घर के दुश्मन

घर के दुश्मन

सुप्रसिद्ध लेखिका। अब तक ‘महाराणा कुंभा और उनका समय’ (पुस्तक), विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित शोध-पत्र एवं पी-एच.डी. और एम.फिल. के लिए पर्यवेक्षित उम्मीदवार, रचनात्मक कहानियाँ लिखने का शौक (पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में प्रकाशित। संप्रति जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर, राजस्थान में पी.जी. (ऑनर्स) और यू.जी. कक्षाएँ।

चौबीस जनवरी की सायं सात बजे जोधपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं. एक पर मंडोर एक्सप्रेस दिल्ली जाने के लिए खड़ी थी। मैं मेरे अर्दली के साथ थोड़ा पहले आ गया था, उसने मेरा सामान ए.सी. डिब्बे में रखा व मुझे सहारा देकर ऊपर की बर्थ पर लिटा दिया, मुझे कंबल ओढ़ाकर स्वयं पास के डिब्बे में चला गया। बर्थ पर लेटे-लेटे अनायास ही मैं पिछली स्मृतियों में खो गया, आज से बीस वर्ष पूर्व मैंने फौज की नौकरी जॉइन की थी। कुछ समय पश्चात् मेरी ड्‍यूटी मेरे छह साथियों के साथ पाकिस्तान से लगती एक सीमा चौकी पर हो गई। दिसंबर की कड़ाके की ठंडी अमावस्या की काली रात में कुछ घुसपैठिए हमारी चौकी के पास पहुँच गए, जैसे ही हमें उनके आने की भनक लगी तो हमने उनको ललकारा, इस पर उन्होंने हम पर गोलीबारी शुरू कर दी।

हमने भी मोरचा सँभाल लिया। दोनों तरफ से गोलीबारी होने लगी। अँधेरे के कारण उनकी संख्या का पता नहीं लग पा रहा था। करीब आधा घंटे की गोलीबारी में मेरे चार साथी बुरी तरह से घायल हो गए। हम तीन लोग बराबर मोरचा सँभाल रहे थे, मेरे एक साथी ने पास की चौकी पर मदद के लिए मैसेज कर दिया था। जब तक वहाँ से मदद आती, तब तक हमें चौकी को बचाए रखना था। हम हिम्मत से लड़ रहे थे कि इतने में एक गोला हमारे पास आकर फटा, जिसमें हमारे दो साथी शहीद हो गए। अब मैं अकेला लड़ रहा था, लेकिन एक गोली मेरे बाएँ हाथ में लगी और थोड़ी देर में दूसरी गोली ने दाएँ हाथ को जख्मी कर दिया। मैं धीरे-धीरे बेहोश होता जा रहा था, इतने में पास की चौकी से सैनिक आ गए, सैनिकों को आते देख घुसपैठिए अपनी सीमा में भाग गए। मुझे बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती कराया गया, जहाँ ऑपरेशन के दौरान मेरे दोनों हाथ कोहनी के नीचे से काट दिए गए। डॉक्टर साहब ने कहा कि आपकी जान बचाने के लिए यह अति आवश्यक था, नहीं तो पूरे शरीर में जहर फैल जाता।

मैं बहुत विचलित हो गया, मैंने डॉक्टर साहब से कहा कि ऐसी विकलांग जिंदगी से तो बेहतर था कि मैं मर जाता, लेकिन डॉक्टर साहब ने मुझे ढाढ़स बँधाया और कहा कि जाँबाज सिपाही ऐसी बातें नहीं करते, देश को आप पर गर्व है। ऐसा सोचते-सोचते में उदास हो गया, लेकिन शीघ्र ही खुशी की एक किरण मेरे चेहरे पर आ गई कि इसी बलिदान के कारण ही तो २६ जनवरी को मैं राष्ट्रपति के हाथों सेना के सम्मान ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित होने जा रहा हूँ। मैं इसी खुशी व गम में झूल रहा था कि इतने में एक अपूर्व सुंदरी हाँफते-हाँफते केबिन में घुसी और मेरे सामने की नीचे की सीट पर बैठ गई।

