राखी का लौकिक पक्ष

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका एवं लोक-साहित्य की मर्मज्ञ। कविता, लोकवार्ता, लोक-संस्कृति, समीक्षा, बाल साहित्य तथा अद्यतन सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर जीवनपर्यंत अनवरत लेखन करती रहीं। ‘निर्वासन की आँधी’ व ‘ऑक्टोपस के पेट में बचा एक बीज’ (कविता-संग्रह) निराला पुरस्कार से समानित। ‘सो...फिर, भादों गरजी’ एवं ‘माझी आजी डॉक्टर’कृतियाँ बेहद चर्चित। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नौ सौ से अधिक रचनाएँ प्रकाशित, विविध संग्रहों तथा शोधग्रंथों में शामिल भी हुईं। उनकी ‘संस्कृति के सरोकार, कृति भारतीय लोक-कला मंडल, उदयपुर एवं उ.प्र. हिंदी संस्थान से पुरस्कृत; मराठी में डॉ. विद्या केशव चिटको द्वारा अनूदित। छोटे-बड़े कई दर्जन पुरस्कार-सम्मानों से अलंकृत हुईं।

श्रावणी पूर्णिमा को राखी बाँधकर रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है। ‘राखी’ ‘रक्षा’ का लोक रूप है। जन-मन के वृहद् जीवन और प्रकृति से सहज रूप से जुड़े वर्जनाएँ, ये दोनों ही भाव इन सूत्रों में गुँथे हैं। ये जिन कलाइयों में बँधे तथा जिन छोटे-बड़े उपकरणों के बाँधे जाएँ, उनकी विपत्तियों से रोग, शोक, दुर्घटनाएँ, आपदाएँ उनको न छुएँ और बाँधने वाला और बँधवाने वाला अटूट स्नेह बंधन में बँध जाए, यही मंतव्य है राखी बाँधने के पीछे।

सूत के ये रंग-बिरंगे पक्के धागे राखी, ये केवल भाई-बहिन को ही अटूट स्नेह बंधन के लिए नहीं हैं, बल्कि ये तो वैदिक युग से ही प्रकृति, समाज और उपयोग की वस्तुओं से नाता जोड़ते, संकटकाल में परस्पर और रक्षा की वचनबद्धता के बंधन में समाते आ रहे हैं।

यह पर्व संकट की घड़ियों में सहायता, अपनेपन की, वैदिक, पौराणिक, जैन और किंवदंतियों की समृद्ध परंपरा लिये हुए सहयोग और रक्षा की वचन भावना से महाराष्ट्र में यह ‘नारली पौर्णिमा’ को रक्षाबंधन के दिन यहाँ समुद्र के जल में समुद्र को नारियल-राखी अर्पण की जाती है, इस तरह मछुआरे और वणिक-पुत्र समुद्र से रक्षा का वचन चाहते हैं।

जैसे ‘नारली पौर्णिमा’ को रक्षाबंधन के मछेरिनों से जटायुक्त नारियल की धार अपना उफनना, गरजना भूल, उनके अपनों की रक्षा के लिए, कल्याण के लिए जाता है। उनकी नौकाएँ, डोंगियाँ अपनी छाती पर मचलने देता है। भीतर छिपे...गोता मारने, मछलियाँ पकड़ने देता है। उनकी वस्तुओं से लदी उनकी डोंगियों, परदेश जाने देने के लिए राखी पूनो से होने लगता है।

विराट् जल-पुरुष भी जैसे मछेरिनों के प्रेम में बँध जाता है। फिर जीजा और भानजे ही छेड़छाड़ करें, उसे कितना ही मथें, लूटें, वह कुछ नहीं कहता। कम-से-कम अगली वर्षा तक तो नहीं ही।

रक्षाबंधन में गुँथी इस कल्याण कामना, सहयोग और स्नेहबंधन की भावना का उत्तर भारत में तो और भी बड़ा रूप दिखाई देता है। यहाँ तो राखी श्रमिक वर्ग और कारीगरों का अपने काम करने के औजारों से भी मानवीय नेह का नाता जोड़ती है। एक-दूसरे की रक्षा करने की, वक्त पर काम आने की भावना जगाती है। उत्तर भारत में किसान अपने हल-बैलों के, व्यापारी-दूकानदार अपनी तराजू के, सैनिक अपने शस्त्रों के, दर्जी अपनी मशीन, सुनार अपने काँटे और बजाज अपने गज को राखी बाँधकर आपदाओं, दुर्घटनाओं से उनकी रक्षा की कामना करते हैं। यहाँ तो कोई भी गरीब और दुर्बल, किसी धनी-समर्थ की कलाई में राखी बाँध उसकी कल्याण की कामना कर वक्त-जरूरत अपनी सहायता के लिए उसे वचनबद्ध कर लेता है।

