प्रूफ रीडर

प्रूफ रीडर

विश्व कहानी परंपरा का गहन अध्ययन, विश्लेषण एवं अनेक पुस्तकें संपादित। 'यशपाल' सम्मान, हिमोत्कर्षक श्रेष्ठ राज्य पुरस्कार, हिम केसरी, जालंधर सम्मान, पंजाब कला साहित्य अकादमी, लुधियाना सम्मान, 'शिखर सम्मान २००६' आदि से अलंकृत।

 

ल के अंतराल के बाद शर्माजी ने संदूक से कुछ पांडुलिपियाँ निकालीं। उनमें श्याम लालजी की भी पांडुलिपि थी, जिसका शीर्षक था—‘एक अलबेला दिल्ली में’। बड़े स्नेह से पांडुलिपि को झाड़-पोंछकर उन्होंने कहा, “श्याम लालजी, पांडुलिपि बेहद महत्त्वपूर्ण है। मैंने इसे सात साल तक सँभालकर रखा, अब आप की अमानत आप के हवाले।”

“जी, यह आप क्या कह रहे हैं? आपने तो इसे प्रकाशनार्थ रखा था।”

“हाँ रखा था। अनेक लोगों की पांडुलिपियाँ हमारे पास आती रहती हैं तो हम विचारार्थ रख लेते हैं। आप की भी पड़ी रही। हम लेखकों को हतोत्साहित नहीं करना चाहते। रचना जब तक विचाराधीन रहती है, लेखक कुछ-न-कुछ लिखते रहते हैं।”

“यह अन्याय है।” श्याम लाल ने कहा। श्याम लाल ने आँखें मिचमिचाकर देखा।

आसमान धुँधला दिखाई दिया। दिल्ली का आसमान वैसे भी प्रायः धुँधियाया सा रहता है। वाह री राजधानी दिल्ली! गाँव का वातावरण कितना निर्मल एवं स्वच्छ था। राजाराम ने कितने प्रलाोभन दिए थे कि बड़े शहर में ज्यादा संभावनाएँ होती हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई अच्छी हो जाएगी। अच्छी हो भी गई, लेकिन मैं तो वहीं का वहीं रहा। छोटा कहता है—प्रूफ रीडर भी कोई आदमी होते हैं। सारा दिन आँखें फाड़-फाड़कर पढ़ते रहो और मानदेय क्या मिलता है। मान-सम्मान की बात तो दूर की रही। छोटे को नहीं पता कि इसी मानदेय की बदौलत वह सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ पाया और अब उसे मेरा काम छोटा लगता है।

अभी बहुत प्रूफ पढ़ने को बाकी थे। शर्माजी का फोन बार-बार आ रहा था। शायद कोई ऑर्डर जल्दी भुगताना था। फरवरी-मार्च का महीना आता है। दफ्तरों में भाग-दौड़ मच जाती है। पैसा खर्च करो, नहीं तो सरेंडर करना पड़ेगा और आमदनी की लार टपकाए प्रकाशक भी फटाफट पुस्तकें छापने में तल्लीन हो जाते हैं। शर्माजी अकसर कहते हैं, “श्याम लालजी, पैसा कमाने के यही तो दो-तीन महीने होेते हैं, फिर तो सारा साल मक्खियाँ ही भिनभिनाती हैं।” व्यवस्था ही कुछ ऐसी बन गई है कि कुछ भी समझ में नहीं आता है। यदि पहले ही पुस्तकें छापकर रख लें तो कई बार कोई ऑर्डर ही नहीं मिलता।”

“सुना है, ऑर्डर के लिए बाबू पटाने पड़ते हैं।” श्याम लाल ने जिज्ञासा व्यक्त की।

“आप हर साल देखते तो हो, कैसे कुत्तों की तरह भागना पड़ता है और हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे के सामने रिरिआना पड़ता है।” शर्माजी ने उसाँस भरते हुए कहा।