उसकी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, तीखे नाक-नक्श, गोरा रंग, करीब ५.६ इंच लंबाई, छरहरा बदन, उस पर स्लीवलेस ब्लाउज व करीने से बँधी हुई गुलाबी साड़ी उसकी सुंरदता में चार-चाँद लगा रहे थे। स्लीवलेस ब्लाउज से उसकी गोरी मांसल बाँहें झलक रही थीं। गहरी गुलाबी लिपस्टिक से वह धरती पर अप्सरा लग रही थी।

वह कमनीय युवती अपनी सुंदरता के कारण धरती पर तिलोत्तमा या मेनका का अवतार लगती थी और किसी की भी तपस्या भंग कर सकती थी। जब उसका हाँफना थोड़ा कम हुआ तो उसने मुझसे पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं? मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, दिल्ली। थोड़ी देर वह बैठे-बैठे बेमन से किसी पत्रिका के पन्ने पलटती रही। इतने में मेड़ता रोड स्टेशन आ गया, मेरा अर्दली मेरा टिकट व आईडी चैक करवाकर वापस स्लीपर कोच में चला गया। केबिन में सिर्फ मैं और वह सहयात्री महिला ही थे, मेरे नीचे व मेरे सामने की ऊपर की सीटें खाली थीं, शायद उन यात्रियों की ट्रेन छूट गई थी, क्योंकि रिजर्वेशन चार्ट में उनके नाम थे। आसपास के केबिनों में सर्दी के कारण अधिकांश यात्री सो चुके थे, मात्र वे ही यात्री जाग रहे थे, जिन्हें जयपुर स्टेशन पर उतरना था। जयपुर स्टेशन पर थोड़ी देर गहमागहमी रही और ट्रेन आगे बढ़ चली।

मैं भी सोने का प्रयत्न करने लगा। धीरे-धीरे मुझे नींद आने लगी। करीब दो घंटे बाद मुझे ऐसा लगा कि कोई मुझे छू रहा है, मैंने आँखें खोलीं तो देखा कि वह सहयात्री मुझसे कह रही थी कि आपके पास जो कुछ भी माल हो, वह मेरे हवाले कर दो। मैं आधी नींद में था, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने उससे कहा, मैडम, आपको क्या चाहिए? तो वह थोड़ी कर्कश आवाज में बोली, “जो कुछ आपके पास रुपया, अँगूठी, घड़ी, एटीएम आदि हो, मेरे हवाले कर दो।” मैंने उससे कहा कि मैडमजी! मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। वह बोली सेकंड ए.सी. में यात्रा करते हो और कहते हो कि कुछ नहीं है। मैंने उससे कहा, सचमुच मेरे पास कुछ नहीं है। उसने दादागीरी दिखाते हुए कहा कि माल निकालो, वरना में पुलिस को बुला लूँगी, तब मैंने उससे कहा कि पुलिस को बुलाकर क्या कहोगी कि मैंने तुम्हें कोई माल नहीं दिया है। वह शैतानी हँसी हँसते हुए बोली कि क्या मैं आपको इतनी बेवकूफ लगती हूँ, मैं पुलिस को कहूँगी कि आपने मेरे साथ छेड़छाड़ की है और मुझे अकेली देखकर मेरी इज्जत लूटने की कोशिश की है, तब मैंने उससे कहा कि तुम्हारे पास क्या सबूत हैं कि मैंने ऐसा किया है।

