धन, धर्म, ढोंग, धाँधली, का समय

धन, धर्म, ढोंग, धाँधली,  का समय

इक्कीसवीं सदी धन, धर्म और धाँधली की सदी है, इसका सर्वमान्य शासन-तंत्र प्रजातंत्र है। जो कहने को जनता के लिए, जनता द्वारा शासन की एक मान्य और लोकप्रिय पद्धति है। इसमें लोकसभा-विधानसभा के चुनाव होते हैं। बहुमत वाला दल ही प्रजातंत्र का शासक है, केंद्र या राज्य सरकार में। हमने जानने का प्रयास किया कि क्या देश को कोई सामान्य या आम आदमी चुनाव लड़ने की जुर्रत कर सकता है? पता लगा कि ऐसा असंभव है। चुनाव एक बेहद खर्चीला सौदा है। चाहे राज्य का हो या केंद्र का। करोड़ों का जौहर करने को प्रस्तुत व्यक्ति ही चुनाव के संघर्ष में उतर सकता है। ‘जो घर फूँके आपना’ का साहस करे, वही चुनाव के क्षेत्र में प्रवेश करने को समर्थ है। पर फूँकने को अपना घर कितनों के पास है? इसके बावजूद सफलता की कोई गारंटी नहीं है।

जाहिर है कि जनतंत्र के जनप्रतिनिधि बनने में आम जन की कोई भूमिका नहीं है। बस वह एक मतदाता है। वह यह संतोष कर सकता है कि जो भी सरकार बनती है, उसे उसके वोट की दरकार है। यदि वोट विरोध में व्यर्थ गया, तब भी वह आशान्वित है। कौन कहे, अगली बार उसके मत की सरकार बने? संक्षेप में सच्चाई यह है कि जनतंत्र का चालक धनतंत्र है। आम आदमी दो जून की रोटी के संघर्ष में व्यस्त है, वह कहाँ से चुनाव के पैसों की जुगाड़ करे? यदि ऐसा होता तो रात-दिन के श्रम में खटता क्यों? स्वयं को जनसेवा में समर्पित करके नेता नहीं बन जाता?

इसीलिए भारतीय प्रजातंत्र में परिवारवाद का जोर है। एक पीढ़ी ने जनसेवा के नाम पर चुनाव में सफल होकर हर संभव विधि से धन-उपार्जित किया, कभी कमीशन खाकर, कभी ठेके दिलाकर, कभी नियुक्ति या तबादले की सिफारिश कर। इतना ही नहीं, वह संसद् या विधानसभा में अपना उल्लू साधने को उत्सुक व्यक्तियों से पैसे लेकर, उनके द्वारा सुझाए गए प्रश्न भी पूछता है। अपनी आय बढ़ाने को किसी भी साधन के अपनाने से वह चूकता नहीं है। यदि चूका तो कैसा जनता का सेवक? उसे पिछले चुनाव का खर्च ही नहीं वसूलना है, भविष्य के इलेक्शन का प्रबंध भी करना है।

उसके वंशजों को भी यह धंधा भाता है। न पढ़ाई-लिखाई का झंझट, न बाजार में प्रतियोगिता का संकट, न योग्यता की आवश्यकता, न अनुभव की। बस अपने को जनसेवक कहने के झूठ की धाँधली की दरकार। जैसे एक जनसेवक क्रिकेट के चक्कर में पढ़ाई-लिखाई को धत्ता बताकर, लौटे तो खेल में असफल होकर, पुश्तैनी धंधे यानी नेतागीरी में लग लिये। पैसे बाप द्वारा की कमाई के तो हैं ही, खुद भी बचपन से दूसरों की जेब को अपना समझने की उन्हें खास आदत क्या, लत रही है। परिवार की प्रतिष्ठा है, जात में समर्थन है। धाँधली के वादों से अन्य दलों को पटाने का गुण है, जो उसने पुरखों से सीखा है। जनसेवा में कोर-कसर ही क्या है? बस जुुबान चलाने की कला जनप्रिय बनाने को काफी है। ऐसे भी इसमें वह झूठे वादों, आश्वासनों, आदर्शों की चाशनी मिलाने के आदी हैं। झूठ बोलने का उन्हें जन्मजात अभ्यास है। वह इसे अपने धंधे का अनिवार्य अंग मानते हैं। उनकी मान्यता है कि असत्य वचन उनके वंश की परंपरा है। इसमें न कोई दोष है, न नैतिक बंधन, न कोई पारंपरिक अड़चन। उलटे यह सब जनसेवा की जुगत है। यदि उनके खानदान के मौखिक वादे सच होते तो उनका सूबा विकास के शिखर पर होता। न देश में गरीबी होती, न बेरोजगारी, न अशिक्षा। हर नागरिक को घर होता हर वाहन को सड़क। दशकों की धाँधली का परिणाम है कि न सूबे में सड़क है, न खेती को खाद, न गाँव में पानी के साधन, न पेय जल। रोशनी को लालटेन है, पीने को गंदा प्रदूषित पानी। न प्राइमरी पाठशाला की इमारत है, न प्राध्यापक, न मिड डे मील का प्रावधान। उसका पैसा ग्राम-प्रधान की कमाई का साधन है, जिससे वह बड़के नेता के प्रति वफादार रहे।