“कुछ ले-देकर नहीं निपट जाता काम।” भोलेपन से श्याम लाल बोले।

“सबकुछ जितना देखने में आसान लगता है, उतना आसान होता नहीं। केवल बड़े-बड़े लोग, जिनकी जड़ें सत्ता तक पहुँची हुई होती हैं, वे ही ऐसा कमाल दिखा पाते हैं। आप अपना काम करते रहो या आप भी कमीशन एजेंट की भाँति जीभ लपलपाना चाहते हो।” ‘शर्माजी ने अपनी भावनाओं को नियंित्रत करते हुए कहा। मन-ही-मन सोचते रहे—मैं ही जानता हूँ कि किस प्रकार इस धंधे को टिकाऊ बनाया है। पुस्तक प्रकाशित करना ही बड़ा काम नहीं होता। उसे सही स्थान तक पहुँचना भी सफलता के लिए जरूरी होता है, अगर पुस्तकें छाप-छापकर रखते चलें तो पैसा डंप करने वाली बात है और मेरे माँ-बाप कोई धन कुबेर तो थे नहीं, उन्होंने तो हमें पेट काट-काटकर पढ़ाया-लिखाया था। कहा था, “पिताजी की गाँव में इतनी जमीन थी, घरबार था। फिर इतनी दूर दिल्ली के लिए कूच क्यों किया।”

रामजी लाल शर्मा ने कुछ सोचते हुए कहा था, “हो सकता है मेरा निर्णय गलत लगता होगा तुम्हें। हमारे गाँव का पूर्णचंद छींबा साठ के दशक में दिल्ली आ गया था। वह तो ज्यादा पढ़ा-लिखा था नहीं, परंतु सिलाई के काम में दक्ष था। राजधानी पहुँचकर उसके बच्चे खूब पढ़ गए और सरकारी नौकरियों में लग गए। गाँव से उठकर शहर आया परिवार रातोरात तो नहीं, परंतु कुछ ही वर्षों में संपन्न हो गया, जब कि गाँव में उन्हें रोटी के भी लाले पड़े रहते थे। मुझे लगा, मुझे भी अपने परिवार सहित राजधानी पहुँचना चाहिए। मैं सोचता था कि शिक्षा की बेहतर सुविधाएँ होंगी और बच्चे आसानी से पढ़ जाएँगे। बड़े शहर में बड़े अवसर। उन दिनों तो नौकरियों की कोई कमी नहीं थी।”

“लेकिन आप ने हमें उतना पढ़ाया नहीं, जिससे बड़ी नौकरियाँ मिल जातीं।” नवीन शर्मा ने उपालंभ देते हुए कहा।

“मैंने किसी को रोका तो नहीं। मेरे बच्चों में शायद लगन ही नहीं थी। जो पढ़ने के इच्छुक होते हैं, वे कहीं भी कैसी भी परिस्थितियों में पढ़ जाते हैं, लेकिन यह सुख मुझे नहीं मिलना था और नहीं मिला। अपना-अपना भाग्य है।” रामजी लाल ने कहा था।

“पिताजी, आपकी बातों में विरोधाभास है। यदि कहीं भी कोई भी पढ़ जाता है, तो हम धर्मसाल महंता में भी तो पढ़ जातेे।” नवीन ने कटुतापूर्ण स्वर में कहा। वास्तव में उसे स्वयं यह मलाल था िक वह पढ़ाई में चमक नहीं सका। लेकिन मानव स्वभाव है कि हम अपने को गलत स्वीकार करना ही नहीं चाहते।

“अरे, राजधानी में सुविधाएँ अधिक हैं। बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं, रोजगार के अवसर भी अधिक हैं। लेकिन उन अवसरों का लाभ उठाना तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। मैं समझता था कि मेरे बच्चे भी लाभान्वित हो जाएँगे, कुछ बड़ा कर लेंगे।” लेकिन रामजी लाल को नवीन का प्रतिवाद चुभ गया था। सारी उम्र लगा दी व्यवसाय को स्थापित करने में, पूरा जोर लगा लिया कि बच्चे बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ अर्जित कर लें, लेकिन वे चाँदनी चौक में ही घूमते रहे। उनके मन-मस्तिष्क में यह कहावत कौंध गई—आप घोड़े को तालाब के किनारे तो ले जा सकते है, परंतु उसे जबरदस्ती पानी नहीं पिला सकते। सोचते रहे कि उन्होंने तो अपनी ओर से भरसक प्रयत्न किया, परंतु होता वही है, जो होना होता है।

