तराजू के उपयोग

तराजू के उपयोग

तराजू के उपयोग की मन में कई स्मृतियाँ हैं। तराजू देखते ही हिंदी फिल्मों का कोर्ट-सीन उभर आता है। कोर्ट के प्रतीक के रूप में बड़ी सी तराजू दिखाई जाती है। हम सोचते हैं कि तराजू का न्याय व्यवस्था से क्या ताल्लुक है? साथ के चित्र में विलैन सिर झुकाए या सीना ताने कठघरे में खड़ा है। अभियुक्त जानता है कि उसके वकील की शौहरत गुनहगार को बेकसूर साबित करवाने की है। वह क्यों घबराए? सबूत ही नहीं, वकील गवाह पेश करने में भी माहिर है। जैसे पुलिस के पेशेवर गवाह होते हैं, वैसे ही उसके भी हैं। सबका सम्मिलित प्रयास है कि न्यायालय में काले कोटवाले हों, दोषी के दूषित साथी हों, उसके शिकार के रिश्तेदार हों, कुछ पत्रकार हों, बस सिर्फ न्याय न हो?

अधिकतर फिल्मों में न्याय का पर्याय पैसा है। तभी तो नायक की छवि उभरती है। वह ऐसे आधुनिक महाभारत का अभिमन्यु है, जो चक्रव्यूह में प्रवेश ही नहीं, उसे भेदने में भी समर्थ है। तभी तो इनसाफ के देवालय कहे जाने वाले न्यायालय में वह दोषी को सजा दिलवाता है। झूठे गवाह और सबूत धरे रह जाते हैं। जो कठघरे में सिर झुकाए था, अब गर्व से सच की जीत के अवसर पर सिर उठाता है। इस आधुनिक अभिमन्यु की जय-जयकार होती है। यह हिंदी फिल्मों का नाटकीय सच है, जीवन का हो न हो। फिल्मों की बड़की तराजू इनसाफ की द्योतक है। कई बार तो यहाँ न्याय के प्रभु न्यायाधीश भी अपराधी के या उसके वकील के हाथों बिके होते हैं। उसके अचानक हृदय परिवर्तन का भी फिल्मों में एकाध सीन होना ही होना। कैसे उनकी बेटी या बेटा अथवा सहसा प्रगट हुई प्रेमिका उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाती है, जब इनसाफ का पलड़ा तथाकथित और साजिशन फँसाए हुए दोषी की ओर झुका नजर आता है।

ऐसा नहीं है कि फिल्मों में ऐसे न्याय के प्रभु बख्श दिए जाते हैं। बहुधा उनका अंत भी दुःखद होता है। कभी अपराधी उनसे बदला लेता है, कभी उनके सगे बेटे, बेटी या अवतरित प्रेमिका उन्हें न्याय की सीख सिखाते हैं। नजरिया बदलने का भी कुछ-न-कुछ कारण या घटना होना। जैसे बेटे का अपराधी या उसके वकील की वास्तविकता को जानना, अथवा दोषी की बहन का उसकी प्रेमिका होना। बेटे को पता है कि इस वकील का धंधा ही न्याय के प्रमुख की खरीद-फरोख्त है। कानून की डिग्री हासिल कर सफलता उसने इसी व्यापारिक धंधे में पाई है। कानून की डिग्री तो केवल ‘कवर’ है उसकी इस योग्यता का। इसी धंधे ने उसे ऐसा नामी और प्रसिद्ध वकील बना दिया है कि उसकी शरण में जाने को हर बदमुज्जना बेकरार है और उसे लाखों की फीस देने को प्रस्तुत है। भारतीय फिल्मी प्रस्तुति हर तिल का ताड़ बनाने की विशेषज्ञ है। जरूरी नहीं कि वह सिर्फ सच्चाई से प्रेरित हो, यह अतिरेक की फिल्मी सच्चाई है, जिसमें प्रेम केवल नृत्य, संगीत और पेड़ों-पहाड़ों में गाना गाने की भाग-दौड़ है। इनसाफ की तराजू से प्रेरित फिल्मों में प्रेम-प्यार तो होना ही होना, उनका न्याय भी नाटकीय है।

