फिसलन

१० जुलाई, १९३२ को मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) में जन्म। ‘दूसरे चेहरे’, ‘अलग-अलग अस्वीकार’, ‘काल विदूषक’, ‘धरातल’, ‘केवल पिता’, ‘सिलसिला’, ‘अकर्मक क्रिया’, ‘टापू पर अकेले’, ‘खंडित संवाद’, ‘नया संबंध’, ‘भूख तथा अन्य कहानियाँ’, ‘अभयदान’, ‘पुल टूटते हुए’ (कहानी-संग्रह); ‘दराजों में बंद दस्तावेज’, ‘लौटते हुए’, ‘चाँदनी के आर-पार’, ‘बीच की दरार’, ‘कई अँधेरों के पार’, ‘टूटते दायरे’, ‘चादर के बाहर’, ‘प्यासी नदी’, ‘भटका मेघ’, ‘आकाश चारी’, ‘आत्मदाह’, ‘बावजूद’, ‘अंतहीन’ (उपन्यास); ‘किस्सा एक खरगोश का’, ‘दुनिया मेरे आगे’ (व्यंग्य-संग्रह); ‘लौटना एक वाकिफ उम्र का’ (संस्मरण) कृतियाँ चर्चित। पाँच कथा-संग्रह उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत, ‘साहित्यश्री सम्मान’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘महात्मा गांधी साहित्य सम्मान’ एवं अनेक प्रतिष्ठित सम्मान।

उसे पहली नजर देखते ही मेरे मन में उसके प्रति जुगुप्सा पैदा हुई, बिल्कुल गिजगिजा सा ढुलमुल आदमी बस में और कोई सीट खाली नहीं थी, इसलिए मुझे उसी के पास बैठना पड़ा। सीट का खोल फटा देखकर और भी तकलीफ हुई। सीट के भीतर से फोम के टूटे टुकड़े झाँक रहे थे। वह सीट की दुर्गति से बेखबर होकर अमरूद खा रहा था। अमरूद से निबटकर उसने अपनी उँगलियाँ चाटीं और जेब से एक नुचड़ा हुआ टुकड़ा निकालकर लार से लिथड़ी हुई हथेलियाँ साफ करने लगा। उसकी सभी हरकतें मुझे नागवार लग रही थीं, लेकिन करता क्या? सीट पर तो उसी से लगकर बैठना पड़ा।

हथेलियाँ पोंछकर उसने अपने दोनों पाँव सीट पर रख लिये और घुटनों को बाँहों की गिरफ्त में लेकर सोने की तैयारी करने लगा। मुँह घुटनों में होने के कारण उसका सिर पीछे से थोड़ा ऊपर उठ गया और लंबी चुटिया दिखाई देने लगी। मैं मन-ही-मन उसके घटियापन को कोस रहा था और साथ ही अपनी तकदीर को भी बुरा-भला कह रहा था। हे भगवान्ï! कितना सड़ा हुआ आदमी साथ बैठने को मिला।

बीच में कहीं बस ठहरी और भीड़ का एक रेला पसीने का भभका छोड़ते हुए अंदर की ओर पिल पड़ा। मैं उससे भरसक बचकर बैठने की कोशिश कर रहा था, लेकिन सीटों के बीचवाले गलियारे में सवारियाँ आ जाने से उसकी तरफ ही सरककर बैठना पड़ा। भीड़ की धक्का-मुक्की में दो सरदार अपनी पत्नियों के साथ हमारी सीट के पास आकर खड़े हो गए। वे बेचारे दोनों काफी बदहवास थे। पत्नी बच्चों के साथ शायद शनिवार की शाम दिल्ली में बिताने के लिए निकले थे, पर भीड़, गरमी और धकमपेल से परेशान थे।

तभी मेरे मन में उठने की बात आई, क्योंकि मेरे सीट छोड़ देने से एक औरत और बच्चे को तो थोड़ी जगह मिल सकती थी। मैं उठूँ कि इसके पहले ही मेरे पाँव के पास आकर कुछ गिरा। मैंने गरदन को थोड़ा खम देकर देखा...वह एक खूबसूरत सा पर्स था। मुझे अपनी साँस रुकती सी मालूम हुई। निश्चय ही वह उन सरदारों में से किसी एक का था। वे बेचारे धक्कों से इधर-उधर हो रहे थे और शायद इसी कशमकश में बटुआ किसी की जेब से फिसल पड़ा था। ‘चलो जी होगा किसी का’ वाला भाव मन में जगा, पर साथ ही जूता पर्स पर पहुँच गया। इस आकस्मिकता के चलते दिल में विचित्र सी हौल भी होने लगी।

