकित था। बालक रूप विहारीजी ने उनसे कहा कि आप इस शिला की परिक्रमा कर लिया करें, इससे आपको गिरिराजजी की परिक्रमा का पुण्य मिलेगा।

सनातन गोस्वामी आजीवन ऐसा करते रहे। उनके गोलोकवासी होने के बाद यह शिला इस मंदिर में स्थापित कर दी गई, तभी से श्रद्धालुओं द्वारा मंदिर की चार परिक्रमा लगाने की परंपरा चल पड़ी। इस मंदिर में श्रीकृष्णदास कविराज द्वारा सेवित श्रीराधा छैल चिकनियाँजी, वृंदावनचंद्र, श्रीराधाविनोद, श्रीराधामाधव आदि के विग्रह भी विराजमान हैं। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ का मूल राधादामोदरजी का विग्रह तो जयपुर में विराजमान है। उल्लेख मिलता है कि वृंदावन प्रवास में इस्कॉन के संस्थापक भक्ति वेदांत प्रभुपादजी ने इस मंदिर में भजन-साधना की थी। इसी मंदिर के परिसर में रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी, कृष्णदास कविराज की कुटी तथा प्रभुपादजी की प्राचीन भजन कुटी आज भी हैं। मंदिर के पीछे के भाग में जीव गोस्वामी एवं कृष्णदास कविराज की समाधियाँ हैं। यहाँ पर कार्तिक मास, पुरुषोत्तम मास, रूप गोस्वामी एवं जीव गोस्वामी तिरोभाव उत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी, श्रीराधाष्टमी, गोवर्धन पूजा इत्यादि पर्व बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं। इस प्राचीन मंदिर के दर्शन कर अब हम सेवाकुंज की ओर निकले।
सेवाकुंज भगवान् कृष्ण की रासलीला भूमि है। कहा जाता है कि महारास के कारण होने वाले श्रम से श्रीराधाजी व्यथित हो गईं, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके श्रम-परिहार के लिए श्रीराधाजी की चरण-सेवा की, इसीलिए इस कुंज को ‘सेवाकुंज’ तथा ‘सेवानिकुंज’ कहा जाता है। यह भी विदित होता है कि श्रीहित हरिवंश गोस्वामीजी ने अन्य कई लीला-स्थलों के साथ इस कुंज को भी प्रकट किया। यहाँ पर एक छोटे से मंदिर में श्रीराधाजी के चित्रपट की सेवा-पूजा होती है। लता-द्रुमों से घिरे सेवानिकुंज के मध्य भाग में एक भव्य मंदिर है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण राधारानी के चरण दबाते हुए विराजमान हैं। श्रीराधाजी की ललिता आदि सखियों के चित्रपट भी मंदिर में सजे हैं। एक तरह से यह निकुंज श्यामाजू एवं श्रीकुंजविहारीजी का निजधाम है।
रात्रि को मंदिर में फूलों की एक सेज, चार लड्डू, पान, जल का लोटा, चंदन इत्यादि रखे जाते हैं। कहा जाता है कि रात्रि में प्रिया-प्रियतम साक्षात् यहाँ विश्राम किया करते हैं। सेवाकुंज में एक पक्का चबूतरा है, बताया जाता है कि आज भी हर रात्रि में श्रीराधाकृष्ण युगल यहाँ विहार करते हैं। इस विहार को कोई देख नहीं सकता है। शाम होते ही बंदर एवं अन्य जीव-जंतु यहाँ तक कि परिंदे भी इस स्थान को छोड़कर चले जाते हैं। यहाँ दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आते रहते हैं। यहाँ की एक पतली सी गली से निकलकर हम इमलीतला आ गए; यहाँ मंदिर में आरती हो रही है, भगवान् को दंडवत् प्रणाम कर आगे बढ़े तो देखा, केसी घाट पर यमुनाजी की भव्य आरती हो रही है। आरती में तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ उमड़ आई है। इससे आगे यमुना के किनारे-किनारे इन दिनों देवरहा बाबा के आश्रम तक ‘वृंदावन कुंभ’ लगा हुआ है।
ऐसा विधान है कि जब-जब हरिद्वार में पूर्ण कुंभ होता है, तब उससे पहले वृंदावन में वसंत पंचमी से चालीस दिन का वृंदावन कुंभ यमुना किनारे आयोजित होता है। यहाँ पर साधु-संत रसिकभाव से अपने आराध्य की पूजा-उपासना करते हैं। इसमें शाही स्नान की तीन तिथियाँ ही रखी गई हैं। इस कुंभ का शुभारंभ तीन अनी अखाड़ों और चतुर्संप्रदाय के शाही स्नान से हुआ। पहला शाही स्नान माघी पूर्णिमा, यानी २७ फरवरी को हुआ। दूसरा शाही स्नान ९ मार्च तथा तीसरा शाही स्नान अमावस्या, यानी १३ मार्च हुआ। इस कुंभ का समापन रंगभरनी एकादशी को पंचकोसी वृंदावन परिक्रमा के साथ होता है। उ.प्र. सरकार द्वारा कुंभ के लिए समुचित व्यवस्था की गई है। यमुना के किनारे आस्‍था का एक नगर ही बस गया है। कुंभ के चलते वृंदावन के मंदिरों में दर्शना‌र्थियों की खासी भीड़ उमड़ रही है।
यहाँ से हम लोग बाँकेविहारी मंदिर में दर्शन करते हुए पास में ही स्थित श्रीराधावल्‍लभ मंदिर में दर्शन करने आए हैं। श्री हरिवंश गोस्वामी द्वारा स्थापित यह मंदिर भी अति प्राचीन है। वृंदावन के मंदिरों में यही एकमात्र मंदिर है, जहाँ रात्रि को मधुर समाज गान की परंपरा आज तक चली आ रही है। उन्मादी औरंगजेब के समय में मूल मंदिर को नष्ट कर दिया गया, तब सुरक्षा की दृष्टि से श्रीराधावल्लभजी के विग्रह को राजस्थान के भरतपुर जिले के ‘कामा’ में ले जाया गया; यहीं के एक छोटे से मंदिर में श्रीराधावल्लभ प्रभु १२३ वर्ष विराजे, फिर उन्हें वापस यहीं ले आया गया। खंडित मंदिर के स्थान पर नए मंदिर का निर्माण हुआ, जो सन् १८२४ में पूर्ण हुआ। इस मंदिर में श्रीहित हरिवंश गोस्वामी द्वारा सेवित श्रीराधावल्लभजी विराजमान हैं, जो उनको यहीं के चड्यावल गाँव के एक ब्राह्म‍ण भक्त से प्राप्त हुए थे।