इधर तकनीक ने पारंपरिक तराजू की शक्ल बदल दी है। पहले की तराजू होती तो भला यह कैसे संभव था कि गन्ने या गेहूँ से लदे ट्रक को तौल पाती? पर अब तकनीक की तरक्की से मुमकिन हो गया है कि ट्रक एक निश्चित धरातल के ऊपर गुजरे और गन्ने या गेहूँ का वजन ज्ञात हो जाए। बस उसके अतिरिक्त वजन से ट्रक का भार ही घटाना है। ऐसी यांत्रिक तराजू में घटतौल का सवाल नहीं है। पर हम भारतीय बुद्धि की दाद देते हैं कि मामूली तकनीकी छेड़छाड़ से वह घटाया हुआ या बढ़ाया वजन प्राप्त करने में सफल है। हमने कई बार स्कूटर में पेट्रोल भरवाते वक्त पाया है कि पेट्रोल कम भरा है और मीटर ज्यादा दिखा रहा है। एकाध बार हमने पेट्रोल देने वाले से शिकायत भी की तो उसने घुड़क दिया, “जाओ, जहाँ ठीक माप मिले, वहीं से भरवा लो,” तब से हमें संदेह है कि हर पंप की लीटर की सुई ही कम-ज्यादा के रोग से पीड़ित न हो? फिर हमें खयाल आता है कि यदि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।’ हम स्वयं को दोष देकर चुप हो जाते हैं।

कभी-कभी हमें संदेह होता है कि क्या पता धरती के नीचे भी कोई तराजू है? उसमें इनसानी बुद्धि काम करती है कि नहीं? उसके पलड़े इनसाफ करते हैं कि अन्याय? जिसके माप का तुलवाने वाला और लेने वाला दोनों पक्ष सम्मान करते हैं, उसे धर्म-काँटा भी कहा जाता है। हमें कभी-कभार आश्चर्य होता है कि इक्कीसवीं यानी संशय और शक की शताब्दी में यह कैसे संभव है? आज तो हर धर्म पर सवाल उठाए जाने का जमाना है। तब भी मौलाना और मठाधीशों का गुजारा होना आश्चर्यचकित करता है। सब अपनी कट्टरता और धार्मिक आस्था की चोंचें लड़ाकर अपने समर्थकों को भड़काते हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा में कोई जिहाद की धमकी देता है तो कोई धर्म के खतरे में होने की। दशकों से भारत में किसी धर्म पर संकट नहीं आया तो अब कैसे आएगा? पर मौखिक संकट तो लाया ही जा सकता है। बड़ी-बड़ी तकरीरें तो हो ही सकती हैं।

धोबी की झूठी शिकायत पर राम द्वारा निष्कासित होने पर सीता मैया गर्भवती है तो वह वाल्मीकि आश्रम जाकर लव-कुश जैसे पुत्र-रत्नों को जन्म देती है। आयोध्या नरेश राम तब तक रावण को परास्त और लंका का विनाश करने के पश्चात् भी चक्रवर्ती राजा नहीं हैं। इसके लिए उन्हें अश्वमेध यज्ञ करके दूसरे नरेशों पर अपना आधिपत्य जमाना है। और कोई उस घोड़े को रोके न रोके, किशोर लव-कुश उसके मार्ग की बाधा बनकर उसकी गति अवरुद्ध करने में सफल हैं। इन दो किशोरों से सैन्य बल भी पार पाने में असमर्थ है। कोई नहीं जानता है कि ये दो बलशाली और साहसी किशोर राम-सीता की संतान हैं। वाल्मीकि के समझाने के बावजूद जनता का संशय बरकरार है। उसे दूर करने को फिर एक अग्नि-परीक्षा का सुझाव दिया जाता है। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वह कैसे इसका विरोध करें? उनके मौन से सब उनकी सहमति मानते हैं। सीता मैया भी कब तक अपमान सहें? बार-बार उठाई गई शंकाओं की भी एक सीमा है। यह अतिक्रमण उन्हें बर्दाश्त नहीं है। तंग आकर वह धरती माँ की गोद में समा जाती हैं। इनसाफ की तराजू, राम-सीता के साथ इतना न्याय अवश्य करती है कि लव-कुश को उनका अधिकार मिल जाता है और अपने पिता के समर्थन में आकर अश्वमेध यज्ञ लव-कुश ही पूरा करवाते हैं।