मेरे पास बैठे उस मकड़ेनुमा शख्स ने इसी क्षण अँगड़ाई ली और अपने दोनों पाँव सीट से हटाकर मेरे जूतेवाले पैर से सटा लिये। मैंने जूते के तल्ले से पर्स को पूरी तरह छिपा लिया और जी-जान से कोशिश करने लगा कि जैसे भी हो पर्स को आँख बचाकर उठा लूँ और कहीं सुरक्षित जगह रख लूँ।

मेरे भीतर एक अजीब सा अंधड़ चल पड़ा। थोड़ी देर बाद बस फिर कहीं रुकी और अगली तरफ कुछ सीटें खाली हो गईं। दोनों सरदारों और उनकी पत्नियों, बच्चों को खाली सीटें मिल गईं। अब बस में कुछ भीड़ कम हुई तो मेरे मन में उलझन होने लगी। मैं तो दिल से यही चाहता था कि बस में बेपनाह भीड़ बढ़ती चली जाए तो किसी को अपनी जेबें टटोलकर पर्स खो जाने का गुमान ही न हो।

कुछ देर के लिए मैं बस की स्थिति से बेखबर हो गया और अपनी संपूर्ण चेतना से पर्स गायब करने की उधेड़बुन में लग गया। मैंने इधर-उधर ताका-झाँकी की और अपने हाथ में ली हुई किताब नीचे गिरा दी। मेरे साथवाले आदमी ने झुककर उसे उठाना चाहा, पर मैंने उसे यह अवसर नहीं दिया और पर्स को किताब के नीचे छिपाते हुए उसे ऊपर उठा लिया। पता नहीं मैं यह सब बहुत सफाई से कैसे कर गया, पर साथ ही तनावग्रस्त होकर पसीने में नहा गया। मैंने तय किया कि अगले बस स्टॉप पर उतरकर मुझे दूसरी बस पकडऩी है, कहीं ऐसा न हो, यहाँ बैठे रहने से रँगे हाथों पकड़ लिया जाऊँ।

हालाँकि बस पिछले स्टॉप से कुछेक मिनट पहले ही रवाना हुई थी, मगर मुझे यूँ लग रहा था, जैसे बस घंटों से चल रही है। मैं चाहता तो कंडक्टर से कहकर वहीं तत्काल उतर सकता था, पर मैं भीतर से इतना पस्त और हतप्रयास हो चुका था कि मुझ में इतनी सी भी इच्छाशक्ति बाकी नहीं थी कि फुरती से कोई निर्णय ले डालूँ।

पर्स से मेरी चेतना इस कदर जुड़ चुकी थी कि वह मुझसे एकाएक छोड़ते नहीं बन रहा था। बस एक ही खयाल था कि किसी तरह खिडक़ी के नजदीक पहुँच जाऊँ तो बटुवे से रुपए निकालकर खाली पर्स खिडक़ी के बाहर फेंक दूँ। लेकिन खिडक़ी से लगे बैठे उस मरगिल्ले भूत को उठने का कोई ठीक सा बहाना भी मेरे उड़ते दिमाग में नहीं आ पा रहा था।

मैं पर्स को जेब में रखने की जोखिम उठाने जा ही रहा था कि पासवाले ने मेरे हाथ की किताब देखने के लिए हाथ बढ़ा दिया। सत्यानाश! मैं बुरी तरह हिल गया। यद्यपि उसे यह पता नहीं था कि मेरे हाथ में पर्स किसी और का है। पर मुझे पर्स छुपाने की कोशिश करते देख वह सच्ïचाई ताड़ गया। फलत: अब भंडाफोड़ होने में देर नहीं थी। मेरे उसके बीच किताब के लिए हलकी सी छीना-झपटी हुई और मैंने किताब उसे दे दी। उसने ‘पावर्टी टु पावर’ नामक उस पुस्तक को उलट-पलटकर देखा और अपने लिए फिजूल सी चीज समझकर एकाध मिनट में ही वापस लौटा दिया।

इसी समय बस में अगली सीट से हंगामा शुरू हुआ और एक सरदार ने सीट से उठकर इधर-उधर उछलकर शोर मचाना शुरू कर दिया। वह अपनी हिप पॉकेट और दूसरी जेबों में जल्दी-जल्दी उतावली से हाथ डाल रहा था। जरा देर में ही परेशान हाल उस शख्स ने सीटों के नीचे झुक-झुककर कुछ तलाशना शुरू कर दिया। जल्दी से कंडक्टर लपककर उसके पास पहुँच गया। दूसरा सरदार भी उसके प्रयासों में सम्मिलित होते हुए बोला, ‘‘ïप्राहाजी बटवा आराम नाल ढूँढ़ो।’’

