पद्मश्री मालती जोशी भारतीय परिवारों की आत्मीय कथाकार

पद्मश्री मालती जोशी भारतीय परिवारों की आत्मीय कथाकार

अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय परिवारों के रिश्तों, संवेदनाओं, परंपराओं, मूल्यों की कथा कहने वाली मालती जोशी अपने तरह की विलक्षण कथाकार हैं। उनकी परंपरा में हिंदी साहित्य में कथाकार शिवानी के अलावा दूसरा नाम भी नहीं मिलता। पद्मश्री से अलंकृत मालती जोशी को पढ़ना विरल सुख देता रहा है। सरलता, सहजता से कथा बुनती ताई अपने कथारस में बहा ले जाती थीं और रोप जाती थीं संस्कारों और मूल्यों की वह थाती, जो कहीं बिसराई जा रही है। नारेबाजी से अलग ताकतवर स्त्री पात्रों के माध्यम से पारिवारिक मूल्यों की स्थापना उनके जीवन का ध्येय रहा।

लीक तोड़कर लिखने और अपार लोकप्रियता अर्जित करने के बाद भी मालती जोशी हिंदी साहित्य आलोचना में हाशिए पर रहीं। इसका कारण बहुत स्पष्ट है। उनकी रचनाएँ भारतीय विचार और भारतीय परिवार के मूल्यों को केंद्र में रखती हैं। वे साहित्य सर्जना में चल रही खेमेबाजी, गुटबाजी से अलग अपनी राह चलती रही। साहित्य-क्षेत्र में चल रहे वाम विचारी संगठनों और उनकी अतिवादी राजनीति से उन्होंने अपनी दूरी बनाए रखी। इसके चलते उनके विपुल लेखन और अवदान पर साहित्य के मठाधीशों की नजर नहीं जाती। अपने रचे मानकों और तंग दायरों की आलोचना द्वारा मालतीजी की उपेक्षा साधारण नहीं है। यह भारतीय मन और विचार के प्रति मालतीजी की प्रतिबद्धता के कारण ही है। अपनी लेखन शैली से उन्होंने भारतीय जनमन को प्रभावित किया है, यही उनकी उपलब्धि है। क्या हुआ जो आलोचना के मठाधीशों द्वारा वे अलक्षित की गईं। सही मायनों में रचना और उसका ठहराव ही किसी लेखक का सबसे बड़ा सम्मान है। परंपरा, भारतीय परिवार, संवेदना और मानवीय मूल्यों की कथाएँ कहती हुई मालती जोशी अपने समय के कथाकारों से बहुत आगे नजर आती हैं। उनकी अपार लोकप्रियता यह प्रमाण है कि सादगी से बड़ी बात कही जा सकती है। इसके लिए मायावी दुनिया रचने और बहुत वाचाल होने की जरूरत नहीं है। अपनी जमीन की सोंधी मिट्टी से उन्होंने कथा का जो परिवेश रचा, वह लंबे समय तक याद किया जाएगा।

अप्रतिम लोकप्रियता

हिंदी वर्तमान परिदृश्य पर बहुत कम कथाकार हैं, जिन्हें पाठकों की ऐसी स्वीकार्यता मिली हो। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के मराठी परिवार में ४ जून, १९३४ को जनमी मालती जोशी के न्यायाधीश पिता मध्य प्रदेश में कार्यरत थे, इससे उन्हें इस प्रांत के कई जिलों में रहने और लोकजीवन को करीब से देखने का अवसर मिला। १९५६ में उन्होंने इंदौर के होलकर कॉलेज से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। किशारावस्था में ही लेखन की शुरुआत कर मालतीजी जीवन के अंतिम समय तक लेखन को समर्पित रहीं। उनका प्रारंभिक लेखन तो गीत के माध्यम से हुआ, बाद में वे बाल साहित्य भी लिखती रहीं, फिर कहानी विधा को समर्पित हो गईं। उनके कथा-लेखन को राष्ट्रीय पहचान ‘धर्मयुग’ पत्रिका से मिली और भारतीय परिवारों की चर्चित लेखिका बन गईं। ‘धर्मयुग’ में उनकी पहली कहानी ‘टूटने से जुड़ने तक’ १९७१ में छपी और तब से उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। देश की चर्चित पत्रिकाओं कादंबिनी, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, सारिका, मनोरमा के माध्यम से वे पाठकों की बड़ी दुनिया में अपनी जगह बना चुकी थीं। ६० से अधिक कृतियों की रचना कर के मालतीजी ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। उनकी सतत रचनाशीलता ने उन्हें भारतीय साहित्य का अनिवार्य नाम बना दिया है।