आसमान में धुएँ का गुब्बार और भी गहरा हो गया था।

“श्याम लालजी, आजकल आप अपने काम में रुचि नहीं ले रहे। भागवत पुराण में भयंकर अशुद्धियाँ रह गईं। लगता है, आपने कुछ पृष्ठ बिना पढ़े ही पलट दिए। लापरवाही की भी कोई हद होती है। लेखक मेरा सिर फोड़ने पर आमादा है। छोटी रकम की बात होती तो मैं रकम उसके माथे पर दे मारता, परंतु क्या करूँ? पहले ही काम घाटे में चल रहा है। बड़े-बड़े तोपची सारे ही ऑर्डर दबोच लेते हैं।”

“शर्माजी ऐसा होना तो नहीं चाहिए, परंतु मैं एक बार फिर चैक कर लेता हूँ।” श्याम लाल ने कुछ सोचते हुए गंभीर मुद्रा में कहा।

“फिर देखो या न देखो। अब क्या फर्क पड़ता है? जो गुड़-गोबर होना था, वह तो हो गया। आप क्या जानें कि साख को भी कितना बड़ा बट्टा लगता है? लगता है, आपकी उम्र हो गई।” शर्माजी कहना नहीं चाहते थे, परंतु पता नहीं क्यों आज अपने आपको रोक न सके।

गुस्सा शांत होने पर शर्माजी उठकर श्याम लालजी के कक्ष में गए और बोले, “आपने मेरे कहे का बुरा नहीं माना। दुष्ट लेखक ही कुछ इस प्रकार भौंकता रहा, जैसे आजकल राजनेता कुछ का कुछ बनाकर बोल जाते हैं। गलती किसी से भी हो सकती है और आप तो वर्षों से इस काम में लगे हैं, लैटर प्रेस के जमाने से।”

श्याम लाल कुछ नहीं बोले। हाँ, उनकी आँखों से आँसू जरूर झरने लगे थे। दिन-रात प्रूफ पढ़ने से उनका साहित्यकार भी जाग उठा था। और वह भी कभी-कभार शर्माजी से कहते—“क्या मेरी रचना भी छाप दोगे?”

और शर्माजी हँसकर कह देते, “क्यों नहीं। आपका तो पूरा अधिकार बनता है। आपने तो मुद्रण एवं प्रकाशन के सारे दौर देखे हैं। आपका रमिंगंटन टाईपराइटर और उसके किस्से मुझे याद हैं और अब तो सब कुछ बदल गया है। कंप्यूटर आने से कितना आसान हो गया है।”

श्याम लाल शर्माजी की इसी पॉजिटिविटी के मुरीद थे। वह चुपचाप अपनी डायरी लिखते रहते थे। जब से दिल्ली आए थे, वे सारी घटनाओं को अपनी भाषा में कॉपी में उतारते रहे थे। लगभग एक सौ बीस पेज हो गए होंगे। पांडुलिपि उनके थैले में उछल-कूद मचा रही थी।

सात साल के बाद उनकी पांडुलिपि संदूक से बाहर आई थी। सोचता रहा, प्रूफ रीडर लेखक क्यों नहीं बन सकता? शर्माजी ने इसके साथ भी वही सलूक किया, जो वह नामी-गिरामी लेखकों के साथ करते रहे थे। आह! विचाराधीन रचना। कोख में पल रहा जीव।

पुष्पांजलि, राजपुर

पालमपुर-१७६०६७ (हिमाचल)

दूरभाष : ९४१८०८००८८

जुलाई 2024

   IS ANK MEN

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