मेरी बात सुनते ही उसने अपने बड़े-बड़े नाखूनों से अपने गले, गाल व सीने पर बड़ी-बड़ी खरोचें लगा लीं, अपने कुछ कपड़े फाड़ लिए और बोली, यह पक्का सबूत है तुम्हारे गुनाह का। वह बोली, अब भी समय है या तो माल मेरे हवाले कर दो, अन्यथा जेल जाने को तैयार हो जाओ। मैं बहुत असमंजस में था, सोचा—कैसे इस दुष्टा से पीछा छुड़ाऊँ? मैं सोच रहा था कि मैंने तो कुछ किया ही नहीं तो मुझे इससे और पुलिस से डरने की क्या जरूरत है? कुछ सोचकर मैंने उससे कहा कि अच्छी बात है, तुम पुलिस को बुला ही लो।

उसने अलवर स्टेशन पर जी.आर.पी. को फोन करके बुला लिया। पुलिस के सामने वह बड़े-बड़े आँसू निकालकर रोने लगी और कहने लगी कि मुझे अकेली देखकर इस दुष्ट ने मेरी इज्जत लूटने की कोशिश की है। उसने अपने वो निशान पुलिस को दिखाए। पुलिस भी मुझे गुनहगार मानते हुए बुरा-भला कहने लगी। उन्होंने कहा कि तुम्हें शर्म नहीं आती, अकेली महिला सहयात्री को छेड़ते हुए। इतने बुजुर्ग होते हुए भी ऐसी हरकत करते हो? जब पुलिस के डंडे पड़ेंगे तो औरतों को छेड़ना भूल जाओगे और सब औरतों में अपनी माँ-बहन नजर आएगी।

मुझे पुलिस पर व उस युवती पर बहुत ही गुस्सा आ रहा था, एक फौजी होते हुए भी मैं बहुत ही धैर्यपूर्वक इस अपमान को बरदाश्त कर रहा था, यद्यपि में बिल्कुल निर्दोष था, तब मैंने एक ट्रिक काम में ली, मैंने सोचा कि यही समय है अपनी सच्चाई को सिद्ध करने का तथा इस दुष्टा को उसके गैंग सहित पकड़वाने का।

तब मैंने पुलिस वालों से कहा कि यह महिला जो कह रही है, वह बिल्कुल सत्य है, मैंने इसके साथ बहुत दुर्व्यवहार किया है। आप जो चाहें मुझे सजा दिलवा दीजिए। मेरी बात सुनकर वह युवती बहुत खुश नजर आई, वह सोचने लगी, अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे।

मैंने पुलिस वालों से कहा कि अच्छा, कोई भी काररवाई करने से पूर्व आप मेरा एक काम कर दीजिए, मैं जिंदगी भर आपका आभारी रहूँगा, आप कृपया मेरा यह कंबल मेरे शरीर से हटा दीजिए, पुलिस ने जैसे ही मेरा कंबल हटाया, वह युवती व पुलिस दोनों ही सकते में आ गए, उन दोनों को साँप सूँघ गया। उन्होंने देखा कि इस व्यक्ति के तो दोनों ही हाथ नहीं हैं, यह दुष्कर्म क्या करेगा। युवती का सारा झूठ सामने आ गया था, उसने ट्रेन से भागने की कोशिश की, लेकिन पुलिस ने पकड़ लिया।

पुलिस वालों को यह माजरा समझ में नहीं आ रहा था, तब मैंने उनको बताया कि यह लुटेरों का पूरा गैंग है, जिसमें इसके जैसी बहुत सी युवतियाँ हैं, जो ए.सी. डिब्बों में यात्रा करने वाले पुरुष यात्रियों को मौका देखकर दुष्कर्म व छेड़छाड़ का झूठा आरोप लगाकर सारा माल लेकर चंपत हो जाती हैं और जो माल नहीं देता, उसको पुलिस में झूठा फँसा देती हैं। आम आदमी अपनी इज्जत के डर से इनको सबकुछ दे देते हैं और इनकी शिकायत भी नहीं करते हैं।