परिवार और संवेदना के ताने-बाने

मालती जोशी मूलतः रिश्तों की कथाकार हैं। निजी जीवन में भी उनकी सरलता, सहजता और विनम्रता की यादें सबकी स्मृति में हैं। पारिवारिक, सामाजिक, घरेलू दायित्वों को निभाती हुई एक सरल स्त्री किंतु ताकतवर स्त्री उनकी निजी पहचान है। जिसने साहित्य-सृजन के लिए कोई अतिरिक्त माँग नहीं की। किंतु जो किया, वह विलक्षण है। परिवार और बच्चों के दायित्वों को देखते हुए अपने लेखन के लिए समय निकालना उनकी जिजीविषा थी। आखिरी साँस तक वे परिवार की डोर को थामे लिखती रहीं। लिखना उनका पहला प्यार था। इंदौर, भोपाल, दिल्ली, मुंबई उनके ठिकाने जरूर रहे, किंतु वे रिश्तों, संवेदनाओं और भारतीय परिवारों की संस्कारशाला की कथाएँ कहती रहीं। ९० साल की उनकी जिंदगी में बहुत गहरे सामाजिक सरोकार हैं। उनके पति श्री सोमनाथ जोशी, अभियंता और समाजसेवी के रूप में भोपाल के समाज-जीवन में ख्यात रहे। सन् १९८१ से वे ज्यादातर समय भोपाल में रहकर निरंतर पारिवारिक दायित्वों और लेखन, सृजन को समर्पित रहीं। २००१ में पति के निधन के बाद उन्होंने खुद को और परिवार को सँभाला। उनके सुपुत्र डॉ. सच्चिदानंद जोशी संप्रति अपनी माँ की विरासत का विस्तार कर रहे हैं। वे न सिर्फ एक अच्छे कथाकार और कवि हैं, बल्कि उन्होंने संस्कृति और रंगमंच के कलाक्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनकी पुत्रवधू श्रीमती मालविका जोशी भी कथाकार और रंगमंच की सिद्ध कलाकार हैं।

मध्यवर्गीय भारतीय परिवार उनकी कथाओं में प्रायः दिखते हैं। संस्कारों से रसपगी भारतीय स्त्री के सौंदर्य, साहस और संवेदना की कथाएँ कहती हुए मालती जोशी बड़ी लकीर खींचती हैं। वर्गसंघर्ष की एक जैसी और एकरस कथाएँ कहते कथाकारों के बीच मालती जोशी भारतीय परिवारों और उनके सुंदर मन की आत्मीय कथाएँ लेकर आती हैं। अपनी सहज, सरल भाषा से वे पाठकों के मनों और दिलों में जगह बनाती हैं। उनको पढ़ने का सुख अलग है। उनकी कहानियाँ बेहद साधारण परिवेश से निकली असाधारण नायकों की कहानियाँ हैं। जो जूझते हैं, जिंदगी जीते हैं, किंतु कड़वाहटें नहीं घोलते। बहुत सरल, आत्मीय और हम-आपके जैसे पात्र हमारे आसपास से ही लिये गए हैं। कथा में जीवन की सरलता-सहजता की वे वाहक हैं। मालतीजी के पात्र बगावत नहीं करते झंडे नहीं उठाते, नारे नहीं लगाते। वे जिंदगी से जूझते हैं, संवेदना के धागों से जुड़कर आत्मीय, सरल परिवेश रचते हैं। मालतीजी की कथाओं यही ताकतवर स्त्रियाँ हैं, जो परिवार और समाज के लिए आदर्श हो सकती हैं। जो सिर्फ जी नहीं रही हैं, बल्कि भारतीय परिवारों की धुरी हैं।

