पिंजड़े के पंछी

पिंजड़े के पंछी

अब तो खैर, कई जमाने क्या, दशक बीत गए। समय के साथ शौक बदलते हैं। कभी लोग पिंजड़े में पंछी पालते थे। हमारे ध्रुव भाई के घर में ‘लव बर्ड’ लोकप्रिय थी। बड़े से पिंजड़े में चहचहाते रंगीन पंछी। देखो तो भ्रम हो कि सावन के इंद्र-धनुषी आकाश के रंगों में इजाफा करती सतरंगी चिड़िया। हमें शक होता कि यदि कभी असावधानी हुई और यह बाहर आई तो ताक में बैठी बिल्ली इन्हें झट से चट कर जाएगी, अन्यथा संभव है कि यह चीलों का शिकार बने। कुदरत का कानून है। अपने से कमजोर को कोई नहीं बख्शता है। इसीलिए हमें लगता है कि मानवीय संसार में भी बराबरी सिर्फ आदर्शों की बातों तक सीमित है, व्यवहार में इसका उलट है।

ऐसे हमने देखा है कि पिंजड़े में लोग तोता रखना पसंद करते हैं। उसमें आवाज के अनुकरण की अद्भुत क्षमता है। पंछियों की शिक्षा-प्रणाली में जाने परीक्षा होती है कि नहीं? वह परीक्षा में तो नकल नहीं करता है, हमारे यहाँ के छात्रों के समान। पर स्वामी की सीख के अनुसार कभी ‘राम-राम’ उच्चारता है, कभी ‘फिर आ गया कंबख्त।’ जो अनचाहे अतिथि के लिए सभ्यता के ढोंग में कहना कठिन है, वही अंतर का भाव तोता प्रकट करने में समर्थ है।

इधर जाहिर है कि बहेलियों की रोटी-रोजी का संकट है। कोई पंछी पालना ही नहीं चाहता है। सबका विचार है कि जो आसमान की शान हैं, उन्हें पिंजड़े की कैद में भला क्यों रखना? वह अपने नभ के दर में ही भले हैं या पेड़ों के बनाए घोंसलों में। दीगर है कि पिंजड़े की कैद में चिड़ियों की सुरक्षा है, पीने को पानी है, खाने को दाने। फिर भी पिंजड़े के जीवन से, जहाँ से आकाश सिर्फ नजर आता है, उन्हें उसकी सैर के खतरे उठाना मंजूर है। क्या उनकी यह प्रवृत्ति इनसानों जैसी है? या तो मानव सरकार के पिंजड़े में कैद है या अपने रचे पिंजड़ों में।

सरकारी पिंजड़े और जेल जाने वाले इनसानों की तीन श्रेणियाँ हैं। कुछ गुंडे-बदमाश हैं, कुछ उन से वरीयता प्राप्त पेशेवर हत्यारे। कुछ ऐसे बेगुनाह हैं, जिन्हें दोषी न मिलने पर, वर्दीधारियों ने जनता और अधिकारियों के संतोष के लिए अपने निर्मित सबूतों और गवाहों से फँसवा दिया है। ऐसों को एक और दिक्कत है। वे निर्धन हैं। अपना पक्ष रखने को कोर्ट-कचहरी में अच्छा वकील कैसे लाएँ? उनके पक्ष की सुनवाई कैसे हो? यदि वे अपनी पैरवी में दक्ष होते तो यह दिन देखने ही क्यों पड़ते? पुलिस को गुनाह थोपने के लिए ऐसे ही बेसहारा की जरूरत है। आज के समाज में सच्चाई जानने को न कोई राजनीति में इच्छुक है, न व्यवस्था में, न कोर्ट-कचहरी में, न जन-जीवन में। सब अपने बनाए किस्सों में जीवित हैं। किस्सों की दिक्कत है। वह रोचक तो होते हैं, पर आवश्यक नहीं, कि सच भी हों? हर किस्से में काल्पनिक सच और झूठ का मिश्रण होना-ही-होना, वरना वह किस्सा कैसा? क्या पता, यही उसे रोचक बनाता है?