जिस सरदार का पर्स गुम हुआ था, उसकी पत्नी भी सीट छोडक़र खड़ी हो गई थी और सीटों के नीचे झुक-झुककर पर्स ढूँढऩे लगी। मैंने खतरे को सिर पर आया देखकर पर्स अपनी सीट के फटे हिस्से में छिपा दिया।

यूँ तो पर्स पूरी तरह छिप गया, पर मेरे पास बैठे आदमी ने मेरी यह बदहवासी भाँप ली। मैं घबराहट में पसीने से नहा उठा। मुझे अपनी साँस ठहरी हुई जान पड़ी और आँखों में मेरा अपना पूरा वजूद बहुत भद्ïदी स्थिति में मूर्त हो उठा। अभी मैं पकड़ा जाऊँगा, यह सिलबिल्ला सा आदमी अगले क्षण ही सारी पोल खोल देगा। थाने के सामने बस जरूर ठहरेगी। मुझे पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा। मार-पीट, थुक्का-फजीहत तो होगी ही, नौकरी अलग से गई समझो। पत्नी, बच्चे सिर पीटकर रह जाएँगे। मेरे साथी और सगे लोग यह हरकत सुनेंगे तो उनके मुँह दु:ख और आश्चर्य से खुले-के-खुले रह जाएँगे।

तभी मेरी आँखों के आगे कुछ महीने पहले गुजरी एक ऐसी ही बेहूदा स्थिति आ गई। एक मेरे जैसे ही सफेद पोश सज्जन बाजार से आलू खरीद रहे थे। उन्होंने पालक छाँटते हुए दुकानदार की नजर बचाकर एक आलू चुपके से झोले में डाल लिया। पासवाली कुंजडिऩ ने यह हरकत देख ली और आलूवाले से कह दिया। उस दुकानदार ने बाबू साहब की सूरत देखी और लापरवाही से बोला, ‘‘चल छोड़, डाल लिया तो डाल लिया, अब काहे का टंटा।’’ मगर वह कुजडिऩ नहीं मानी उसने बाबूजी के हाथ से थैला झपटकर उलट दिया और बुरी तरह लताडऩे लगी, ‘‘सरम-हया तो घोलकर पी गए। गरीबन को लोहू पीते भी लाज बी नई आती।’’

कुजडिऩ की हाय-तोबा से तमाशबीनों की भीड़ लग गई। उन साहब की इतनी किरकिरी हुई कि क्या कहूँ। उस वक्त मेरा अपना सिर क्या शर्म से झुक नहीं गया था। मैं उस साहब के चेहरे पर नजर डालने की ताब नहीं ला सका था। जब भी मुझे उस घटना की याद आती थी मैं अजीब सी हया में गर्क हो जाता था।...और आज मैं स्वयं अनजाने ही इतनी दुर्गति में फँस गया था कि अपने निस्तार की कोई सूरत ही नजर नहीं आती थी।

अब सारी बस में पर्स को लेकर तरह-तरह के मंतव्य सुनाई पड़ रहे थे। कोई कहता था, ‘‘एक-एक आदमी की तलाशी ली जाए। एक-दो आदमी आगे की तरफ से और एक-दो आदमी पीछे की तरफ से सबकी जामा-तलाशी लें।’’ एक और कह रहा था, ‘‘जिसने पर्स चुराया होगा, वह अब तक बस में काहे को बैठा होगा।’’

जब कोई भी सुझाव कार्य रूप में परिणत न हो सका तो कंडक्टर बोला, ‘‘हमें क्या जरूरत है, जो एक-एक सवारी की तलाशी लें। आगे बोर्डर से पहले थाना है, वहाँ बस रोक देंगे, जो करना होगा पुलिस अपने आप करेगी।’’

उसकी मंशा सुनकर मैं ऊपर से नीचे तक सिहर उठा। मेरे पास बैठा वह मरगिल्ला बहुत ध्यान से मुझे लक्ष्य कर रहा था। शुरू में तो वह मुझे बहुत सपाट चेहरेवाला लगा था, मगर अब उसकी आँखों में व्यंग्य और हिकारत साफ उभरकर आ गई थी। उसने मुँह पर हथेली रखकर जमुहाई ली और थोड़ा फैलकर बैठ गया। उसकी पसलियाँ मेरी पीठ में गडऩे लगीं, लेकिन मैं उससे एक शब्द भी नहीं कह सका। बस में उसके पास बैठते हुए उसे आदमी का दरजा देना भी मुझे गवारा नहीं था, पर अब बार-बार मन हो रहा था कि उसके पाँव पकड़ लूँ और आँखों-ही-आँखों में भंडाफोड़ से बचने की याचना करूँ।