फिर भी यह एक विचारणीय प्रश्न है कि बारंबार की ऐसी नैतिक शंकाओं का समाधान क्या है? क्या दोषी का दर्जा देने वाले समाज को ऐसी शंकाएँ शोभा देती हैं? क्या यह त्रेता युग के पुरुषों की मानसिकता पर स्थायी कलंक नहीं है? इसका समाधन क्या है? बेहद दुःखद है कि आज भी यह ऊहापोह, शंका, संशय का दौर जारी है। बुद्धिजीवियों को स्थायी कमाई का साधन ऐसी स्त्री-पुरुष की बराबरी की बहसें हैं। हर सियासी दल का नेता स्त्री-पुरुष की बराबरी को लेकर मुखर है। पर जब वह चुनाव के टिकट बाँटते हैं, तब उन्हें केवल जातिवादी समीकरण और बाहुबल के धनी तथा संपन्न पुरुष प्रत्याशी ही प्रभावित करते हैं।

कथनी और करनी का यह भेद और अंतर हर राजनैतिक दल की विशेषता है। चाहे लोहिया के चेले हों या जातियों के उन्मूलन के आदर्शवादी। कांग्रेस से लेकर हर सियासी दल कहता कुछ और है और करता कुछ और है। कांग्रेस के युवराज आज सत्ता पीड़ित हैं, उनका महत्त्व हर चुनाव के साथ कम और घटता नजर आता है। वह भी कांग्रेस के एकता के सिद्धांत को भूलकर सत्ता हथियाने के लिए अपने पूर्वजों के उसूलों की ईंट से ईंट बजाने को उतारू हैं। कभी वह खाट पर चर्चा करते हैं, कभी उसूलों की खाट खड़ी करते हैं। वह भूलते हैं कि यदि अब हारे तो अस्तित्व का संकट है। क्षेत्रीय दल अब उनकी प्रमुखता को स्वीकार करने से कतराने लगे हैं। वह न सिद्धांतों की तराजू पर खरे उतरते हैं, न देश की एकता पर। जिस दल ने आजादी के लिए इतने वर्ष संघर्ष किया, आज वह सत्ता पाने को जातियों में देश को विभाजित करने की साजिश का हिस्सा है। सत्ता एक राष्ट्रीय दल से जो न करवाए, वह कम है! कहाँ नेहरू और इंदिरा गांधी का दल और कहाँ उसी पार्टी की यह दुर्दशा? कहना कठिन है कि समय के तराजू में कब किसका पलड़ा भारी हो?

टी.वी. वालों को सुभीता है। दर्शक क्या करें? लिखने-पढ़ने के दिन बीत चुके हैं, अब तो टी.वी. दर्शन का युग है। अर्थहीन बहस-विवाद ही देख लें? उसके पास एक सुविधा है, जब चाहे, वह चैनल बदल सकता है, कभी बकवास से बोर होकर, कभी शोर से। पर विषय की समस्या समान है। हर चैनल इस सस्ते बिकाऊ माल का भरपूर उपयोग करते हैं।

यों तराजू सिर्फ माप-तौल और न्याय के निर्णय के लिए ही उपयोगी नहीं है। इसके अन्य प्रयोग भी हैं। एक स्वतंत्र प्रत्याशी को चुनाव-आयोग ने ‘तराजू’ का चुनाव चिह्न‍ आवंटित किया। उनकी समस्या थी कि वह इसका प्रचार कैसे करें? संसदीय क्षेत्र कोई छोटा तो होता नहीं है कि वह उसमें सबको अपने चुनाव चिह्न‍ से अवगत करा सकें? यहाँ तो क्षेत्र भी बहुत है और वोटरों की संख्या भी। उन्होंने प्रमुख अखबारों में तराजू के साथ अपने नाम का ढिंढ़ोरा पीटा, टी.वी. पर भी। इसमें पैसा तो लुटा पर उन्हें संतोष न हुआ। संभव है कि अखबार और टी.वी. दोनों में उन्हें देखने से कोई चूक जाए? या देखे पर ध्यान न दे? मतदाताओं का ध्यान उन पर और चुनाव चिह्न‍ पर कैसे केंद्रित किया जाए? एकबार उन्होंने सोचा कि पृष्ठभूमि में न्यायालय हो और समाने वह तथा तराजू। इस प्रकार वह इनसाफ से भी जुड़ेंगे और प्रचार से भी। फिर उन्हें स्वयं ध्यान आया कि कुछ बेकसूर कोर्ट की तराजू पर दोषी भी पाए जाते हैं और जो अपना केस हार गए, ऐसे असंतुष्टों की संख्या भी इससे कैसे प्रभावित होगी? यह भी मुमकिन है कि वह अपनी पराजय का बदला इस तराजू चिह्न‍ वाले प्रत्याशी से ही न ले लें? यह अभाव भी हेतु उसे पूर्वग्रह के अंतर्गत वोट न देकर। कहीं उनकी जमानत बचाने की नौबत न आ जाए?