एक अन्य श्रेणी उनकी है, जो राज्य के विरुद्ध किसी-न-किसी आंदोलन के तथाकथित शहीद हैं। सब कहते हैं कि वह सच्चे देशसेवक हैं। उन्होंने बेरोजगारी या महँगाई के विरुद्ध संघर्ष किया है, पर वर्तमान में ऐसे भी स्वार्थ-सिद्धि में किसी से पीछे नहीं हैं। जन-समस्याओं का ध्यान उन्हें चुनाव के समय ही आता है। उनका पूरा लक्ष्य अपने ‘जेल-भरो आंदोलन’ को कैश करना है। ये स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी तो हैं नहीं। ये स्वार्थी, वर्तमान में प्रचार के बनाए जन-नायक हैं, जो सत्ता के बिना ऐसे तड़प रहे हैं, जैसे लतियल रिश्वतखोर सेवानिवृत्ति होने पर। जहाँ लोग आते ही उसे कैंटीन ले जाने का प्रलोभन देते, फिर चाय की चर्चा पर लेन-देन का सौदा तय होता। वही कैंटीन अब एक कल्पना है और चाय पर सौदेबाजी एक सपना। वह भी स्वयं को सठियाने का शहीद मानते हैं। इस सठियाए शहीद ने जब तक सरकार की सेवा की, कमाने का एक अवसर भी नहीं गँवाया। पेंशन से अधिक तो उसका दो दरों का किराया है, तीसरा उसका आवास है। वर्तमान में सरकार और जनता की सेवा का मुखौटा लगाए ऐसे आडंबरी शहीद ही लोकप्रिय हैं। ऐसे ही एक जन-सेवक की गर्वोक्ति है कि उन्होंने संविधान बचा लिया और दलितों का आरक्षण भी। जबकि उन्हें भलीभाँति ज्ञात है कि वह खुद संविधान को धता बताकर, पिछड़ों के नाम पर अल्पसंख्याकों को आरक्षण दे रहे हैं। सब जानते हैं कि यह वंशवाद का ऐसा चमत्कारी नमूना है कि कुछ भी करने-सोचने में समर्थ है। उसके अंतर में सत्ता का ऐसा भ्रम है कि वह पराजय को भी विजय मानते हैं। ऐसे नायाब धुरंधर देश में कम ही होंगे।

पिंजड़े का तोता अपने स्वामी की सिखाई बात लगातार दोहरा कर प्रशंसा पाता है। क्षेत्रीय और वंशवादी दलों का सिलसिला भी कुछ ऐसा ही है। उनमें नेतागीरी के तोते हैं, जो आला नेता की विरुदावली ही गाते हैं। उनके दल में प्रगति की यही शर्त है। नहीं तो वर्कर वर्कर ही रह जाता है। वह विधायक, सांसद क्या, काॅरपोरेटर तक नहीं बन पाता है। बड़े पिंजड़े का पुश्तैनी तोता उनका आदर्श है, उसकी प्रशस्ति दोहराए जाना ही सफलता का मंत्र। ऐसों को देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि यदि पिंजड़े का तोता नहीं होता तो इनका आदर्श क्या होता? फिर यह ध्यान आता है कि तोते तो बिना पिंजड़े वाले भी हैं। उनकी संख्या पिंजड़े वालों से कहीं अधिक है। यह इनसानी तोता-दल आजादी के बाद की उपज है। नहीं तो स्वतंत्रता संग्राम में त्याग और बलिदान के अलावा सेनानी या कार्यकर्ता की उपलब्ध ही क्या थी? ऐसे लोग दिन-रात देश की आजादी के सपने देखते। न उन्हें सत्ता की आशा थी, न धन-दौलत की हसरत।

