RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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लोक-संस्कृति से दूरीबिहार प्रांत में एक लोककाव्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी उद्धृत होता रहा है। इसमें एक चिड़िया की पीड़ा और उसके संघर्ष को उकेरा गया है— चिड़िया—बरही-बरही (बढ़ई) खूँटा चीरो, खूँटे में दाल बा...! का खाऊँ, का पीऊँ, आज मोरा उपास...दाल का एक दाना चक्की के खूँटे में फँस गया है, जिस कारण उसे उपवास करना पड़ रहा है! बरही—नहीं...तुम्हारे दाल के एक दाने के लिए चक्की का खूँटा नहीं चीरूँगा! निराश होकर चिड़िया राजा के पास बरही की शिकायत लेकर जाती है। चिड़िया—राजा-राजा बरही डारो, बरही न खूँटा चीरे खूँटे में दाल बा, का खाऊँ, का पीऊँ, आज मोरा उपास...! राजा— इस चिड़िया के लिए एक बोरी दाल छिंटवा दो...! लेकिन चिड़िया को एक बोरी दाल नहीं चाहिए, उसे तो अपने श्रम से जुटाया गया एक दाना ही चाहिए और राजा की शिकायत लेकर वह रानी के पास पहुँच जाती है। चिड़िया—रानी-रानी राजा समुझावो, राजा न बरही डारे, बरही न खूँटा चीरे, खूँटे में दाल बा, का खाऊँ, का पीऊँ...आज मोरा उपास... रानी—मैं दाल के एक दाने के लिए बरही को डराने के लिए नहीं कहूँगी। आँगन में दाल छिंटवा देती हूँ...! चिड़िया—साँप-साँप...रानी डसो... रानी न राजा समुझावे राजा न बरही डारे... साँप—तुम्हारे एक दाने के लिए रानी को नहीं डसूँगा...! चिड़िया—लाठी-लाठी...साँप मारो साँप न रानी डसे, रानी न राजा समुझावे...! लाठी—मैं तुम्हारे एक दाने के लिए साँप काे नहीं मारूँगी... चिड़िया—आग-आग...लाठी जारो लाठी न साँप मारे... साँप न रानी डसे, रानी न राजा समुझावे...राजा न बरही डारे, बरही न खूँटा चीरे...खूँटे में दाल... आग—खूँटे में फँसी एक दाल के लिए मैं लाठी को नहीं जलाऊँगी...! चिड़िया—(क्रोधित होकर) समुद्र-समुद्र आग बुझाओ, आग न लाठी जारे, लाठी न साँप मारे, साँप न राजी डसे, रानी न राजा समुझावे, राजा न बरही डारे, बरही न खूँटा चीरे, खूँटे में दाल बा, आज मोरा उपास... समुद्र के द्वारा भी मना करने पर चिड़िया सर्वशक्तिमान सूरज की ओर बढ़ती है। बहुत ऊँचाई पर पहुँचने के बाद उसके पंख झुलसने लगते हैं। सूरज को चिड़िया पर दया आ जाती है। वे अपनी किरणों का ताप तेज कर लेते हैं। सूर्य—चिड़िया, तुम वापस लौट जाओ, मैं समुद्र को सोख लेता हूँ, समुद्र सूरज की इस बात से डर जाता है और आग को बुझाने को तैयार हो जाता है, फिर यही क्रम चलता है, आग लाठी को जलाने को तैयार हो जाती है, लाठी साँप को मारने को, साँप रानी को डँसने को, रानी राजा को समझाने को, राजा बरही को आदेश देने को और आखिरकार बरही खूँटा चीरकर दाल का दाना चिड़िया के हवाले कर देता है। चिड़िया दाना लेकर उड़ जाती है और मन-ही-मन सूरज को धन्यवाद देती है। इस काव्यकथा पर विचार करें तो कितने जीवन-मूल्य इस कथा में पिरोए हुए मिल जाते हैं। एक चिड़िया का स्वाभिमान, जिसे अपने श्रम से जुटाया गया एक दाना ही चाहिए। उसे राजा द्वारा दी गई एक बोरा दाल नहीं चाहिए। यहाँ उसका संतोष और लालच को दूर रखने की दृढ़ता भी स्पष्ट दिखाई देती है। बरही की शिकायत लेकर सीधे राजा तक पहुँचने का साहस भी उल्लेखनीय है। साँप, लाठी, आग, समुद्र, सूरज सब आपस में जुड़े हुए हैं। प्रकृति से यही साहचर्य तो हमारी संस्कृति की विशेषता है। जब हम प्रकृति से इतनी गहराई से जुड़ेंगे तो स्वयं को अकेला नहीं महसूस करेंगे। चिड़िया