इतिहास में ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुगल शासक अकबर  ने वृंदावन के सात प्राचीन मंदिरों को उनके महत्त्व के हिसाब से १८० बीघा जमीन आवंटित की थी, जिसमें से १२० बीघा जमीन अकेले श्रीराधावल्लभ मंदिर को प्राप्त हुई थी। यह मंदिर वैष्णव भक्तों का बहुत बड़ा श्रद्धा-केंद्र है। यहाँ आज भी भगवान् की सेवा-पूजा-भोग श्रीहित हरिवंश गोस्वामीजी के वंशज ही करते हैं। मंदिर के बाहर उ.प्र. पर्यटन विभाग द्वारा लगाए गए शिलालेख से यह जानकारी मिलती है कि हरिवंश गोस्वामी के सेव्य इस मंदिर का निर्माण सन् १५८४ में देवबंद के निवासी सुंदरदास खजाँची द्वारा करवाया गया। इनको श्रीहित ब्रजचंद महाप्रभु ने प्रेरणा दी थी।
मंदिर में जाने का रास्ता तो सीधा ही है, पर यहाँ बैठे एक साधुबाबा ने रास्ता दूसरी ओर मोड़ दिया, सो हम गली से एक पूरा चक्कर लगाकर एक बड़े हॉल में पहुँचे। लाल पत्थर से बने मंदिर में ऊँचे चबूतरे पर गर्भगृह में प्रभुजी विराजमान हैं। यहाँ भी काफी भीड़ है, सो श्रीराधावल्लभजी को दंडवत् प्रणाम कर बाहर निकले, और एक ई-रिक्‍शा पकड़ आगे बढ़े, हम लोग तो कृष्ण बलराम, इस्कॉन मंदिर पर उतर गए और गोपाल यानी अपने भतीजे को प्रेम मंदिर दिखाने के लिए पंकज उधर चला गया। वल्लभजी को अपने मोबाइल सौंप मैं और आनंदजी इस्कॉन मंदिर में दर्शन कर लौट आए, पर बाहर वल्लभजी का कहीं अता-पता नहीं। कुछ देर बाद पंकज भी लौट आया तो सब लोग रिक्‍शा पकड़ अपनी गाड़ी के पास लौटे।
मैं, पंकज और गोपाल यहीं सामने स्थित गोविंदजी का मंदिर देखने चले आए हैं, बाकी लोग गाड़ी पर ही रहे। यह वृंदावन का सबसे प्राचीन मंदिर है। १५५३ ई. में जीव गोस्वामीजी को भगवान् गोविंदजी की मूर्ति प्राप्त हुई थी। अकबर के सहयोग से इस मंदिर का निर्माण सन् १५९० में हुआ। अकबर की इच्छा को ध्यान में रखकर इसकी बाहरी दीवारों को सपाट रखा गया, उन पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ नहीं उकेरी गईं।