वह तो आजादी के चार-पाँच दशक बाद, प्रजातंत्र के तथा कथित नेताओं ने सामंती जीवन-शैली और परंपरा अपना ली। प्रजातंत्र के नाम पर जो इधर प्रचलित है, वह विशुद्ध सामंतवाद है। इसी सामंतवाद में जाति को जोड़कर कुछ इसे समाजवाद का नाम देते हैं तो कुछ खुद ही सुविधानुसार लोहिया या जयप्रकाश के विशेष चेले बन जाते हैं। उनके लिए भ्रष्टाचार केवल उनके पिछड़े होने और सामाजिक अन्याय को झेलने का इनाम है। उनका तर्क है कि गरीबी, बेरोजगारी तथा अभाव की व्यापक स्थिति सिर्फ पिछड़ों में है, अगड़ों में नहीं। भूख सिर्फ पिछड़े को लगती है, अगड़े को नहीं। उसे तो लगातार सामाजिक श्रेष्ठता की डकार आ रही है। वह अभावग्रस्त भूखा या गरीब कैसे हो सकता है? वह जो अगड़ा ठहरा। सीमित चिंतन की भी कोई सीमा है क्या?

सरकार और समाज का दायित्व है कि वह हर भूखे को रोटी दे। ऐसा हर निर्धन का अधिकार है, चाहे वह जन्म की दुर्घटना से अगड़ा हो या पिछड़ा। इस जमीनी हकीकत से कौन इनकार कर सकता है? पर हमारे जातिवादी बंधु इन तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि भूख सबकी समान है और गरीबी का दर्द भी? उनके लिए भूख और पीड़ा भी जातियों में बँटी है, कुछ को सताती है, कुछ को नहीं।

इन्होंने भी दलों के नाम पर अपने अलग-अलग पिंजड़े बना लिए हैं। ऐसे तोते अपने-अपने पिंजड़े में कैद आदर्शों की हाँक लगाते रहते हैं। विचारों का मुक्त आकाश इनके लिए वर्जित है। ऐसों की मान्यता है कि अगड़े के बड़-बाबा ने एक हत्या की थी। इनसाफ का तकाजा है कि वर्तमान में उनके परिवार का जो भी वंशज मौजूद है, उसे तत्काल सूली पर चढ़ा दो। यही न्याय है। कोई इसे नाइनसाफी कहने की धृष्टता कैसे कर सकता है? सदियों के अन्याय की कीमत कोई तो चुकाएगा। इक्कीसवीं सदी में समय को पीछे ले जाने की हरकत को मूर्खता कहने की जुर्रत संभव है क्या? ऐसी उल्टी सोच वाले हमारे नेता हैं। इस देश का भविष्य क्या होगा? इतिहास अपने को बार-बार दोहरता नहीं है। इनका पूरा प्रयास है कि यह नया मंडल बनाए। शिक्षा के प्रसार से जो जाति-भेद कुछ कम हुआ था, उसे फिर से लागू करें। अपने वोट के खातिर इनसान को जाति और संप्रदाय में बाँटे। ऐसे बँटवारे सामाजिक सौहार्द की शर्त हैं। पारिवारिक सत्ता के पिंजड़े में बंद ऐसे जाति-नायक बस आरक्षण और न्याय की स्वार्थजनित सत्ता की तलाश में व्यस्त हैं।

हमें पिंजड़े के बोलते तोते से हमदर्दी है। पर सच्चाई यह है कि पंछी ही नहीं, जो भी अपने-अपने पिंजड़ों में कैद हैं। दीगर है कि पिंजड़े सोने-चाँदी के हों या मामूली छड़ों के, पर पिंजड़ा तो पिंजड़ा है। सोने के पिंजड़े में बंद इनसान प्रसन्न है। ऐसे अपनी कैद से बेखबर है। वह तोते के समान ‘मुनाफे-मुनाफे’ की रट लगाए है। उन्होंने अपने माता-पिता को शरीर त्यागते देखा है। फिर भी उन्हें विश्वास है कि वह ‘नश्वर’ नहीं है। अपनी नश्वरता का सतत बोध किसी को दार्शनिक तो किसी अन्य को कायर बना सकता है। वह इस बोध से परे हैं। इन्हें उसके अभाव ने धन-लोलुप बना दिया है। सुबह से शाम तक यह ‘प्राॅफिट-प्राॅफिट’ के अलावा बहुत कम बोलते हैं। इन्हें एक स्थायी भ्रम है कि शरीर त्यागना ऊपर किसी अन्य धरती समान टापू में जाना है। वहाँ व्यापार होगा, कालाबाजार, काला धन तथा घूसखोर कर्मचारी भी होना-ही-होना। जैसे भारतीय बैंक की शाखाएँ दूसरे देशों में हैं, वैसे ही वहाँ भी बैंक की परलोकी शाखाएँ होंगी।