इसीलिए हमें कभी-कभी लगता है कि जनतंत्र जन को सताने का तंत्र है, उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करने का नहीं। यदि कोई ऐसा करने की मूर्खता करे तो सारे परिवारवादी एक होते है उसके विरुद्ध। उसे अपनी सत्ता न मिलने या गँवाने का खतरा है? यदि यह पुश्तैनी साथ नहीं आए तो जनता के साथ धाँधली के धंधे, यानी झूठे वादे, आश्वासन या रक्षा-प्रेम की गुहार कौन लगाएगा? अल्पसंख्यकों  को उनकी सुरक्षा के आश्वासन से कौन पटाएगा? हिंदुओं के खौफ से कौन डराएगा? जबकि वह स्वयं जानते हैं कि हिंदू स्वभावतः संस्कार से अहिंसक है।

उसने बिना चूँ किए मुगलों के अन्याय सहे हैं। पूजा-स्थलों के विनाश की पीड़ा झेली है। जजिया का कर चुकाया है, हिंदू होने के अपराध में। पर अपने वोट के लालच में वह हिंदुओं को उनके स्वभाव के विपरीत, डरावने और खून के प्यासे अंदाज में पेश करते हैं। सच्चाई तो यह है कि वोट के खातिर नेता, देश का हित कुर्बान करने को प्रस्तुत हैं। वह हिंदुओं को जातियों में बाँटने, गरीबों को लखपत‌ि बनाने, अमीरों की जेब काटने जैसे क्या-क्या ‘प्लान’ नहीं बनाता है? उसका इकलौता ध्येय सत्ता है। परिवार-कल्याण है। पैसा कमाना है। पीढ़ियों को अपनी याद रखने को संपन्न बनाना है। देश तो इसके काम आता है। यदि निजी हित में वह उसे भाड़ में झोंक रहा है तो उससे क्या?

ऐसा नहीं है कि वह तकनीकी प्रगति और उसमें भारतीय योगदान से अपरिचित है। कंपू भाई, ए.आई. (आर्टिफिशियल इंटलिंजैंस), चिप का निर्माण, डिजिटल प्रयोग उसने सबका नाम सुना है। विकास और तरक्की देखी है। पर वह चुनाव जीतने की मानसिकता से पीड़ित है। यह सब सिर्फ उसके जातीय वोट में अल्पसंख्यक जोड़कर संभव है। इक्कीसवीं सदी की तकनीकी क्रांति पर वह कभी फुरसत में सोचेगा, पहले सत्ता तो पा लें। उसमें गजब का आत्मविश्वास है। वह स्वयं भी सोशल मीडिया के प्रचार को गंभीरता से लेता है। उसे यकीन है कि अबकी बार दुश्मन को हराने की। वह कहते हैं, ‘चार सौ पार’, यह कहता है कि ‘इस बार, चार सौ हार’। सब अपने-अपने अनुमान पर खुश ही नहीं, इतरा भी रहे हैं। अपने हित-साधन को वह ए.आई. के प्रयोग से दुश्मन दल के नेताओं के मुँह में झूठ डलवाते हैं, उनसे भद्दी हरकतें करवाने में अपनी शान समझते हैं। अपनी नेकनीयती का प्रचार तो हो। धन से नेता वर्ग ही नहीं वशीभूत हैं, व्यापारियों, उद्योगपतियों का भी यही सपना है।

