पावस और प्रेम

सुपरिचित लेखिका। अब तक सुप्त वीणा के तार, अनछुए अहसास (काव्य-संग्रह), चकम छकाई (बाल-कविता-संग्रह), अग्निगंधा (ललित-निबंध), सप्तरथी का प्रवास (यात्रा-वृत्तांत) एवं अन्य पुस्तकें प्रकाशित। आकाशवाणी से काव्यपाठ का प्रसारण। अखिल भारतीय साहित्य संगम द्वारा ‘काव्य कुसुम’ की मानद सम्मानोपाधि सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित। संप्रति माध्यमिक शिक्षा विभाग राजस्थान में कार्यरत।

सुरपंचम को नाद भलो है, मेघों को मृदुमास भलो है’, गगन के चँदोवे पर सजी मेघमाला किसे भली नहीं लगती, पर सोचती हूँ, इतना आसान कहाँ होता है पावस का उतरना! समय-चक्र के प्रवाह में धरती के लहराते कुंतल शुष्क हो जराजीर्ण होते हैं, उन्मादित यौवन ढलान पर आ जाता है, जब उसका दग्ध-तप्त हृदय आकुल-व्याकुल हो उठता है। प्रियतम का विछोह दीर्घ हो तो हृदय का दाह भी कब सह्य‍ होता है? और जब यह झुलसन समष्टि तक व्याप्त हो मातृत्व को बाधित करने लगे तो आप्तकाम हुई पृथा का हृदय भी सृष्टि पालन हेतु नवसृजन की चिंता से कितना उद्विग्न हो जलता होगा? प्रेम जब व्यष्टि से समष्टिगत हो, जाए तब दायित्व-बोध से कर्तव्य का रूप ले लेता है और धरिणी के आप्तकाम हृदय की ज्वाला काम-कामिनी सी हो सपादलक्ष हुए रचिय रति सुख की कामना में रत हो जाती है। उसी दाहताप का घनीभूत हुआ स्वरूप है मेघमाला, जो चहुँ, दिसी डोलती फिरती है, अपने गर्जन-तर्जन में धरती का रुदन छुपाए ये मेघ पृथा के उस वर को ढूँढ़ते फिरते हैं, जो भाँवरें लेकर दूरस्थ परदेस में जा बसा है। मेघों के अनुनासिक में अवनी की चीर तितिक्षा का आलाप भी समाहित है और सृष्टिपालना की निर्जरा का अनुरागी राग भी घुला है। वस्तुतः राग जब अनुराग में बदलता है, तभी सच्चे वैराग का आरंभ होता है।
मेघों के केहरी-नाद में घुली पृथ्वी की आतुर पुकार जब समाधिस्थ गगन तक पहुँचती है तो उसकी समाधि भंग होती है, वीतरागी हुए उसके हृदय का थिर हुआ श्रोन बहने लगता है। जब-जब भी वीतराग द्रवित होता है तो वह प्रेम के शाश्वत रूप करुणा को सहजता से उपलब्ध होता है। फिर चाहे वह धरती का हो या आसमान का। पृथा की प्रेम पाती लेकर बावरी हवाओं की अहीर बस्ती में भटकते मेघ अपने आर्य पथ पर बढ़ते जाते हैं। इसी अविगत की यात्रा में कभी उनमें अरगजे की गंध घुलती है तो कभी गोधूली की वास। परालंबी हुए मेघ धरा-अंबर का स्वस्त्यतन मिलन करवाने अनिर्दिष्ट परंतु अपने आरजपथ पर निरंतर बढ़ते रहते हैं। थकन से चूर कभी शिथिल कदमों से निस्पंद से हो जाते हैं तो कभी विक्षिप्त सी कोलाहल में निमग्न हो निष्ठुर हुए अंबर से याचना करते हैं और जब पृथ्वी के संतप्त हृदय की विरह-वेदना का ताप प्रतिहारी हुए मेघों का हृदय भी भेदने लगता है तो उससे उपजी आततायी पीड़ा से वे उल्काधारी हो तड़ित को धारण करते हैं।
मेघों के विचलित मन में मधुरता टिक नहीं पाती और सहसा वे दारुण-क्रंदन करने लगते हैं। वास्तव में बादल कहाँ गरजते हैं साहब, वे तो धरती के रुदन को ही न केवल स्वयं में धारण करते हैं, अपितु अभिव्यक्त भी करते हैं। वयस से वयस्क होने तक पृथ्वी के विरह-दंश को झेलते हैं। जब परपीड़ा उनकी अपनी पीड़ा हो जाती है, तब समाधिस्थ हुए वीतरागी अंबर की निष्ठुर मौन समाध‌ि टूटती है और उनकी करुण पुकार सुनकर उसकी सुधियों में पृथ्वी झाँकने लगती है, जैसे भूले हुए दुष्यंत को अपनी शकुंतला स्मरण हो आती है। तब वीतरागी हुए अंबर का अंतर द्रवित हो पिघलने लगता है और यही अंतरद्रवण उसके दृगों से होता हुआ बादलों में उतर जाता है। शाश्वत प्रेम के करुण-रस से आप्लावित हो बादल बरस जाते हैं। योगियों का प्रेम करुणा है, शाश्वत है कामियों के अनियंत्रित उपभोग की भाँति नहीं, इसलिए दायित्व-बोध को जन्म देता है, वहन करता है और उससे उपजे जीवन जीवनदायी होते हैं, नव अभ्युदय को धारण करते हैं और धरिणी हुलसित हो हरितपर्णी हो कर मंगलगान करती है। 
