मूर्धन्य लेखक। हिंदी में तेरह, सिंधी में आठ, स्वयं अनूदित तीन, अन्य भाषाई लेखकों द्वारा अनूदित छह, कुल तीस पुस्तकें तथा १२०० से अधिक रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। २५० से अधिक कार्यक्रम आकाशवाणी से प्रसारित। अकादमियों, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं से ३५ पुरस्कार और ५० से अधिक सम्मान प्राप्त।
जाने की बात सोचते समय जरा सी कल्पना भी नहीं की थी। कल की भावनाओं को पोषित करने के लिए गए थे और आज का विद्रूप भाव साथ लेकर लौटे हैं। बाहर से दिखाई देता चलता-फिरता शरीर और निरंतर युद्धरत परिस्थितियाँ। किसी से कहने, रोने का स्वभाव नहीं है। मस्तिष्क पूरी तरह सचेत है, इसलिए अपने आप से लड़ते रहते हैं। एक ऐसी लड़ाई कि जिसका ओर-छोर नहीं है।
परिवारजन चिंता ही नहीं करते, उनकी प्रकृति को समझते हुए उनके कुछ कहे बिना ही भरसक चेष्टा करते हैं कि वे परेशान न हो पाएँ। मित्रों और रिश्तेदारों को, बेटे-बहू की ओर से उनके लिए खामोशी से की जाने वाली व्यवस्थाओं को देखकर ईर्ष्या होती है। अपनी ओर से भरपूर कोशिश करते हैं, उन्हें सामान्य दृष्टि से देखा जाए, मगर अपवादस्वरूप भी ऐसा होता नहीं है। घर में अतिथि व अपरिचित आए हैं और वे वहाँ हैं तो कभी ऐसा नहीं होता कि परिचय कराते हुए प्रशंसा में दो शब्द न कहे गए हों उनके बारे में। इस उम्र में भी मन में संकोच भाव खदबदाने लगता है। सच है कि अच्छा लगता है, अपने ऊपर कम, बेटे या बहू के ऊपर गर्व भी महसूस होता है। संकोच से अंदर-ही-अंदर गड़ते और गर्व से महकते हुए, औपचारिकताओं के आदान-प्रदान के बाद वे उठ जाते हैं। आग्रह के बावजूद वहाँ रुकना संभव नहीं रह जाता है उनके लिए।
पहले ज्यादा थे, अब तीन ही पुराने मित्र बचे हैं। मिलना चाहे कम हो पाता हो किंतु फोन पर नियमित संपर्क में रहते हैं। किसी जमाने में मित्र मंडली में निकटता से जुड़ा था सेवकराम। व्यापार बढ़ा तो सेवकराम की व्यस्तता बढ़ी। यहाँ तक समझ में आता था, लेकिन बढ़ती आय ने उसके अहंकार को भी बढ़ा दिया। हम मध्यमवर्गीय मित्र उसे अपने स्तर से कमतर, अपने आप से बौने महसूस होने लगे। कुछ व्यस्तता और कुछ दृष्टि परिवर्तन, वह धीरे-धीरे हमसे दूर होता गया। शुरू में हम लोगों ने कोशिश की उसे पटरी पर लाने की। कोई नतीजा नहीं निकला तो हमने भी उसे छोड़ दिया। छोड़ जरूर दिया, मगर उसे भूल नहीं पाया हममें से कोई भी। शादी-विवाह और अन्य पारिवारिक अवसरों पर सेवकराम को हम हमेशा बुलाते रहे। मजे की बात यह है कि वह आता भी रहा। भले ही बात न होती हो, मिलना न होता हो, किंतु वह हम मित्रों के दायरे में बना रहा। केवल हम लोगों की ओर से आमंत्रण गए हों और उसने न बुलाया हो, ऐसा भी कभी नहीं हुआ। उसके बुलावे पर हम जाते तो सेवकराम के व्यवहार में कभी मित्रभाव में कमी का आभास नहीं हुआ हम लोगों को।