विचित्र परिस्थिति थी। उजड्ïड निठल्ला और भुक्क दिखाई देनेवाला आदमी इस क्षण अपना उद्धारक लग रहा था। उसकी पीली-पीली रोगीली आँखों को देखकर मैं इतना भयकातर हो गया कि बेहोशी सी आने लगी। मुझे सारी बातें उड़ते-उड़ते सुनाई पड़ रही थीं। पर्स को माध्यम बनाकर आज की मानवीय विकृतियों का रोना रोया जा रहा था। एक कोई पूछ रहे थे, ‘‘सरदारजी, पर्स में कितने रुपए थे।’’ वह मरी सी आवाज में बता रहा था कि करीब दो-ढाई सौ रुपए थे। पर्स में कुछ जरूरी कागज भी थे। फौज में होने की वजह से कुछ पहचान-पत्र भी थे। उसे रुपयों की उतनी परवाह नहीं थी, जितनी कागजात के गुम हो जाने की थी।

बस शायद पुलिस की चौकी के नजदीक ही थी कि मेरे साथवाला आदमी एकदम से उठकर खड़ा हो गया। उस वक्त मुझे होश नहीं रहा कि मैं कहाँ हूँ? सिर में वह घुमेर आई कि बस में बैठी सवारियाँ टूटते खिलौनों सी गड्ïड-मड्ïड नजर आईं। बस के भीतर उठता बेपनाह शोर मात्र धूँ-धूँ की ध्वनि सा लगा।

कुछ देर बाद सहसा मेरी चेतना लौटी तो मैंने पाया कि मेरे साथवाला तकरीर के अंदाज पर अटक-अटककर कुछ कह रहा था, ‘‘सरदारजी! आपको बटवा खोने की रपट जरूर करनी चाहिए। आप जाँ से बस में चढ़े थे, वाँ को थाना साबाबाद लगता है। आप बस से उतर के वई पोंचो और रपोट लिखवाओ। इहाँ तो थाना दिल्ली सादरा के लगेगो। आपकी इहाँ सुनवाई नाय होएगी। बाल-बच्चा के संग हो, पुलिसवाले दो-चार सौ और ठग ले जाएँगे, होयगो-हवायगो कुछ बी ना। मैं सच्ची कहूँ हूँ।’’

बस में बैठी सवारियों ने उसकी बात की जोरदार तारीफ की। यह उस आदमी के तर्क का असर था या फिर बस में बैठी सवारियों को अपने गंतव्य पर पहुँचने की जल्दी थी। सरदार लोग भी उसकी दलील से प्रभावित होकर सीटों से उठकर खड़े हो गए और उतरने के लिए दरवाजे की ओर बढऩे लगे।

बस से उतरते-उतरते वह सरदार जिसका बटुवा गुम हुआ था, हाथ-जोडक़र बोला, ‘‘भाइयो! बस इतनी महरबानी करना कि पर्स में रखे कागजात मेरे पते पर जरूर वापस लौटा देना, रुपए बेशक रख लेना। हमारे आइडैंटी कार्ड पर पता लिखा है। मेरी उस भाई से अरदास है, मेरे बड़े नुकसान की परवाह जरूर करना।’’

उस दु:खी सरदार की इतनी सच्ची भावना और इतनी कातर यातना पर मेरा मन सहसा द्रवित हो उठा, लेकिन मैं अपनी फजीहत से डरकर चुप रह गया। हाथ जोड़ते हुए वह शख्स बस से नीचे उतर गया। उसकी गमगीन बीवी ने एक बार उदासी भरी नजर सवारियों पर डाली और वह भी बस से उतर गई। मैं भीतर-ही-भीतर कटकर रह गया।

बस चल दी तो अपनी बेशर्मी के बावजूद मैंने महसूस किया कि मेरे जी में चुभा हुआ काँटा निकल चुका था। मुझे यह सोचकर बाहरी राहत मिली कि मेरे हमसफर ने अपनी दलील से मुझे एक हादसे का शिकार होते-होते बचा लिया। साथ ही मैं उस उधेड़बुन में पड़ गया, आखिर उसने ऐसा क्यों किया? मैं अजीब सी उलझन में फँस गया। अंतिम निष्कर्ष के रूप में यह बात मेरे जेहन में उतरी कि हो-न-हो मेरे द्वारा हड़पे बटुवे की रकम में यह दुष्ट अपना हिस्सा चाहता होगा। मुझे बचाने की मुरव्वत का तो कोई सवाल ही नहीं था। वह मुझे पहले से तो जानता नहीं था। किसी अनजान शख्स को कोई इस ढब पर क्यों बचाना चाहेगा?