स्त्री के मन में झाँकती कहानियाँ

मालती जोशी ने अपनी कहानियों में स्त्री के मन की थाह ली है। वे मध्यवर्गीय परिवारों की कथा कहते हुए स्त्री के मन, उसके आत्मसंर्घष, उसकी जिजीविषा और उसकी शक्ति सबसे परिचित कराती हैं। संवेदना के ताने-बाने में रची उनकी रचनाएँ पाठकों के दिलों में उतरती चली जाती हैं। पाठक पात्रों से जुड़ जाता है। उनके रचे कथारस में बह जाता है। अनेक भारतीय भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद इसलिए हुए, क्योंकि वे दरअसल भारतीय परिवारों की कथाएँ कह रही थीं। उनके परिवार और उनकी महिलाएँ भारत के मन और संस्कारों की भी बानगी पेश करती हैं। भारतीय परिवार व्यवस्था वैसे भी दुनिया के लिए चिंतन और अनुकरण का विषय है। जिसमें स्त्री की भूमिका को वे बार-बार परिभाषित करती हैं। उसके आत्मीय चित्रण ने मालती जोशी को लोकप्रियता प्रदान की है। उनकी कहानियाँ आम आदमी, आम परिवारों की असाधारण कहानियाँ हैं। औरत का एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विषय दोनों है। इस अर्थ में मालतीजी विलक्षण मनोवैज्ञानिक कथाकार भी हैं। उनके पात्र समाज के सामने समाधानों के साथ आते हैं। सिर्फ संकट नहीं फैलाते। उनकी भाषा में जहाँ प्रसाद और माधुर्य के गुण हैं, वहीं वे आवेग और आवेश की धारा से जुड़ जाती हैं। संकेतों में वे जो भाव व्यक्त कर देती हैं, वह सामान्य लेखकों के लिए विस्तार की माँग करता है।

मालवा की मीरा और कथाकथन की शैली

मालती जोशी के प्रमुख कहानी-संग्रहों में पाषाण युग, मध्यांतर, समर्पण का सुख, मन न हुए दस बीस, मालती जोशी की कहानियाँ, एक घर हो सपनों का, विश्वास गाथा, आखिरी शर्त, मोरी रंग दी चुनरिया, अंतिम संक्षेप, एक सार्थक दिन, शापित शैशव, महकते रिश्ते, पिया पीर न जानी, बाबुल का घर, औरत एक रात है, मिलियन डॉलर नोट आदि शामिल हैं। मालती जोशी ने केवल कविताएँ या कहानियाँ ही नहीं बल्कि उपन्यास और आत्म-संस्मरण भी लिखे हैं। उपन्यासों में पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा, राग-विराग आदि प्रमुख हैं। वहीं उन्होंने एक गीत-संग्रह भी लिखा, जिसका नाम है, ‘मेरा छोटा सा अपनापन’। उन्होंने  ‘इस प्यार को क्या नाम दूँ?’ नाम से एक संस्मरणात्मक आत्मकथ्य भी लिखा। उनकी एक और खूबी रही कि उन्होंने कभी भी अपनी कहानियों का पाठ कागज देखकर नहीं किया, क्योंकि उन्हें अपनी कहानियाँ, कविताएँ जबानी याद रहती थीं। मराठी में ‘कथाकथन’ की परंपरा को वे हिंदी में लेकर आईं। उनके कथापाठ में उपस्थित रहकर लोग कथा को सुनने का आनंद लेते थे। इन पंक्तियों के लेखक को भी उनके कथाकथन की शैली के जीवंत दर्शन हुए थे। बिना एक कागज हाथ में लिये वे जिस तरह से कथाएँ सुनाती थीं वह विलक्षण था। दूरदर्शन उनकी सात पर कहानियों पर श्रीमती जया बच्चन ने ‘सात फेरे’ बनाया। इसके अलावा गुलजार निर्मित ‘किरदार’ में भी उनकी दो कहानियाँ थीं। आकाशवाणी पर उनकी अनेक कहानियों के प्रसारण हुए। जिसने कथाकथन की उनकी शैली को व्यापक लोकप्रियता दिलाई।