यही कारण था कि सामान्यतः ‘पुरानी बात नहीं रही’ कहने-मानने वाले हम मित्रगण सेवकराम को ‘कभी हमारे दोस्त थे’ इस श्रेणी में नहीं रख पाए। गाहे-ब-गाहे बात करने की, संपर्क बनाए रखने की कोशिश में अन्य मित्रों ने हाथ पीछे खींचे हों तो अलग बात है, मगर उन्होंने ‘कभी तंगदिली नहीं दिखाई’। सेवकराम के प्रति अनुराग उनके मन में तो बना ही रहा, उसने भी बढ़े हाथ को झटकना तो दूर रहा, हमेशा उतनी ही गर्मजोशी से पकड़ा, जैसे तब पकड़ता था, जब हम लोगों के साथ मिलकर ठहाके लगाता था।
हम लोगों की पकी उम्र के कारण चौंकाने वाली स्थिति तो नहीं बनी, लेकिन जब उसके देहांत का संदेश आया तो वे उदास हो गए हैं। कुछ आँखों से कम दिखाई देने की वजह से और कुछ मानसिक उदासीनता का प्रभाव इन दिनों उनके घर से बाहर निकलने पर अंकुश लगाता है। कहीं आने-जाने की इच्छा नहीं होती है। मित्रों से फोन पर बात जरूर करते रहते हैं, मगर मिलना-जुलना उनसे भी तभी होता है, जब मिलकर कहीं बैठने का कार्यक्रम बनता है। सेवकराम की मृत्यु के समाचार के बाद हिचकिचाए बिना, उन्होंने निर्णय लिया कि तीसरे दिन की बैठक में जरूर जाएँगे। बाहर से कितने भी ठीक लगते हों, लेकिन जानते थे कि दाह संस्कार की हलचल उनका शरीर बरदाश्त नहीं कर पाएगा। इतना तो समय ने सिखा ही दिया था कि सामर्थ्य के अनुसार गतिविधियाँ करने में ही भला है। सीमाओं में रहेंगे तो न स्वयं दु:खी होंगे और न परिवार को परेशान करेंगे।
जिस दिन बैठक थी, उस सुबह उन्होंने तीनों मित्रों को फोन किया। एक ने बताया, पिछली शाम पत्नी के साथ वह उसके घर हो आया है। शेष दो ने जाने में असमर्थता जाहिर की। फिर कहा कि बाद में किसी दिन सेवकराम के घर चले जाएँगे। मन थोड़ा सा डिगा जरूर, मगर वे इरादे से पीछे नहीं हटे। बैठक का समय शाम को पाँच से साढ़े पाँच बजे का था। उन्होंने सोचा, समय पर जाएँगे तो कुरसी पर बैठना सुनिश्चित हो जाएगा। नीचे बैठने की अनुमति शरीर देता नहीं था। इसलिए कुरसियाँ भर जाने के बाद पहुँचने की बात वे टालना चाहते थे।
बैठक उनके घर से अधिक दूरी पर नहीं थी। उन्होंने बेटे को पौने पाँच बजे कार भजने के लिए कह दिया। अफरा-तफरी टालकर बैठक स्थल पर पहुँचने के लिए पंद्रह मिनट पर्याप्त थे। रास्ते में भीड़ में फँसा या कार्यालय से निकलने में देर हुई, उन्हें नहीं मालूम मगर ड्राइवर सात मिनट देर से पहुँचा। सेवकराम की हैसियत के कारण बैठक स्थल के दरवाजे से पहले लगी गाड़ियों की कतार ने देरी को बढ़ा दिया। नतीजा यह निकला कि जब वे सभागार में पहुँचे, तब सभी कुरसियाँ भर चुकीं थीं। चित्र के सामने श्रद्धांजली के रूप में पुष्प समर्पित करने के बाद कुरसियों की कतारों के पीछे जाकर वे खड़े हो गए। सेवकराम के बेटे और अन्य निकटवर्ती परिवारजन उन्हें जानते थे, मगर सभी सामने नीचे बिछी जाजम पर बैठे थे। जो युवक व्यवस्था के लिए खड़े थे, उनमें से एक कहीं से कुरसी ले आया और ठीक बेटों आदि की पंक्ति के पीछे लगी कुरसियों में शामिल करके उन्हें बैठाया। कुरसी पर बैठने के बाद सेवकराम के बेटों और दूसरे परिवारजनों की पीठ उनकी ओर थी। किसी चेहरे को पहचानना तो उनके लिए तभी संभव था, जब व्यक्ति निकट खड़ा हो, लेकिन अनुमान से वे बैठे हुओं को पहचानने की कुछ सफल, कुछ असफल कोशिश कर रहे थे।