जैसे पैसा पैसे को आकर्षित करता है, वैसे ही धूल धूल को। एक- न-एक दिन आत्मा का पंछी शरीर से फुर्र होगा और फिर सब परंपरागत संस्कारों के बाद शरीर की धूल धूल में मिलेगी। तब न बचाव में डाॅक्टर आएँगे, न ज्योतिषी, न तांत्रिक। नश्वरता हर शरीर की सार्वकालिक परंपरा है। इसे न विज्ञान बदल पाया है, न अध्यात्म। अपना-अपना विश्वास है। कुछ दान, ध्यान, जन-कल्याण से अपना परलोक सुधारते हैं, कुछ मुनाफा-मुनाफा, कभी जोर से, कभी मन-ही-मन बुदबुदाकर। फिर भी नश्वरता का सच बदलता नहीं है। न पूजा-साधना से, न अंधविश्वास से।

कुछ नश्वरता के पिंजड़े में रहकर भी इस भ्रम को पालते हैं कि अस्तित्व का कुछ-न-कुछ अंश रहना-ही-रहना। आत्मा अमर है। न वह ताप से तपती है, न आग से जलती है। वह कृष्ण की गीता के कर्म के सत्य को मानते हैं। आत्मा कौन सा चोला धरे, यह सब प्राणी के कर्मों पर निर्भर है। यदि निर्धन-उद्धार को डाकू भी साधु-संत का चोला धारण कर सकता है तो कौन कहे, प्रवचन कर ज्ञान वितरित करने वाला गिरगिट या छछूँदर का। पुनर्जन्म का वास्तविक निर्धारक इनसान का कर्म है।

भारतीय दर्शन का ज्ञान विद्वानों के वश का है। ज्ञानी भी मानते हैं कि जीवन भर का समर्पण इसके लिए पर्याप्त नहीं है। इनके सम्मुख अपनी हैसियत ही क्या है? पर हम इतना जानते हैं कि कई ऐसे भी ज्ञानी हैं, जिन्हें आत्मा के अस्तित्व के बारे में संदेह है। हर विषय पर विवाद विद्वानों का एकाधिकार है। यही उनकी पहचान है, जैसे पाकिस्तान की जम्मू-कश्मीर में भेजे गए आतंकवादियों से। यह बँटवारे और फर्जी प्रजातंत्र की अनिर्वायता है। हमें कभी-कभी आश्चर्य होता है कि इसके बावजूद देश की एकता का न सोचकर जातिवादी और संप्रदायवादी चिंतन में देश के राजनेता सक्रिय हैं। कुरसी के निरंतर अभाव इनसान का पिंजड़ा क्या सच में इनसान को अंधा बना देता है?