उनका प्रयास है कि कैसे इस प्रतियोगी वातावरण में करोड़ों कमाएँ? कैसे निर्यात की वस्तुओं से करोड़ों बना कर वहाँ बसे भारतीयों को ठगें? उनकी सेहत से खेलें। कौन सी धाँधली कर बड़े निर्माण कार्य के ठेके पाएँ? किस दल, राजनैतिक हस्ती, मंत्रालय के अधिकारी को पटाएँ? पैसा तो है ही, और किसकी कमजोरी क्या है? क्या उसको हीरे-जवाहरात का शौक है या युवा लड़की-लड़कों का? किसी जुगत से उसके शौक या चारित्रिक दोष का पता कर उसे वश में करो? वीडियो फिल्म बनाकर उसे डराने-धमकाने में हर्ज ही क्या है? काम निकालने में आसानी होगी।

कहने को वह नेक, नैतिक और धर्मभीरु है। वह सभाओं में प्रवचन करते हैं, अखबारों में अपने नाम से, छवि बनाने को, आदर्श जीवन के लेख छपवाते हैं। ईमानदारी के ढोल पीटते हैं। निजी प्रचार का ढोल उनकी गरदन से लटका है। जब चाहें, वह खुद उसे बजा लेते हैं, यों उन्होंने इसके लिए पूरी एक ‘सैल’ बना रखी है। उसमें प्रचार के नगाड़े हैं। यह सैल अखबार और टी.वी. पर उन्हीं को पीटने के पैसे कमाती है। छवि बनाने में मीडिया की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

अब वह अपनी छवि में ऐसे प्रभावित और संतुष्ट हैं कि शीशे में भी उन्हें अपना बदनाम, बदसूरत और बेईमान अक्स नजर नहीं आता है। अत्यधिक प्रचार से इनसान अपनी असली शक्ल भी खुद-बखुद भूल जाता है। बड़े पूँजीपतियों, नेताओं, व्यापारियों के साथ यही होता है। वह प्रचारित छवि और व्यक्तित्व की असलियत के बीच भ्रमित रहते हैं। कभी इस उपलब्धि पर इठलाते हैं, कई जीवनपर्यंत इस दोहरेपन से व्यथित रहते हैं।

ऐसे इन परिस्थितियों में सुख-संतोष कठिन है। कौन जानता है कि दुनिया भर को हँसाने वाला जोकर भी अपने निजी दु:ख-दर्द से अकेले में सबसे छिपकर आँसू बहाता है। अपने पल्ले यह नहीं पड़ता है कि इस नश्वर जीवन में न किसी का धन साथ जाता है, न बँगले-कोठी की जायदाद। यह इन ढोंगियों को भी पता है। फिर भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जीवन की सच्चाई जानकर भी वह भौतिक उपक्रम में, निष्ठा और लगन से व्यस्त रहते हैं। इतना ही नहीं, अपने अतिरंजित अहं की तुष्टि के लिए छोटे शहर के बड़े, तथाकथित संवेदनशील, साहित्यकार पत्नी की मृत्यु के दु:खद समाचार के साथ यह बताना नहीं भूलते हैं कि बड़े अस्पताल में प्रमुख डॉक्टर ने पत्नी के इलाज में व्यक्तिगत रुचि ली थी। उनकी यश और कीर्ति ऐसी है कि वह खुद बीमार पड़े थे तो सैकड़ों की संख्या में चाहने वालों की ऐसी भीड़ जुट गई थी कि अस्पताल के रास्ते अवरुद्ध हो गए थे।