पगड़ी बाँधने की रस्म पूरी होने के बाद पंडितजी की घोषणा के अनुरूप सेवकराम के बेटे और परिवार जन सभागार के मुख्य द्वार पर जाकर पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। भीड़ अधिक थी। धक्का लगने की आशंका को देखते हुए वे कुरसी पर बैठे-बैठे भीड़ कम होने की प्रतीक्षा करने लगे। हालाँकि मिलने वालों और नमस्कार करने वालों को पहचानने से आँखें इनकार कर रही थीं, मगर वे मुसकराते हुए हाथ जोड़कर प्रत्युत्तर दे रहे थे। जो निकट आकर बात कर रहे थे, उनमें से कुछ को दीर्घ अंतराल के बाद देखने के कारण वे बिल्कुल नहीं पहचान पा रहे थे। कुछ को मुद्रा, लहजे या भंगिमा के कारण उनके लिए पहचानना संभव हो पा रहा था, लेकिन यह सब अनपेक्षित नहीं था, इसलिए किसी तरह का मलाल भी महसूस नहीं हो रहा था।
लगा कि भीड़ कुछ कम हो गई है और अब पंक्ति में लगा जा सकता है तो कुरसी से उठकर वे आगे बढ़े। बीच में खड़े परस्पर बतियाते लोग शायद अवसर का लाभ उठा रहे थे। पंक्ति के छोर पर पहुँचने ही वाले थे कि उन्हें लगा, किसी ने उनका नाम पुकारा है। उन्होंने मुड़कर देखा तो एक सज्जन उनकी ओर बढ़ आए। उनके समवयस्क रहे होंगे। पहचाना तो नहीं मगर उनकी तरफ देखकर वे इस तरह मुसकराए, गोया जानते हों। उनकी मुसकराहट और चेहरे पर आए भाव देखकर सज्जन के चेहरे की मुसकराहट चौड़ी व भंगिमा आत्मीयता से सराबोर हो गई, “किस दुनिया में रहते हो तुम? एक ही शहर में रहते हैं, फिर भी कभी याद नहीं करते।”
पहचानने की पुरजोर कोशिश करते हुए चेहरे के भाव और मुसकराहट यथावत् बरकरार रखकर, हास्य का तड़का लगाते हुए अभिनय का किंचित् भी आभास कराए बिना उन्होंने स्वर में अपनत्व भरा है, “क्या करें यार, उम्र ने सींखचों में कैद कर दिया है।”
“सलाखें तोड़कर कभी घर आओ न।” सज्जन ने आग्रहपूर्वक इस तरह कहा है, मानो पता पहले ही मालूम होगा उनको।
“जरूर आऊँगा। वहीं रहते हो न?” उन्होंने सब कुछ याद होने का नाटक किया है, “तुम भी आओ किसी दिन।”
“आऊँगा, ढेर सारी बातें करनी हैं तुमसे।”