इतने में दिल्ली स्टेशन आ गया, मेरा अर्दली दूसरे डिब्बे से आ गया, उसने मुझे सहारा देकर उतारा और पुलिस को बताया कि मैं कौन हूँ? सब सुनकर पुलिस को बहुत शर्मिंदगी हुई, उन्होंने कहा कि क्या आप वही बहादुर प्रतापसिंहजी हैं, जिन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर पाक सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे? आपके बारे में उस समय हमने अखबारों में बहुत पढ़ा था। सभी पुलिस वालों ने मुझे सैल्यूट किया और अपने व्यवहार के लिए माफी माँगी।

वह युवती भयभीत आँखों से मुझे ताक रही थी, उसकी सारी हेकड़ी निकल गई थी, उसकी सारी प्लानिंग फेल हो चुकी थी, उसकी आँखों में बड़े-बड़े आँसू तैर रहे थे, कुछ देर पहले जो शेरनी की तरह गरज रही थी, वह अब भीगी बिल्ली बन गई थी, वह शायद सोच रही थी कि आज उसने गलत आदमी से पंगा ले लिया है। दिल्ली स्टेशन पर पुलिस वालों ने मुझे थाने चलकर बयान देने को कहा, मैं सहर्ष तैयार हो गया, क्योंकि ऐसी दुष्ट महिलाओं और उनके गिरोह का पर्दाफाश करना अति आवश्यक था, जो अपने महिला होने का दुरुपयोग करके निर्दोष व्यक्तियों को फँसाती थी। मैं बयान देकर अपने सैन्य मुख्यालय आ गया।

वहाँ जब मेरे साथियों को सब बात का पता लगा तो उन्हें बहुत गुस्सा आया, उन्होंने कहा कि एक सच्चे देशभक्त फौजी पर इतना घिनौना इलजाम लगाने वाली को तो गोली से उड़ा देना चाहिए। तब मैंने उनको समझाया कि शायद ईश्वर की यही इच्छा थी कि उस दुष्टा के गिरोह का पर्दाफाश एक ऐसे व्यक्ति के हाथों हो, जिसके दोनों हाथ ही नहीं हों, अन्यथा यह गिरोह पता नहीं कितने और निर्दोष लोगों को अपना शिकार बनाता। मेरी बात से मेरे साथी संतुष्ट हो गए।

२६ जनवरी को राष्ट्रपतिजी ने मुझे सेना के पदक ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया, उस समय हमारे सेनाध्यक्षजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्रतापसिंह ने न केवल बहादुरी से युद्ध के मैदान में दुश्मनों के छक्के छुड़ाए, अपितु कल बहुत अपमान सहकर भी सूझ-बूझ से घर के दुश्मनों के एक दुष्ट गिरोह को पकड़वाया। ऐसे जाँबाज को हमारा सलाम!

सम्मान लेकर जब मैं मुख्यालय पहुँचा तो उस दिन सांध्यकालीन अखबार में बड़े-बड़े अक्षरों में मेरा परिचय व फोटो छपा था, वह देखकर मैं बहुत रोमांचित हुआ, लेकिन उस रात के अपमान को याद कर मेरी आँखें भर आईं। मैं सोचने लगा कि बाहर के दुश्मनों का तो हमें पता होता है कि हमें इनसे मोरचा लेना है, लेकिन उनसे भी अधिक खतरनाक तो ये घर के दुश्मन हैं, जिनसे मोरचा लेना तो दूर की बात है, पहचानना भी मुश्किल है। मैंने बहुत सम्मानपूर्वक ‘अशोक चक्र’ को माथे से लगाया तो मेरी आँखों में रुकी हुई आँसुओं की दो बूँदें ‘अशोक चक्र’ पर जा गिरीं।

११५/४, सेंट पैट्रिक्स प्राइमरी स्कूल के पास,

पी.डब्ल्यू.डी. कॉलोनी,

जोधपुर-३४२००१ (राज.)

दूरभाष : ९४१४१३००२२

अगस्त 2024

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