किताब छपे-न-छपे, साहित्य में धेले भर का योगदान हो-न-हो, पर वह हर बड़े लेखक को जानते हैं। सबको उन्होंने चंदा जुटाकर और उसके पैसे खाकर सम्मानित किया है। सब के साथ उनके फोटू हैं। वह कवि-सम्मेलन के आयोजक हैं। उनके आदर्श और उसूल इतने लचीले हैं कि वह राम का भी गुणगान करते हैं और रावण का भी। वह हर सत्ताधारी दल के सक्रिय समर्थक हैं, उसके आका की प्रशस्ति इनका चरित्र है, उसके पैसे और पुरस्कार इनका धर्म। वह घुप्पल-मंच के नायक हैं। फिलहाल यह तय नहीं है कि वह साहित्य की शोभा हैं या कलंक। एक बड़े साहित्यकार के पिछलग्गू और चरणसेवक बनकर यह संपादक भी बन बैठे हैं और सम्मान-पुरस्कार देने के कर्ता-धर्ता भी। जीवन भर इन्होंने अपनी जाति के संपर्कों का नमन और वंदन किया है तथा उसी से कमाया-खाया भी है। कहने को यह प्रगतिशील हैं। सत्ता के हर सूरज की इन्होंने आरती उतारी है और सत्ता-वंचित होने पर उसे गरियाया भी है। यही इनकी ईमानदारी और महानता का यह एक लक्षण है। इसी ने इन्हें शहर की महान् हस्ती बनाया है।

जीवन का अंत है, ढोंग और घुप्पल का नहीं। जन्म एक दुर्घटना है। कोई नेता-परिवार में जन्म लेता है, उसी समय कोई निर्धन के घर। यह केवल घुप्पल और संयोग है। नेता-पुत्र न धंधे में चले, न पढ़ाई में तो उनके पास एक सुरक्षित विकल्प है। वह अपने प्रभावशाली और जनसेवक पिता का वारिस बन जाता है। आजादी के बाद की पीढ़ी के यह बचे-खुचे अवशेष हैं, जिन्हें सत्ता और प्रसिद्धि तक विरासत में मिली है। आजादी के बाद के कुछ सीमित परिवार हैं। उन्होंने जनसेवा के नाम पर जात-सेवा कर सत्ता पाई और हर किस्म की संभव धाँधली कर पैसा कमाया है। प्रजातंत्र में ऐसे ही ‘राज-वंशों’ का युग है। यह हर दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े तथा निर्धन की सेवा को मुखर है। इनका एक ही लक्ष्य है। कैसे अपनी और अपनों की धन-सेवा हो सके। ऐसी धाँधली और घुप्पल के राजकुँवर वर्तमान सियासत की पहचान है। जनसेवा को उत्सुक ऐसे परिवार आज सत्ता के आकांक्षी हैं। कुछ उन्हें कुरसी की गटर के कीटाणु कहते हैं। कुछ के अनुसार वह सत्ता की शोभा हैं। यह विवाद और विचार का विषय है। प्रजातंत्र के हर चुनाव में ऐसी अंतहीन बहसें वोटर के मनोरंजन का साधन हैं। जनतंत्र ऐसे ही फलता-फूलता है। कभी वास्तविक जनसेवक सत्ता में आते हैं, कभी धनसेवक। प्रजातंत्र इन्हें भोगता-सहता चलता रहता है।

कहने को ऐसे अधिकतर शासक सैक्युलर हैं, फिर भी इक्कीसवीं सदी में धर्म का बड़ा बोलबाला है। कोई माने न माने, चुनाव का नामांकन तक सैक्युलर प्रत्याशी, ज्योतिषी की सलाह पर सही मुहूर्त में करते हैं। चुनाव के समय इन भविष्य-वक्ताओं की पौ-बारा होती है। सत्ता की कुरसी पर कौन दल हावी होगा, का निर्णय भी ग्रह-चाल के आधार पर  निर्भर है। इसे मापने में भी ज्योतिष विद्या के धुरंधर महारथी ही समर्थ हैं। ग्रह-चाल को और प्रबल-सफल करने को यज्ञ-हवन, मंदिर-मसजिद दर्शन, तथा सिद्ध संतों का आशीर्वाद लेने से भी धर्म निरपेक्ष प्रत्याशी नहीं चूकते हैं।