सृष्टि का अवगान करने परिमार्जित प्रेम की फुल्लौरी धारण करती पृथा मधूलिका हुई हर्षित रूपगर्विता सी नर्तन करती है। प्रेम के शाश्वत नाद पर थिरकती पृथ्वी और सामगान गाता गगन सृष्टि में पावस को उतारता है। रोदन से नर्तन तक की इस अविरल अनागत यात्रा में जीवन के मावस को पावस में रूपांतरित करने का सामर्थ्य है। धरती अंबर की ऐकांतिक प्रणय-यात्रा ही वह आत्मतत्त्व का मूल है, क्योंकि आत्मतत्त्व का स्वभाव ही प्रेम है, अतः इस स्वाभाविक प्रेम-संबंध में आनंद है, व्युत्पत्तिजनक पावस है, अटूट विश्वास है, जो उन्मादजनित भोग पर नहीं वरन् तपोनिष्ठ प्रेम पर टिका है और उसी पर फलता-फूलता है। पुरुषार्थ चतुष्टय का प्रेरक है, सृष्टि का संचालक भी। व्यष्टि से समष्टि तक, दिगंत तक प्रेम ही वह बीज-मंत्र है, जो आकर्षण की पगडंडियों पर भ्रमण नहीं करता, अपितु पुलक भरे राजमार्ग पर यायावरी करता है और नवोन्मेष पथ का सृजन करता है। प्रेम नवीन अनजान पगडंडियों की भटकन नहीं, वरन् एक तपोनिष्ठ यायावरी है प्रेम, जिसके अक्ष पर पावस पलता है। प्रेम आह्ल‍ाद है, पर उन्माद नहीं, ध्रुव से ध्रुव का संतुलन है प्रेम, जिसमें स्वाभाविक स्पंदन है, गति है, विराम नहीं, इसलिए काल के वार्षिक प्रवास-चक्र में, अबाधित पावस हर बार उतरता है। प्रेम के ध्रुवों पर धरा अंबर टिका है। प्रेम के राजमार्ग पर ही मेघ, पवन, नदियाँ, समंदर चलते हैं।
ब्रह्म‍ांड की गति के इस चालक को शाश्वत रूप में समझने हेतु हमें व्यष्टि से समष्टि तक की यायावरी नितांत अकेले करनी होगी। आत्मनिष्ठ होकर स्वयं में उतरना होगा और जब इस अविरल यात्रा में स्वानुभूति और परानुभूति रिलमिलकर एक हो जाए, तभी रोदन और क्रंदन हास्य और नर्तन में बदलेंगे। यही पावस का जन्म है। मन का मावस जब पावस में रूपांतरित हो जाता है, तब आनंददायी संजीवनी का स्फुरण होता है। प्रेम और पावस का यह अन्योन्याश्रित संबंध चिरंतर है। प्रेम से उपजा पावस पुन: प्रेम को जन्म देता है। प्राणी जगत् से वनस्पति जगत् तक सचराचर प्रेमजनित उत्पाद में निमग्न हो जाते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक भावुक संवेदनशील हृदय को पावस सुहाता है और प्रेम के परिणाम के रूप में पावस का उद्भव होता है। पृथ्वी की अटूट आस्था, प्रेमिल तितिक्षा, प्रतीक्षा का आलोड़न करते मेघ जब उसके आकुल अंतर और द्रवित दृगों का पानी भूले-बिसरे निष्ठुर नभ के हृदय में बो आते हैं, तब दोनों ओर पलते प्रेम का नाद, आस्था के मंजीरे और विश्वास के खड़ताल पर ताकधिना-धिन कर थिरक उठते हैं और बौराया पावस समूची सृष्टि को शिवमय कर शृंगारित करता है। प्रेम का तार सप्तक गाते घन आनंद का वर्षण कर सृष्टि गेह को वंदनवार और हरित अल्पनाओं से सजा देते हैं। 
पावस का आगाज प्रेम का मधुमय सिंचन भी है धरा पर और प्रेम का परिणाम भी। प्रेम के हिंडोले पर झूलता पावस जीवन का मल्हार है, जिसे गाना सृष्टि का सत्य है। संवेदना के उच्चतम शिखर पर प्रेम रहता है और प्रेम के गर्भ में पावस पलता है। पर इसके लिए प्रथम प्रत्येक को जेठ की तप्त गर्भअगन को सहना पड़ता है, यही सृष्टि का नियम है। पावस पाना है तो जेठ से गुजरना ही होगा प्रत्येक को। तपोनिष्ठ प्रेमजनित पावस अवनी अंबर की प्रेम अनुभावों का संचार करता संपूर्ण जगत् में प्रेम के अहो भाव को स्थायी भाव में बदलने का यत्न करता रहता है। प्रमुदित प्रेम का उपहार ‘पावस’ जगती में प्रेम की व्याप्त‌ि और पुनस्था‌िपन है। इसलिए पावस और प्रेम दोनों पावन हैं, ऊर्जस्वित रस से सराबोर हैं और कल्याणमयी भी। पावस तपोनिष्ठ प्रेम का प्रमाण-उत्पाद भी है और समान रूप से आत्मनिष्ठ अद्वैतवादियों एवं मैथुनी-सृष्टि का प्रिय प्रवास भी है।
 
‘सर्वमंगला’ ७३, 
वृंदावन कॉलोनी, सुभाष नगर, 
बाँसवाड़ा-३२७००१ (राज.) 
दूरभाष : ९४१४५६७७४८

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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