ऐसा नहीं है कि इनसानी पिंजड़े सीमित हैं। कुछ बुद्धि के पिंजड़े हैं, कुछ समृद्धि के। कोई इनकार कर सकता है इन पिंजड़ों की विशालता से? कुछ नेतागीरी के पिंजड़े हैं, कुछ बाबूगीरी या अफसरी के। कुछ रचनाकारों के पिंजड़े हैं, कुछ प्राध्यापकों के। पिंजड़े छोटे नगर में हों या महानगर में। उनमें एक समानता है। हर छोटे-बड़े पिंजड़े को अपनी महानता का मुगालता है। यदि वह लेखक या कवि है तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल हों या निराला, उसके आगे पानी भरते हैं। उसके सम्मुख उनका योगदान ही क्या है? हर पिंजड़े को अपनी अमरता का भ्रम है। दुनिया को दिखाने को वह विनम्र है, पर यह उसके बड़े होने के अहं का कवच है या जिरह-बख्तर। यह बौद्धिक या सुरक्षित पिंजड़ों में कैद हस्तियाँ अपने ज्ञान और संपर्क की डींगें हाँकते हैं। कैसे-कैसे खतरों को झेलकर उन्होंने इतने पुरस्कार झटके हैं। वह अपने चमचों को ज्ञान भी देते हैं—“इन सरकारी या गैर-सरकारी संस्थानों के कौन आदर्श हैं, कौन हौंची-हौंची करने वाला गधा, इसकी पहचान हमें नहीं है। यों आप का नाम अपनी संस्तुति के साथ अग्रेषित कर दिया है। देखिए, क्या होता है?” उनका आशय है कि होने को चमचा निपट गधा है, पर वह अपना गधा है।

हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वह सामान्य गधे की महिमा से अनजान है। पता नहीं, वे जानते भी हैं कि नहीं कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का वास्तविक आधार वह सीधा-सादा, लादी लादने वाला गधा और उसका चीन को निर्यात है। ये गधे चीन को निर्यात होते हैं, जहाँ उनकी खाल सौंदर्य-प्रसाधन तथा अन्य कैमिकल्स बनाने के काम आती है। यह भी रोचक तथ्य है कि अमेरिका को टक्कर देने वाले चीन में, दुनिया के सर्वाधिक गधे हैं। यह जानकर हम गधों के सम्मुख नत हैं। यदि गधे सम्मानित या पुरस्कृत होते हैं तो इसमें अन्याय क्या है? चीन की तरक्की यह सिद्ध करने को पर्याप्त है कि प्रगति में गधों की भूमिका सकारात्मक है। उनके योगदान को कौन झुठला सकता है? कौन कहे, भारत यश और समृद्धि के शिखर से दूर है। क्योंकि यहाँ गधों को उचित मान-सम्मान नहीं दिया जाता है?

यदि वास्तविकता को स्वीकार करें तो एक तथ्य ही उभरकर आता है कि देश में घर हों, न हों, सबके अपने-अपने पिंजड़े हैं। यह भी सच है कि पिंजड़े की कैद कोई त्रासद स्थिति नहीं है। उसका आकाश पिंजड़े की छत है, उसका विस्तार पिंजड़े की सीमा। फिर भी इनसान में बड़ा बनने की विलक्षण प्रतिभा है। हर छोटे-बड़े पिंजड़े का वासी अपनी खुद की महानता में मगन है। कुछ परलोक के काल्पनिक बैंक में खाता खोलने के इच्छुक हैं, तो कुछ इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने को। वह चाहे श्रेष्ठता में हो या मूर्खता में।

जीवन का सबसे प्रमुख चमत्कार है कि कोई भी आयु के पिंजड़े से आजाद नहीं होना चाहता है। उलटा सबकी निजी कोशिश है कि जैसे भी हो सके, इस कैद को बढ़ाया जाए। इसीलिए पुरखों की विरासत व्यवस्था से संपर्क है? डाॅक्टर की दवाइयाँ हैं, हकीमों के नुस्खे हैं, आयुर्वेद के इलाज हैं। सबसे बड़ी प्रतियोगिता अपने पिंजड़े और बंधन को दूसरे से बेहतर साबित करने की है। कितना हास्यास्पद है कि कोई कैदी अपनी श्रेष्ठता और दूसरों की हेयता पर इतराए? अपने सोच के संसार की विशालता का बखान करे सिर्फ दूसरे की क्षुद्रता सिद्ध करने को, जो शेष है, वह स्वार्थ-सत्ता के हैं, सिद्धांतों के पिंजड़े कब के चल बसे।

९/५, राणा प्रताप मार्ग,

लखनऊ-२२६००१

दूरभाष : ९४१५३४८४३८

 

अगस्त 2024

   IS ANK MEN

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