इसके साथ ही मालती जोशी ने कई बालकथा-संग्रह भी लिखे हैं, इनमें दादी की घड़ी, जीने की राह, परीक्षा और पुरस्कार, स्नेह के स्वर, सच्चा सिंगार आदि शामिल हैं। उनके निधन पर मध्य प्रदेश के अखबारों ने उन्हें ‘मालवा की मीरा’ कहकर प्रकाशित संबोधित किया। इसका कारण यह है कि लेखन के शुरुआती दौर में मालती जोशी कविताएँ लिखा करती थीं। उनकी कविताओं से प्रभावित होकर उन्हें मालवा की मीरा नाम से भी संबोधित किया जाता था। उन्हें इंदौर से खास लगाव था। वे अकसर कहा करती थीं कि इंदौर जाकर मुझे सुकून मिलता है, क्योंकि वहाँ मेरा बचपन बीता, लेखन की शुरुआत वहीं से हुई और रिश्तेदारों के साथ ही उनके सहपाठी भी वहीं हैं। यह शहर उनकी रग-रग में बसा था। खुद अपनी आत्मकथा में मालती जोशी ने उन दिनों को याद करते हुए लिखा है, ‘मुझमें तब कविता के अंकुर फूटने लगे थे, कॉलेज के जमाने में इतने गीत लिखे कि लोगों ने मुझे ‘मालव की मीरा’ की उपाधि दे डाली।’ कथाकथन के तहत उनकी अनेक कहानियाँ यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं। इसकी सीडी भी उपलब्ध है।

देह के विमर्श में परिवार की कहानियाँ

मालती जोशी की कहानियाँ इस अर्थ में बहुत अलग हैं कि वे परिवार और सामाजिक मूल्यों की कहानियाँ हैं। उनके पात्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते और मूल्यों की स्थापना में सहयोगी हैं। वे परंपरा के भीतर रहकर भी सुधार का आग्रह करते हैं। मालतीजी ने एक इंटरव्यू में स्वयं कहा था, “हिंदी साहित्य में स्त्री देह का विमर्श और बोल्डनेस बढ़ गया है, किंतु मैं पारिवारिक कहानियाँ कहती हूँ।” उन्होंने कहा था कि “मेरी कहानियों में आपको कहीं बेडसीन नहीं मिलेगा। मैं जितना परहेज अपने बहू-बेटे के कमरे में जाने से करती हूँ, उतना ही अपने पात्रों के बेडरूम में जाने से करती हूँ।” वे साफ कहती थीं कि नारीवाद के नाम पर हमेशा नारेबाजी के बजाय विनम्रता से भी स्त्रियों का पक्ष रखा जा सकता है। इन अर्थों में मालतीजी कहानियों के पात्र अलग तरह से प्रस्तुत होते हैं। वे पितृसत्ता के साथ टकराते हैं, नए विचारों से भरे-पूरे हैं, किंतु नारे नहीं लगाते। वे बदलाव के नायक और साक्षी बनते हैं। अपने निजी जीवन में भी इसे मानती हैं। इसी इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि पारंपरिक मराठी परिवारों शादी के बाद बहू का नाम बदलने की परंपरा है। जब उनसे पति ने पूछा कि आपको क्या नाम पसंद है। तो उनका कहना था मेरे नाम में क्या बुराई है। वे बताती हैं कि मैंने न अपना नाम बदला, न बहुओं का नाम बदलने दिया। वे मानती थीं कि नाम बदलने से स्त्री की पूरी पहचान बदल जाती है। उन्होंने एक अन्य इंटरव्यू में कहा है कि वे स्त्रियों की स्वतंत्रता की पक्षधर हैं, किंतु स्वच्छंदता की नहीं।