 वह हर परंपरागत तरीके से अपने और चुनाव चिह्न‍ के प्रचार में लगे रहे और अपने खास समर्थकों और मित्रों में इस विषय पर विचार-विमर्श में। यह तराजू चुनाव चिह्न‍ के प्रत्याशी-नायक की अचानक एक विशेष मित्र ने सुझाया, “सर, कुछ खर्चा तो है, पर जनता को आकृष्ट करने को धाँसू ‘आइडिया’ है।”

हमारे नायक अधिकतम नेताओं की तरह कुछ वजनदार ढुलमुल शरीर के स्वामी थे। उनका रंग कुछ श्याम वर्ण का था। वह इसी के कारण हर भाषण में राम-कृष्ण से स्वयं को जोड़ते हुए कहते कि वह जनता के वास्तविक प्रतिनिधि हैं। वह सबका भला करेंगे जैसे रामचंद्रजी और श्रीकृष्ण ने किया। हर रावण और कंस का वह विनाश करके रहेंगे।

“कौन सा धाँसू आइडिया?” उन्होंने जानना चाहा। उत्तर आया कि “इस विचार में खास खर्च भी नहीं है। बस एक बड़ी तराजू और कुछ हजारों की रेजगारी। यह लेकर हम जिलों के हर मुख्यालय में जाएँगे। वहाँ दो-तीन प्रमुख स्थानों पर आपको तराजू से तौला जाएगा। आपका भी प्रचार और तराजू का भी। यह अनोखा दृश्य देखने को जनता तो आकृष्ट होनी ही होनी। बस आपको तौले जाने की सूचना हम हर लोकप्रिय समाचार-पत्र में देंगे। इसके अलावा आपकी प्रचार की गाड़ी घुमाकर हम सबको इस विषय में सूचित करेंगे। खर्चा केवल तराजू और रेजगारी का है। तराजू हम किराए पर लेंगे और रेजगारी तो अपनी ही होगी और हर बार उसका इस्तेमाल किया जा सकता है।” नायक को विचार भाया। रेजगारी का उपयोग तो बार-बार हो ही सकता है। तराजू का इंतजाम कौन मुश्किल है? किराए पर आजकल तहमत, तराजू और तलवार सबकुछ मिलता है। राम-लीला के प्यारे लाल की दुकान में क्या-क्या उपलब्ध नहीं है? उन्होंने इस विचार पर अमल करने का मन बना लिया।

नेताजी को पहली बार तौलने की डटकर तैयारी की गई। तराजू के उस पलड़े पर, जहाँ रेजगारी के बोरे रखते, ऐसा प्रबंध किया गया कि वह उससे कुछ भारी हो, जिस पलड़े पर नायक को विराजमान होना है। आस-पास समर्थकों का एक घेरा सा लगाया गया कि तुलने के इस कार्यक्रम के बाद रेजगारी को एकत्र किया जाए। ऐसा न हो कि उसमें भी कोई घोटाले की संभावना हो भविष्य के जनप्रिय सांसद को जनता ने धन से तौला, ऐसे परचे छपवाए गए, यह अखबारों और टी.वी. के माध्यम से प्रचारित भी किया गया। इसके वास्ते पत्रकारों को गिफ्ट से लेकर भोजन तक उपलब्ध है। नायक अपनी सफल सूझ-बूझ पर प्रसन्न थे। हालाँकि सुझाव उनके एक खास समर्थक का था, पर वह नेता ही कैसा, जो स्वयं के अलावा किसी भी उपलब्धि की ‘क्रैडिट’ दूसरे को दे? नेताजी अपने प्रचार की इस नायाब तरीके पर लट्टू हो रहे थे कि एक मुख्यालय की दुर्घटना ने उन्हें झकझोर दिया।