मुसकराकर वे पंक्ति की ओर बढ़ गए। लगभग पंद्रह व्यक्ति कतार में खड़े आगंतुकों के सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं। सिर पर बँधी पगड़ी के कारण दूर से ही स्पष्ट है कि उनमें अंत में खड़े तीन सेवकराम के बेटे हैं और चौथा उसका भाई या भतीजा होगा। एक-एक के सामने हाथ जोड़कर वे गंभीर मुद्रा में आगे बढ़ने लगते हैं। सेवकराम के परिवार का प्रत्येक सदस्य लगभग बचपन से परिचित था। पंक्ति में खड़ी हर आकृति मुखारविंद से परिचय की अनुभूति करा रही है। वे कोशिश के बावजूद किसी चेहरे को पहचान नहीं पा रहे हैं। सेवकराम का एक बेटा कुछ अधिक ही लंबा है। पंक्ति में भी वह सबसे अलग नजर आ रहा है। पगड़ी बाँधकर खड़े सेवकराम के बाकी दो बेटे और तीसरा व्यक्ति निश्चय ही निकट से गुजरते हुए पहचान लेंगे, उन्हें भरोसा है।
सामने पहुँचते ही सेवकराम के बेटों ने एक-एक करके उनके पाँव छुए। नीचे झुकते समय चेहरा देखकर वे उन्हें पहचान गए। आशीर्वाद स्वरूप उनकी पीठ पर हाथ रखकर वे आगे बढ़ते गए। पगड़ी बाँधकर खड़े चौथे व्यक्ति ने झुककर नमस्कार किया है। पहचाने बिना शुद्ध औपचारिक भाव से झुककर नमस्कार करते हुए वे भी आगे बढ़ गए।
वापस लौटने के बाद गुमसुम, अँधेरों में घिरा महसूस कर रहे हैं वे अपने आप को। क्यों नहीं पहचान पा रहे हैं वे सच को? क्यों शरीर और मस्तिष्क को एक करके देख रहे हैं वे? सेवकराम के प्रति उनकी भावनाएँ भावुकता में बदल जाएँ, जरूरी है क्या? जैसा अवसर था, उसे देखते हुए सार्वजनिक स्थान पर परिचितों से भेंट अनिवार्य है। उन परिचितों में से कुछ पुराने मित्र भी हो सकते हैं। आँखें साथ न दें तो मानसिक स्वास्थ्य, आत्मनिर्भर गतिविधियों का साथ कहाँ तक निभा पाएगा आखिर? माना कि वह उसके घर के सदस्यों से भलीभाँति परिचित हैं। कभी एक-दूसरे से निवासस्थान पर मिलना-जुलना होता रहा है। परिवार के किसी व्यक्ति को वे पहचान न पाएँ और पहचानने का दिखावा करते रहें, इससे अधिक त्रासदायक क्या हो सकता है?
जिस सेवकराम की तीसरे दिन की बैठक में जा रहे हैं, उसके सुपरिचित रहे परिवारजनों को वे न पहचान पाएँ तो क्षम्य कहेंगे क्या? अपना चेहरा दिखाने गए थे क्या, वे सेवकराम की तीसरे दिन की बैठक में? यही करना था तो बैठक से पहले किसी समय उसके घर चले जाते, बैठक में जाने की क्या जरूरत थी? कुछ बातों से, कुछ व्यवहार से, कुछ उठने-बैठने के तौर-तरीकों से और कुछ पाँव छूने या प्रणाम और नमस्कार करने से जितना पहचान पाते परिवारजनों को वह वर्तमान से अधिक होता। नैकट्य की अनुभूति कराना भी संभव हो जाता।
शायद परिवारजनों के साथ बाहरी लोगों को अपनी उपस्थिति से प्रभावित करने की मानसिकता रही है इस निर्णय के पीछे। अच्छे मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ जोड़-बाकी-गुणा-भाग नहीं हो सकता। भावनाओं के वशीभूत सेवकराम की तीसरे दिन की बैठक में जाने का उनका निर्णय नई परतें खोल रहा है उनके सामने अपने अंतर्मन की। पहले ऊपर से लगता था, सेवकराम के प्रति जो आत्मीय भाव उनके हृदय में रहा है, जाने का निर्णय केवल और केवल उसका प्रतिफल है। अब लगता है कि नहीं, सीमाओं का विस्तार उससे ज्यादा है। सोचते हैं तो दंग रह जाते हैं, ढकी-छिपी असलियत ने उजागर होने का कैसा अनूठा मार्ग अपनाया है?
