प्यारा अप्पू

प्यारा अप्पू

सरकारी विद्यालय में अध्यापिका। सभी विधाओं में निरंतर लेखन। विभिन्न पत्रिकाओं एवं अखबारों में रचनाओं का प्रकाशन। आकाशवाणी शिलांग में काव्य पाठ। ‘विद्यावाचस्पति सम्मान’, पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी, तेजपुर द्वारा सारस्वत सम्मान तथा पहली कृति ‘किनारे पर आकर’ पुरस्कृत।

सुबह-सुबह किसी के दरवाजा खटखटाने से मेरी नींद खुल गई। चारों तरफ जंगल, यहाँ कौन मुझसे मिलने आया होगा! आज तो हरि काका भी छुट्टी पर हैं, चलो देखते हैं, यह सोचकर आँखें मलता हुआ मैं दरवाजे की ओर बढ़ा। खिड़की से बाहर देखा तो चौंक गया, अरे यह तो छोटा सा हाथी का बच्चा है।
फॉरेस्ट ऑफिसर के तौर पर यहाँ मुझे अभी पंद्रह दिन हुए थे। जंगल में रहना मेरे काम का हिस्सा ही था। परिवार दूर था, तो यहाँ पेड़-पौधों को ही संगी-साथी बना लिया था। जंगल का मुआयना हर रोज का काम था। अस्सी प्रतिशत पेड़-पौधे लगभग काटे जा चुके थे। लोग बिना सोचे-समझे अपना यहाँ गाँव बसा रहे थे।
खैर, जो भी हो, दरवाजा खोलकर देखा, अप्पू (हाथी का बच्चा) अपनी सूँड़ से मेरे दरवाजे को हिलाने लगा। मैंने प्यार से उसका माथा सहलाया, पता नहीं भटकते हुए यह शायद मेरे क्वार्टर आ पहुँचा होगा। छोटे से मेहमान का स्वागत-सत्कार कैसे किया जाए। रसोई में टटोला तो तीन बासी रोटियाँ मिलीं। बड़े चाव से रोटियाँ खाईं अप्पू ने और तभी उसकी माँ उसे ढूँढ़ती हुई आई और उसे साथ लेकर चल पड़ी।
इधर जंगल में लोगों का गाँव बसने लगा था, फलतः जानवरों को खाने-पीने से लेकर रहने तक की कठिनाई होने लगी थी। गाँव एक बार बसने लगे तो उसे हटाना प्रशासन के हाथ में भी नहीं रहता।
अब हर रोज की ड्‍यूटी के अनुसार जंगल का मुआयना करने मैं निकल पड़ा। पेड़-पौधे कम होने लगे थे, झुग्गी-झोंपड़ी ज्यादा दिखने लगे और हर घर के सीमा के चारों ओर पतले से तार बाँधे गए थे, जिनमें प्लास्टिक पेपर टाँगे गए थे। कुछ अजीब सा लगा मुझे। जगह तो काफी खूबसूरत थी, पहाड़ तो मानो चारों ओर प्रहरी के जैसे खड़े थे और उनपर बिछी हरियाली उनकी सुंदरता और भी बढ़ा देती।
पहाड़ फल तथा औषधियों से सजे थे। ऊँचाई पर थे, वरना इन्हें भी तबाह कर देते गाँव के लोग। मेरी जीप आगे बढ़ रही थी धीरे-धीरे, तभी सामने से एक युवक आता दिखाई दिया। अरे भाई, यह सभी के घरों की सीमाओं पर तार क्यों बाँधे गए हैं? और ये प्लास्टिक के कागज भी लगाए गए हैं, ऐसा क्यों? उत्सुकतावश मैंने पूछा। तभी उसने कहा, आपको तो पता होगा साहब, यहाँ एक घना जंगल हुआ करता था और यहाँ असंख्य पशु-पक्षी रहा करते, खासतौर पर हाथियों का जत्था यहाँ से गुजरा करता, पर अब जबक‌ि यहाँ गाँव बसना शुरू हो गया तो आधे से ज्यादा जंगल कट चुका और सभी ने अपनी चारों सीमा में तार बाँधकर रख दिया। अरे, यह कोई सामान्य तार नहीं है, इसमें करंट है, ताकि कोई जंगली जानवर यहाँ से गुजरे तो उसे बिजली के झटके लगें। कहते हुए उसकी आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं। इतना कहकर वह वहाँ से चल दिया। मैं कुछ देर चुपचाप सोचता ही रहा। आज जहाँ हम ‘पेड़-बचाओ’ के नारे लगा रहे हैं, वहाँ जंगल के जंगल काटे जा रहे हैं और दूसरे जीव-जंतुओं के रहने का आश्रय खत्म होता जा रहा है। उदास मन से मैं अपने क्वार्टर पहुँचा। खाना आज खुद ही बनाना था, क्योंकि हरि काका, यानी मेरे सहायक छुट्टी पर थे।