उनकी रचना प्रक्रिया पर दीपा लाभ ने लिखा है—“मालती जोशी की भाषा-शैली बेहद सरल, सुगम और सहज है। उनके सभी पात्र आम जीवन से प्रेरित हमारे-आपके बीच के किरदार हैं। अधिकतर कहानियाँ स्त्री-प्रधान हैं, किंतु न तो वे दबी-कुचली अबला नारी होती हैं और न ही शहरी, ओवरस्मार्ट कामकाजी लड़कियाँ, उनके सभी पात्र यथार्थ के धरातल से निकले वास्तविक से प्रतीत होते हैं। उनकी कथाओं से सकारात्मकता का संचार होता है, जो स्वतः ही दिल की गहराइयों में उतरता चला जाता है। पुरुष पात्रों को भी निरंकुश या अहंकारी नहीं बनाकर उन्होंने कई बार उनके सकारात्मक पक्षों को उजागर किया है। मध्यम-वर्गीय परिवारों की आम समस्याएँ, दैनिक जद्दोजहद और मन के भावों को बहुत संवेदनशील अंदाज में संवाद रूप में प्रस्तुत करना।”

सर्जना का सम्मान

  साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण, मध्य प्रदेश सरकार का साहित्य शिखर सम्मान, ओजस्विनी सम्मान, दुष्यंत कुमार सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दिनकर संस्कृति सम्मान, माचवे सम्मान, महाराष्ट्र शासन द्वारा सम्मान, वनमाली सम्मान, मॉरीशस में विश्व हिंदी सम्मेलन में पुरस्कृत होने के साथ साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा २०१८ में पद्मश्री सम्मान से भी अलंकृत किया जा चुका है।

उनकी कथा-संवेदना बहुत व्यापक है, इसीलिए वे पाठकों के बीच समादृत हैं। जयप्रकाश पांडेय लिखते हैं—“मालती जोशी अपनी कहानियों से संवेदना का एक अलग संसार बुनती हैं, जिसमें हमारे आसपास के परिवार, उनका राग और परिवेश जीवंत हो उठते हैं। उनकी कहानियाँ संवाद शैली में हैं, जिनमें जीवन की मार्मिक संवेदना, दैनिक क्रियाकलाप और वातावरण इस सुघड़ता से चित्रित हुए हैं कि ये कहानियाँ मन के छोरों से होते हुए चलचित्र सी गुजरती हैं, इतनी कि पाठक कथानक में बह उनसे एकाकार हो जाता है।” हिंदी साहित्य-जगत् पर अमिट छाप छोड़ने वाली मालती जोशी की मराठी में भी ग्यारह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कहानियों का मराठी, उर्दू, बँगला, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, मलयालम, कन्नड़ भाषा के साथ अंग्रेजी, रूसी तथा जापानी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।

अब जबकि ९० साल की सक्रिय जिंदगी जीकर १५ मई, १९२४ को वे हमें छोड़कर जा चुकी हैं, उनकी स्मृतियाँ ही हमारा संबल हैं। हमारे जैसे न जाने कितने लोग इस बात का जिक्र करते रहेंगे कि उन्होंने मालती ताई को देखा था। एक लेखिका, एक माँ, एक सामाजिक कार्यकर्ता और प्रेरक व्यक्तित्व की न जाने कितनी छवियों में वे हमारे साथ हैं और रहेंगी। उनकी रचनाएँ लंबे समय तक भारतीय परिवारों को उनकी शक्ति, जिजीविषा और आत्मीय परिवेश की याद दिलाती रहेंगी। भावभीनी श्रद्धांजलि!

४७, शिवा रायल पार्क, सलैया,

निकट आकृति ग्रींस, भोपाल-४६२०४७ (म.प्र.)

दूरभाष : ९८९३५९८८८८

 

 

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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