सच पूछा जाए तो रक्षाबंधन ही हमारा ऐसा राष्ट्रीय त्योहार है, जो सदियों से राजा-प्रजा, पुरोहित-जजमान, नौकर-मालिक, प्रबुद्ध वर्ग और शासक वर्ग को परस्पर सहयोग और रक्षा के दृढ़ बंधन में बाँधता चला आ रहा है। भविष्य पुराण में उल्लेख है कि श्रावणी पूर्णिमा को ऋषि-मुनि अपने यज्ञ-होम की रक्षा के लिए राजा-सामंतों को राखी बाँधकर कल्याण की कामना करते थे।

राखी धनी-गरीब, ऊँच-नीच, जाति-धर्म, संप्रदाय नहीं देखती, भाषा, प्रांत और देश की सीमाएँ नहीं देखती, यह तो उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव की भिन्नता लिये भी दो परिवारों को भाई-बहिन के पवित्र स्नेह-बंधन में बाँध एक कर देती है। सारे मतभेद भुला सामाजिक जीवन में एक-दूसरे के सुख-दु:ख का साथी बना देती है।

ये धागे राष्ट्रीय एकात्मकता के सबसे सुदृढ़ सूत्र हैं। राखी के हमारे शताब्दियों के इतिहास में राखी का बंधन न मानने की, राखी की पुकार ठुकराने की कोई घटना इतिहास के पृष्ठों में ढूँढ़े न मिलेगी। बर्बर, क्रूर, डाकू, चोर, लुटेरे और आततायी तक बहिन के इस स्नेह-बंधन के सामने हथियार डाल देते हैं।

कुछ ऐसा अनोखा जादू है राखी के इन कोमल सूत्रों में कि बहन की बाँधी राखी भाई की कलाई को फौलाद और छाती को वज्र बना देती है। बड़े से बड़ा कार्य करने की उमंग उठा सोई हुई शक्तियों को जगा, प्राण तक न्योछावर करने को तत्पर कर देती है। पर राखी के इन धागों को बाँधने की भावना-शक्ति मिली कहाँ से? लोकजीवन के विविध संस्कारों के सूत के धागों और गाँठों से, जहाँ प्रकृति और परा प्राकृतिक शक्तियाँ, गणेश, लक्ष्मी, अनंत भगवान् और संपदा माता तक कच्चे सूत के धागों में लपेट-बाँधकर कलश चौकी पर बैठा लिये जाते हैं। सूत के तारों में आबद्ध कर भक्त के कार्य साधने को वचनबद्ध कर लिये जाते हैं। लोक-ऋषि के मंत्र की पहली ऋचा जो कहती है—‘टूटे को जोड़ो’। राखी पूर्व पीटिका लिये हुए है।

यों तो रक्षाबंधन पर्व के पीछे बड़ा प्राचीन इतिहास है। वैदिक, पौराणिक, जैन, बौद्ध-कथा किंवदंतियों का योग लिये एक लंबी, समृद्ध परंपरा हैै, पर ‘बहन की राखी’ इस परंपरा की देन नहीं है।

अपने मूल रूप में श्रावणी वैदिक पर्व और तैत्तिरीय संहिता के अनुसार विष्णु रूप बाईसवें नक्षत्र श्रवण (श्रोणा, सोना) की पूजा है। इस दिन श्रावणी उपाकर्म करके यज्ञोपवीत बदलने का विधान है। उड़ीसा, बंगाल, दक्षिण भारत और गुजरात में यह आज भी प्रमुख है। किंतु यज्ञोपवीत के धागों से नहीं निकले हैं राखी के धागे।