दोपहर का भोजन करके मैं पास वाले बाजार की ओर निकल गया। कुछ खाने-पीने का सामान, फल वगैरह लेकर जंगल के रास्ते मुआयना करते हुए अपने घर की ओर लौटने लगा। तभी सामने से अप्पू अपनी माँ के साथ टहलते हुए मेरे सामने आया। एक ही मुलाकात में वह मुझे जैसे जानने लगा था। अपनी छोटी सी सूँड़ से मुझे छूने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसका माथा और सूँड़ सहलाते हुए अपनी जीप से उठाकर केले का एक गुच्छा उसे दिया। उसकी माँ के साथ उसने वह बाँटकर खाया। अपनी सूँड़ से मेरे गरदन और ‌िसर को छूकर, मुझे दुलार दिखाने की कोशिश की। प्यारा सा अप्पू, मैंने तो बस उसे थोड़ा सा कुछ खाने को दिया था और वह इतना कृतज्ञ होकर बदले में मुझे अपनापन दे रहा था।
शाम हो चली थी, मैं अपने क्वार्टर की ओर चल पड़ा। खाने में रोटियाँ बना ली थीं, आज कुछ ज्यादा बना ली थीं, प्यारे से दोस्त अप्पू के लिए। जंगल, जानवर, इनसान इन सब के अनदेखे रिश्तों के बारे में सोचते हुए कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।
सुबह बारिश की आवाज से मेरी नींद खुल गई, उठने के बाद अपनी सुबह की चाय की प्याली लिये मैं खिड़की के पास गया, बारिश की वजह से पेड़-पौधे ताजे और हरे नजर आ रहे थे। कुछ नए अंकुरों का भी आगमन हो गया था, मैं सोचने लगा, क्या ये कभी वृक्ष बन पाएँगे?
इन अनसुलझे सवालों से उबरने की कोशिश में मैं अपने रोज के कामों में जुट गया। मन-ही-मन मैं अप्पू का इंतजार कर रहा था। कुछ रोटियाँ और फल उसके और उसकी माँ के लिए बचाकर रखे थे।
नहाकर तैयार होने लगा, पर मेरे कान जैसे बज रहे थे, मानो कोई दरवाजा खटखटा रहा था। पर इस बार तो सही में कोई दरवाजा खटखटा रहा था, मुझे लगा, अप्पू ही होगा। भागकर मैं दरवाजा खोलने गया तो देखा, सामने हर‌ि काका छाता लिये खड़े हैं। ‘ओह, आप आ गए काका?’ मैंने अपने प्रश्न के साथ अपनी उत्सुकता, जो अप्पू के लिए थी, छिपा गया। ‘हाँ बाबू, अभी लुगाई की तबीयत ठीक है, तो मैं वापस आ गया। बाबू, मैं कमरा साफ कर लूँ, फिर खाना बना लूँगा।’ यह कहकर हरि काका अपने काम में जुट गए।
अप्पू अभी भी नहीं आया, शायद बारिश की वजह से नहीं आया होगा। पता नहीं उसने कुछ खाया भी होगा या नहीं, मेरा मन सिर्फ अप्पू के खयालों में ही उलझा था, मानो वह जैसे मेरे परिवार का ही हिस्सा हो। सुबह नाश्ता कर अपनी जीप से अप्पू के हिस्से का ‘खाना’ लेकर मैं जंगल की ओर चल पड़ा। कई चक्कर लगाने के बाद भी अप्पू नहीं दिखा। उसे ढूँढ़ता हुआ मैं गाँव की ओर चल पड़ा, गाँव की सीमा में प्रवेश करते ही मैंने देखा, कुछ लोग किसी को घेरे भीड़ करके खड़े हुए थे। वहीं से एक आदमी गुजर रहा था तो मैंने पूछा, ‘भाई, इतनी भीड़ क्यों है वहाँ?’ ‘अरे बाबू, रात में एक जानवर गाँव में खाने की तलाश में घुस आया क‌ि तभी बिजली के तार से करंट खाकर वही मर गया।’ ‘ओह!’ मेरे मुँह से निकल पड़ा। अपनी जीप को उधर ही ले गया। जीप से उतरकर भीड़ को हटाते हुए उस जानवर के पास गया तो देखा, वह अप्पू था। उसका पूरा बदन लकड़ी जैसे सख्त हो गया था, उसकी आँखें अधखुली थीं, जैसे मुझे ही देख रही थीं। पास बैठी उसकी माँ चिंघाड़ रही थी।

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