का संघर्ष, उसकी जिजीविषा, उसकी दृढ़ता, साहस, संतोष, स्वाभिमान, सब इस कथा को दोहराने वालों के अवचेतन में समाकर एक प्रेरणा से भर देते हैं। विविधता भरे विशाल भारत के विभिन्न अंचलों, विभिन्न भाषाओं, बोलियों के लाखों लोकगीतों में से यह एक प्रांत का लोकगीत है और इस एक गीत में ही कितने जीवन-मूल्य समाहित हैं। विचार कीजिए कि देश के विभिन्न लोकगीतों, लोकनाट्य, लोकगाथाओं एवं लोककथाओं में कितनी अनमोल धरोहर सँजोई गई है। उत्तर प्रदेश के एक लोकगीत का उदाहरण देखते हैं— कुअवाँ खोदाये कबन फल दे मोरे साहब झोंकवन भरे वनिहारिन तबै फल होइ हैं बगिया लगाए कवन फल मोरे साहब राहे बाट अमवा जे खइ हैं तबै फल होइ हैं पोखरा खोदाये कवन फल मोरे साहब गौआ पिये जूड़ पानी तबै फल होइ हैं लोकगीत के इस अंश में कुआँ खोदने की सार्थकता तभी है, जब सभी को मनचाहा पानी निकालने की सुविधा हो। भारतीय संस्कृति का संदेश तो यही है, किंतु किसी जाति या धर्म विशेष को किसी कुएँ से पानी न भरने देने से समाज की क्या क्षति हुई है, इससे हम सब परिचित हैं। बगिया लगाने की सार्थकता तभी हो, जब राहगीरों को फल खाने की सुविधा उपलब्ध हो। आज के उपभोक्तावादी समय में युवाओं को यह जानकर अवश्य आश्चर्य होगा कि कभी गाँववाले बसें या ट्रक आदि रोककर राहगीरों से फल खाने की प्रार्थना करते थे। पोखरा खुदाने की सार्थकता तभी है, जब गाय तथा अन्य पशुओं को पानी पीने का सुख उपलब्ध हो। इस लोकगीत में परोपकार का संदेश सीधे हृदय में उतर जाता है। बचपन से ऐसे लोकगीतों को सुनना एक किशोर या युवा को महान् आदर्शों से संस्कारित कर देता था। अवचेतन में समाए ये जीवन-मूल्य एक आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण करते थे। अवधी के एक लोकगीत में बड़ा मार्मिक प्रसंग है— एक हिरनी को यह आभास हो जाता है कि उसके हिरन का शिकार कर लिया जाएगा। वह माता कौशल्या के पास जाकर प्रार्थना करती है कि हिरन की खाल उसे दे दी जाए, जिसे वह किसी पेड़ पर लटका देगी और जब हवा से खाल हिलेगी तो उसे हिरन के जीवित होने का अहसास होगा। माता कौशल्या कहती हैं कि वे खाल नहीं दे सकतीं, क्योंकि उसे वे अपने राम की खंजड़ी (एक वाद्ययंत्र) में मढ़वाएँगी। हिरनी निराश होकर लौट आती है, लेकिन मान्यता यह है कि उस हिरनी के शाप के कारण ही सीताहरण हुआ, जिसके केंद्र में हिरण ही था। लोकगीत यही संदेश देता है कि हर प्राणी का सम्मान होना चाहिए। यही संवेदनशीलता मूल्यवान है। अपने सुख के लिए किसी को आहत करना विपत्ति का कारण बनता है। हजारों लोकगीत हैं, जिनमें माता-पिता के सम्मान का संदेश है, तरह-तरह के रिश्ते-नातों की महत्ता का गुणगान है। मौसी-मामा, चाचा-चाची, बुआ, ननद, ननदोई...हर रिश्ता मूल्यवान है। टूटते संयुक्त परिवार और एकल परिवारों की त्रासदी से हम सब परिचित हैं। इन्हीं लोकगीतों में पेड़ों, पक्षियों, पशुओं से मनुष्य के रिश्तों को भी रेखांकित किया गया है। ससुराल जाती बेटी पिता से कहती है कि इस नीम के पेड़ की सुरक्षा करना, जिसके नीचे खेलकर वह बड़ी हुई है। उस नीम को कटवाने की तो कभी सोचना भी मत...। गौरैया या कबूतर या तोता या मोर या अन्य पक्षी विविध लोकगीतों में बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं; यही महत्त्व विभिन्न पशुओं को भी प्राप्त है। लोकगीतों के संदर्भ में स्वाधीनता संग्राम में उनकी भूमिका पर विचार करना भी आवश्यक है। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में न तो आज की तरह सोशल मीडिया था, न टी.