उन्हें सब लोग देखें, इसके लिए सेवकराम से घनिष्ठ संबंधों को बहाना बनाने की अलक्षित एवं अदृश्य मानसिकता अपनी जगह, किंतु व्यावहारिक जामा पहनाना मुमकिन है क्या इस सोच को? परिचित और मित्र उन्हें पहचान लें, उनकी उपस्थिति को परिलक्षित करें, उनसे बात करें, मुलाकात में आए अंतराल को पाटें और समझें कि वे मित्रता निभाना जानते हैं। यह ढकी-छिपी कामना एक तरफ और निकटवर्तियों तक को न पहचान पाने की अक्षमता दूसरी तरफ। परिचितों-मित्रों से मिलने का सुख भोगने की लालसा एक तरफ और उन्हें चििह्नत न कर पाने की पीड़ा दूसरी तरफ। आत्म-प्रदर्शन आयु के साथ गौण होता गया है, किंतु संवेदनाओं की तीव्रता, उनकी चुभन और दर्द जनित तनाव बढ़ता गया है। भले ही उसे व्यक्त करने से लाभ प्रतीत न होता हो, किंतु तत्जनित रोष व असंतोष ऐसे गुब्बारे की तरह होता है, जो अंदर भरी गैस के दबाव को न बरदाश्त कर पाता है और न फट पाता है।
चुनना तो होगा ही कोई एक रास्ता। मजमे में जाकर लोगों को दिखाई दें और खुद किसी को देखकर भी न देखें, उससे क्या फायदा? क्यों जाएँ ऐसी जगह और क्यों लालायित हों ऐसी जगह जाने के लिए? उन्हें देखकर या उनसे मिलकर किसी को खुशी मिली या नहीं मिली, नहीं मालूम, मगर वे एक तनाव, अक्षमता का तमगा दिल और दिमाग पर चिपकाकर लौटते हैं। क्यों, क्यों आमंित्रत करें इस त्रास को? भावनाएँ उछल-कूद करेंगी तो दूसरे रास्ते निकालेंगे, लेकिन नहीं जाएँगे ऐसी जगहों पर, जो कुछ दिनों तक सुख-चैन छीन ले, नींद उड़ा दे उनकी। उम्र के तकाजों, शरीर की घटती क्षमताओं और सीमाओं की सिकुड़न को खुद न ढोकर दूसरों को क्यों नहीं सौंपते हैं वे? वे जाएँ, नहीं! दूसरे भी तो आ सकते हैं उनके पास। फिर कोई नहीं आएगा तब भी कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? कम-से-कम इस पीड़ा से तो मुक्ति मिलेगी, जिसको अभी-अभी शिद्दत से भोगा है उन्होंने।
अशांति से दूरी का फैसला लिए लगभग एक माह हुआ है। कभी-कभी ऊब जरूर होती है, मगर अखबार, टी.वी., मोबाइल पर यूट्यूब आदि के अलावा तीनों मित्रों से फोन पर होने वाली लंबी बातचीत करते-करते समय गुजर जाता है। घर में रहते हुए बाहर की दुनिया याद आती है तो सड़क पर खुलती बालकनी में जाकर बैठ जाते हैं। आते-जाते लोगों को देखते-देखते कभी मन रम जाता है और कभी आलस्य आने लगता है। आँखें झपकने लगती हैं तो बिना देखे कि कितने बजे हैं, वे बिस्तर पर चले जाते हैं। जिंदगी ज्यादा ऊबड़-खाबड़ महसूस नहीं होती है।
दिन के ग्यारह बजे हैं। मन कुछ उदास है। नहा-धोकर वे बालकनी में आ बैठे हैं। हो सकता है, आते-जाते लोगों को देखकर उदासी कुछ कम हो जाए। तभी देखते हैं, उनके घर के सामने आकर एक कार रुकी है। तीन लोग कार से नीचे उतर रहे हैं। ठीक तरह से पहचाना तो नहीं, लेकिन लगा कि वे तीनों उनके मित्र हैं। दरवाजा खोलकर अंदर घुसे तो चाल-ढाल और कद-काठी से पुष्टि हो गई। वे बाल्कनी से ही चिल्लाए, “ऊपर आ रहे हो या मैं नीचे आऊँ?”