यहाँ पर लगे शिलालेख से पता चलता है कि यह मंदिर आमेर के राजपूत राजा भगवानदास के पुत्र मान सिंह ने बनवाया था और वृंदावन के दो महान् संत रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी की देखरेख में इसका निर्माण हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार जेम्स फर्ग्यूसन ने भी इसके बारे में लिखा है कि यह मंदिर भारत के मंदिरों में बड़ा शानदार है। इसकी निर्माण शैली हिंदू, राजस्थानी, मुगल, यूनानी और गोथिक का मिश्रण है। इसकी ऊँचाई सात मंजिल थी। बाईं ओर वृंदा मंदिर व दाईं ओर योगमाया का मंदिर था, बीच में गोविंद मंदिर का शिखर तीन सौ फीट ऊँचा था; बीच के शिखर की तीन मंजिलें मदांध औरंगजेब के सैनिकों ने ढहा दीं, जो अब चार ही रह गई हैं। सन् १८७३ में मथुरा के तत्कालीन कलक्टर ग्राउस ने इस मंदिर की मरम्मत का काम करवाया। गोविंदजी का यह मंदिर वृंदावन के सबसे वैभवशाली मंदिरों में से एक था। इसको बनानेवाले शिल्‍पी थे—श्री गोविंददास। इस मंदिर के प्रथम पुजारी रहे स्वामी हरिदास।
ऐसा बताया जाता है कि गोविंद देव, गोपीनाथ, जुगलकिशोर और मदनमोहनजी के नाम से चार मंदिरों की एक शृंखला बनवाई गई थी। ये सब मंदिर अब भग्न अवस्था में हैं। गोविंददेव का मंदिर मिश्रित शिल्पकला का उत्तर भारत में अपने तरह का अनुपम उदाहरण है। इस मंदिर में नाभि के पश्चिम की एक ताख में नीचे एक पत्थर लगा है, जिस पर संस्कृत में इसका निर्माण विक्रमी १६४७ अंकित है, जो भूमि से दस फुट ऊँचा है। मंदिर का मजबूत ढाँचा यथावत् खड़ा है। अब अँधेरा काफी गहरा गया है; बंदरों का आतंक भी यहाँ बहुत है, अतः इस मंदिर के बाईं ओर इसी सड़क पर स्थित सिंह पौर हनुमान मंदिर के दर्शनार्थ चल पड़े।
सिंह पौर हनुमान मंदिर के बारे में ऐसा कहा जाता है कि जब मुगल सैनिक पास में ही स्थित गोविंददेव मंदिर को खंडित कर रहे थे, तब इन हनुमानजी की गर्जना पर यहाँ हजारों बंदर इकट्ठा हो गए और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े। इन बंदरों ने सैनिकों की आँखें नोंच डालीं; किसी का कान काट लिया, फिर क्या था, अचानक हुए इस वानर-हमले से मुगल सैनिक भाग खड़े हुए और मंदिर पूरा ढहने से बच गया। तभी से इन्हें ‘गर्जना वाले’ या ‘सिंह पौर’ हनुमानजी कहा जाता है। यहाँ पर उन्हीं हनुमानजी का शानदार मंदिर है। यह हनुमान मंदिर द्वापर युग का बताया जाता है। सैकड़ों वर्ष पूर्व जब रूप गोस्वामीजी ने गोविंददेव को प्रकट किया, तब ये हनुमानजी भी यहाँ प्रकट हुए थे। पिछले कुछ वर्षों में ही इस मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ है। हनुमान जयंती पर यहाँ बड़ा भारी उत्सव होता है। मंदिरों के दर्शन कर हम लोग भी अपनी गाड़ी पर लौट आए।
अब रात्रि के साढ़े आठ बज रहे हैं; हमें लौटना है, सो तुरंत गाड़ी में बैठे। वल्लभजी मथुरा जाने के लिए रास्ते में उतर गए। हम लोग यमुना एक्सप्रेस वे पर चलते हुए रात को साढ़े दस बजे आनंदजी के गाँव रन्हेरा पहुँचे। रवि चाचा हमारा इंतजार कर रहे थे। होटल पर खाना खाया। रवि चाचाजी ने रात्रि विश्राम की शानदार व्यवस्था कर रखी थी। प्रातः जागकर दैनिक क्रिया से निवृत्त हुए। चाचीजी ने आनन-फानन में गोभी के पराँठे अचार और चाय के साथ हाजिर कर दिए। भरपूर नाश्ता कर लगभग दस बजे हम लोग दिल्ली के लिए निकले। भारी ट्रैफिक के बावजूद अपराह्न‍ एक बजे हम अपने घर पहुँच गए। वृंदावन कुंभ के अवसर की यह तीर्थयात्रा स्मरणीय बन गई। वास्तव में इस वृंदावन की रज में कुछ तो ऐसा है, जो तीर्थयात्री को बार-बार आने के लिए आकर्षित करता है।


जी-३२६, अध्यापक नगर, 
नांगलोई, दिल्ली-११००४१
दूरभाष : ९८६८५२५७४१

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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