वी. चैनल थे, न रेडियो था (आम जन के लिए)...अखबारों तथा पत्रिकाओं की संख्या तथा उनकी पहुँच भी बेहद सीमित थी, क्योंकि भारत की नब्बे प्रतिशत आबादी गाँवों में थी तथा साक्षरता भी कम थी। ऐसे परिदृश्य में लोकगीतों ने ही मोर्चा सँभाला था। लोकगीतों में पति की लंबी उम्र की कामना से अनेक व्रत रखनेवाली पत्नी भी पति को स्वाधीनता संग्राम में लड़ने के लिए प्रेरित करती है तथा वह देश के लिए पति के शहीद होने का दुःख सहन करने को तैयार है। लोकगीतों में पत्नियाँ गांधीजी का चरखा लाने की जिद्द करती है, पड़ोसनों को चरखा कातकर ब्रिटिश सरकार को चोट देने को प्रेरित करती हैं। इन्हीं लोकगीतों ने अंग्रेजों के शोषण और दमन के प्रति जागरूक किया। गांधी, नेहरू, सुभाष, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह जैसे राष्ट्रनायकों के लिए जनसमर्थन जुटाने का कार्य भी लोकगीतों ने किया। अनेक सामाजिक बुराइयों से जूझने में भी लोकगीतों ने एक सार्थक भूमिका निभाई। वर्तमान परिदृश्य में हम जब लोक-संस्कृति से अपनी दूरी का आकलन करते हैं तो एक अत्यंत पीड़ादायक अनुभूति होती है। औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते जिस प्रकार से गाँवों से नगरों की ओर पलायन हुआ है, उसने लोक-संस्कृति को जैसे अलग-थलग करके रख दिया है। शहरों में पब्लिक स्कूलों तथा कॉन्वेंट स्कूलों में अंग्रेजी का जितना वर्चस्व है, उसमें तो हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के किए कोई जगह नहीं बचती, फिर बोलियों तथा लोकगीतों आदि का तो कहना ही क्या! आकाशवाणी केंद्रों से कृषि कार्यक्रमों तथा लोकगीतों के कुछ कार्यक्रमों तक ही लोकगीतों की उपस्थिति बची है। विडंबना देखिए कि आठ सौ से अधिक टी.वी. चैनलों में लोकगीतों की उपस्थिति नगण्य ही है। जिन चैनलों पर छुटपुट लोकगीत हैं भी तो उनमें सस्तापन, फूहड़ता, अश्लीलता की चोट उन्हें और भी आहत कर रही है। ‘कृषि प्रधान देश’ कहलानेवाले भारत में कभी ‘लोकसाहित्य अकादमी’ या ‘लोककला अकादमी’ की स्थापना का ध्यान नहीं आया। वाचिक परंपरा के संवाहक कवि-सम्मेलनों में किसी जमाने में लोककवियों की भागीदारी अनिवार्य हुआ करती थी, लेकिन कवि-सम्मेलनों के वर्तमान स्वरूप में लोकगीत विलुप्त हो चुके हैं। लोकगीतों के विलुप्त होने की प्रकिया तेजी से जारी है, क्योंकि जब पनघट ही न होंगे तो पनिहारिनों के लोकगीत क्या होंगे? फिल्मी धुनों पर लोकभाषाओं के गीतों का प्रभाव बढ़ रहा है, जबकि मौलिक लोकगीत हाशिए पर जा रहे हैं। यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि जब हम अपनी लोक-संस्कृति से इतना दूर आ गए हैं तो अपने जीवन-मूल्यों की रक्षा कैसे कर पाएँगे। वर्तमान समय में जितने अपराध, जितनी क्रूरता, संवेदनहीनता, अमानवीयता बढ़ रही है, कहीं उसके मूल में हमारा अपने जीवन-मूल्यों, महान् आदर्शों से या अपनी लोक-संस्कृति से कट जाना तो नहीं है? प्रकृति से नाता टूटने का ही परिणाम है—आत्महत्याओं की चिंताजनक संख्या, बढ़ता अवसाद, अकेलापन तथा अन्य मानसिक बीमारियाँ। समाज को, सरकारों को, बुद्धिजीवियों को, संस्थाओं को यह विचार करने की महती आवश्यकता है कि लोकगीतों, लोकनाट्य, लोककलाओं की अनमोल विरासत को कैसे बचाया जाए तथा युवाओं-किशोरों तक लोक-संस्कृति की रसधार कैसे पहुँचे। (लक्ष्मी शंकर वाजपेयी) |
जनवरी 2025
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