तीनों ने एक साथ ऊपर देखा है। एक ने कहा, “वहीं रुक। हम तेरे पास आ रहे हैं।”
कुछ मिनटों के बाद तीनों उनके कमरे में थे। तीनों के कंधों से थर्मस लटके हुए थे। तीनों बैठ गए तो उन्होंने पूछा, “आज तीनों एक साथ और वह भी यहाँ?”
“तू तो आता नहीं है। हमने सोचा, तेरे हाल-चाल पूछ आएँ।” उनमें से एक ने कहा है।
दूसरे ने उनसे पूछ लिया, “बाल्कनी में कैसे बैठा था? कमरे में मन नहीं लग रहा था क्या?”
वे थोड़ा अचकचाए हैं और फिर रुक-रुककर अपनी उदासी के बारे में बता गए हैं। तीनों मित्र खामोशी से सुनते रहे हैं। उनके चुप हो जाने के बाद भी मौन पसरा हुआ है। उनमें से एक ने मौन तोड़ा है, “सच कहूँ तो हम सबके मन की हालत भी ऐसी ही है। तेरे पास हम इसीलिए आए हैं।”
वे मुसकराए हैं। मन का बोझ और उदासी का भाव कम होता महसूस हो रहा है। तभी दूसरे मित्र ने कहा, “उदासी, अकेलापन और निराशा जैसी तुझे अनुभव होती है, वैसी हमें भी लगती है।”
“कैसे उभर सकते हैं इस हालत से? कोई उपाय है तुम लोगों के पास?” किंचित् व्यग्रता, किंचित् ठहराव के साथ उन्होंने पूछा है।
तीनों मित्रों के चेहरों पर उनकी बात सुनकर एक चौड़ी सी मुसकराहट खिल उठी है, “वही सूत्र लेकर आए हैं आज हम तेरे पास।”
“अच्छा!” उन्होंने चकित होकर कहा है।
एक ने इशारा किया है। तीनों मित्रों ने अपने-अपने थर्मस से चाय निकालकर ढक्कननुमा कप में डाली है। मेज से गिलास उठाकर उनके लिए भी चाय डाल दी है।
“सप्ताह में एक बार हम चार में से तीन मिलकर चौथे दोस्त के घर जाएँगे उसे बताए बिना। जिस तरह आज तेरे पास अचानक, बिना सूचना दिए आ धमके हैं, बिल्कुल ऐसे ही। चाय-नाश्ता मिलेगा तो स्वागत करेंगे। नहीं मिलेगा तो बुरा नहीं मानेंगे। थर्मस में अपने साथ तो चाय लाएँगे ही। एक-दो घंटे गपशप करेंगे। दु:ख-सुख बाँटेंगे। अब तक हममें से दो की फोन पर बात होती थी। अब उस तक सीमित नहीं रहेंगे। बोल, है मंजूर?”
वे उत्साह से भर उठे हैं। उन्हें लगता है, एकरसता को रंगीन और रोमांचक बनाने का सूत्र लेकर आए हैं, मित्रगण। अब किसी सेवकराम के तीसरे दिन की बैठक के बहाने और उसके नतीजे के रूप में संत्रास भोगने की जरूरत नहीं पड़ेगी उन्हें। वे खड़े हो गए हैं। उनकी बाँहें मित्रों से गले मिलने के लिए अपनी पूरी चौड़ाई में खुल गई हैं।
डी-१८३, मालवीय नगर,
जयपुर-३०२०१७ (राज.)
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