RNI NO - 62112/95
ISSN - 2455-1171
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जो जगाते हैं...कहानी यों है कि एक राजा को एक बाज बहुत प्यारा था और वह हमेशा उसके कंधे पर बैठा रहता था। एक बार राजा शिकार खेलने गया। बहुत देर जंगल में भटका, लेकिन शिकार नहीं मिला। जंगल में चलते-चलते राजा रास्ता भी भटक गया था। उसे बहुत जोर की प्यास लग रही थी। वह पानी की तलाश में छटपटा रहा था, तभी उसने देखा कि एक पेड़ से पानी की बूँदें टपक रही हैं। राजा ने एक छोटा सा कटोरा निकाला और उसमें पानी की बूँदे भरने लगा। जैसे ही कटोरे में थोड़ा पानी इकट्ठा हुआ और राजा उसे होंठों के पास ले जाने लगा, बाज ने झपट्टा मारकर पानी नीचे गिरा दिया। राजा को बुरा लगा, गुस्सा भी आया, लेकिन उसने बाज को डपटकर दुबारा कटोरे में बूँदे जमा करना प्रारंभ कर दिया। जैैसे ही कटोरे में थोड़ा पानी जमा हुआ और राजा उसे पीने को होंठों के पास ले जाने लगा कि बाज ने फिर से कटोरा गिरा दिया। अब राजा का क्रोध सीमा लाँघ चुका था। उसने तलवार से बाज का सिर काट दिया। राजा ने सोचा कि उस स्रोत तक पहुँचकर पानी पिया जाए, जहाँ से ये बूँदें टपक रही हैं। राजा उस पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ उसने जो दृश्य देखा, उसकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। जिसे राजा पानी की बूँदें समझकर पीना चाहता था, वे एक भयानक साँप के मुँह से टपक रही थीं। यदि राजा उन्हें पी लेता तो उसकी मौत निश्चित थी। अब राजा को बाज द्वारा कटोरा गिराने का रहस्य समझ में आया अर्थात् बाज तो राजा के प्राण बचाने में लगा था, लेकिन राजा ने अनजाने में अपने प्राणरक्षक के ही प्राण ले लिये थे। राजा को जीवन भर अपनी भूल पर पश्चात्ताप होता रहा। उसने बाज की एक मूर्ति बनवाकर उसकी स्मृति और बलिदान को चिरस्थायी करने का प्रयास किया, किंतु पश्चात्ताप से मुक्ति असंभव थी। उत्तर प्रदेश के अनेक गाँवों में ‘बाज मार पछताने राजा’ की कहावत प्रचलित है। दुनिया भर के समाज भी इस कहानी के राजा जैसा ही आचरण करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। कहानी का बाज दार्शनिकों, चिंतकों, समाज-सुधारकों, बुद्धिजीवियों, लेखकों आदि का प्रतिनिधि बन जाता है। जब ये दार्शनिक, समाज-सुधारक, बुद्धिजीवी आदि समाज के लोगों को अज्ञान, अंधकार, कुरीतियों के अँधेरे से ज्ञान के उजाले की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं तो समाज उन्हें अपना शत्रु मानने लगता है। उन पर तरह-तरह के आक्रमण करता है, यातनाएँ देता है, अपमानित करता है तथा कभी-कभी मौत के घाट भी उतार देता है। समाज में अज्ञान तथा अंधविश्वास इतना प्रभावी होता है कि सच उन्हें कील जैसा चुभता है, तथ्य बेमानी हो जाते हैं। आज विश्व में सर्वाधिक संख्या ईसाई धर्म मानने वालों की है, लेकिन कभी ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया था। उन्हें तत्कालीन समाज ने धर्मद्रोही और अपराधी माना था। ईसा मसीह ने कहा था—हे ईश्वर, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये जानते ही नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। ऐसा ही उदाहरण दार्शनिक वैज्ञानिक ब्रूनो का है, जिसने कहा था कि ‘पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है, सूर्य पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता’, लेकिन तत्कालीन धार्मिक मान्यता थी कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है। आज तो एक छोटा बच्चा भी जानता है कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, लेकिन ब्रूनो को इस सत्य को उजागर करने के लिए भयानक सजा मिली। उसे हजारों की भीड़ में एक खंभे से बाँधकर जिंदा जला दिया गया। भीड़ खुश हो रही थी कि एक धर्मद्रोही को उसके ‘अज्ञान’ और जिद की सजा मिल रही है। एक पादरी वहीं एक कागज लिये खड़ा था, जिसमें लिखा था—‘मैं स्वीकार करता हूँ कि सूरज पृथ्वी की परिक्रमा करता है, मैं अपनी कही बात के लिए क्षमा माँगता हूँ।’ उसे कहा गया था कि यदि वह हस्ताक्षर कर दे तो उसकी जान बच जाएगी, भीड़ खुश होकर घर चली जाएगी। लेकिन ब्रूनो अपनी सच्चाई पर डटा रहा था। वहाँ का समाज बाद में बाज मारने वाले राजा की तरह पश्चात्ताप करता रहा। यदि आप इस बात पर आश्चर्य कर रहे हैं कि तब का समाज कैसा था! कितना अज्ञानी था। वह भीड़ कैसी थी, जो एक वैज्ञानिक के जलाए जाने पर खुश हो रही थी! और आज हम बहुत सभ्य हो गए हैं, तो आप निश्चित रूप से ‘सही नहीं हैं’! आज भी, जबकि विज्ञान इतनी प्रगति कर चुका है, अंधविश्वास, अज्ञान, धार्मिक कट्टरता आदि की जड़ें बहुत गहरी हैं। आज भी सच बताने वाले, अंधविश्वासों का विरोध करने वाले शत्रु ही माने जाते हैं। दुनिया में कई हजार धर्म हैं, हर धर्म में तरह-तरह के मिथक प्रचलित हैं। ये मिथक कितने ही अविश्वसनीय लगें, लेकिन भोले-भाले लोग उन्हें सच मानकर उनके लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। किसी धर्म में सारे मृतक जी उठते हैं और फिर अपने कर्मों का हिसाब देने पहुँचते हैं, किसी धर्म में आसमान से कुछ उतरता है, कहीं कुछ और चामत्कारिक घटित होता है। जितने धर्म उतने ही मिथक, उतने ही गहरे विश्वास! स्वाभाविक है कि मनुष्य को बुराइयों से बचाने के लिए तथा अच्छाइयों की राह पर बनाए रखने के लिए ही इस तरह के मिथक गढ़े गए, स्वर्ग, नर्क की व्यवस्था बनाई गई। एक उदाहरण से बात स्पष्ट करते हैं। आज की युवा पीढ़ी ने शायद ‘चेचक’ शब्द सुना भी न हो। लेकिन इस चेचक के कारण हजारों लोगों के चेहरे विकृत हो गए, हजारों की आँखों की रोशनी चली गई। इस चेचक के कारण पूरे शरीर पर मटर जैसे दाने पड़ जाते थे, जो बाद में पक जाते थे और बहुत कष्ट देते थे। किसी को चेचक हो जाए तो माना जाता था कि ‘बड़ी माता’, अर्थात् ‘देवी’ निकली हैं, और इलाज के नाम पर झाड़-फूँक की जाती थी। आज पूरे विश्व में चेचक का नामोनिशान नहीं है। सोचने की बात है कि देवी माँ किसी मासूम निरपराध बच्चे को क्यों सताएँगी! इसी तरह दुनिया भर के लाखों बच्चे जन्म लेने के कुछ ही दिन बाद किसी-न-किसी बीमारी के कारण काल-कवलित हो गए। तब हर बीमारी को देवी प्रकोप या भूत-प्रेत से जोड़ा गया। आज तरह-तरह के टीके लगने से लाखों बच्चों की जान बची है। वापस राजा और बाज की कहानी के संदर्भ में बुद्धिजीवियों के प्रति समाज के रवैए की ओर लौटते हैं। बात सिर्फ अंधविश्वासों तक ही सीमित नहीं है, वरन् जब भी कोई कुछ नया करता है, किसी भी क्षेत्र में, तो उसका विरोध शुरू हो जाता है। आज न केवल भारत में, वरन् भारत के बाहर अनेक देशों में करोड़ों लोग ‘रामचरितमानस’ को एक धार्मिक ग्रंथ मानकर सम्मान देते हैं। चौबीसों घंटे उसका पाठ किया जाता है, फिर अन्य अनुष्ठान किए जाते हैं तथा एक उत्सव सा मनाया जाता है। लेकिन इसी रामचरितमानस के रचनाकार तुलसीदास को कितना अपमानित किया गया, उनका कितना उपहास किया गया, क्योंकि उन्होंने लोकभाषा अवधी में महाकाव्य लिखा, जबकि उस समय वर्चस्व संस्कृत भाषा का था। तुलसीदासजी को निराश होकर लिखना पड़ा ‘माँग के खाइबो, मसीथ को सोइबो’ (माँग कर खाऊँगा, मसजिद में सो जाऊँगा!) आखिरकार तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में संस्कृत के अनेक श्लोक शामिल किए, जिनमें ‘नमामीश मीशान निर्वाण रूपम्’ जैसी अद्वितीय रचनाएँ हैं। ठीक इसी प्रकार महानतम शायरों में गिने जाने वाले मिर्जा गालिब को उर्दू में लिखने के कारण तरह-तरह के कटाक्ष और अपमानजनक स्वर बरदाश्त करने पड़े, क्योंकि फारसी में लिखना सम्मानजनक माना जाता था। जैसे तुलसीदासजी ने संस्कृत में रचनाएँ कीं, गालिब ने भी आलोचकों का मुँह बंद करने के लिए फारसी में रचनाएँ लिखीं। इस चर्चा में एक अत्यंत दुःखद प्रसंग का उल्लेख अनिवार्य हो जाता है। यह प्रसंग डाॅ. सुभाष मुखर्जी का है, जो एक महान् वैज्ञानिक थे और जिन्होंने विश्व में पहली बार ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ का आविष्कार किया। स्वाभाविक है कि इस महान् अनुसंधान के लिए उन्हें नोबल सम्मान मिलता और अपने देश में ‘भारत रत्न’ जैसा सम्मान...। लेकिन मिला क्या? इतना अपमान, इतनी अवहेलना, इतनी उपेक्षा कि आखिर उन्होंने आत्महत्या कर ली। यहाँ तो दो हजार चार सौ साल पहले वाला ब्रूनो वाला समाज नहीं था। सब शिक्षित एवं जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग थे। डॉ. मुखर्जी को अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में जाने की अनुमति नहीं मिली। उनके अनुसंधान को खारिज कर दिया गया। उस महान् अनुसंधान से भारत वंचित हो गया तथा श्रेय अन्य देश ले गया। कुछ वर्षों बाद जब भारत के ही एक वैज्ञानिक को देश के पहले ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ के अनुसंधान की मान्यता दी गई तो उसने ही अपने अथक प्रयासों से की गई खोज के आधार पर पूरे विश्व को बताया कि पहले ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ की रिसर्च का श्रेय डॉ. मुखर्जी को जाता है। यह एक वैज्ञानिक की महानता थी कि उसने इतिहास में अपना नाम दर्ज होने के सम्मान को ठुकराकर, सच्चाई को उजागर करके डॉ. सुभाष मुखर्जी को उनके हिस्से का सम्मान दिलाया। डॉ. मुखर्जी की आत्महत्या के १५ वर्ष बाद उस समिति ने अखबारों में विज्ञप्ति जारी करके अपनी उस गलती के लिए क्षमा माँगी, जिसके कारण डॉ. मुखर्जी को आत्मघात की राह चुननी पड़ी। इसी प्रसंग पर ‘एक डॉक्टर की मौत’ फिल्म बनी है, जिसका अंत सुखद कर दिया गया है, किंतु कड़वी सच्चाई तो डॉ. मुखर्जी की मौत तथा भारत का एक नोबल सम्मान से वंचित होना ही है। कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं—महान् खगोलविद् आर्यभट्ट को भी तरह-तरह के तिरस्कार और अपमानों का सामना करना पड़ा। कहानियाँ तो गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी के विरोध की भी हैं। महर्षि दयानंद हों या स्वामी विवेकानंद, समाज कभी भी नए विचारों, नई मान्यताओं की स्थापना के प्रति उदार नहीं रहा। राजा राममोहन राय को सती प्रथा के उन्मूलन के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा। समाज में एक वर्ग का अंधविश्वासों, कुरीतियों आदि के प्रति विचित्र सा मोह बना ही रहता है। आज जबकि भारत का चंद्रयान अभियान पूरे विश्व में इतिहास रच चुका है, मंगल मिशन, सूर्य मिशन आदि वैज्ञानिक उपलब्धियों का गौरवपूर्ण अध्याय लिख रहे हैं, वहीं कुछ अंधविश्वासी और असामाजिक तत्त्वों के कुकृत्य भी बदस्तूर जारी हैं। समय-समय पर ऐसे तत्त्वों के अनाचार के समाचार आते ही रहते हैं। हमारे भारत के संविधान में नीति निदेशक सिद्धांतों में किसी भी सरकार के लिए वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ाने का निर्देश दिया गया है। भारत सरकार की ‘विज्ञान प्रसार’ जैसी संस्थाएँ यह शुभ कार्य कर भी रही हैं, किंतु मीडिया अपने मुनाफे के लिए इस दिशा में पूरी तरह चुप है। एक चैनल क्रिकेट मैच पर भविष्यवाणी के लिए एक दर्जन जाने-माने ज्योतिषियों को बुलाता है। सब भारत की जीत का दावा करते हैं, किंतु भारत न केवल हारता है, बुरी तरह हारता है। क्या ज्योतिष गलत है? नहीं, ज्योतिषी गलत थे। ज्योतिष का दुरुपयोग गलत है, इसका बाजारीकरण गलत है। काश हमारा समाज एक परिपक्व समाज बने। नए-नए विचारों का स्वागत करे, उन पर विमर्श करे, सत्य की खोज करे तथा सत्य की दिशा में आगे बढ़े। विचार का जवाब विचार से दे, न कि विचारकों, बुद्धिजीवियों का उत्पीड़न करे। क्या हमें भूलना चाहिए कि कभी भारत को साँपों और सपेरों के देश के रूप में जाना जाता था। हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियों ने ही उसे एक आधुनिक, प्रगतिशील देश के रूप में सम्मान दिलाया है। वैज्ञानिक मानसिकता ही सही रास्ता है, जो वेदों ने भी सुझाया है। (लक्ष्मी शंकर वाजपेयी) |
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