मुझे बस स्टैंड से पहले एक मोड़ पर उतरना था, लेकिन मैंने अपना विचार बदल लिया। कहीं ऐसा न हो कि मैं स्टैंड से पहले उतरने के लिए खड़ा होऊँ और यह शख्स मुझे बटुवा चोर कहकर शोर मचाने लग जाए। बस स्टैंड पर ही उतरना मुनासिब समझकर मैं चुपचाप बैठा रहा।

बस के बस स्टैंड परिसर में दाखिल होते ही सवारियों में बस से उतरने की अफरा-तफरी मच गई। ड्राइवर बस को मुनासिब जगह खड़ा करने की गरज से बस को ‘बैक’ कर रहा था और सवारियाँ थीं कि धड़ाधड़ उतरती चली जा रही थीं।

जब बस की सारी सवारियाँ उतर गईं और ड्राइवर भी अपनी खिडक़ी से कूदकर बाहर निकल गया तो मैंने सीट के खोल से पर्स निकाला और उसे किताब की आड़ में छिपाते हुए बस से बाहर आ गया। वह शख्स भी मेरे पीछे लग लिया। मेरे लिए यह कोई अप्रत्याशित स्थिति नहीं थी।

जाहिर सी बात थी कि उसे अपना हिस्सा लेना ही था। मानसिक रूप से मैं भी उस बँटवारे के लिए तैयार था। वह मेरे पीछे-पीछे बस स्टैंड से बाहर निकल आया। एकाएक उसने मेरे बढ़ते कदमों पर ‘ए बाबू साहब’ कहकर पूर्ण विराम लगा दिया।

वह मेरे ऐन सामने आकर खड़ा हो गया। उसकी तीखी निगाह मेरे चेहरे पर गड़ी थी। उन आँखों में विद्रूप और घृणा का असीम पारावार उमड़ रहा था। उसने अप्रत्याशित ढंग से बोलना शुरू कर दिया, ‘‘का आस-औलादवाले नहीं हो? डाका क्यूँ न डालते? भीक क्यूँ न माँगते? औरन का खून पीते हया-सरम कुछ ना आवे है। हुई पकरवा दयो होतो तो जेलखाने में चक्की पीसते। बाल-बच्चा सरकन पै भीक माँगते नजर आवते। लानत है या बेहयाई पै।’’ वह एक क्षण अपनी उखड़ती साँस सँभालने के लिए ठहरा और मेरा मखौल उड़ाते हुए बोला, ‘‘बटवा लैके भागे तो ऐसे जायरे है,

ज्यूँ बड़ी मसक्कत की कमाई कल्लई होय। कबऊँ कसाले ते कमाय के खायो है तुमने?’’

उसके माथे की नसें तन गई थीं। गरदन पर नसों का मोटा जाल फैल गया था। सूखा चेहरा उत्तेजना में अत्यंत भयंकर दिखाई पड़ रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? उससे कैसे निपटूँ? मेरी कुछ भी करने या कहने से पहले उसने झपट्ïटा मारकर बटुआ मेरे हाथ से छीन लिया और उसमें से रुपए निकालकर मेरे मुँह पर फेंक मारे। बटुवा अपनी गिरफ्त में लेकर वह बड़बड़ाया, ‘‘तो जैसे कसाई ते जे उम्मेद बी ना है के वा गरीब के कागज-पत्तर ई लौटाल देगो। काई तरियाँ अब इनन्ने मैं ई वापस करऊँगो।’’

उसका आगे बोलना रुक गया। वह लगातार खाँसने लगा। मैंने महसूस किया कि मेरा गला खुश्क हो रहा है। मेरी आँखों और सिर से आग की लपटें सी निकल रही थीं। मैंने स्वयं को जीवन में इतना बेबस, तुच्छ और अपमानित कभी अनुभव नहीं किया था। और वह भी एक ऐसे आदमी के सामने जो शायद कभी और वक्त में मुझसे घरेलू नौकर रखने की प्रार्थना करता तो मैं उसपर ध्यान तक न देता।

उसने पर्स से सारे कागज निकाले और खाली पर्स मेरे ऊपर फेंककर दूसरी ओर मुड़ गया। सडक़ पर मेरे सामने रुपए बिखरे पड़े थे, पर झुककर उन साँपों की मानिंद लहराते रुपयों को उठाने का जिगर मेरे पास नहीं था।

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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