पुराणों में रक्षा विषयक दो कथाएँ प्रमुख हैं। राक्षसों से पराजित देवताओं के इंद्राणी शची ने राखी बाँध उनसे सहयोग की याचना की और देवगुरु बृहस्पति की आज्ञा से इंद्र को भी विजय के लिए रक्षासूत्र बाँधे। देवराज देवताओं की सहायता और रक्षासूत्र के कारण विजयी हुए। दूसरी कथा है वामन की। इन दोनों कथाओं की भूमिका में राखी बाँधते वक्त पंडित-पुरोहित आज भी यह मंत्र पढ़ते हैं—

येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:।

तेन त्वां प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल॥

लेकिन वैदिक पौराणिक युग के साहित्य में भाई-बहिन के पवित्र स्नेह-बंधन की प्रतीक इस राखी के उद्भव की कोई कहानी नहीं मिलती, जो आज रक्षाबंधन का एकमात्र प्रमुख रूप और अर्थ है। रक्षा के धागों में बहिन की राखी का धागा वैदिक लोक-परंपरा की देन है। यह धागा आवर्जना और निषेध का धागा है, लोक-संस्कृति के अभिप्राय लिये।

यह धागा, बहिन की राखी रक्षाबंधन के सूत्रों में बाद में जुड़ा, जब भारत पर विदेशी आक्रमणकारी को बाँधी गई राखी, एक भिन्न संस्कृति के आक्रमण से रक्षा का साधन बनी। इस संस्कृति में सगोत्री विवाह-संबंध थे, भाई-बहिनों में विवाह होते थे। जबकि भारतीय परंपरा में यम-यमी विवाहबद्ध नहीं हुए। राखी सगोत्री, सपिंडी विवाह-संबंधों की आवर्जना बनी, बंधन बनी।

उस समय की सामाजिक पृष्ठभूमि में बहिन की यह राखी लोक की एक अपूर्व देन है, जिसने उस युग के इतिहास में सामाजिक संबंधों के उजले पृष्ठ लिखे। राखी ने ही भिन्न कुल, भिन्न संस्कृति और जाति-धर्म के युवक-युवतियों के बीच विश्व में सबसे पवित्र, उज्ज्वल, प्रेरक और मनोबल ऊँचा करने वाला भाई-बहिन का संबंध जोड़ा।

इन पवित्र धागों में बँधा वीर युवा राखीबंद भाई शील-मान हरने वाला नहीं, रक्षा करने वाला बना। बहिन एक भिन्न जाति, कुल के परिवार की बेटी होकर सर्वथा निष्कलुष स्नेह-बंधन में बँधी। दो भिन्न परिवार एक-दूसरे का शील-मान हरने वाले नहीं, बचाने वाले बने। अपनी-अपनी अस्मिता रखते हुए एक हुए।

एक भिन्न संस्कृति और जाति-कुल के राखीबंद मुगल बादशाह हुमायूँ और रानी कर्मवती। इससे पहले एक विदेशी के राखी को मान देने की कोई घटना नहीं मिलती। ऐसा ही इतिहास राजकुमारी चंद्रावलि के राखीबंद भाई आल्हा- ऊदल ने सन् ११८२ की श्रावणी पूर्णिमा को रचा। बुंदेलखंड के एक राज्य महोबा के सरोवर कीरत सागर के तट पर अपनी बहिन चंद्रावलि की रक्षा करते हुए।

लोक-महाकाव्य आल्हाखंड में ‘कीरत सागर पर भुजरियों की लड़ाई’ राखी की मर्यादा का एक जीवंत पृष्ठ है। इस लड़ाई में महोबा के राजा परमाल से कुछ गलतफहमियों के कारण देश-निकाला पाए अद्वितीय वीर आल्हा-ऊदल चंद्रावलि की राखी पाकर अपमान भूल गए, राजदंड भूल गए। अगला-पिछला सबकुछ भूल जगनिक के साथ महोबा चल दिए। बहिन की रक्षा में जान की बाजी लगा दी। १४०० सखियों के साथ कीरत सागर की पाल पर भुजरियाँ सिराने आई बहिन चंद्रावलि का पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेना और उसके चार-चार बेटों को अपहरण नहीं करने दिया।

इसी ऐतिहासिक लड़ाई के कारण रक्षाबंधन का पर्व महोबा में दूसरे दिन मना। बहिनों ने राखी भुजरियाँ साथ-साथ भाइयों को बाँधीं। वहाँ आज भी यही प्रथा है। ऐसी ही होती है बहिन की राखी, वह नए तिथि-पर्व भी बना देती है।

अगस्त 2024

   IS ANK MEN

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