भारत में फ्री के तमाशों में तमाशबीनों की कोई कमी नहीं है। सड़क पर कोई पिट रहा है तो दर्शकों की भीड़ खुद-बखुद एकत्र हो जाती है, एकाध खुद भी थप्पड़ लगाकर या लात मारकर अपने अंतर की हिंसक प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है। किसके पास इतना समय है कि पता करे कि इस पिटाई का कारण क्या है? कुछ इसमें अपना योगदान देकर खिसक लेते हैं और कुछ जुटे रहते हैं। नेताजी का तौले जाना तो एक बहु-प्रचारित घटना है। इस आकर्षक तमाशे में जनता को आना ही आना। जैसे क्रिकेट मंच के प्रसारण में कैमरा देखते ही दर्शक खींसें निपोरने लगते हैं। कुछ उसकी ओर धन्यवाद ज्ञापन को हाथ भी हिलाते हैं। कौन कहे, तुलते नेता की और दर्शक जनता में से किसका थोबड़ा टी.वी. में आ जाए?

यह भीड़ कुछ उत्सुक किस्म की भीड़ है। तौले जाने वाले पल्ले में बोरों को देखकर कुछ ने जिज्ञासा जताई कि ‘रुपए कहाँ है?’ ऐसों को हसरत थी कि नकदी को वह खुद देखे तो विश्वास होगा वरना क्या भरोसा कि किसी ने इसमें रेजगारी के स्थान पर पत्थर भर दिए हों? ऐसे जिज्ञासुओं की संख्या कुछ अधिक ही थी। उधर नेताजी तराजू पर बिठाए गए, इधर समर्थकों का घेरा तोड़कर भीड़ ने बोरों को उठाकर उनकी शल्य चिकित्सा प्रारंभ की। नेताजी बमुश्किल अपने पलड़े से उठ पाए। इस पूरी प्रक्रिया में उनकी धोती भी खुल गई। बचते-बचाते किसी प्रकार वह अपनी कार तक पहुँचे। बाद में खबर मिली कि आक्रामक भीड़ ने बोरों के अंदर की रेजगारी लूट ली। तराजू भी इस अनपेक्षित आक्रमण को झेल न पाई और गिरकर टूट गई।

दो-तीन वर्दी वाले भी सुरक्षा के लिए मौजूद थे। जैसा अकसर होता है, उन्होंने भी बजाय किसी काररवाई के मौका-ए-वारदात का भरपूर आनंद लिया। क्या पता, कुछ कमाई भी की हो? दूसरी तराजू और रेजगारी लेकर हमारे नायक ने अपना तमाशा चालू रखा। दुःखद है कि वह इस सारे उपक्रम के बाद भी चुनाव में पराजित हो गए। उनकी वेदना अथाह है। पैसे गए तो गए, उनकी पीड़ा अपने मौलिक प्रचार के विचार की हार की है।

हमारी हमदर्दी उनके साथ है। तराजू सिर्फ तौलने के काम नहीं आती है, जैसा हम सब जानते हैं कि वह इनसाफ और न्याय का प्रतीक भी है। ऐसे भी जीवन में जरूर कहीं-न-कहीं एक अदृश्य तराजू है, जो अनर्गल आरोपी सीताजी से इनसाफ करती है, जैसे सीता मैया के साथ हुए अन्याय का लव-कुश के माध्यम से। हम भी अनभिज्ञ थे और हमारे ऐसे दूसरे भी कि तराजू का प्रयोग चुनावी प्रचार के साधन के रूप में भी संभव है। इसके लिए हम सब अपने ज्ञानी नेता के आभारी हैं। इसमें यह भी स्पष्ट है कि कामयाबी के लिए सियासत में सब चाहिए—नए विचार और ज्ञान के अलावा?

९/५, राणा प्रताप मार्ग, 
लखनऊ-२२६००१

दूरभाष : ९४१५३४८४३८

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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