पैसे का क्या? कौन श्रम-परिश्रम, प्रतिभा-योग्यता से कमाया है। कुछ चंदे का है, कुछ भ्रष्टाचार का। इसे दरियादिली से लुटाया जाता है, अलौकिक की कृपा पाने और चमत्कार से चुनाव जीतने पर। चुनाव का इंतजार कई वर्गों को रहता है। चुनाव काल देश का आंदोलन काल भी है। किसान फसल का मूल्य बढ़ाने को आंदोलन छेड़ने को प्रस्तुत हैं, तो श्रमिक अपनी माँगों पर। सरकारी कर्मचारी, कभी महँगाई भत्ता, कभी बेहतर वेतनमान, पेंशन के मुद्दों पर सक्रिय हैं तो संविदा-कर्मी नियमित होने को। दल जानते हैं कि वोट दुर्लभ है। उसे पाना ही पाना वरना अगले पाँच साल ‘सूखे’ बीतने हैं। न प्रभाव, न पैसा कैसे जीवन कटेगा? अपनी सरकार होती तो पुराने केस निबट जाते। कुछ वापस होते, कुछ वकील सुलटा लेते। कहते हैं कि वकीलों के भी अपने चहेते जज हैं। ऐसे जजों का निर्णय बहुधा उन वकीलों के पक्ष में ही होता है।

हम पर तो ऊपर वाले की महती कृपा है। हमें न काले कोट के संपर्क का अनुभव है, न कोर्ट-कचहरी का। नहीं तो सुनते हैं कि भारतीय न्याय पद्धति अपनी कार्यकुशलता में इतनी माहिर और पारंगत है कि मुकदमों के निपटारे के लिए पूरा जीवन भी पर्याप्त नहीं है। कई मुकदमे तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहते हैं।

ज्योतिषी को भी चुनावों की प्रतीक्षा हैं। पाँच साल बाद उनके भाग्य का शुभ, मंगलमय और समृ‌िद्ध का सूचक सूरज उगा है। जो संभव है कमा लें। परिचय है तो नेता महोदय गाहे-बगाहे कुछ न कुछ काम करवाते रहेंगे। कुछ नहीं तो विभागीय पदोन्नति, ट्रांसफर में पैसे बनने की संभावना है। कोई नेता से मिलना चाहे तो, ज्योतिषी, भेंट करवाने की, कमाई में भी समर्थ हैं।

जनता को चुनाव का इंतजार है। वह पाँच वर्षों में एक बार तो जनार्दन बने, वरना हर नेता वोट पाकर उन्हें भूल जाता है। महँगाई बढ़े तो बढ़े रोजगार घटे तो घटे, कौन चिंता करे? हर दल में समर्थक वर्ग है। व्यापारी चंदा देते हैं, कुछ कमा भी लें। उनको रोका तो चुनाव में ठेंगा दिखा देने की नौबत न आ जाए? अच्छे दिन आने का सबको इंतजार है, उद्योपतियों से लेकर आम आदमी को। सबको मुगालता है, जनतंत्र जो है तो अपने हर जन का ध्यान रखेगा। चुनाव में धर्म के हथकंडे और वरदी के डंडे भले तरक्की करते रहे, प्रजातंत्र की मूल भावना आस्था, श्रद्धा, नियम, नैतिकता घटती जाती है। हमें तो कभी-कभी लगता है कि समय के साथ बदलता कुछ नहीं है, बस अपने पुराने रूप का नया आकार ग्रहण करता है, चाहे अंधविश्वास हो, इनसान की अवनति हो या असमानता, वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की के बावजूद। साम्यवाद का सिद्धांत समता लाने में कितना उपयोगी है, यह साम्यवादी देश की गैर-बराबरी से जाहिर है, इनसान की दिनोंदिन बढ़ती बर्बरता मीडिया की सुर्खियों से स्पष्ट है। हत्या, आगजनी, अपहरण, बलात्कार, क्या क्या नहीं हो रहा है? स्मार्ट फोन पर जब पोर्न परोसा जाएगा तो क्या महिलाओं का सम्मान बढ़ेगा? बेरोजगारी ऐसी है कि विकसित देशों में कुछ ‘डोल’ (सरकारी सहायता) पर निर्भर हैं, नहीं तो नेता के भ्रामक बोल पर। आज संसार में युद्ध का वातावरण है। क्या हम जितना शांति और प्रगति का दावा कर रहे हैं, कहीं उतना ही विनाश की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं?

९/५, राणा प्रताप मार्ग,

लखनऊ-२२६००१

दूरभाष : ९४१५३४८४३८

 

 

 

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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